परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं। दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाहिं॥1॥ परनारि का राचणौं, जिसी लहसण की खानि। खूणैं बैसिर खाइए, परगट होइ दिवानि॥2॥ भगति बिगाड़ी कामियाँ, इन्द्री केरै स्वादि। हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि॥3॥ कामी अमी न भावई, विष ही कौं लै सोधि। कुबुद्धि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोधि॥4॥ कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद। नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद॥5॥ ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करता। ताथैं संसारी भला, मन में रहै डरता॥6॥