वररुचि

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 08:38, 24 October 2012 by रविन्द्र प्रसाद (talk | contribs) (→‎रचना)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

वररुचि विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। पाणिनि के बाद, कालिदास पूर्व महाकाव्य-परम्परा में लिखने वाले वररुचि का नाम लिया जाता है। संस्कृत वाङ्मय के इतिहास में वररुचि के नाम से कई ग्रन्थों के नाम मिलते हैं और कुछ सूक्ति-संग्रहों, जैसे- 'सुभाषितावली', 'शार्ङगधरपद्धति' और 'सदुक्तिकर्णामृत' आदि में भी अनेक पद्यों के रचयिता के रूप में उद्धृत हैं। वररुचि के विषय में जो प्रश्नचिह्न लगा है, उसका अब तक कोई समाधान नहीं निकला है। पाणिनीय व्याकरण पर वार्तिक लिखने वाले कत्यायन को तथा प्राकृत-प्रकाश नाम के प्राकृत-व्याकरण के रचयिता को भी वररुचि नाम से जाना जाता है। यहाँ तक, पालि भाषा का 'कच्चायन' व्याकरण भी कात्यायन द्वारा निर्मित होने से वररुचि से जुड़ जाता है। तारानाथ ने अपने 'भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास' में 'ब्राह्मण-वररुचि' या 'आचार्य-वररुचि' को उद्धृत किया है।

रचना

अवन्तिसुन्दरीकथासार, प्राकृतमंजरी तथा बृहत्कथा (कथासरित्सागर, वृहत्कथामंजरी आदि) में वररुचि का नाम उद्धृत है। अन्य कई ग्रन्थ भी वररुचि के द्वारा निर्मित मिलते हैं, यद्यपि वे विभिन्न कालों में लिखे गये हैं तथा वे किसी एक व्यक्ति या समान व्यक्ति द्वारा निर्मित नहीं हो सकते। आचार्य बलदेव उपाध्याय तो इतना कहते हैं कि कवि वररुचि और वार्तिककार कात्यायन वररुचि तथा 'प्राकृत प्रकाश' के रचयिता वररुचि-दोनों भिन्न थे या अभिन्न इसे निश्चय पूर्वक सिद्धांत रूप से बतलाना कठिन काम है, फिर वे अनुमान के आधार पर दोनों को अभिन्न रूप में स्वीकार करते हैं।

पतञ्जलि ने महाभाष्य में वररुचि द्वारा प्रणीत काव्य का निर्देश 'वाररुचं काव्यम्' कह कर किया है, किन्तु यह रचना उपलब्ध नहीं है। सूक्तिमुक्तावली में यह पद्य मिलता है-

यथार्थता कथं नाम्नि मा मूद् वररुचिरिह।
व्यधत्त कण्ठाभरणं य: सदारोहणप्रिय:।।

आचार्य बलदेव उपाध्याय के उल्लेखानुसार 'कृष्णचरित' नामक काव्य के एक पद्य के आधार पर वररुचि के काव्य का यथार्थ नाम 'स्वर्गारोहण' सिद्ध होता है और ऊपर उद्धृत 'सूक्तिमुक्तावली' के पद्य में 'सदारोहणप्रिय:' के स्थान पर स्वर्गारोहण' पाठ ही उचित प्रतीत होता है।

काव्य

चाहे वाररुच काव्य 'स्वर्गारोहण' ही क्यों न हो, वह कोई महाकाव्य के रूप में निर्मित था, यह बात नहीं सिद्ध होती, फिर भी कालिदास पूर्व महाकाव्य परम्परा में उसे भी आचार्य उपाध्याय जी ने स्थान दिया है। वररुचि के नाम से संस्कृत साहित्य में नाना विधाओं में संस्कृत के ग्रन्थ मिलते हैं, परन्तु यहाँ काव्य का प्रसंग है, अत: उनके काव्य का ही वर्णन किया जा रहा है। सुभाषित ग्रन्थों में वररुचि के नाम से अनेक अभिराम पद्य उद्धृत हैं। उनमें से केवल दो पद्य दिए जाते हैं-

व्योम्नि नीलाम्बुदच्छन्ने गुरुवृष्टिभयादिव।
जग्राह ग्रीष्मसन्तापो हृदयानि वियोगिनाम्।।

जब आकाश में काली-काली घटाएँ घिर आयीं, तो ग्रीष्म ऋतु का ताप बहुत डरा कि कहीं अत्यन्त वृष्टि के मारे मेरा अस्तित्व ही नष्ट न हो जाये, इसलिए अपने लिए योग्य स्थान ढूँढकर वह वियोगियों के हृदय में बलात् घुस गया। यही कारण है कि उनका हृदय वर्षाकाल में सन्तप्त हो उठता है।

आलोहितमाकलयन् कन्दलमुत्कम्पितं मधुकरेण।
संस्मरति पथिषु पथिको दयिताङ्गुलितर्जना ललितम्।।

मार्ग में भौरों से हिलाये गये लाल-लाल अङ्कुरों को देखकर पथिकों को अपनी प्रियतमा की अंगुली से किये गये सुन्दर तर्जन याद पड़ रहे हैं।  

पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः