ब्राह्मणों की भाषा, रचना-शैली: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replace - "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==" to "{{संदर्भ ग्रंथ}} ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==")
 
(7 intermediate revisions by 4 users not shown)
Line 3: Line 3:
[[ब्राह्मण ग्रन्थ|ब्राह्मण ग्रन्थों]] की भाषा सामान्यत: वैदिकी और लौकिक संस्कृत की मध्यवर्तिनी है। मन्त्र-संहिताओं की अपेक्षा इस भाषा में अधिक नियमबद्धता, सुसंहति, सरलता और प्रवाहमयता है। इसमें कठिन सन्धियाँ और दुरूह समास प्राय: नहीं हैं। रूपरचना में यत्र-तत्र अपाणिनीयता का अनुभव स्वाभाविक है। उपसर्गों का उन्मुक्त प्रयोग पूर्ववत् है। निपातों का भी बाहुल्य है। वाक्य आवश्यकता के अनुरूप छोटे और लम्बे दोनों प्रकार के हैं, लेकिन संस्कृत गद्य-काव्यों की गौडी और पांचाली शैली की सुदीर्घ वाक्य-रचना प्राय: कहीं भी नहीं है। संवादमयता से युक्त होने के कारण इस भाषा में विशेष जीवन्तता है। अस्पष्टता से बचने का प्रयास सर्वत्र परिलक्षित होता है।  
[[ब्राह्मण ग्रन्थ|ब्राह्मण ग्रन्थों]] की भाषा सामान्यत: वैदिकी और लौकिक संस्कृत की मध्यवर्तिनी है। मन्त्र-संहिताओं की अपेक्षा इस भाषा में अधिक नियमबद्धता, सुसंहति, सरलता और प्रवाहमयता है। इसमें कठिन सन्धियाँ और दुरूह समास प्राय: नहीं हैं। रूपरचना में यत्र-तत्र अपाणिनीयता का अनुभव स्वाभाविक है। उपसर्गों का उन्मुक्त प्रयोग पूर्ववत् है। निपातों का भी बाहुल्य है। वाक्य आवश्यकता के अनुरूप छोटे और लम्बे दोनों प्रकार के हैं, लेकिन संस्कृत गद्य-काव्यों की गौडी और पांचाली शैली की सुदीर्घ वाक्य-रचना प्राय: कहीं भी नहीं है। संवादमयता से युक्त होने के कारण इस भाषा में विशेष जीवन्तता है। अस्पष्टता से बचने का प्रयास सर्वत्र परिलक्षित होता है।  


ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना पूर्णरूप से गद्य में हुई हैं। किन्तु बीच-बीच में उस युग में बहु-प्रचलित पद्यबद्ध गाथाएँ भी समाविष्ट हो गई हैं, जैसे हरिश्चन्द्रोपाख्यान<ref>ऐतरेय ब्राह्मण</ref> में अभिव्यक्ति की सबलता के लिए उपमाओं और रूपकों का प्रचुर प्रयोग है। कहीं-कहीं लाक्षणिकता के भी दर्शन होते हैं। [[शतपथ ब्राह्मण]] और [[तैत्तिरीय ब्राह्मण|तैत्तिरीय ब्राह्मणों]] की भाषा स्वराङ्कित है, लेकिन [[ताण्ड्य ब्राह्मण|ताण्डय]], [[शांखायन ब्राह्मण]] और [[ऐतरेय ब्राह्मण|ऐतरेय ब्राह्मणों की भाषा के मुद्रितपाठ में स्वराङ्कन का अभाव होने पर भी, पारम्परिक वैदिक इनका उच्चारण सस्वर रूप में करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि कदाचित् इनकी भाषा भी सस्वर ही रही होगी। सुबन्त और तिडन्त रूपों के प्रयोग के दृष्टि से [[जैमिनीय ब्राह्मण]] की भाषा अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन मानी जाती है। इसके विपरीत ऐतरेय और ताण्ड्य ब्राह्मणों की भाषा अधिक व्यवस्थित, नियमनिष्ठ और प्रवाहपूर्ण है।  
ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना पूर्णरूप से गद्य में हुई हैं। किन्तु बीच-बीच में उस युग में बहु-प्रचलित पद्यबद्ध गाथाएँ भी समाविष्ट हो गई हैं, जैसे हरिश्चन्द्रोपाख्यान<ref>ऐतरेय ब्राह्मण</ref> में अभिव्यक्ति की सबलता के लिए उपमाओं और रूपकों का प्रचुर प्रयोग है। कहीं-कहीं लाक्षणिकता के भी दर्शन होते हैं। [[शतपथ ब्राह्मण]] और [[तैत्तिरीय ब्राह्मण|तैत्तिरीय ब्राह्मणों]] की भाषा स्वराङ्कित है, लेकिन [[ताण्ड्य ब्राह्मण|ताण्डय]], [[शांखायन ब्राह्मण]] और [[ऐतरेय ब्राह्मण|ऐतरेय ब्राह्मणों]] की भाषा के मुद्रितपाठ में स्वराङ्कन का अभाव होने पर भी, पारम्परिक वैदिक इनका उच्चारण सस्वर रूप में करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि कदाचित् इनकी भाषा भी सस्वर ही रही होगी। सुबन्त और तिडन्त रूपों के प्रयोग के दृष्टि से [[जैमिनीय ब्राह्मण]] की भाषा अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन मानी जाती है। इसके विपरीत ऐतरेय और ताण्ड्य ब्राह्मणों की भाषा अधिक व्यवस्थित, नियमनिष्ठ और प्रवाहपूर्ण है।  
==देश-काल==
==देश-काल==
ब्राह्मणग्रन्थों में मध्यदेश का उल्लेख विशेष आदर से है- 'ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि'।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण 8.4</ref> देश के इस मध्यभाग में कुरु-पाञ्चाल, शिवि, सौवीर प्रभृति जनपद सम्मिलित थें उस समय भारत के पूर्व में विदेह इत्यादि जातियों का राज्य था। दक्षिण में भोजराज्य तथा पश्चिम में नीच्य और अवाच्य राज्य थे। [[काशी]], [[मत्स्य]], [[कुरुक्षेत्र]] का उल्लेख भी ब्राह्मणों में है। शतपथ में [[गान्धार]], [[केकय]], [[शाल्य]], [[कोसल]], [[सृंजय]] आदि जनपदों का विशेष उल्लेख है। ताण्ड्य-ब्राह्म में [[कुरु]]-[[पांचाल]] जनपदों से नैमिषारण्य और [[खांडव वन|खाण्डव वनों]] के मध्यवर्ती भूभाग की विशेष चर्चा है। इसी ब्राह्मण में [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] और उसकी सहायक नदियों के उद्गम और लोप का विवरण है। कहा गया है कि 'विनशन' नामक स्थान पर सरस्वती लुप्त हो गई थी और 'प्लक्षप्रासवण' में पुन: उसका उद्गम हुआ था। [[गंगा नदी|गंगा]] और [[यमुना नदी|यमुना]] नदियों का भी उल्लेख है। यमुना 'कारपचव' प्रदेश में प्रवाहित होती थी। ब्राह्मण-ग्रन्थों के क्रिया-कलाप का प्रमुख क्षेत्र यही सारस्वत-मण्डल और गंगा-यमुना की अन्तर्वेदी रही है। जैमिनीयोपनिषद-ब्राह्मण में कुरु-पांचाल जनपदों में रहने वाले विद्वानों के विशेष गौरव की चर्चा है। [[गोपथ ब्राह्मण]] में [[वसिष्ठ]], [[विश्वामित्र]] जमदग्नि, गौतम प्रभृति ऋषियों के आश्रमों की स्थिति, [[व्यास नदी|विपाशा नदी]] के तट तथा वसिष्ठ शिला प्रभृति स्थानों पर बतलाई गई है। वैदिक-साहित्य के प्रणयन का काल-निर्णय अद्यावधि विवादास्पद है, किन्तु विभिन्न मतों में निहित तथ्यों की तुलनात्मक समीक्षा करते हुए ब्राह्मणग्रन्थों का रचनाकाल सामान्यत: तीन सहस्र ई. पूर्व से लेकर दो सहस्त्र ई. पूर्व के मध्य माना जा सकता है।
ब्राह्मणग्रन्थों में मध्यदेश का उल्लेख विशेष आदर से है- 'ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि'।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण 8.4</ref> देश के इस मध्यभाग में कुरु-पाञ्चाल, शिवि, सौवीर प्रभृति जनपद सम्मिलित थें उस समय [[भारत]] के पूर्व में विदेह इत्यादि जातियों का राज्य था। दक्षिण में भोजराज्य तथा पश्चिम में नीच्य और अवाच्य राज्य थे। [[काशी]], [[मत्स्य]], [[कुरुक्षेत्र]] का उल्लेख भी ब्राह्मणों में है। शतपथ में [[गान्धार]], [[केकय]], [[शाल्य]], [[कोशल|कोसल]], [[सृंजय]] आदि जनपदों का विशेष उल्लेख है। ताण्ड्य-ब्राह्म में [[कुरु]]-[[पांचाल]] जनपदों से [[नैमिषारण्य]] और [[खांडव वन|खाण्डव वनों]] के मध्यवर्ती भूभाग की विशेष चर्चा है। इसी ब्राह्मण में [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] और उसकी सहायक नदियों के उद्गम और लोप का विवरण है। कहा गया है कि 'विनशन' नामक स्थान पर सरस्वती लुप्त हो गई थी और 'प्लक्षप्रासवण' में पुन: उसका उद्गम हुआ था। [[गंगा नदी|गंगा]] और [[यमुना नदी|यमुना]] नदियों का भी उल्लेख है। यमुना 'कारपचव' प्रदेश में प्रवाहित होती थी। ब्राह्मण-ग्रन्थों के क्रिया-कलाप का प्रमुख क्षेत्र यही सारस्वत-मण्डल और गंगा-यमुना की अन्तर्वेदी रही है। जैमिनीयोपनिषद-ब्राह्मण में कुरु-पांचाल जनपदों में रहने वाले विद्वानों के विशेष गौरव की चर्चा है। [[गोपथ ब्राह्मण]] में [[वसिष्ठ]], [[विश्वामित्र]] जमदग्नि, गौतम प्रभृति ऋषियों के आश्रमों की स्थिति, [[व्यास नदी|विपाशा नदी]] के तट तथा वसिष्ठ शिला प्रभृति स्थानों पर बतलाई गई है। वैदिक-साहित्य के प्रणयन का काल-निर्णय अद्यावधि विवादास्पद है, किन्तु विभिन्न मतों में निहित तथ्यों की तुलनात्मक समीक्षा करते हुए ब्राह्मणग्रन्थों का रचनाकाल सामान्यत: तीन सहस्र ई. पूर्व से लेकर दो सहस्त्र ई. पूर्व के मध्य माना जा सकता है।
==टीका टिप्पणी==
 
{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
[[Category:पौराणिक कोश]] [[Category:दर्शन कोश]]
[[Category:पौराणिक कोश]] [[Category:दर्शन कोश]]
[[Category:ब्राह्मण ग्रन्थ]]
[[Category:ब्राह्मण ग्रन्थ]]
==संबंधित लेख==
{{ब्राह्मण साहित्य2}}
{{संस्कृत साहित्य}}
{{ब्राह्मण साहित्य}}
{{ब्राह्मण साहित्य}}
__INDEX__
__INDEX__

Latest revision as of 10:12, 21 March 2011

भाषा, रचना-शैली तथा साहित्यिक प्रवृत्तियाँ

अन्य सम्बंधित लेख


ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा सामान्यत: वैदिकी और लौकिक संस्कृत की मध्यवर्तिनी है। मन्त्र-संहिताओं की अपेक्षा इस भाषा में अधिक नियमबद्धता, सुसंहति, सरलता और प्रवाहमयता है। इसमें कठिन सन्धियाँ और दुरूह समास प्राय: नहीं हैं। रूपरचना में यत्र-तत्र अपाणिनीयता का अनुभव स्वाभाविक है। उपसर्गों का उन्मुक्त प्रयोग पूर्ववत् है। निपातों का भी बाहुल्य है। वाक्य आवश्यकता के अनुरूप छोटे और लम्बे दोनों प्रकार के हैं, लेकिन संस्कृत गद्य-काव्यों की गौडी और पांचाली शैली की सुदीर्घ वाक्य-रचना प्राय: कहीं भी नहीं है। संवादमयता से युक्त होने के कारण इस भाषा में विशेष जीवन्तता है। अस्पष्टता से बचने का प्रयास सर्वत्र परिलक्षित होता है।

ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना पूर्णरूप से गद्य में हुई हैं। किन्तु बीच-बीच में उस युग में बहु-प्रचलित पद्यबद्ध गाथाएँ भी समाविष्ट हो गई हैं, जैसे हरिश्चन्द्रोपाख्यान[1] में अभिव्यक्ति की सबलता के लिए उपमाओं और रूपकों का प्रचुर प्रयोग है। कहीं-कहीं लाक्षणिकता के भी दर्शन होते हैं। शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मणों की भाषा स्वराङ्कित है, लेकिन ताण्डय, शांखायन ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मणों की भाषा के मुद्रितपाठ में स्वराङ्कन का अभाव होने पर भी, पारम्परिक वैदिक इनका उच्चारण सस्वर रूप में करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि कदाचित् इनकी भाषा भी सस्वर ही रही होगी। सुबन्त और तिडन्त रूपों के प्रयोग के दृष्टि से जैमिनीय ब्राह्मण की भाषा अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन मानी जाती है। इसके विपरीत ऐतरेय और ताण्ड्य ब्राह्मणों की भाषा अधिक व्यवस्थित, नियमनिष्ठ और प्रवाहपूर्ण है।

देश-काल

ब्राह्मणग्रन्थों में मध्यदेश का उल्लेख विशेष आदर से है- 'ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि'।[2] देश के इस मध्यभाग में कुरु-पाञ्चाल, शिवि, सौवीर प्रभृति जनपद सम्मिलित थें उस समय भारत के पूर्व में विदेह इत्यादि जातियों का राज्य था। दक्षिण में भोजराज्य तथा पश्चिम में नीच्य और अवाच्य राज्य थे। काशी, मत्स्य, कुरुक्षेत्र का उल्लेख भी ब्राह्मणों में है। शतपथ में गान्धार, केकय, शाल्य, कोसल, सृंजय आदि जनपदों का विशेष उल्लेख है। ताण्ड्य-ब्राह्म में कुरु-पांचाल जनपदों से नैमिषारण्य और खाण्डव वनों के मध्यवर्ती भूभाग की विशेष चर्चा है। इसी ब्राह्मण में सरस्वती और उसकी सहायक नदियों के उद्गम और लोप का विवरण है। कहा गया है कि 'विनशन' नामक स्थान पर सरस्वती लुप्त हो गई थी और 'प्लक्षप्रासवण' में पुन: उसका उद्गम हुआ था। गंगा और यमुना नदियों का भी उल्लेख है। यमुना 'कारपचव' प्रदेश में प्रवाहित होती थी। ब्राह्मण-ग्रन्थों के क्रिया-कलाप का प्रमुख क्षेत्र यही सारस्वत-मण्डल और गंगा-यमुना की अन्तर्वेदी रही है। जैमिनीयोपनिषद-ब्राह्मण में कुरु-पांचाल जनपदों में रहने वाले विद्वानों के विशेष गौरव की चर्चा है। गोपथ ब्राह्मण में वसिष्ठ, विश्वामित्र जमदग्नि, गौतम प्रभृति ऋषियों के आश्रमों की स्थिति, विपाशा नदी के तट तथा वसिष्ठ शिला प्रभृति स्थानों पर बतलाई गई है। वैदिक-साहित्य के प्रणयन का काल-निर्णय अद्यावधि विवादास्पद है, किन्तु विभिन्न मतों में निहित तथ्यों की तुलनात्मक समीक्षा करते हुए ब्राह्मणग्रन्थों का रचनाकाल सामान्यत: तीन सहस्र ई. पूर्व से लेकर दो सहस्त्र ई. पूर्व के मध्य माना जा सकता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐतरेय ब्राह्मण
  2. ऐतरेय ब्राह्मण 8.4

संबंधित लेख

श्रुतियाँ