चंदबरदाई: Difference between revisions
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चंदबरदाई का जन्म [[लाहौर]] में हुआ था और ये जाति के राव या भाट थे। चंदवरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ "पृथ्वीराजरासो" है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने [[पिंगल]] कहा है, जो [[राजस्थान]] में [[ब्रजभाषा]] का पर्याय है। इसलिए चंदवरदाई को [[ब्रजभाषा]] हिन्दी का प्रथम महाकवि माना जाता है। 'रासो' की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्ध-वर्णन के लिए हुई है। इसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम-प्रसंगों का कथन है। अत: इसमें वीर और | चंदबरदाई का जन्म [[लाहौर]] में हुआ था और ये जाति के राव या भाट थे। चंदवरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ "पृथ्वीराजरासो" है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने [[पिंगल]] कहा है, जो [[राजस्थान]] में [[ब्रजभाषा]] का पर्याय है। इसलिए चंदवरदाई को [[ब्रजभाषा]] हिन्दी का प्रथम महाकवि माना जाता है। 'रासो' की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्ध-वर्णन के लिए हुई है। इसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम-प्रसंगों का कथन है। अत: इसमें वीर और श्रृंगार दो ही रस है। चंदबरदाई ने इस ग्रंथ की रचना प्रत्यक्षदर्शी की भाँति की है अंत: इसका रचना काल सं. 1220 से 1250 तक होना चाहिए। विद्वान् 'रासो' को 16वीं अथवा उसके बाद की किसी शती का अप्रामाणिक ग्रंथ मानते हैं। [[अनन्द विक्रम संवत]] [[भारत]] में प्रचलित अनेक संवतों में से एक है। इसका प्रयोग [[पृथ्वीराज रासो]] के कवि चन्दबरदाई ने, जो [[मुसलमान|मुसलमानों]] के आक्रमण (1192 ई.) के समय [[दिल्ली]] नरेश [[पृथ्वीराज चौहान]] का राज कवि था, किया है। | ||
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[[रामचन्द्र शुक्ल|आचार्य रामचन्द्र शुक्ल]] ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है- चंदबरदाई (संवत् 1225-1249), ये [[हिन्दी]] के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका [[पृथ्वीराज रासो]] हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। चंदबरदाई [[दिल्ली]] के अंतिम [[हिंदू]] सम्राट, महाराजा पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। इससे इनके नाम में भावुक हिंदुओं के लिए एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। रासो के अनुसार ये भट्ट जाति के जगात नामक [[गोत्र]] के थे। इनके पूर्वजों की भूमि [[पंजाब]] थी, जहाँ [[लाहौर]] में इनका जन्म हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था। ये महाराज पृथ्वीराज के राजकवि ही नहीं, उनके सखा और सामंत भी थे तथा षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, [[छंद|छंद शास्त्र]], ज्योतिष, [[पुराण]], नाटक आदि अनेक विद्याओं में पारंगत थे। इन्हें जालंधारी देवी का इष्ट था जिसकी कृपा से ये अदृष्ट काव्य भी कर सकते थे। इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला-जुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) अध्याय 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल</ref> | [[रामचन्द्र शुक्ल|आचार्य रामचन्द्र शुक्ल]] ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है- चंदबरदाई (संवत् 1225-1249), ये [[हिन्दी]] के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका [[पृथ्वीराज रासो]] हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। चंदबरदाई [[दिल्ली]] के अंतिम [[हिंदू]] सम्राट, महाराजा पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। इससे इनके नाम में भावुक हिंदुओं के लिए एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। रासो के अनुसार ये भट्ट जाति के जगात नामक [[गोत्र]] के थे। इनके पूर्वजों की भूमि [[पंजाब]] थी, जहाँ [[लाहौर]] में इनका जन्म हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था। ये महाराज पृथ्वीराज के राजकवि ही नहीं, उनके सखा और सामंत भी थे तथा षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, [[छंद|छंद शास्त्र]], ज्योतिष, [[पुराण]], नाटक आदि अनेक विद्याओं में पारंगत थे। इन्हें जालंधारी देवी का इष्ट था जिसकी कृपा से ये अदृष्ट काव्य भी कर सकते थे। इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला-जुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) अध्याय 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल</ref> |
Latest revision as of 08:53, 17 July 2017
चंदबरदाई
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पूरा नाम | चंदबरदाई |
जन्म | संवत् 1205 |
जन्म भूमि | लाहौर |
मृत्यु | संवत् 1249 |
मुख्य रचनाएँ | पृथ्वीराज रासो |
भाषा | ब्रजभाषा |
पुरस्कार-उपाधि | महाकवि |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | चंदबरदाई दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट, महाराजा पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
चंदबरदाई (अंग्रेज़ी: Chand Bardai, जन्म: 1205 संवत् - मृत्यु: 1249 संवत्) भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के मित्र, सखा तथा राजकवि और हिन्दी के आदि महाकवि थे। चंदबरदाई को हिन्दी का पहला कवि और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को हिन्दी की पहली रचना होने का सम्मान प्राप्त है।
जीवन परिचय
चंदबरदाई का जन्म लाहौर में हुआ था और ये जाति के राव या भाट थे। चंदवरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ "पृथ्वीराजरासो" है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने पिंगल कहा है, जो राजस्थान में ब्रजभाषा का पर्याय है। इसलिए चंदवरदाई को ब्रजभाषा हिन्दी का प्रथम महाकवि माना जाता है। 'रासो' की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्ध-वर्णन के लिए हुई है। इसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम-प्रसंगों का कथन है। अत: इसमें वीर और श्रृंगार दो ही रस है। चंदबरदाई ने इस ग्रंथ की रचना प्रत्यक्षदर्शी की भाँति की है अंत: इसका रचना काल सं. 1220 से 1250 तक होना चाहिए। विद्वान् 'रासो' को 16वीं अथवा उसके बाद की किसी शती का अप्रामाणिक ग्रंथ मानते हैं। अनन्द विक्रम संवत भारत में प्रचलित अनेक संवतों में से एक है। इसका प्रयोग पृथ्वीराज रासो के कवि चन्दबरदाई ने, जो मुसलमानों के आक्रमण (1192 ई.) के समय दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान का राज कवि था, किया है।
हिन्दी के प्रथम महाकवि
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है- चंदबरदाई (संवत् 1225-1249), ये हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका पृथ्वीराज रासो हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। चंदबरदाई दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट, महाराजा पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। इससे इनके नाम में भावुक हिंदुओं के लिए एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। रासो के अनुसार ये भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। इनके पूर्वजों की भूमि पंजाब थी, जहाँ लाहौर में इनका जन्म हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था। ये महाराज पृथ्वीराज के राजकवि ही नहीं, उनके सखा और सामंत भी थे तथा षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद शास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि अनेक विद्याओं में पारंगत थे। इन्हें जालंधारी देवी का इष्ट था जिसकी कृपा से ये अदृष्ट काव्य भी कर सकते थे। इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला-जुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे।[1]
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टीका टिप्पणी
- ↑ हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) अध्याय 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल
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