शिवमंगल सिंह सुमन: Difference between revisions

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==व्यक्तित्व==
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जिन्होंने सुमनजी को सुना है वे जानते हैं कि '[[सरस्वती नदी|सरस्वती]]' कैसे बहती है। सरस्वती की गुप्त धारा का वाणी में दिग्दर्शन कैसा होता है। जब वे बोलते थे तो तथ्य, उदाहरण, परंपरा, इतिहास, साहित्य, वर्तमान का इतना जीवंत चित्रण होता था कि श्रोता अपने अंदर आनंद की अनुभूति करते हुए 'ज्ञान' और ज्ञान की 'विमलता' से भरापूरा महसूस करता था। वह अंदर ही अंदर गूंजता रहता था और अनेकानेक अर्थों की 'पोटली' खोलता था। सुमनजी जैसा समृद्ध वक्ता मिलना कठिन है। सुमनजी जितने ऊंचे, पूरे, भव्य व्यक्तित्व के धनी थे, ज्ञान और कवि कर्म में भी वे शिखर पुरुष थे। उनकी ऊंचाई स्वयं की ही नहीं वे अपने आसपास के हर व्यक्ति में ऊँचाइयों, अच्छेपन का, रचनात्मकता का अहसास जगाते थे। उनकी विद्वता आक्रांत नहीं मरती थी। उनकी विद्वता, प्रशिक्षित करते हुए दूसरों में छुपी ज्ञान, रचना, गुणों की खदान से सोने की सिल्लियां भी निकालकर बताते थे कि 'भई खजाना तो तुम्हारे पास भरा पड़ा है'।  कभी-कभी उनके बारे में कहा जाता था कि सुमनजी तारीफ करने में अति कर जाते थे। जबकि वे तारीफ़ की अति नहीं वरन्‌ उन छुपी हुई रचना समृद्धि की तरफ इशारा करते थे जो आंखों में छुपी होती थी। वे किसी को 'बौना' सिद्ध नहीं करते, उन्होंने सदा सकारात्मकता से हर व्यक्ति, स्थान, लोगों, रचना को देखा। वे मूलतः इंसानी प्रेम, सौहार्द के रचनाकर्मी रहे। वे छोटी-छोटी ईंटों से भव्य इमारत बनाते थे। भव्य इमारत के टुकड़े नहीं करते थे। सामाजिक निर्माण की उनकी गति सकारात्मक, सृजनात्मक ही रही। फिर एक बात है तारीफ़ या प्रशंसा करने के लिए बेहद बड़ा दिल चाहिए, वह सुमनजी में था। वे प्रगतिशील कवि थे। वे वामपंथी थे। लेकिन 'वाद' को 'गठरी' लिए बोझ नहीं बनने दिया। उसे ढोया नहीं, वरन्‌ अपनी जनवादी, जनकल्याण, प्रेम, इंसानी जुड़ाव, रचनात्मक विद्रोह, सृजन से 'वाद' को खंगालते रहे, इसीलिए वे 'जनकवि' हुए वर्ना 'वाद' की बहस और स्थापनाओं में कवि कर्म, उनका मानस, कर्म कहीं क्षतिग्रस्त हो गया होता।<ref name="वेबदुनिया">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/literature-remembrance/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%B9%E0%A5%83%E0%A4%A6%E0%A4%AF-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%A8-1110805016_1.htm |title=विशाल हृदय के 'सुमन' |accessmonthday=18 जनवरी |accessyear= 2013|last=ठाकुर |first=जीवनसिंह |authorlink= |format= एच.टी.एम.एल|publisher=वेबदुनिया हिंदी |language=हिंदी }} </ref>
जिन्होंने सुमनजी को सुना है वे जानते हैं कि '[[सरस्वती नदी|सरस्वती]]' कैसे बहती है। सरस्वती की गुप्त धारा का वाणी में दिग्दर्शन कैसा होता है। जब वे बोलते थे तो तथ्य, उदाहरण, परंपरा, इतिहास, साहित्य, वर्तमान का इतना जीवंत चित्रण होता था कि श्रोता अपने अंदर आनंद की अनुभूति करते हुए 'ज्ञान' और ज्ञान की 'विमलता' से भरापूरा महसूस करता था। वह अंदर ही अंदर गूंजता रहता था और अनेकानेक अर्थों की 'पोटली' खोलता था। सुमनजी जैसा समृद्ध वक्ता मिलना कठिन है। सुमनजी जितने ऊंचे, पूरे, भव्य व्यक्तित्व के धनी थे, ज्ञान और कवि कर्म में भी वे शिखर पुरुष थे। उनकी ऊंचाई स्वयं की ही नहीं वे अपने आसपास के हर व्यक्ति में ऊँचाइयों, अच्छेपन का, रचनात्मकता का अहसास जगाते थे। उनकी विद्वता आक्रांत नहीं मरती थी। उनकी विद्वता, प्रशिक्षित करते हुए दूसरों में छुपी ज्ञान, रचना, गुणों की खदान से सोने की सिल्लियां भी निकालकर बताते थे कि 'भई ख़ज़ाना तो तुम्हारे पास भरा पड़ा है'।  कभी-कभी उनके बारे में कहा जाता था कि सुमनजी तारीफ करने में अति कर जाते थे। जबकि वे तारीफ़ की अति नहीं वरन्‌ उन छुपी हुई रचना समृद्धि की तरफ इशारा करते थे जो आंखों में छुपी होती थी। वे किसी को 'बौना' सिद्ध नहीं करते, उन्होंने सदा सकारात्मकता से हर व्यक्ति, स्थान, लोगों, रचना को देखा। वे मूलतः इंसानी प्रेम, सौहार्द के रचनाकर्मी रहे। वे छोटी-छोटी ईंटों से भव्य इमारत बनाते थे। भव्य इमारत के टुकड़े नहीं करते थे। सामाजिक निर्माण की उनकी गति सकारात्मक, सृजनात्मक ही रही। फिर एक बात है तारीफ़ या प्रशंसा करने के लिए बेहद बड़ा दिल चाहिए, वह सुमनजी में था। वे प्रगतिशील कवि थे। वे वामपंथी थे। लेकिन 'वाद' को 'गठरी' लिए बोझ नहीं बनने दिया। उसे ढोया नहीं, वरन्‌ अपनी जनवादी, जनकल्याण, प्रेम, इंसानी जुड़ाव, रचनात्मक विद्रोह, सृजन से 'वाद' को खंगालते रहे, इसीलिए वे 'जनकवि' हुए वर्ना 'वाद' की बहस और स्थापनाओं में कवि कर्म, उनका मानस, कर्म कहीं क्षतिग्रस्त हो गया होता।<ref name="वेबदुनिया">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/literature-remembrance/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%B9%E0%A5%83%E0%A4%A6%E0%A4%AF-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%A8-1110805016_1.htm |title=विशाल हृदय के 'सुमन' |accessmonthday=18 जनवरी |accessyear= 2013|last=ठाकुर |first=जीवनसिंह |authorlink= |format= एच.टी.एम.एल|publisher=वेबदुनिया हिंदी |language=हिंदी }} </ref>
==सम्मान और पुरस्कार==
==सम्मान और पुरस्कार==
* [[1974]] में 'मिट्टी की बारात' के लिए [[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी]]  
* [[1974]] में 'मिट्टी की बारात' के लिए [[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी]]  

Revision as of 10:51, 26 April 2013

शिवमंगल सिंह सुमन
पूरा नाम शिवमंगल सिंह 'सुमन'
जन्म 5 अगस्त, 1915
जन्म भूमि उन्नाव ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 27 नवंबर, 2002
मृत्यु स्थान उज्जैन, मध्य प्रदेश
कर्म-क्षेत्र कवि, लेखक, अध्यापक
मुख्य रचनाएँ काव्य संग्रह- हिल्लोल, जीवन के गान, युग का मोल, मिट्टी की बारात

गद्य रचनाएँ- महादेवी की काव्य साधना, गीति काव्य: उद्यम और विकास

भाषा हिंदी
विद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
शिक्षा एम.ए. , डी.लिट्
पुरस्कार-उपाधि साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्म श्री, पद्म भूषण आदि
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

शिवमंगल सिंह 'सुमन' (अंग्रेज़ी: Shivmangal Singh 'Suman', जन्म: 5 अगस्त, 1916 - मृत्यु: 27 नवम्बर, 2002) हिन्दी के शीर्ष कवियों में से एक थे। उन्हें सन् 1999 में भारत सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था।

जीवन परिचय

डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले में 5 अगस्त सन् 1915 को हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा भी वहीं हुई। ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी.ए. और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए. , डी.लिट् की उपाधियाँ प्राप्त कर ग्वालियर, इन्दौर और उज्जैन में उन्होंने अध्यापन कार्य किया।

कार्यक्षेत्र

शिवमंगल सिंह 'सुमन' का कार्यक्षेत्र अधिकांशत: शिक्षा जगत से संबद्ध रहा। वे ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता, माधव महाविद्यालय उज्जैन के प्राचार्य और फिर कुलपति रहे। अध्यापन के अतिरिक्त विभिन्न महत्त्वपूर्ण संस्थाओं और प्रतिष्ठानों से जुड़कर उन्होंने हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि की। सुमन जी प्रिय अध्यापक, कुशल प्रशासक, प्रखर चिंतक और विचारक भी थे। वे साहित्य को बोझ नहीं बनाते, अपनी सहजता में गंभीरता को छिपाए रखते। वह साहित्य प्रेमियों में ही नहीं अपितु सामान्य लोगों में भी बहुत लोकप्रिय थे। शहर में किसी अज्ञात-अजनबी व्यक्ति के लिए रिक्शे वाले को यह बताना काफ़ी था कि उसे सुमन जी के घर जाना है। रिक्शा वाला बिना किसी पूछताछ किए आगंतुक को उनके घर तक छोड़ आता। एक बार सुमन जी कानपुर के एक महाविद्यालय में किसी कार्यक्रम में आए। कार्यक्रम की समाप्ति पर कुछ पत्रकारों ने उन्हे घेर लिया। आयोजकों में से किसी ने कहा सुमन जी थके हैं। इस पर सुमन जी तपाक् से बोले, नहीं मैं थका नहीं हूँ। पत्रकार तत्कालिक साहित्य के निर्माता है। उनसे दो चार पल बात करना अच्छा लगता है। डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब उनकी आँखों पर पट्टी बांधकर उन्हे एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब आँख की पट्टी खोली गई तो वह हतप्रभ थे। उनके समक्ष स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा चंद्रशेखर आज़ाद खड़े थे। आज़ाद ने उनसे प्रश्न किया था, क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो। सुमन जी ने बेहिचक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आज़ादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके विरुद्ध वारंट ज़ारी हुआ। सरल स्वभाव के सुमन जी सदैव अपने प्रशंसकों से कहा करते थे, मैं विद्वान नहीं बन पाया। विद्वता की देहरी भर छू पाया हूँ। प्राध्यापक होने के साथ प्रशासनिक कार्यों के दबाव ने मुझे विद्वान बनने से रोक दिया।[1]

प्रमुख कृतियाँ

काव्य संग्रह
  • हिल्लोल
  • जीवन के गान
  • प्रलय-सृजन
  • विश्वास बढ़ता ही गया
  • पर आँखें नहीं भरीं
  • विंध्य हिमालय
  • मिट्टी की बारात
  • वाणी की व्यथा
  • कटे अगूठों की वंदनवारें
गद्य रचनाएँ
  • महादेवी की काव्य साधना
  • गीति काव्य: उद्यम और विकास
नाटक
  • प्रकृति पुरुष कालिदास

व्यक्तित्व

जिन्होंने सुमनजी को सुना है वे जानते हैं कि 'सरस्वती' कैसे बहती है। सरस्वती की गुप्त धारा का वाणी में दिग्दर्शन कैसा होता है। जब वे बोलते थे तो तथ्य, उदाहरण, परंपरा, इतिहास, साहित्य, वर्तमान का इतना जीवंत चित्रण होता था कि श्रोता अपने अंदर आनंद की अनुभूति करते हुए 'ज्ञान' और ज्ञान की 'विमलता' से भरापूरा महसूस करता था। वह अंदर ही अंदर गूंजता रहता था और अनेकानेक अर्थों की 'पोटली' खोलता था। सुमनजी जैसा समृद्ध वक्ता मिलना कठिन है। सुमनजी जितने ऊंचे, पूरे, भव्य व्यक्तित्व के धनी थे, ज्ञान और कवि कर्म में भी वे शिखर पुरुष थे। उनकी ऊंचाई स्वयं की ही नहीं वे अपने आसपास के हर व्यक्ति में ऊँचाइयों, अच्छेपन का, रचनात्मकता का अहसास जगाते थे। उनकी विद्वता आक्रांत नहीं मरती थी। उनकी विद्वता, प्रशिक्षित करते हुए दूसरों में छुपी ज्ञान, रचना, गुणों की खदान से सोने की सिल्लियां भी निकालकर बताते थे कि 'भई ख़ज़ाना तो तुम्हारे पास भरा पड़ा है'। कभी-कभी उनके बारे में कहा जाता था कि सुमनजी तारीफ करने में अति कर जाते थे। जबकि वे तारीफ़ की अति नहीं वरन्‌ उन छुपी हुई रचना समृद्धि की तरफ इशारा करते थे जो आंखों में छुपी होती थी। वे किसी को 'बौना' सिद्ध नहीं करते, उन्होंने सदा सकारात्मकता से हर व्यक्ति, स्थान, लोगों, रचना को देखा। वे मूलतः इंसानी प्रेम, सौहार्द के रचनाकर्मी रहे। वे छोटी-छोटी ईंटों से भव्य इमारत बनाते थे। भव्य इमारत के टुकड़े नहीं करते थे। सामाजिक निर्माण की उनकी गति सकारात्मक, सृजनात्मक ही रही। फिर एक बात है तारीफ़ या प्रशंसा करने के लिए बेहद बड़ा दिल चाहिए, वह सुमनजी में था। वे प्रगतिशील कवि थे। वे वामपंथी थे। लेकिन 'वाद' को 'गठरी' लिए बोझ नहीं बनने दिया। उसे ढोया नहीं, वरन्‌ अपनी जनवादी, जनकल्याण, प्रेम, इंसानी जुड़ाव, रचनात्मक विद्रोह, सृजन से 'वाद' को खंगालते रहे, इसीलिए वे 'जनकवि' हुए वर्ना 'वाद' की बहस और स्थापनाओं में कवि कर्म, उनका मानस, कर्म कहीं क्षतिग्रस्त हो गया होता।[2]

सम्मान और पुरस्कार

  • 1974 में 'मिट्टी की बारात' के लिए साहित्य अकादमी
  • 1993 में 'मिट्टी की बारात' के लिए 'भारत भारती पुरस्कार' से सम्मानित।
  • 1974 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित।
  • 1999 में पद्म भूषण
  • 1958 में देवा पुरस्कार
  • 1974 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार
  • 1993 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शिखर सम्मान

निधन

हिन्दी कविता की वाचिक परंपरा आपकी लोकप्रियता की साक्षी है। देश भर के काव्य-प्रेमियों को अपने गीतों की रवानी से अचंभित कर देने वाले सुमन जी 27 नवंबर सन् 2002 को मौन हो गए। 'सुमन' चाहे कितना ही भौतिक हो, चाक्षुक आनंद देता है लेकिन वह निरंतर गंध में परिवर्तित होते हुए स्मृतियों में समाता है। सुमन अब 'गद्य' में है स्मृतियों में जीवित है। सुमनजी को जिसने भी देखा, सुना है वो अपनी चर्चाओं में, उदाहरण में कभी भी अपनी रचना नहीं सुनाते थे। वे हर अच्छी रचना और हर अच्छे प्रयास के प्रशंसक रहे। अन्य कवियों, लेखकों की रचनाओं की अद्भुत स्मृतियां उनमें जैसे ठसाठस भरी थीं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ / परिचय (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) कविताकोश। अभिगमन तिथि: 18 जनवरी, 2013।
  2. 2.0 2.1 ठाकुर, जीवनसिंह। विशाल हृदय के 'सुमन' (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 18 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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