पिप्पलाद
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- ये महर्षि दधीचि जी के पुत्र थे।
- जिस समय दधीचिजी अपनी हड्डियाँ इन्द्र को दे दिया था तो ॠषि पत्नी सुवर्चा अपने पति के साथ परलोक जाना चाहती थी उस समय आकाशवाणी हुई कि- ऐसा मत करो, तुम्हारे उदर में मुनि का तेज विद्यमान है। तुरन्त अपने उदर को विदीर्ण कर अपने पुत्र को पीपल के समीप रखकर पतिलोक चली गईं। पीपल के वृक्षों ने उस बालक का पालन किया था इसलिए आगे चलकर पिप्पलाद नाम से प्रसिद्ध हुए।
- उसी अश्वस्थ के नीचे लोकों के हित की कामना से महान तप किया था
- इन्होंने ब्रह्मचर्य को ही सर्वश्रेष्ठ माना है।
- ये भगवान शिव के अंश से प्रादुर्भूत हुए थे।
- वह आज भी पिप्पल तीर्थ एवं अश्वस्थ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मार्कण्डेय पुराण, शिव पुराण
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