दुर्वासा: Difference between revisions

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Revision as of 11:00, 2 August 2011

दुर्वासा ॠषि

  • ब्रह्मा के पुत्र अत्रि ने सौ वर्ष तक ऋष्यमूक पर्वत पर अपनी पत्नी अनुसूया सहित तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने उन्हें एक-एक पुत्र प्रदान किया। ब्रह्मा के अंश से विधु, विष्णु के अंश से दत्त तथा शिव के अंश से दुर्वासा का जन्म हुआ। दुर्वासा ने जीवन-भर भक्तों की परीक्षा ली।
  • एक बार दुर्वासा मुनि अपने दस हज़ार शिष्यों के साथ दुर्योधन के यहाँ पहुंचे। दुर्योधन ने उन्हें आतिथ्य से प्रसन्न करके वरदान मांगा कि वे अपने शिष्यों सहित बनवासी युधिष्ठिर का आतिथ्य ग्रहण करें। वे उनके पास तब जायें जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हों। दुर्योधन ने यह कामना प्रकट की थी, क्योंकि उसे मालूम था कि उसके भोजन कर लेने के उपरांत बटलोई में कुछ भी शेष नहीं होगा, और दुर्वासा उसे शाप देंगे। दुर्वासा ऐसे ही अवसर पर शिष्यों सहित पांडवों के पास पहुंचे तथा उन्हें रसोई बनाने का आदेश देकर स्नान करने चले गये। धर्म संकट में पड़कर द्रौपदी ने कृष्ण का स्मरण किया। कृष्ण ने उसकी बटलोई में लगे हुए जरा से साग को खा लिया तथा कहा-'इस साग से संपूर्ण विश्व के आत्मा, यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्रीहरि तृप्त तथा संतुष्ट हों।' उनके ऐसा करते ही दुर्वासा को अपने शिष्यों सहित तृप्ति के डकार आने लगे। वे लोग यह सोचकर कि पांडवगण अपनी बनाई रसोई को व्यर्थ जाता देख रुष्ट होंगे- दूर भाग गये।
  • एक बार दुर्वासा यह कहकर कि वे अत्यंत क्रोधी हैं, कौन उनका आतिथ्य करेगा, नगर में चक्कर लगा रहे थे। उनके वस्त्र फटे हुए थे। कृष्ण ने उन्हें अतिथि-रूप में आमन्त्रित किया। उन्होंने अनेक प्रकार से कृष्ण के स्वभाव की परीक्षा ली। दुर्वासा कभी शैया, आभूषित कुमारी इत्यादि समस्त वस्तुओं को भस्म कर देते, कभी दस हज़ार लोगों के बराबर खाते, कभी कुछ भी न खाते। एक दिन खीर जूठी करके उन्होंने कृष्ण को आदेश दिया कि वे अपने और रुक्मिणी के अंगों पर लेप कर दें। फिर रुक्मिणी को रथ में जोतकर चाबुक मारते हुए बाहर निकलें। थोड़ी दूर चलकर रुक्मिणी लड़खड़ाकर गिर गयी। दुर्वासा क्रोध से पागल दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। कृष्ण ने उनके पीछे-पीछे जाकर उन्हें रोकने का प्रयास किया तो दुर्वासा प्रसन्न हो गये तथा कृष्ण को क्रोध विहीन जानकर उन्होंने कहा-'सृष्टि का जब तक और जितना अनुराग अन्न में रहेगा, उतना ही तुममें भी रहेगा। तुम्हारी जितनी वस्तुएं मैंने तोड़ीं या जलायी हैं, सभी तुम्हें पूर्ववत मिल जायेंगी।' [1]
  • एक बार द्रौपदी नदी में स्नान कर रही थी। कुछ दूर पर दुर्वासा भी स्नान कर रहे थे। दुर्वासा का अधोवस्त्र जल में बह गया। वे बाहर नहीं निकल पा रहे थे। द्रौपदी ने अपनी साड़ी में से थोड़ा-सा कपड़ फाड़कर उनको दिया। फलस्वरूप उन्होंने द्रौपदी को वर दिया कि उसकी लज्जा पर कभी आंच नहीं आयेगी।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, वनपर्व, अध्याय 262 से 263 तक,दान धर्मपर्व, अध्याय 159
  2. शिव पुराण, 7 । 25-26 ।-

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