महादजी शिन्दे: Difference between revisions

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Revision as of 11:46, 16 October 2011

thumb|250px|महादजी शिन्दे छतरी महादजी शिन्दे रणोजी सिंधिया का अवैध पुत्र और उत्तराधिकारी था। वह अंग्रेज़ों के औपनिवेशिक काल में प्रमुख रूप से सक्रिय था। महादजी शिन्दे एक बहुत ही महत्वाकांक्षी और सैनिक गुणों से सम्पन्न व्यक्ति था। अपनी तीव्र बुद्धि और सैनिक कुशलताओं के कारण ही वह मराठा साम्राज्य में विशिष्ट स्थान रखता था। उसकी मृत्यु 1794 ई. में हुई थी।

महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति

पेशवा बाजीराव प्रथम के शासन काल में महादजी शिन्दे छोटे से पद से पदोन्नति करते हुए उच्च पद तक पहुँच गया। 1761 ई. के तृतीय युद्ध में उसने भाग लिया और घाव लगने के कारण सदा के लिए लंगड़ा हो गया। महाराष्ट्र वापस लौटकर उसने अपने दायित्व का निर्वाह इतनी कुशलता से किया कि सरदारों में वही सबसे प्रमुख गिना जाने लगा। उसका मुख्य उद्देश्य पूना स्थित पेशवा को नाना फड़नवीस के संरक्षण से हटाकर अपने संरक्षण में लेना था। इस लक्ष्य में वह सफल तो न हो सका, पर शीघ्र ही उत्तर भारत में उसने अपनी प्रतिष्ठा में इतनी वृद्धि कर ली कि 1771 ई. में शाहआलम द्वितीय को दिल्ली के सिंहासन पर पुन: आसीन कर स्वयं उसका रक्षक बन गया।

सालबाई की सन्धि

इसके बाद महादजी शिन्दे अंग्रेज़ों और मराठों के बीच होने वाले प्रथम मराठा युद्ध (1775-82 ई.) में मध्यस्थ बना रहा और सालबाई की सन्धि के द्वारा दोनों पक्षों में पुन: शान्ति स्थापित करा दी। इससे अंग्रेज़ों में भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। अंग्रेज़ों के सैनिक संगठन की श्रेष्ठता को भली-भाँति परखकर उसने अपनी सेना को भी काउन्ट दब्बांग जैसे यूरोपीय पदाधिकारियों की सहायता से पुनर्गठित किया और उसमें एक शक्तिशाली तोपख़ाने की व्यवस्था करके उसे एक नियमित सेना का रूप प्रदान किया। इसके बल पर उसने राजपूत और मुसलमान शासकों पर अपनी धाक जमा ली। 1790 ई. में पाटन नामक स्थान पर राजपूताना के इस्माइल बेग को, 1791 ई. में मिर्था के युद्ध में राजपूत शासकों के सम्मिलित दल को और 1792 ई. में लखेड़ी के युद्ध में होल्कर को पराजित किया।

शिन्दे की मृत्यु

इसके पूर्व ही उसने नाम मात्र के सम्राट शाहआलम द्वितीय से पेशवा को 'वकीले मुतलक' अथवा 'साम्राज्य के उपप्रधान' का ख़िताब दिलाया। 1793 ई. में महादजी शिन्दे के संयोजन से ही पूना में एक विशेष समारोह में विधिवत यह उपाधि पेशवा को दी गई। यद्यपि इससे पेशवा का केवल प्रतीकात्मक लाभ हुआ, तथापि महादजी शिन्दे के जीवन में यह समारोह उसकी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि थी। 1794 ई. में महादजी शिन्दे की मृत्यु हो गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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