जगन्नाथदास 'रत्नाकर': Difference between revisions
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इन्होंने अंग्रेज़ी कवि पोप की प्रसिद्ध रचना ’एसे ऑन क्रिटिसिज्म‘ का रोला छंद में अनुवाद भी किया। इन कृतियों में ’उद्धवशतक‘ और ’बिहारी रत्नाकर‘ को विशेष महत्व मिला। ’उद्धवशतक‘, ’भ्रमरगीत‘ परंपरा का विशिष्ट काव्य बना तो ’बिहारी रत्नाकर‘ ’बिहारी सतसई‘ पर लिखी गई कविताओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया। इनके अतिरिक्त 'हमीर हट', 'हित तरंगिणी', 'कविकुल कण्ठाभरण' नामक कृतियों का भी सम्पादन इन्होंने किया। ‘साहित्य सुधा’ नामक पत्र का सम्पादन भी आपने किया था।<ref name="अभिव्यक्ति"/> | |||
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जगन्नाथदास रत्नाकर ने [[भक्तिकाल]] की भाव प्रवणता और [[रीतिकाल]] की श्रंगारिकता को अपनी कविता के नए बाने में सजाया। उन्होंने भक्ति भावना से समन्वित कविताएँ भी लिखीं, वीरों के वृत्तांत भी लिखे, नीति को भी कविता में उतारा; लेकिन उनका मन मूलतः श्रंगारिकता की अभिव्यक्ति में ही अधिक रमा है और इस श्रंगारिकता की ख़ूबी यह रही कि इसके अंतर्गत भक्ति, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य सभी का समाहार हो गया। उनका ग्रंथ ’उद्धवशतक‘ मानव मन की अद्भुत चित्रशाला बनकर सामने आया। [[श्रृंगार रस]] के निरूपण में उनका कोई भी समकालीन उनके समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। श्रृंगार के दोनों पक्षों के निरूपण में जगह-जगह तीव्र भावावेश के क्षणों में ऐसा लगता है मानो कवि स्वयं ही द्रविभूत होकर कविता बन उपस्थित हुआ हो। भाव-चित्रों के इस शिल्पी ने ’उद्धवशतक‘ में अनुभवों की योजना, मूक मौन व्यजंना और रससिक्त मर्मस्पर्शी सूक्तियों का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस कृति का ताना-बाना भावुकता के अतिरेक से पैदा होने वाले कृतिम उद्वेग से नहीं बल्कि हृदय की सच्ची पुकार से बुना गया है, जहाँ विरहणीब्रजांगनाओं के आँसुओं में प्रेम की स्निग्धता, अनुभूति की आर्द्रता उनके विश्वास में संयम की धार भी है। जगन्नाथदास रत्नाकर ने अपनी कृतियों से की सामर्थ्य का झंडा ऊँचा कर दिखाया है, जिसमें शब्द और अर्थ एक हो गये हैं, जहाँ शब्द अपने आप बोलते हैं मानो शब्द का अर्थ-विधान ही अपने पट खोलता चलता हो। उन्होंने अंलकारों के बड़े ही संतुलित और अपेक्षित प्रयोगों द्वारा भाव-व्यजंना को उत्कर्ष दिया है। उनके सांगरूपक तो [[हिंदी]] में विरले ही हैं। परंपरा की कई लीकों से हटकर लोकोक्तियों और मुहावरों का अलग अंदाज है। रीति काव्य परंपरा का प्रेम और ब्रजभाषा को उनकी दृष्टि की सीमा भले ही माना जाये, लेकिन यह ब्रजभाषा के प्रति अपूर्व निष्ठा थी, जो ब्रजभाषा को अपने सशक्त मानदंडो में सुरक्षित रखना चाहती थी। सामयिक आंदोलनों से परे रहकर उन्होंने ब्रजभाषा साहित्य का परिष्कार करने और मानवीय अंतर्मन का कोना-कोना झाँकने में अपनी शक्ति लगा दी। नारी मन का कोई छोर ऐसा नहीं बचा जिसे उनके शब्दों के कोमल और तीव्र स्पर्श ने छुआ न हो।<ref name="अभिव्यक्ति"/> | जगन्नाथदास रत्नाकर ने [[भक्तिकाल]] की भाव प्रवणता और [[रीतिकाल]] की श्रंगारिकता को अपनी कविता के नए बाने में सजाया। उन्होंने भक्ति भावना से समन्वित कविताएँ भी लिखीं, वीरों के वृत्तांत भी लिखे, नीति को भी कविता में उतारा; लेकिन उनका मन मूलतः श्रंगारिकता की अभिव्यक्ति में ही अधिक रमा है और इस श्रंगारिकता की ख़ूबी यह रही कि इसके अंतर्गत भक्ति, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य सभी का समाहार हो गया। उनका ग्रंथ ’उद्धवशतक‘ मानव मन की अद्भुत चित्रशाला बनकर सामने आया। [[श्रृंगार रस]] के निरूपण में उनका कोई भी समकालीन उनके समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। श्रृंगार के दोनों पक्षों के निरूपण में जगह-जगह तीव्र भावावेश के क्षणों में ऐसा लगता है मानो कवि स्वयं ही द्रविभूत होकर कविता बन उपस्थित हुआ हो। भाव-चित्रों के इस शिल्पी ने ’उद्धवशतक‘ में अनुभवों की योजना, मूक मौन व्यजंना और रससिक्त मर्मस्पर्शी सूक्तियों का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस कृति का ताना-बाना भावुकता के अतिरेक से पैदा होने वाले कृतिम उद्वेग से नहीं बल्कि हृदय की सच्ची पुकार से बुना गया है, जहाँ विरहणीब्रजांगनाओं के आँसुओं में प्रेम की स्निग्धता, अनुभूति की आर्द्रता उनके विश्वास में संयम की धार भी है। जगन्नाथदास रत्नाकर ने अपनी कृतियों से की सामर्थ्य का झंडा ऊँचा कर दिखाया है, जिसमें शब्द और अर्थ एक हो गये हैं, जहाँ शब्द अपने आप बोलते हैं मानो शब्द का अर्थ-विधान ही अपने पट खोलता चलता हो। उन्होंने अंलकारों के बड़े ही संतुलित और अपेक्षित प्रयोगों द्वारा भाव-व्यजंना को उत्कर्ष दिया है। उनके सांगरूपक तो [[हिंदी]] में विरले ही हैं। परंपरा की कई लीकों से हटकर लोकोक्तियों और मुहावरों का अलग अंदाज है। रीति काव्य परंपरा का प्रेम और ब्रजभाषा को उनकी दृष्टि की सीमा भले ही माना जाये, लेकिन यह ब्रजभाषा के प्रति अपूर्व निष्ठा थी, जो ब्रजभाषा को अपने सशक्त मानदंडो में सुरक्षित रखना चाहती थी। सामयिक आंदोलनों से परे रहकर उन्होंने ब्रजभाषा साहित्य का परिष्कार करने और मानवीय अंतर्मन का कोना-कोना झाँकने में अपनी शक्ति लगा दी। नारी मन का कोई छोर ऐसा नहीं बचा जिसे उनके शब्दों के कोमल और तीव्र स्पर्श ने छुआ न हो।<ref name="अभिव्यक्ति"/> |
Revision as of 10:46, 21 February 2014
जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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पूरा नाम | जगन्नाथदास 'रत्नाकर' |
जन्म | सन् 1866 |
जन्म भूमि | वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 22 जून, 1932 |
मृत्यु स्थान | हरिद्वार |
कर्म-क्षेत्र | कवि, लेखक, सम्पादक |
मुख्य रचनाएँ | गंगावतरण, श्रृंगारलहरी, गंगालहरी, विष्णुलहरी, उद्धवशतक, हिंडोल आदि |
भाषा | ब्रजभाषा |
विद्यालय | क्वींस कॉलेज, काशी |
शिक्षा | बी.ए. |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | इन्होंने अंग्रेज़ी कवि पोप की प्रसिद्ध रचना ’एसे ऑन क्रिटिसिज्म‘ का रोला छंद में अनुवाद भी किया। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
जगन्नाथदास 'रत्नाकर' (अंग्रेज़ी: Jagannathdas Ratnakar, जन्म: सन् 1866 - मृत्यु: 22 जून, 1932) भारत के प्रसिद्ध कवियों में गिने जाते थे। ये आधुनिक युग के श्रेष्ठ ब्रजभाषा कवि थे। इन्हें प्राचीन संस्कृति, मध्यकालीन हिन्दी काव्य, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, हिन्दी, आयुर्वेद, संगीत, ज्योतिष तथा दर्शनशास्त्र की अच्छी जानकारी थी। इन्होंने प्रचुर साहित्य सेवा की थी।
जीवन परिचय
ब्रजभाषा काव्यधारा के अंतिम सर्वश्रेष्ठ कवि जगन्नाथदास ’रत्नाकर‘ आधुनिक हिंदी साहित्य में अनुभूतियों के सशक्त चित्रकार, ब्रजभाषा के समर्थ कवि और एक अद्वितीय भाष्यकार के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने खड़ीबोली के युग में जीवित व्यक्ति की तरह हृदय के प्रत्येक स्पंदन को महसूस करने वाली ब्रजभाषा का आदर्श खड़ा किया, जिसके हर शब्द की अपनी गति और लय है।[1]
जन्म एवं शिक्षा
जगन्नाथदास 'रत्नाकर' का जन्म 1866 ई. में वाराणसी के शिवाला घाट मोहल्ले में एक समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पुरुषोत्तमदास था। इनके रहन-सहन में राजसी ठाठ-बाट था। इन्हें हुक्का, इत्र, पान, घुड़सवारी आदि का बहुत शौक़ था। हिंदी का संस्कार उन्हें अपने हिंदी-प्रेमी पिता से मिला। स्कूली शिक्षा में उन्होंने कई भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया। काशी के क्वींस कॉलेज से उन्होंने बी.ए. की परिक्षा उत्तीर्ण की। जब वे जीविकोपार्जन की तरफ मुड़े तो वे अबागढ़ के खजाने के निरीक्षक, अयोध्या नरेश प्रताप नारायण सिंह तथा उनकी मृत्यु के बाद महारानी जगदंबा देवी के निजी सचिव नियुक्त हुए। अयोध्या में रहते हुए जगन्नाथदास रत्नाकर की कार्य-प्रतिभा समय-समय पर विकास के अवसर पाती रही। महारानी जगदंबा देवी की कृपा से उनकी काव्य कृति ’गंगावतरण‘ सामने आई।[1]
साहित्यिक परिचय
जगन्नाथदास रत्नाकर हिंदी लेखन की ओर उस समय प्रवृत्त हुए जब खड़ीबोली हिंदी को काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने का व्यापक अभियान चल रहा था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक, पं. नाथूराम शंकर शर्मा जैसे लोग खड़ीबोली हिंदी को भारी समर्थन दे रहे थे, लेकिन काव्यभाषा की बदलती लहर रत्नाकर के ब्रजभाषा-प्रेम को अपदस्थ नहीं कर सकी। वे ब्रजभाषा का आँचल छोड़कर खड़ीबोली के पाले में जाने को किसी भी तरह तैयार नहीं हुए। जब उनके समकालीन खड़ीबोली के परिष्कार और परिमार्जन में संलग्न थे तब वे ब्रजभाषा की त्रुटियों का परिष्कार कर साहित्यिक ब्रजभाषा के रूप की साज-सँवार कर रहे थे। उन्होंने ब्रजभाषा का नए शब्दों, मुहावरों से ऐसा श्रृंगार किया कि वे सूरदास, पद्माकर और घनानंद की ब्रजभाषा से अलग केवल उनकी ब्रजभाषा बन गई, जिसमें उर्दू और फ़ारसी की रवानगी, संस्कृत का आभिजात्य और लोकभाषा की शक्ति समा गई। जिसके एक-एक वर्ण में एक-एक शब्द में और एक-एक पर्याय में भावलोक को चित्रित करने की अदम्य क्षमता है। जगन्नाथदास रत्नाकर की संवेदनशीलता ने बचपन में ही कविता में ढलना शुरू कर दिया था। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने उर्दू व फ़ारसी के साथ हिंदी में कवित्त लिखना शुरू कर दिया था। वे ’जकी‘ उपनाम से उर्दू शायरी करते थे। बाद में उन्होंने ब्रजभाषा काव्य को ही अपना क्षेत्र बना लिया। काव्य सृजन के साथ-साथ उन्होंने अपनी पठन रूचि को भी बराबर विकसित किया। वे साहित्य, दर्शन, अध्यात्म, पुराण-सब पढ़ डालते।[1]
कृतियाँ
राजनीतिक उलझनों और कचहरी के मामलों में उनके काव्य-सृजर को मनमाना विस्तार भले ही न मिल पाया हो, लेकिन व्यस्तता के बावजूद उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य संपदा की वृद्धि करने वाली कृतियाँ रचीं। इनके द्वारा रचित, सम्पादित तथा प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं-
पद्य | गद्य | सम्पादित रचनाएँ | प्रकाशित रचनाएँ | ||||
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इन्होंने अंग्रेज़ी कवि पोप की प्रसिद्ध रचना ’एसे ऑन क्रिटिसिज्म‘ का रोला छंद में अनुवाद भी किया। इन कृतियों में ’उद्धवशतक‘ और ’बिहारी रत्नाकर‘ को विशेष महत्व मिला। ’उद्धवशतक‘, ’भ्रमरगीत‘ परंपरा का विशिष्ट काव्य बना तो ’बिहारी रत्नाकर‘ ’बिहारी सतसई‘ पर लिखी गई कविताओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया। इनके अतिरिक्त 'हमीर हट', 'हित तरंगिणी', 'कविकुल कण्ठाभरण' नामक कृतियों का भी सम्पादन इन्होंने किया। ‘साहित्य सुधा’ नामक पत्र का सम्पादन भी आपने किया था।[1]
साहित्यिक विशेषताएँ
जगन्नाथदास रत्नाकर ने भक्तिकाल की भाव प्रवणता और रीतिकाल की श्रंगारिकता को अपनी कविता के नए बाने में सजाया। उन्होंने भक्ति भावना से समन्वित कविताएँ भी लिखीं, वीरों के वृत्तांत भी लिखे, नीति को भी कविता में उतारा; लेकिन उनका मन मूलतः श्रंगारिकता की अभिव्यक्ति में ही अधिक रमा है और इस श्रंगारिकता की ख़ूबी यह रही कि इसके अंतर्गत भक्ति, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य सभी का समाहार हो गया। उनका ग्रंथ ’उद्धवशतक‘ मानव मन की अद्भुत चित्रशाला बनकर सामने आया। श्रृंगार रस के निरूपण में उनका कोई भी समकालीन उनके समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। श्रृंगार के दोनों पक्षों के निरूपण में जगह-जगह तीव्र भावावेश के क्षणों में ऐसा लगता है मानो कवि स्वयं ही द्रविभूत होकर कविता बन उपस्थित हुआ हो। भाव-चित्रों के इस शिल्पी ने ’उद्धवशतक‘ में अनुभवों की योजना, मूक मौन व्यजंना और रससिक्त मर्मस्पर्शी सूक्तियों का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस कृति का ताना-बाना भावुकता के अतिरेक से पैदा होने वाले कृतिम उद्वेग से नहीं बल्कि हृदय की सच्ची पुकार से बुना गया है, जहाँ विरहणीब्रजांगनाओं के आँसुओं में प्रेम की स्निग्धता, अनुभूति की आर्द्रता उनके विश्वास में संयम की धार भी है। जगन्नाथदास रत्नाकर ने अपनी कृतियों से की सामर्थ्य का झंडा ऊँचा कर दिखाया है, जिसमें शब्द और अर्थ एक हो गये हैं, जहाँ शब्द अपने आप बोलते हैं मानो शब्द का अर्थ-विधान ही अपने पट खोलता चलता हो। उन्होंने अंलकारों के बड़े ही संतुलित और अपेक्षित प्रयोगों द्वारा भाव-व्यजंना को उत्कर्ष दिया है। उनके सांगरूपक तो हिंदी में विरले ही हैं। परंपरा की कई लीकों से हटकर लोकोक्तियों और मुहावरों का अलग अंदाज है। रीति काव्य परंपरा का प्रेम और ब्रजभाषा को उनकी दृष्टि की सीमा भले ही माना जाये, लेकिन यह ब्रजभाषा के प्रति अपूर्व निष्ठा थी, जो ब्रजभाषा को अपने सशक्त मानदंडो में सुरक्षित रखना चाहती थी। सामयिक आंदोलनों से परे रहकर उन्होंने ब्रजभाषा साहित्य का परिष्कार करने और मानवीय अंतर्मन का कोना-कोना झाँकने में अपनी शक्ति लगा दी। नारी मन का कोई छोर ऐसा नहीं बचा जिसे उनके शब्दों के कोमल और तीव्र स्पर्श ने छुआ न हो।[1]
निधन
सन 1930, कलकत्ता में हुए 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य' के जगन्नाथजी अध्यक्ष नियुक्त हुए थे। ब्रजभाषा के कवियों में आधुनिक कवियों के तौर पर ये सर्वथा विशिष्ट हैं। 22 जून, 1932 को इनकी मृत्यु के पश्चात 'कविवर बिहारी' शीर्षक ग्रंथ की रचना का प्रकाशन इनके पौत्र रामकृण ने किया था। मरणोपरांत ‘सूरसागर’ सम्पादित ग्रंथ का प्रकाशन आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निरीक्षण में हुआ था।
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