कृत्तिवास: Difference between revisions
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कृत्तिवास अथवा 'कृत्तिवास ओझा' बंगाल के अत्यंत लोकप्रिय कवि थे, जिन्होंने बंगला भाषा में वाल्मीकि रामायण का सर्वप्रथम पद्यानुवाद किया था। उनका यह अनुवाद अविकल अनुवाद नहीं है। उन्होंने अपनी कल्पना शक्ति एवं काव्य शक्ति द्वारा चरित्रों एवं घटनाओं का चित्रण कहीं-कहीं पर भिन्न रूप में किया है। इनके काव्य में पात्रों के भीतर कुछ अधिक कोमलता दिखाई गई है। करुण रस की भी अधिक गहरी अनुभूति है।
जीवन परिचय
कृत्तिवास की निश्चित जन्म तिथि उनके आत्मचरित से भी ज्ञात नहीं होती। योगेशचंद्र राय 1433, दिनेशचंद्र 1385 से 1400 ई. के बीच तथा सुकुमार सेन 15वीं शती के उत्तरार्ध में इनका जन्म मानते हैं। 20वीं शताब्दी के कुछ विद्वानों ने, जिनमें नगेंद्रनाथ वसु एवं निदेशचंद्र सेन प्रमुख हैं, एक हस्त लिखित पोथी प्राप्त की, जो कृत्तिवास का आत्मचरित बताया जाता है। इस पोथी को दिनेशचंद्र सेन ने 1901 ई. में अपने ग्रंथ 'बंगभाषा और साहित्य' के द्वितीय संस्करण में प्रकाशित किया। इसके बाद नलिनीकांत भट्टशाली ने भी एक हस्तलिखित पोथी प्राप्त की। इन पोथियों के अनुसार कृत्तिवास फुलिया के रहने वाले थे। इनके पूर्व पुरुष यवन-उपद्रव-काल में अपना स्थान छोड़कर चले आए थे। इनके पितामह का नाम मुरारी ओझा, पिता का नाम वनमाली एव माता का नाम मानिकी था। कृत्तिवास पाँच भाई थे। ये पद्मा नदी के पार वारेंद्र भूमि में पढ़ने गए थे।[1]
विद्वान् मतभेद
कृत्तिवास अपने अध्यापक आचार्य चूड़ामणि के अत्यंत प्रिय शिष्य थे। अध्ययन समाप्त करने के बाद वे गौड़ेश्वर के दरबार में गए। यह कौन-से गौड़ाधिपति थे, इसका उल्लेख नहीं है। कुछ विद्वानों ने इन्हें हिन्दू शासक राजा गणेश (कंस) माना है तथा कुछ ने ताहिरपुर के राजा कंसनारायण। अन्य एक तीसरे राजा दनुजमर्दन का भी नाम लेते हैं। जनश्रुति के अनुसार कृत्तिवास ने गौड़ेश्वर को पाँच श्लोक लिखकर भेजे थे। उन्हें पढ़कर राजा अतीव प्रसन्न हुए और इन्हें तुरंत अपने समक्ष बुलाया। वहाँ जाकर इन्होंने कुछ और श्लोक सुनाए। राजा ने इनका अत्यंत सत्कार किया और 'रामायण' लिखने का अनुरोध किया।
काव्य लेखन
वाल्मीकि के राम क्षत्रिय वीर हैं; जो वीरत्व, शौर्य एवं बल में अद्वितीय हैं, परंतु कृत्तिवास ने राम की कुसुम-कोमल मूर्ति ही देखी है। उनके राम का तन नवनी जिनिया अति सुकोमल है और वे हाथ में फुल धनु लेकर वन जाते हैं। परंतु जहाँ तक वाल्मीकि रामायण के उच्च आदर्शों का प्रश्न हैं, कृत्तिवास ने उन सबको अपनी रचना में अक्षुण रखा है। पितृभक्ति, सत्यनिष्ठा, त्याग, प्रजानुरंजन, पात्तिव्रत इत्यादि सब आदर्शों का सफलतापूर्वक प्रतिपादन किया गया है। कवि ने इसमें कहीं नए आख्यान देकर, कहीं बंगाल की रीति नीति, कहीं आमोद-प्रमोद, कहीं आचार अनुष्ठान और कहीं नारी रूप दिखाकर इस रचना को अपने प्रदेश के निवासयोिं की वस्तु बना दिया है। इन्होंने वाल्मीकि रामायण के गूढ़ दार्शनिक अंशों, विचारों के विश्लेषणात्मक भागों एवं आलंकारिकता को अपनी रचना में स्थान नहीं दिया है। रचना सौष्ठव और काव्य गुण से युक्त यह रचना बंगाल की निजस्व बन गई है।[1]
कृत्तिवास की रामायण
बंगाल में कृत्तिवास की 'रामायण' अत्यंत लोकप्रिय है। धनी, दरिद्र सबके बीच इसका आदर और प्रचार है। लोग अत्यंत प्रेम और भक्ति से इसका पाठ करते हैं। प्राय: इसका पाठ गाकर ही किया जाता है। कृत्तिवास के विषय में अधिक दिनों तक अधिक ज्ञात नहीं था। रामायण के प्रारंभ अथवा प्रत्येक कांड के अंत में एक-दो पंक्तियाँ मिलती थीं, जिनसे ज्ञात होता था कि रामायण के रचयिता का नाम कृत्तिवास है और वे विचक्षण कवि हैं; उन्होंने पुराण सुनकर कौतुक में ही गीत रच डाले।
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