महादजी शिन्दे: Difference between revisions
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'''महादजी शिन्दे''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Mahadaji Shinde'', मृत्यु:[[12 फरवरी]] 1794 ई.) रणोजी सिंधिया का अवैध [[पुत्र]] और उत्तराधिकारी था। वह अंग्रेज़ों के औपनिवेशिक काल में प्रमुख रूप से सक्रिय था। महादजी शिन्दे एक बहुत ही महत्वाकांक्षी और सैनिक गुणों से सम्पन्न व्यक्ति था। अपनी तीव्र बुद्धि और सैनिक कुशलताओं के कारण ही वह [[मराठा साम्राज्य]] में विशिष्ट स्थान रखता था। उसकी [[मृत्यु]] 1794 ई. में हुई थी। | '''महादजी शिन्दे''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Mahadaji Shinde'', मृत्यु:[[12 फरवरी]] 1794 ई.) रणोजी सिंधिया का अवैध [[पुत्र]] और उत्तराधिकारी था। वह अंग्रेज़ों के औपनिवेशिक काल में प्रमुख रूप से सक्रिय था। महादजी शिन्दे एक बहुत ही महत्वाकांक्षी और सैनिक गुणों से सम्पन्न व्यक्ति था। अपनी तीव्र बुद्धि और सैनिक कुशलताओं के कारण ही वह [[मराठा साम्राज्य]] में विशिष्ट स्थान रखता था। उसकी [[मृत्यु]] 1794 ई. में हुई थी। | ||
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महादजी शिन्दे के जन्म के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मतभेद है। कुछ | महादजी शिन्दे के जन्म के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मतभेद है। कुछ विद्वान् इनका जन्म 1729 ई. व 1730 ई. में मानते हैं। ये [[मराठा साम्राज्य]] के शासक थे, इन्होंने [[ग्वालियर]] पर शासन किया था। इनके [[पिता]] का नाम सरदार रानोजी राव शिंदे व [[माता]] का नाम चीमा बाई था। इनक राज्याभिषेक [[18 जनवरी]] 1768 ई. को हुआ व इन्होंने [[18 जनवरी]] 1768 ई.-[[12 फरवरी]] 1794 ई. तक शासन किया था। | ||
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[[पेशवा]] [[बाजीराव प्रथम]] के शासन काल में महादजी शिन्दे छोटे से पद से पदोन्नति करते हुए उच्च पद तक पहुँच गया। 1803 ई. के द्वितीय युद्ध में उसने भाग लिया और घाव लगने के कारण सदा के लिए लंगड़ा हो गया। [[महाराष्ट्र]] वापस लौटकर उसने अपने दायित्व का निर्वाह इतनी कुशलता से किया कि सरदारों में वही सबसे प्रमुख गिना जाने लगा। उसका मुख्य उद्देश्य [[पूना]] स्थित पेशवा को [[नाना फड़नवीस]] के संरक्षण से हटाकर अपने संरक्षण में लेना था। इस लक्ष्य में वह सफल तो न हो सका, पर शीघ्र ही उत्तर [[भारत]] में उसने अपनी प्रतिष्ठा में इतनी वृद्धि कर ली कि 1771 ई. में [[शाहआलम द्वितीय]] को [[दिल्ली]] के सिंहासन पर पुन: आसीन कर स्वयं उसका रक्षक बन गया। | [[पेशवा]] [[बाजीराव प्रथम]] के शासन काल में महादजी शिन्दे छोटे से पद से पदोन्नति करते हुए उच्च पद तक पहुँच गया। 1803 ई. के द्वितीय युद्ध में उसने भाग लिया और घाव लगने के कारण सदा के लिए लंगड़ा हो गया। [[महाराष्ट्र]] वापस लौटकर उसने अपने दायित्व का निर्वाह इतनी कुशलता से किया कि सरदारों में वही सबसे प्रमुख गिना जाने लगा। उसका मुख्य उद्देश्य [[पूना]] स्थित पेशवा को [[नाना फड़नवीस]] के संरक्षण से हटाकर अपने संरक्षण में लेना था। इस लक्ष्य में वह सफल तो न हो सका, पर शीघ्र ही उत्तर [[भारत]] में उसने अपनी प्रतिष्ठा में इतनी वृद्धि कर ली कि 1771 ई. में [[शाहआलम द्वितीय]] को [[दिल्ली]] के सिंहासन पर पुन: आसीन कर स्वयं उसका रक्षक बन गया। | ||
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==शिन्दे की मृत्यु== | ==शिन्दे की मृत्यु== |
Latest revision as of 10:53, 28 January 2020
महादजी शिन्दे
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जन्म | 1727 ई., 1729 ई. या 1730 ई. |
मृत्यु तिथि | 12 फरवरी 1794 ई. |
पिता/माता | सरदार रानोजी राव शिंदे, चीमा बाई |
राज्याभिषेक | 18 जनवरी 1768 ई. |
युद्ध | द्वितीय मराठा युद्ध- 1803 ई.-1806 ई. |
शासन काल | 18 जनवरी 1768 ई.-12 फरवरी 1794 ई. |
संबंधित लेख | शिवाजी, शाहजी भोंसले, शम्भाजी पेशवा, बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव प्रथम, बाजीराव द्वितीय, राजाराम शिवाजी, ग्वालियर, दौलतराव शिन्दे, नाना फड़नवीस, शाहू, सालबाई की सन्धि, मराठा साम्राज्य, आंग्ल-मराठा युद्ध प्रथम |
धर्म | हिन्दू |
अन्य जानकारी | पेशवा बाजीराव प्रथम के शासन काल में महादजी शिन्दे छोटे से पद से पदोन्नति करते हुए उच्च पद तक पहुँच गया। 1803 ई. के द्वितीय युद्ध में उसने भाग लिया और घाव लगने के कारण सदा के लिए लंगड़ा हो गया। |
महादजी शिन्दे (अंग्रेज़ी: Mahadaji Shinde, मृत्यु:12 फरवरी 1794 ई.) रणोजी सिंधिया का अवैध पुत्र और उत्तराधिकारी था। वह अंग्रेज़ों के औपनिवेशिक काल में प्रमुख रूप से सक्रिय था। महादजी शिन्दे एक बहुत ही महत्वाकांक्षी और सैनिक गुणों से सम्पन्न व्यक्ति था। अपनी तीव्र बुद्धि और सैनिक कुशलताओं के कारण ही वह मराठा साम्राज्य में विशिष्ट स्थान रखता था। उसकी मृत्यु 1794 ई. में हुई थी।
परिचय
महादजी शिन्दे के जन्म के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मतभेद है। कुछ विद्वान् इनका जन्म 1729 ई. व 1730 ई. में मानते हैं। ये मराठा साम्राज्य के शासक थे, इन्होंने ग्वालियर पर शासन किया था। इनके पिता का नाम सरदार रानोजी राव शिंदे व माता का नाम चीमा बाई था। इनक राज्याभिषेक 18 जनवरी 1768 ई. को हुआ व इन्होंने 18 जनवरी 1768 ई.-12 फरवरी 1794 ई. तक शासन किया था।
महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति
पेशवा बाजीराव प्रथम के शासन काल में महादजी शिन्दे छोटे से पद से पदोन्नति करते हुए उच्च पद तक पहुँच गया। 1803 ई. के द्वितीय युद्ध में उसने भाग लिया और घाव लगने के कारण सदा के लिए लंगड़ा हो गया। महाराष्ट्र वापस लौटकर उसने अपने दायित्व का निर्वाह इतनी कुशलता से किया कि सरदारों में वही सबसे प्रमुख गिना जाने लगा। उसका मुख्य उद्देश्य पूना स्थित पेशवा को नाना फड़नवीस के संरक्षण से हटाकर अपने संरक्षण में लेना था। इस लक्ष्य में वह सफल तो न हो सका, पर शीघ्र ही उत्तर भारत में उसने अपनी प्रतिष्ठा में इतनी वृद्धि कर ली कि 1771 ई. में शाहआलम द्वितीय को दिल्ली के सिंहासन पर पुन: आसीन कर स्वयं उसका रक्षक बन गया।
सालबाई की सन्धि
thumb|left|250px|महादजी शिन्दे छतरी इसके बाद महादजी शिन्द अंग्रेज़ों और मराठों के बीच होने वाले प्रथम मराठा युद्ध (1775-82 ई.) में मध्यस्थ बना रहा और सालबाई की सन्धि के द्वारा दोनों पक्षों में पुन: शान्ति स्थापित करा दी। इससे अंग्रेज़ों में भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। अंग्रेज़ों के सैनिक संगठन की श्रेष्ठता को भली-भाँति परखकर उसने अपनी सेना को भी काउन्ट दब्बांग जैसे यूरोपीय पदाधिकारियों की सहायता से पुनर्गठित किया और उसमें एक शक्तिशाली तोपख़ाने की व्यवस्था करके उसे एक नियमित सेना का रूप प्रदान किया। इसके बल पर उसने राजपूत और मुसलमान शासकों पर अपनी धाक जमा ली। 1790 ई. में पाटन नामक स्थान पर राजपूताना के इस्माइल बेग को, 1791 ई. में मिर्था के युद्ध में राजपूत शासकों के सम्मिलित दल को और 1792 ई. में लखेड़ी के युद्ध में होल्कर को पराजित किया।
शिन्दे की मृत्यु
इसके पूर्व ही उसने नाम मात्र के सम्राट शाहआलम द्वितीय से पेशवा को 'वकीले मुतलक' अथवा 'साम्राज्य के उपप्रधान' का ख़िताब दिलाया। 1793 ई. में महादजी शिन्दे के संयोजन से ही पूना में एक विशेष समारोह में विधिवत यह उपाधि पेशवा को दी गई। यद्यपि इससे पेशवा का केवल प्रतीकात्मक लाभ हुआ, तथापि महादजी शिन्दे के जीवन में यह समारोह उसकी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि थी। 1794 ई. में महादजी शिन्दे की मृत्यु हो गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख