गालव: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "रूष" to "रुष") |
||
Line 1: | Line 1: | ||
*[[विश्वामित्र]] तपस्या में लीन थे। गालव (उनके शिष्य) सेवारत थे। धर्मराज ने विश्वामित्र की परीक्षा लेने के लिए [[वसिष्ठ]] का रूप धारण किया और आश्रम में जाकर विश्वामित्र से तुरंत भोजन मांगा। विश्वामित्र ने मनोयोग से भोजन तैयार किया किंतु जब तक 'वसिष्ठ' रूप-धारी धर्मराज के पास पहुंचे, वे अन्य तपस्वी मुनियों का दिया भोजन कर चुके थे। यह बतलाकर वे चले गये। विश्वामित्र उष्ण भोजन अपने हाथों से, माथे पर थामकर जहां के तहां मूर्तिमान, वायु का भक्षण करते हुए 100 वर्ष तक खड़े रहे। गालव उनकी सेवा में लगे रहे। सौ वर्ष उपरांत धर्मराज पुन: उधर आये और विश्वामित्र से प्रसन्न हो उन्होंने भोजन किया। भोजन एकदम ताजा था। परम संतुष्ट होकर उनके चले जाने के उपरांत गालव मुनि की सेवा- | *[[विश्वामित्र]] तपस्या में लीन थे। गालव (उनके शिष्य) सेवारत थे। धर्मराज ने विश्वामित्र की परीक्षा लेने के लिए [[वसिष्ठ]] का रूप धारण किया और आश्रम में जाकर विश्वामित्र से तुरंत भोजन मांगा। विश्वामित्र ने मनोयोग से भोजन तैयार किया किंतु जब तक 'वसिष्ठ' रूप-धारी धर्मराज के पास पहुंचे, वे अन्य तपस्वी मुनियों का दिया भोजन कर चुके थे। यह बतलाकर वे चले गये। विश्वामित्र उष्ण भोजन अपने हाथों से, माथे पर थामकर जहां के तहां मूर्तिमान, वायु का भक्षण करते हुए 100 वर्ष तक खड़े रहे। गालव उनकी सेवा में लगे रहे। सौ वर्ष उपरांत धर्मराज पुन: उधर आये और विश्वामित्र से प्रसन्न हो उन्होंने भोजन किया। भोजन एकदम ताजा था। परम संतुष्ट होकर उनके चले जाने के उपरांत गालव मुनि की सेवा-शुश्रुषा से प्रसन्न् होकर विश्वामित्र ने उसे स्वेच्छा से जाने की आज्ञा दी। उसके बहुत आग्रह करने पर खीज कर विश्वामित्र ने गुरु-दक्षिणा में [[चंद्रमा देवता|चंद्रमा]] के समान श्वेत वर्ण के किंतु एक ओर से काले कानों वाले आठ सौ घोड़े माँगे। | ||
*गालव निर्धन विद्यार्थी था- ऐसे घोड़े भला कहां से लाता! चिंतातुर गालव की सहायता करने के लिए [[विष्णु]] ने [[गरुड़]] को प्रेरित किया। गरुड़ गालव का मित्र था। वह गालव को पूर्व दिशा में ले उड़ा। ऋषभ पर्वत पर उन दोनों ने शांडिली नामक तपस्विनी ब्राह्मणी के यहाँ भोजन प्राप्त किया और विश्राम किया। जब वे सोकर उठे तब देखा कि गरुड़ के पंख कटे हुए हैं। गरुड़ ने कहा कि उसने सोचा था कि वह तपस्विनी को [[ब्रह्मा]], [[शिव|महादेव]] इत्यादि के पास पहुंचा दे। हो सकता है कि अनजाने में यह अशुभ चिंतन हुआ हो। फलस्वरूप उसके पंख कट गये। शांडिली से क्षमा करने की याचना करने पर गरुड़ को पुन: पंख प्राप्त हुए। वहां से चलने पर पुन: विश्वामित्र मिले तथा उन्होंने गुरु दक्षिणा शीघ्र प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। | *गालव निर्धन विद्यार्थी था- ऐसे घोड़े भला कहां से लाता! चिंतातुर गालव की सहायता करने के लिए [[विष्णु]] ने [[गरुड़]] को प्रेरित किया। गरुड़ गालव का मित्र था। वह गालव को पूर्व दिशा में ले उड़ा। ऋषभ पर्वत पर उन दोनों ने शांडिली नामक तपस्विनी ब्राह्मणी के यहाँ भोजन प्राप्त किया और विश्राम किया। जब वे सोकर उठे तब देखा कि गरुड़ के पंख कटे हुए हैं। गरुड़ ने कहा कि उसने सोचा था कि वह तपस्विनी को [[ब्रह्मा]], [[शिव|महादेव]] इत्यादि के पास पहुंचा दे। हो सकता है कि अनजाने में यह अशुभ चिंतन हुआ हो। फलस्वरूप उसके पंख कट गये। शांडिली से क्षमा करने की याचना करने पर गरुड़ को पुन: पंख प्राप्त हुए। वहां से चलने पर पुन: विश्वामित्र मिले तथा उन्होंने गुरु दक्षिणा शीघ्र प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। | ||
*गरुड़ गालव को अपने मित्र [[ययाति]] के यहाँ ले गया। ययाति राजा होकर भी उन दिनों आर्थिक संकट में था। अत: ययाति ने सोच-विचारकर अपनी सुंदरी कन्या गालव को प्रदान की और कहा कि वह धनवान राजा से कन्या के शुल्क स्वरूप अपरिमित धनराशि ग्रहण कर सकता है, ऐसे घोड़ों की तो बात ही क्या! कन्या का नाम माधवी था- उसे वेदवादी किसी महात्मा से वर प्राप्त था कि वह प्रत्येक प्रसव के उपरांत पुन: 'कन्या' हो जायेगी। किसी भी एक राजा के पास कथित प्रकार के आठ सौ घोड़े नहीं थे। गालव को बहुत भटकना पड़ा। | *गरुड़ गालव को अपने मित्र [[ययाति]] के यहाँ ले गया। ययाति राजा होकर भी उन दिनों आर्थिक संकट में था। अत: ययाति ने सोच-विचारकर अपनी सुंदरी कन्या गालव को प्रदान की और कहा कि वह धनवान राजा से कन्या के शुल्क स्वरूप अपरिमित धनराशि ग्रहण कर सकता है, ऐसे घोड़ों की तो बात ही क्या! कन्या का नाम माधवी था- उसे वेदवादी किसी महात्मा से वर प्राप्त था कि वह प्रत्येक प्रसव के उपरांत पुन: 'कन्या' हो जायेगी। किसी भी एक राजा के पास कथित प्रकार के आठ सौ घोड़े नहीं थे। गालव को बहुत भटकना पड़ा। |
Revision as of 08:02, 20 July 2011
- विश्वामित्र तपस्या में लीन थे। गालव (उनके शिष्य) सेवारत थे। धर्मराज ने विश्वामित्र की परीक्षा लेने के लिए वसिष्ठ का रूप धारण किया और आश्रम में जाकर विश्वामित्र से तुरंत भोजन मांगा। विश्वामित्र ने मनोयोग से भोजन तैयार किया किंतु जब तक 'वसिष्ठ' रूप-धारी धर्मराज के पास पहुंचे, वे अन्य तपस्वी मुनियों का दिया भोजन कर चुके थे। यह बतलाकर वे चले गये। विश्वामित्र उष्ण भोजन अपने हाथों से, माथे पर थामकर जहां के तहां मूर्तिमान, वायु का भक्षण करते हुए 100 वर्ष तक खड़े रहे। गालव उनकी सेवा में लगे रहे। सौ वर्ष उपरांत धर्मराज पुन: उधर आये और विश्वामित्र से प्रसन्न हो उन्होंने भोजन किया। भोजन एकदम ताजा था। परम संतुष्ट होकर उनके चले जाने के उपरांत गालव मुनि की सेवा-शुश्रुषा से प्रसन्न् होकर विश्वामित्र ने उसे स्वेच्छा से जाने की आज्ञा दी। उसके बहुत आग्रह करने पर खीज कर विश्वामित्र ने गुरु-दक्षिणा में चंद्रमा के समान श्वेत वर्ण के किंतु एक ओर से काले कानों वाले आठ सौ घोड़े माँगे।
- गालव निर्धन विद्यार्थी था- ऐसे घोड़े भला कहां से लाता! चिंतातुर गालव की सहायता करने के लिए विष्णु ने गरुड़ को प्रेरित किया। गरुड़ गालव का मित्र था। वह गालव को पूर्व दिशा में ले उड़ा। ऋषभ पर्वत पर उन दोनों ने शांडिली नामक तपस्विनी ब्राह्मणी के यहाँ भोजन प्राप्त किया और विश्राम किया। जब वे सोकर उठे तब देखा कि गरुड़ के पंख कटे हुए हैं। गरुड़ ने कहा कि उसने सोचा था कि वह तपस्विनी को ब्रह्मा, महादेव इत्यादि के पास पहुंचा दे। हो सकता है कि अनजाने में यह अशुभ चिंतन हुआ हो। फलस्वरूप उसके पंख कट गये। शांडिली से क्षमा करने की याचना करने पर गरुड़ को पुन: पंख प्राप्त हुए। वहां से चलने पर पुन: विश्वामित्र मिले तथा उन्होंने गुरु दक्षिणा शीघ्र प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की।
- गरुड़ गालव को अपने मित्र ययाति के यहाँ ले गया। ययाति राजा होकर भी उन दिनों आर्थिक संकट में था। अत: ययाति ने सोच-विचारकर अपनी सुंदरी कन्या गालव को प्रदान की और कहा कि वह धनवान राजा से कन्या के शुल्क स्वरूप अपरिमित धनराशि ग्रहण कर सकता है, ऐसे घोड़ों की तो बात ही क्या! कन्या का नाम माधवी था- उसे वेदवादी किसी महात्मा से वर प्राप्त था कि वह प्रत्येक प्रसव के उपरांत पुन: 'कन्या' हो जायेगी। किसी भी एक राजा के पास कथित प्रकार के आठ सौ घोड़े नहीं थे। गालव को बहुत भटकना पड़ा।
- पहले वह अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशी राजा हर्यश्व के पास गया। उसने माधवी से वसुमना नामक (दानवीर) राजकुमार प्राप्त किया तथा शुल्क-रूप में कथित 200 अश्व प्रदान किये।
- धरोहरस्वरूप घोड़ों को वहीं छोड़ गालव माधवी को लेकर काशी के अधिपति दिवोदास के पास गया। उसने भी 200 अश्व दिये तथा प्रतर्दन नामक (शूरवीर) पुत्र प्राप्त किया।
- तदुपरांत दो सौ घोड़ों के बदले में भोजनगर के राजा उशीनर ने शिवि नामक (सत्यपरायण) पुत्र प्राप्त किया।
- गुरुदक्षिणा मं अभी भी 200 अश्वों की कमी थी। माधवी तथा गालव का पुन: गरुड़ से साक्षात्कार हुआ। उसने बताया कि पूर्वकाल में ऋचीक मुनि गाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह करना चाहते थे। गाधि ने शुल्क स्वरूप इसी प्रकार के एक सहस्त्र घोड़े मुनि से लिये थे। राजा ने पुंडरीक नामक यज्ञ कर सभी घोड़े दान कर दिये। राजाओं ने ब्राह्मणों से दो, दो सौ घोड़े ख़रीद लिये।
- घर लौटते समय वितस्ता नदी पार करते हुए चार सौ घोड़े बह गये थे। अत: इन छह सौ के अतिरिक्त ऐसे अन्य घोड़े नहीं मिलेंगे। दोनों ने परस्पर विचार कर छ: सौ घोड़ों के साथ माधवी को विश्वामित्र की सेवा में प्रस्तुत किया। विश्वामित्र ने माधवी से अष्टक नामक यज्ञ अनुष्ठान करने वाला एक पुत्र प्राप्त किया। तदपरांत गालव को वह कन्या लौटाकर वे वन में चले गये। गालव ने भी गुरुदक्षिणा देने के भार से मुक्त हो ययाति को कन्या लौटाकर वन की ओर प्रस्थान किया। [1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 106 से 119 तक
संबंधित लेख