उग्रश्रवा: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
नवनीत कुमार (talk | contribs) ('{{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=उग्रश्रवा|लेख का नाम=उ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "विद्वान " to "विद्वान् ") |
||
Line 3: | Line 3: | ||
'''उग्रश्रवा''' का उल्लेख पौराणिक [[महाकाव्य]] [[महाभारत]] में हुआ है, जो कि [[रोमहर्षण]]<ref>कहीं- कहीं इनका नाम लोमहर्षण भी है।</ref> ऋषि के पुत्र थे। ये [[व्यास]] के शिष्य थे तथा इन्हें 'सूत' की उपाधि दी थी। इन्होंने [[नैमिषारण्य]] के ऋषियों की सृष्टि के रहस्य पर कथा सुनायी थी।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पौराणिक कोश|लेखक= राणा प्रसाद शर्मा|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=56|url=}}</ref> | '''उग्रश्रवा''' का उल्लेख पौराणिक [[महाकाव्य]] [[महाभारत]] में हुआ है, जो कि [[रोमहर्षण]]<ref>कहीं- कहीं इनका नाम लोमहर्षण भी है।</ref> ऋषि के पुत्र थे। ये [[व्यास]] के शिष्य थे तथा इन्हें 'सूत' की उपाधि दी थी। इन्होंने [[नैमिषारण्य]] के ऋषियों की सृष्टि के रहस्य पर कथा सुनायी थी।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पौराणिक कोश|लेखक= राणा प्रसाद शर्मा|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=56|url=}}</ref> | ||
एक समय की बात है, नैमिषारण्य<ref>नैमिष नाम की व्यवस्था वाराहपुराण में इस प्रकार मिलती है – एवं कृत्वा ततो देवो मुनि गोरमुर्ख तदा । उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलम् ।। अरण्येअस्मिस्ततस्वत्वे तन्नैमिषारण्यसंज्ञितम् ।। ऐसा करके भगवान ने उस समय गौरमुख मुनि से कहा–‘मैने निमिषमात्र में इस अरण्य (वन) के भीतर इस दानव सेना का संहार किया है। अत: यह वन नैमिषारण्य के नाम से प्रसिद्ध होगा।</ref> में 'कुलपति'<ref>जो | एक समय की बात है, नैमिषारण्य<ref>नैमिष नाम की व्यवस्था वाराहपुराण में इस प्रकार मिलती है – एवं कृत्वा ततो देवो मुनि गोरमुर्ख तदा । उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलम् ।। अरण्येअस्मिस्ततस्वत्वे तन्नैमिषारण्यसंज्ञितम् ।। ऐसा करके भगवान ने उस समय गौरमुख मुनि से कहा–‘मैने निमिषमात्र में इस अरण्य (वन) के भीतर इस दानव सेना का संहार किया है। अत: यह वन नैमिषारण्य के नाम से प्रसिद्ध होगा।</ref> में 'कुलपति'<ref>जो विद्वान् ब्राह्मण अकेला ही दस सहस्त्र जिज्ञासु व्यक्तियों का अन्न-दानादि के द्वारा भरण-पोषण करता है, उसे कुलपति कहते हैं।</ref> [[शौनक|महर्षि शौनक]] के बारह वर्षो तक चालू रहने वाले 'सत्र'<ref>जो कार्य अनेक व्यक्तियों के सहयोग से किया गया हो और जिसमें बहुतों को ज्ञान, सदाचार आदि की शिक्षा तथा अन्न-वस्त्रादि वस्तुएँ दी जाती हों, जो बहुतों के लिये तृप्तिकारक एवं उपयोगी हो, उसे ‘सत्र’ कहते हैं।</ref> में जब उत्तम एवं कठोर ब्रह्मर्षिगण अवकाश के समय सुखपूर्वक बैठे थे, सूत कुल को आनन्दित करने वाले रोमहर्षण पुत्र सौति स्वयं कौतूहलवश उन ब्रह्मर्षियों के समीप बड़े विनीत भाव से आये। <br /> | ||
वे [[पुराण|पुराणों]] के | वे [[पुराण|पुराणों]] के विद्वान् और कथावाचक थे। उस समय नैमिषारण्यवासियों के आश्रम में पधारे हुए उन उग्रश्रवा जी को, उनसे चित्र-विचित्र कथाएँ सुनने के लिये, सब तपस्वियों ने वहीं घेर लिया। उग्रश्रवा जी ने पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियों का अभिवादन किया और ‘आप लोगों की तपस्या सुखपूर्वक बढ़ रही है न? इस प्रकार कुशल प्रश्र किया। उन सत्पुरुषों ने भी उग्रश्रवा जी का भली भाँति स्वागत-सत्कार किया। इसके उपरांत जब वे सभी तपस्वी अपने-अपने आसन पर विराजमान हो गये, तब रोमहर्षण पुत्र उग्रश्रवा जी ने भी उनके बताये हुए आसन को विनयपूर्वक ग्रहण किया। | ||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2|पूर्णता=|शोध=}} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2|पूर्णता=|शोध=}} |
Latest revision as of 14:36, 6 July 2017
चित्र:Disamb2.jpg उग्रश्रवा | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- उग्रश्रवा (बहुविकल्पी) |
उग्रश्रवा का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य महाभारत में हुआ है, जो कि रोमहर्षण[1] ऋषि के पुत्र थे। ये व्यास के शिष्य थे तथा इन्हें 'सूत' की उपाधि दी थी। इन्होंने नैमिषारण्य के ऋषियों की सृष्टि के रहस्य पर कथा सुनायी थी।[2]
एक समय की बात है, नैमिषारण्य[3] में 'कुलपति'[4] महर्षि शौनक के बारह वर्षो तक चालू रहने वाले 'सत्र'[5] में जब उत्तम एवं कठोर ब्रह्मर्षिगण अवकाश के समय सुखपूर्वक बैठे थे, सूत कुल को आनन्दित करने वाले रोमहर्षण पुत्र सौति स्वयं कौतूहलवश उन ब्रह्मर्षियों के समीप बड़े विनीत भाव से आये।
वे पुराणों के विद्वान् और कथावाचक थे। उस समय नैमिषारण्यवासियों के आश्रम में पधारे हुए उन उग्रश्रवा जी को, उनसे चित्र-विचित्र कथाएँ सुनने के लिये, सब तपस्वियों ने वहीं घेर लिया। उग्रश्रवा जी ने पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियों का अभिवादन किया और ‘आप लोगों की तपस्या सुखपूर्वक बढ़ रही है न? इस प्रकार कुशल प्रश्र किया। उन सत्पुरुषों ने भी उग्रश्रवा जी का भली भाँति स्वागत-सत्कार किया। इसके उपरांत जब वे सभी तपस्वी अपने-अपने आसन पर विराजमान हो गये, तब रोमहर्षण पुत्र उग्रश्रवा जी ने भी उनके बताये हुए आसन को विनयपूर्वक ग्रहण किया।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कहीं- कहीं इनका नाम लोमहर्षण भी है।
- ↑ पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 56 |
- ↑ नैमिष नाम की व्यवस्था वाराहपुराण में इस प्रकार मिलती है – एवं कृत्वा ततो देवो मुनि गोरमुर्ख तदा । उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलम् ।। अरण्येअस्मिस्ततस्वत्वे तन्नैमिषारण्यसंज्ञितम् ।। ऐसा करके भगवान ने उस समय गौरमुख मुनि से कहा–‘मैने निमिषमात्र में इस अरण्य (वन) के भीतर इस दानव सेना का संहार किया है। अत: यह वन नैमिषारण्य के नाम से प्रसिद्ध होगा।
- ↑ जो विद्वान् ब्राह्मण अकेला ही दस सहस्त्र जिज्ञासु व्यक्तियों का अन्न-दानादि के द्वारा भरण-पोषण करता है, उसे कुलपति कहते हैं।
- ↑ जो कार्य अनेक व्यक्तियों के सहयोग से किया गया हो और जिसमें बहुतों को ज्ञान, सदाचार आदि की शिक्षा तथा अन्न-वस्त्रादि वस्तुएँ दी जाती हों, जो बहुतों के लिये तृप्तिकारक एवं उपयोगी हो, उसे ‘सत्र’ कहते हैं।
संबंधित लेख