ब्रजविलास

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ब्रजवासी दास वृंदावन के रहने वाले और बल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे। इन्होंने संवत् 1827 में 'ब्रजविलास' नामक एक प्रबंध काव्य तुलसीदास के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में बनाया।

भाषा

ब्रजवासी दास ने तुलसी का छंद क्रम ही लिया है, भाषा शुद्ध ब्रजभाषा ही है। उसमें कहीं अवधी या 'बैसवाड़ी' का नाम तक नहीं है। जिनको भाषा की पहचान तक नहीं, जो वीर रस वर्णन परिपाटी के अनुसार किसी पद्य में वर्णों का द्वित्व देख उसे प्राकृत भाषा कहते हैं, वे चाहे जो कहें।

विषय

ब्रजविलास में कृष्ण की भिन्न भिन्न लीलाओं का जन्म से लेकर मथुरा गमन तक का वर्णन किया गया है। भाषा सीधी सादी, सुव्यवस्थित और चलती हुई है। व्यर्थ शब्दों की भरती न होने से उसमें सफाई है। यह सब होने पर भी इसमें वह बात नहीं है जिसके बल से गोस्वामी जी के रामचरितमानस का इतना देशव्यापी प्रचार हुआ। जीवन की परिस्थितियों की वह अनेकरूपता, गंभीरता और मर्मस्पर्शिता इसमें कहाँ जो रामचरित और तुलसी की वाणी में है? इसमें तो अधिकतर क्रीड़ामय जीवन का ही चित्रण है। फिर भी साधारण श्रेणी के कृष्ण भक्त पाठकों में इसका प्रचार है -

कहति जसोदा कौन बिधि, समझाऊँ अब कान्ह।
भूलि दिखायो चंद मैं, ताहि कहत हरि खान
यहै देत नित माखन मोको । छिन छिन देति तात सो तोको
जो तुम श्याम चंद को खैहो । बहुरो फिर माखन कह पैहौ?
देखत रहौ खिलौना चंदा । हठ नहिं कीजै बालगोविंदा
पा लागौं हठ अधिक न कीजै । मैं बलि, रिसहि रिसहि तनछीजै।
जसुमति कहति कहा धौं कीजै । माँगत चंद कहाँ तें दीजै
तब जसुमति इक जलपुट लीनो । कर मैं लै तेहि ऊँचो कीनो
ऐसे कहि स्यामै बहरावै । आव चंद, तोहि लाल बुलावै
हाथ लिए तेहि खेलत रहिए । नैकु नहीं धारनी पै धारिए


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 252-53।

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