धन्वन्तरि: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - " जगत " to " जगत् ") |
||
(3 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 7: | Line 7: | ||
|शीर्षक 2=प्रणेता | |शीर्षक 2=प्रणेता | ||
|पाठ 2=[[आयुर्वेद]] | |पाठ 2=[[आयुर्वेद]] | ||
|शीर्षक 3= | |शीर्षक 3=त्योहार | ||
|पाठ 3= | |पाठ 3='[[धनतेरस]]' | ||
|शीर्षक 4= | |शीर्षक 4= | ||
|पाठ 4= | |पाठ 4= | ||
|शीर्षक 5= | |शीर्षक 5=विशेष | ||
|पाठ 5= | |पाठ 5=[[हिन्दू]] धार्मिक ग्रंथ '[[विष्णुपुराण]]' के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। | ||
|संबंधित लेख=[[धनतेरस]], [[समुद्र मंथन]] | |संबंधित लेख=[[धनतेरस]], [[समुद्र मंथन]] | ||
|अन्य जानकारी=जब [[देवता|देवताओं]] और [[असुर|असुरों]] ने '[[समुद्र मंथन]]' किया तो अनेक मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति के बाद अंत में धन्वन्तरि हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। | |अन्य जानकारी=जब [[देवता|देवताओं]] और [[असुर|असुरों]] ने '[[समुद्र मंथन]]' किया तो अनेक मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति के बाद अंत में धन्वन्तरि हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। | ||
Line 19: | Line 19: | ||
}} | }} | ||
'''धन्वन्तरि''' [[हिन्दू धर्म]] में मान्य देवताओं में से एक हैं। भगवान धन्वन्तरि [[आयुर्वेद]] | '''धन्वन्तरि''' [[हिन्दू धर्म]] में मान्य देवताओं में से एक हैं। भगवान धन्वन्तरि [[आयुर्वेद]] जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के [[देवता]] माने जाते हैं। भारतीय पौराणिक दृष्टि से 'धनतेरस' को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि का दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। धनतेरस के दिन उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत् को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायु प्रदान करें। | ||
==अवतरण== | ==अवतरण== | ||
[[देवता]] एवं [[दैत्य|दैत्यों]] के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर [[समुद्र मन्थन]] स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। [[हलाहल विष|हलाहल]], [[कामधेनु]], [[ऐरावत]], [[उच्चै:श्रवा|उच्चै:श्रवा अश्व]], [[अप्सरा|अप्सराएँ]], [[कौस्तुभमणि]], वारुणी, महाशंख, [[कल्पवृक्ष]], [[चंद्र देवता|चन्द्रमा]], [[महालक्ष्मी देवी|लक्ष्मी]] | [[देवता]] एवं [[दैत्य|दैत्यों]] के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर [[समुद्र मन्थन]] स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। [[हलाहल विष|हलाहल]], [[कामधेनु]], [[ऐरावत]], [[उच्चै:श्रवा|उच्चै:श्रवा अश्व]], [[अप्सरा|अप्सराएँ]], [[कौस्तुभमणि]], वारुणी, महाशंख, [[कल्पवृक्ष]], [[चंद्र देवता|चन्द्रमा]], [[महालक्ष्मी देवी|लक्ष्मी]] और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए। अमृत-वितरण के पश्चात् देवराज [[इन्द्र]] की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया। [[अमरावती]] उनका निवास बनी। कालक्रम से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। प्रजापति [[इन्द्र]] ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की। भगवान ने [[काशी]] के राजा [[दिवोदास]] के रूप में [[पृथ्वी]] पर [[अवतार]] धारण किया। इनकी 'धन्वन्तरि-संहिता' [[आयुर्वेद]] का मूल [[ग्रन्थ]] है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। | ||
==पौराणिक उल्लेख== | ==पौराणिक उल्लेख== | ||
भगवान धन्वन्तरि को आयुर्वेद के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता के रूप में जाना जाता है। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति [[ब्रह्मा]] से ही मानते हैं। आदिकाल के ग्रंथों में [[रामायण]]-[[महाभारत]] तथा विविध पुराणों की रचना हुई, जिसमें सभी ग्रंथों ने 'आयुर्वेदावतरण' के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी छुट-पुट रूप से मिलता है, जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों 'सुश्रुत्रसंहिता', '[[चरकसंहिता]]', 'काश्यप संहिता' तथा 'अष्टांग हृदय' में विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों 'भाव प्रकाश', 'शार्गधर' तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में 'आयुर्वेदावतरण' का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%95-%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8/%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%95-%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BF-1101103051_1.htm|title=आयुर्वेद के जनक भगवान धंवंतरि|accessmonthday=04 जून|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | भगवान धन्वन्तरि को आयुर्वेद के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता के रूप में जाना जाता है। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति [[ब्रह्मा]] से ही मानते हैं। आदिकाल के ग्रंथों में '[[रामायण]]'-'[[महाभारत]]' तथा विविध [[पुराण|पुराणों]] की रचना हुई, जिसमें सभी [[ग्रंथ|ग्रंथों]] ने 'आयुर्वेदावतरण' के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी छुट-पुट रूप से मिलता है, जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों 'सुश्रुत्रसंहिता', '[[चरकसंहिता]]', 'काश्यप संहिता' तथा 'अष्टांग हृदय' में उनका विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों- 'भाव प्रकाश', 'शार्गधर' तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में 'आयुर्वेदावतरण' का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%95-%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8/%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%95-%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BF-1101103051_1.htm|title=आयुर्वेद के जनक भगवान धंवंतरि|accessmonthday=04 जून|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
[[व्यास|महाकवि व्यास]] द्वारा रचित '[[श्रीमद्भागवत|श्रीमद्भावत पुराण]]' के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान [[विष्णु]] | [[व्यास|महाकवि व्यास]] द्वारा रचित '[[श्रीमद्भागवत|श्रीमद्भावत पुराण]]' के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान [[विष्णु]] का अंश माना गया है तथा अवतारों में [[अवतार]] कहा गया है। '[[महाभारत]]', '[[विष्णुपुराण]]', '[[अग्निपुराण]]', '[[श्रीमद्भागवत]]' महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि [[देवता]] और [[असुर]] एक ही [[पिता]] [[कश्यप|कश्यप ऋषि]] के संतान थे। किंतु इनकी वंश वृद्धि बहुत अधिक हो गई थी। अतः ये अपने अधिकारों के लिए परस्पर आपस में लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार प्राप्त करना चाहते थे। [[असुर|असुरों]] या [[राक्षस|राक्षसों]] के गुरु [[शुक्राचार्य]] थे, जो संजीवनी विद्या जानते थे और उसके बल से असुरों को पुन: जीवित कर सकते थे। इसके अतिरिक्त [[दैत्य]], दानव आदि माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में असुरों की अपेक्षा [[देवता|देवताओं]] की मृत्यु अधिक होती थी। | ||
<blockquote><poem>पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुराः। | <blockquote><poem>पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुराः। |
Latest revision as of 13:45, 30 June 2017
धन्वन्तरि
| |
विवरण | 'धन्वन्तरि' हिन्दुओं के पूजनीय देवता हैं। इन्हें आयुर्वेद का प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र का देवता माना जाता है। |
पृथ्वी पर अवतार | काशी के राजा दिवोदास |
प्रणेता | आयुर्वेद |
त्योहार | 'धनतेरस' |
विशेष | हिन्दू धार्मिक ग्रंथ 'विष्णुपुराण' के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। |
संबंधित लेख | धनतेरस, समुद्र मंथन |
अन्य जानकारी | जब देवताओं और असुरों ने 'समुद्र मंथन' किया तो अनेक मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति के बाद अंत में धन्वन्तरि हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। |
धन्वन्तरि हिन्दू धर्म में मान्य देवताओं में से एक हैं। भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। भारतीय पौराणिक दृष्टि से 'धनतेरस' को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि का दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। धनतेरस के दिन उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत् को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायु प्रदान करें।
अवतरण
देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर समुद्र मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। हलाहल, कामधेनु, ऐरावत, उच्चै:श्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारुणी, महाशंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए। अमृत-वितरण के पश्चात् देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया। अमरावती उनका निवास बनी। कालक्रम से पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। प्रजापति इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की। भगवान ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। इनकी 'धन्वन्तरि-संहिता' आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था।
पौराणिक उल्लेख
भगवान धन्वन्तरि को आयुर्वेद के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता के रूप में जाना जाता है। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं। आदिकाल के ग्रंथों में 'रामायण'-'महाभारत' तथा विविध पुराणों की रचना हुई, जिसमें सभी ग्रंथों ने 'आयुर्वेदावतरण' के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी छुट-पुट रूप से मिलता है, जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों 'सुश्रुत्रसंहिता', 'चरकसंहिता', 'काश्यप संहिता' तथा 'अष्टांग हृदय' में उनका विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों- 'भाव प्रकाश', 'शार्गधर' तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में 'आयुर्वेदावतरण' का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है।[1] महाकवि व्यास द्वारा रचित 'श्रीमद्भावत पुराण' के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है। 'महाभारत', 'विष्णुपुराण', 'अग्निपुराण', 'श्रीमद्भागवत' महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि देवता और असुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंश वृद्धि बहुत अधिक हो गई थी। अतः ये अपने अधिकारों के लिए परस्पर आपस में लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार प्राप्त करना चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे, जो संजीवनी विद्या जानते थे और उसके बल से असुरों को पुन: जीवित कर सकते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य, दानव आदि माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में असुरों की अपेक्षा देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी।
पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुराः।
हेन्यामान्यास्ततो देवाः शतशोऽथसहस्त्रशः।
वैद्य
'गरुड़पुराण' और 'मार्कण्डेयपुराण' के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वन्तरि वैद्य कहलाए थे। 'विष्णुपुराण' के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वन्तरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्वजन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार धन्वन्तरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है-
- समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि प्रथम
- धन्व के पुत्र धन्वन्तरि द्वितीय
- काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि तृतीय
अन्य प्रसंग
आयु के पुत्र का नाम धन्वन्तरि था। वह वीर यशस्वी तथा धार्मिक था। राज्यभोग के उपरांत योग की ओर प्रवृत्त होकर वह गंगा सागर संगम पर समाधि लगाकर तपस्या करने लगा। गत अनेक वर्षों से उससे त्रस्त महाराक्षस समुद्र में छुपा हुआ था। वैरागी धन्वन्तरि को देख उसने नारी का रूप धारण कर उसका तप भंग कर दिया, तदनंतर अंतर्धान हो गया। धन्वन्तरि उसी की स्मृतियों में भटकने लगा। ब्रह्मा ने उसे समस्त स्थिति से अवगत किया तथा विष्णु की आराधना करने के लिए कहा। विष्णु को प्रसन्न करके उसने इन्द्र पद प्राप्त किया, किंतु पूर्वजन्मों के कर्मों के फलस्वरूप वह तीन बार इन्द्र पद से च्युत हुआ-
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आयुर्वेद के जनक भगवान धंवंतरि (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 जून, 2013।
संबंधित लेख