मीरां: Difference between revisions

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मीराबाई की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी है। ये पद और रचनाएँ [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]], [[ब्रजभाषा|ब्रज]] और [[गुजराती भाषा|गुजराती]] भाषाओं में मिलते हैं। [[हृदय]] की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। आँसुओं से भरे ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में 'श्रृंगार रस' और 'शांत रस' का प्रयोग विशेष रूप से किया है। भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहज शैली की सरसता के कारण मीराबाई की व्यथासिक्त पदावली बरबस ही सबको आकर्षित कर लेती है। मीराबाई ने [[भक्ति]] को एक नया आयाम दिया है। एक ऐसा स्थान जहाँ भगवान ही इंसान का सब कुछ होता है। संसार के सभी लोभ उसे मोह से विचलित नहीं कर सकते। एक अच्छा-खासा राजपाट होने के बाद भी मीराबाई वैरागी बनी रहीं। उनकी कृष्ण भक्ति एक अनूठी मिसाल रही है। उनकी रचना के कुछ अंश इस प्रकार हैं-
मीराबाई की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी है। ये पद और रचनाएँ [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]], [[ब्रजभाषा|ब्रज]] और [[गुजराती भाषा|गुजराती]] भाषाओं में मिलते हैं। [[हृदय]] की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। आँसुओं से भरे ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में 'श्रृंगार रस' और 'शांत रस' का प्रयोग विशेष रूप से किया है। भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहज शैली की सरसता के कारण मीराबाई की व्यथासिक्त पदावली बरबस ही सबको आकर्षित कर लेती है। मीराबाई ने [[भक्ति]] को एक नया आयाम दिया है। एक ऐसा स्थान जहाँ भगवान ही इंसान का सब कुछ होता है। संसार के सभी लोभ उसे मोह से विचलित नहीं कर सकते। एक अच्छा-खासा राजपाट होने के बाद भी मीराबाई वैरागी बनी रहीं। उनकी कृष्ण भक्ति एक अनूठी मिसाल रही है। उनकी रचना के कुछ अंश इस प्रकार हैं-


<blockquote><poem>पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो ।
<blockquote><poem>[[पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो -मीरां|पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो ।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा कर अपनायो ॥
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा कर अपनायो ॥]]</poem></blockquote>
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो ।
खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो ॥
सत की नाँव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो ।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो ॥</poem></blockquote>


<blockquote><poem>मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई।
<blockquote><poem>[[मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई -मीरां|मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।]]</poem></blockquote>
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।
भगत देखि राजी भइ, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।</poem></blockquote>


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Revision as of 12:58, 15 March 2013

मीरां
पूरा नाम मीराबाई
अन्य नाम मीरांबाई
जन्म 1498
जन्म भूमि मेरता, राजस्थान
मृत्यु 1547
पति/पत्नी कुंवर भोजराज
कर्म भूमि वृन्दावन
मुख्य रचनाएँ बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद
विषय कृष्णभक्ति
भाषा ब्रजभाषा
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
मीरांबाई की रचनाएँ

मीरांबाई अथवा मीराबाई हिन्दू आध्यात्मिक कवयित्री थीं, जिनके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित भजन उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं। भजन और स्तुति की रचनाएँ कर आमजन को भगवान के और समीप पहुँचाने वाले संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है। मीरा का सम्बन्ध एक राजपूत परिवार से था। वे राजपूत राजकुमारी थीं, जो मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थीं। उनकी शाही शिक्षा में संगीत और धर्म के साथ-साथ राजनीति व प्रशासन भी शामिल थे। एक साधु द्वारा बचपन में उन्हें कृष्ण की मूर्ति दिए जाने के साथ ही उनकी आजन्म कृष्ण भक्ति की शुरुआत हुई, जिनकी वह दिव्य प्रेमी के रूप में आराधना करती थीं।

जन्म

प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई जोधपुर, राजस्थान के मेड़वा राजकुल की राजकुमारी थीं। विद्वानों में इनकी जन्म-तिथि के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इनका जन्म 1430 ई. मानते हैं और कुछ 1498 ई.। मीराबाई मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थीं। उनका जीवन बड़े दु:ख और कष्ट में व्यतीत हुआ था। बाल्यावस्था में ही उनकी माँ का देहांत हो गया। कुछ समय तक मीरा की देखभाल उनके पितामह ने की, परंतु कुछ वर्ष बाद वे भी चल बसे।

कृष्ण से लगाव

मीराबाई के बालमन में कृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि यौवन काल से लेकर मृत्यु तक उन्होंने कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। जोधपुर के राठौड़ रतन सिंह की इकलौती पुत्री मीराबाई का मन बचपन से ही कृष्ण-भक्ति में रम गया था। उनका कृष्ण प्रेम बचपन की एक घटना की वजह से अपने चरम पर पहुँचा था। बाल्यकाल में एक दिन उनके पड़ोस में किसी धनवान व्यक्ति के यहाँ बारात आई थी। सभी स्त्रियाँ छत से खड़ी होकर बारात देख रही थीं। मीराबाई भी बारात देखने के लिए छत पर आ गईं। बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि "मेरा दूल्हा कौन है?" इस पर मीराबाई की माता ने उपहास में ही भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति के तरफ़ इशारा करते हुए कह दिया कि "यही तुम्हारे दुल्हा हैं"। यह बात मीराबाई के बालमन में एक गाँठ की तरह समा गई और अब वे कृष्ण को ही अपना पति समझने लगीं।

विवाह

जब मीरा बड़ी हुईं तो उनका विवाह उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ 1516 ई. में कर दिया गया। इस विवाह के लिए पहले तो मीराबाई ने मना कर दिया, लेकिन परिवार वालों के अत्यधिक बल देने पर वह तैयार हो गईं। वह फूट-फूट कर रोने लगीं और विदाई के समय श्रीकृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ ले गईं, जिसे उनकी माता ने उनका दुल्हा बताया था। मीराबाई ने लज्जा और परंपरा को त्याग कर अनूठे प्रेम और भक्ति का परिचय दिया।

पति की मृत्यु

विवाह के दस वर्ष बाद ही मीराबाई के पति भोजरात का निधन हो गया। सम्भवत: उनके पति की युद्धोपरांत घावों के कारण मृत्यु हो गई थी। पति की मृत्यु के बाद ससुराल में मीराबाई पर कई अत्याचार किए गए। तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोहिणी माना गया। उनके धार्मिक क्रिया-कलाप राजपूत राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित नियमों के अनुकूल नहीं थे। वह अपना अधिकांश समय कृष्ण को समर्पित निजी मंदिर में और भारत भर से आये साधुओं व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं।

हत्या के प्रयास

भोजराज के बाद सिंहासन विक्रमजीत सिंह को प्राप्त हुआ, जिन्हें मीराबाई का साधु-संतों के साथ उठना-बैठना पसन्द नहीं था। मीराबाई को मारने के कम से कम दो प्रयासों का चित्रण उनकी कविताओं में हुआ है। एक बार फूलों की टोकरी में एक विषेला साँप भेजा गया, लेकिन टोकरी खोलने पर उन्हें कृष्ण की मूर्ति मिली। एक अन्य अवसर पर उन्हें विष का प्याला दिया गया, लेकिन उसे पीकर भी मीराबाई को कोई हानि नहीं पहुँची।

द्वारिका में वास

इन सब कुचक्रों से पीड़ित होकर मीराबाई अंतत: मेवाड़ छोड़कर मेड़ता आ गईं, लेकिन यहाँ भी उनका स्वछंद व्यवहार स्वीकार नहीं किया गया। अब वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़ीं और अंतत: द्वारिका में बस गईं। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। 1546 में विक्रम सिंह के बाद राणा बनने पर उदय सिंह ने मीराबाई को वापस मेवाड़ लाने के लिए ब्राह्मणों का एक दल भेजा। मीराबाई ने 'रणछोड़जी' (श्रीकृष्ण) के मंदिर में एक रात ठहरने की अनुमति मांगी और अगली सुबह वह वहाँ नहीं मिलीं। लोक मान्यता के अनुसार रणछोड़जी की मूर्ति के साथ चमत्कारिक ढंग से उनका विलय हो गया। लेकिन वास्तव में उस रात उनकी मृत्यु हो गई या वह वहाँ से चुपके से निकल कर शेष वर्ष छद्म वेश में घूमती रहीं, यह अज्ञात है। उनकी मृत्यु के विषय में किसी भी तथ्य का स्पष्टीकरण आज तक नहीं हो सका है।

मान्यताएँ

केशी घाट, वृन्दावन

एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थीं। उन दिनों वह राधा की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका विवाह एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए। बाद के समय में जोधपुर के पास मेड़ता गाँव में 1504 ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-

"आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥ 
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना॥ 
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥ 
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी। 
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पाय॥" 

मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की उत्पत्ति से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है। इस कथानुसार, एक बार एक साधु मीरा के घर पधारे। उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6 साल थी। साधु को मीरा की माँ ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया। मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य को देख रही थीं। जब मीरा की नज़र श्रीकृष्ण की मूर्ति पर गयी तो उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयीं। इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के प्रेम में मग्न हो गयीं।[1]

ग्रन्थ रचना

मीराबाई ने चार ग्रन्थों की भी रचना की थी-

  1. 'बरसी का मायरा'
  2. 'गीत गोविंद टीका'
  3. 'राग गोविंद'
  4. 'राग सोरठ'

इसके अतिरिक्त उनके गीतों का संकलन "मीराबाई की पदावली" नामक ग्रन्थ में किया गया है।

पद

मीराबाई की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी है। ये पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं। हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। आँसुओं से भरे ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में 'श्रृंगार रस' और 'शांत रस' का प्रयोग विशेष रूप से किया है। भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहज शैली की सरसता के कारण मीराबाई की व्यथासिक्त पदावली बरबस ही सबको आकर्षित कर लेती है। मीराबाई ने भक्ति को एक नया आयाम दिया है। एक ऐसा स्थान जहाँ भगवान ही इंसान का सब कुछ होता है। संसार के सभी लोभ उसे मोह से विचलित नहीं कर सकते। एक अच्छा-खासा राजपाट होने के बाद भी मीराबाई वैरागी बनी रहीं। उनकी कृष्ण भक्ति एक अनूठी मिसाल रही है। उनकी रचना के कुछ अंश इस प्रकार हैं-


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वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पिछले जन्म में भी मीरा करती थीं कृष्ण से प्रेम (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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