दारा शिकोह: Difference between revisions

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'''दारा शिकोह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Dara Shikoh'', जन्म: [[20 मार्च]], 1615; मृत्यु: [[30 अगस्त]], 1659) [[मुग़ल]] बादशाह [[शाहजहाँ]] और [[मुमताज़ महल]] का सबसे बड़ा पुत्र था। शाहजहाँ अपने इस पुत्र को बहुत अधिक चाहता था और इसे [[मुग़ल वंश]] का अगला बादशाह बनते हुए देखना चाहता था। शाहजहाँ भी दारा शिकोह को बहुत प्रिय था। वह अपने [[पिता]] को पूरा मान-सम्मान देता था और उसके प्रत्येक आदेश का पालन करता था। आरम्भ में दारा शिकोह [[पंजाब]] का सूबेदार बनाया गया, जिसका शासन वह राजधानी से अपने प्रतिनिधियों के ज़रिये चलाता था।
'''दारा शिकोह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Dara Shikoh'', जन्म: [[20 मार्च]], 1615; मृत्यु: [[30 अगस्त]], 1659) [[मुग़ल]] बादशाह [[शाहजहाँ]] और [[मुमताज़ महल]] का सबसे बड़ा पुत्र था। शाहजहाँ अपने इस पुत्र को बहुत अधिक चाहता था और इसे [[मुग़ल वंश]] का अगला बादशाह बनते हुए देखना चाहता था। शाहजहाँ भी दारा शिकोह को बहुत प्रिय था। वह अपने [[पिता]] को पूरा मान-सम्मान देता था और उसके प्रत्येक आदेश का पालन करता था। आरम्भ में दारा शिकोह [[पंजाब]] का सूबेदार बनाया गया, जिसका शासन वह राजधानी से अपने प्रतिनिधियों के ज़रिये चलाता था।
==व्यक्तित्व==
==व्यक्तित्व==
दारा बहादुर इन्सान था, और बौद्धिक दृष्टि से उसे अपने प्रपितामह [[अकबर]] के गुण विरासत में मिले थे। वह सूफ़ीवाद की ओर उन्मुख था और [[इस्लाम]] के हनफ़ी पंथ का अनुयायी था। इतिहासकार [[बर्नियर]] ने अपनी पुस्तक 'बर्नियर की भारत यात्रा' में लिखा है- 'दारा में अच्छे गुणों की कमी नहीं थी। वह मितभाषी, हाज़िर जवाब, नम्र और अत्यंत उदार पुरुष था। परंतु अपने को वह बहुत बुद्धिमान और समझदार समझता था और उसको इस बात का घमंड था कि अपने बुद्धिबल और प्रयत्न से वह हर काम का प्रबंध कर सकता है। वह यह भी समझता था कि जगत में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो उसको किसी बात की शिक्षा दे सके। जो लोग डरते-डरते उसे कुछ सलाह देने का साहस कर बैठते, उनके साथ वह बहुत बुरा बर्ताव करता था। इस कारण उसके सच्चे शुभचिंतक भी उसके भाइयों के यत्नों और चालों से उसे सूचित न कर सके। वह डराने और धमकाने में बड़ा निपुण था, यहाँ तक कि बड़े-बड़े उमरा को बुरा भला कहने और उनके अपमान कर डालने में भी वह संकोच न करता था परंतु सौभाग्य की बात यह थी, कि उसका क्रोध शीघ्र ही शांत भी हो जाता था।'<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4601|title=बर्नियर की भारत यात्रा|accessmonthday=24.10 |accessyear=2010|last= |first= |authorlink=pustak.org|format=php|publisher=pustak.org|language=[[हिन्दी]] }}</ref>
दारा बहादुर इन्सान था, और बौद्धिक दृष्टि से उसे अपने प्रपितामह [[अकबर]] के गुण विरासत में मिले थे। वह सूफ़ीवाद की ओर उन्मुख था और [[इस्लाम]] के हनफ़ी पंथ का अनुयायी था। इतिहासकार [[बर्नियर]] ने अपनी पुस्तक 'बर्नियर की भारत यात्रा' में लिखा है- 'दारा में अच्छे गुणों की कमी नहीं थी। वह मितभाषी, हाज़िर जवाब, नम्र और अत्यंत उदार पुरुष था। परंतु अपने को वह बहुत बुद्धिमान और समझदार समझता था और उसको इस बात का घमंड था कि अपने बुद्धिबल और प्रयत्न से वह हर काम का प्रबंध कर सकता है। वह यह भी समझता था कि जगत् में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो उसको किसी बात की शिक्षा दे सके। जो लोग डरते-डरते उसे कुछ सलाह देने का साहस कर बैठते, उनके साथ वह बहुत बुरा बर्ताव करता था। इस कारण उसके सच्चे शुभचिंतक भी उसके भाइयों के यत्नों और चालों से उसे सूचित न कर सके। वह डराने और धमकाने में बड़ा निपुण था, यहाँ तक कि बड़े-बड़े उमरा को बुरा भला कहने और उनके अपमान कर डालने में भी वह संकोच न करता था परंतु सौभाग्य की बात यह थी, कि उसका क्रोध शीघ्र ही शांत भी हो जाता था।'<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4601|title=बर्नियर की भारत यात्रा|accessmonthday=24.10 |accessyear=2010|last= |first= |authorlink=pustak.org|format=php|publisher=pustak.org|language=[[हिन्दी]] }}</ref>
====औरंगज़ेब का विरोध====
====औरंगज़ेब का विरोध====
दारा शिकोह सभी धर्म और मज़हबों का आदर करता था और [[हिन्दू धर्म]], [[दर्शन]] व [[ईसाई धर्म]] में विशेष दिलचस्पी रखता था। उसके इन उदार विचारों से कुपित होकर कट्टरपंथी मुसलमानों ने उस पर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगाया। इस परिस्थिति का दारा के तीसरे भाई [[औरंगज़ेब]] ने खूब फ़ायदा उठाया। दारा ने 1653 ई. में [[कंधार]] की तीसरी घेराबंदी में भाग लिया था। यद्यपि वह इस अभियान में वह विफल रहा, फिर भी अपने पिता का कृपापात्र बना रहा। 1657 ई. में जब [[शाहजहाँ]] बीमार पड़ा, तो वह उसके पास ही मौजूद रहता था। [[चित्र:Dara-Shukoh-With-Philosophers.jpg|thumb|left|250px|दार्शनिकों के साथ दारा शिकोह]] दारा की उम्र इस समय 43 वर्ष की थी और वह पिता के [[तख़्त-ए-ताऊस]] को उत्तराधिकार में पाने की उम्मीद रखता था। लेकिन तीनों छोटे भाइयों, ख़ासकर [[औरंगज़ेब]] ने उसके इस दावे का विरोध किया।
दारा शिकोह सभी धर्म और मज़हबों का आदर करता था और [[हिन्दू धर्म]], [[दर्शन]] व [[ईसाई धर्म]] में विशेष दिलचस्पी रखता था। उसके इन उदार विचारों से कुपित होकर कट्टरपंथी मुसलमानों ने उस पर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगाया। इस परिस्थिति का दारा के तीसरे भाई [[औरंगज़ेब]] ने खूब फ़ायदा उठाया। दारा ने 1653 ई. में [[कंधार]] की तीसरी घेराबंदी में भाग लिया था। यद्यपि वह इस अभियान में वह विफल रहा, फिर भी अपने पिता का कृपापात्र बना रहा। 1657 ई. में जब [[शाहजहाँ]] बीमार पड़ा, तो वह उसके पास ही मौजूद रहता था। [[चित्र:Dara-Shukoh-With-Philosophers.jpg|thumb|left|250px|दार्शनिकों के साथ दारा शिकोह]] दारा की उम्र इस समय 43 वर्ष की थी और वह पिता के [[तख़्त-ए-ताऊस]] को उत्तराधिकार में पाने की उम्मीद रखता था। लेकिन तीनों छोटे भाइयों, ख़ासकर [[औरंगज़ेब]] ने उसके इस दावे का विरोध किया।

Revision as of 13:56, 30 June 2017

दारा शिकोह
पूरा नाम शहज़ादा दारा शिकोह
जन्म 20 मार्च, 1615
मृत्यु तिथि 30 अगस्त, 1659[1] अथवा 9 सितम्बर, 1659[2]
पिता/माता शाहजहाँ और मुमताज़ महल
पति/पत्नी नादिरा बानू बेगम
धार्मिक मान्यता इस्लाम धर्म
युद्ध धर्मट का युद्ध और सामूगढ़ का युद्ध
वंश मुग़ल वंश
संबंधित लेख अकबर, बर्नियर, औरंगज़ेब
अन्य जानकारी दारा शिकोह सभी धर्म और मज़हबों का आदर करता था और हिन्दू धर्म, दर्शनईसाई धर्म में विशेष दिलचस्पी रखता था।

दारा शिकोह (अंग्रेज़ी: Dara Shikoh, जन्म: 20 मार्च, 1615; मृत्यु: 30 अगस्त, 1659) मुग़ल बादशाह शाहजहाँ और मुमताज़ महल का सबसे बड़ा पुत्र था। शाहजहाँ अपने इस पुत्र को बहुत अधिक चाहता था और इसे मुग़ल वंश का अगला बादशाह बनते हुए देखना चाहता था। शाहजहाँ भी दारा शिकोह को बहुत प्रिय था। वह अपने पिता को पूरा मान-सम्मान देता था और उसके प्रत्येक आदेश का पालन करता था। आरम्भ में दारा शिकोह पंजाब का सूबेदार बनाया गया, जिसका शासन वह राजधानी से अपने प्रतिनिधियों के ज़रिये चलाता था।

व्यक्तित्व

दारा बहादुर इन्सान था, और बौद्धिक दृष्टि से उसे अपने प्रपितामह अकबर के गुण विरासत में मिले थे। वह सूफ़ीवाद की ओर उन्मुख था और इस्लाम के हनफ़ी पंथ का अनुयायी था। इतिहासकार बर्नियर ने अपनी पुस्तक 'बर्नियर की भारत यात्रा' में लिखा है- 'दारा में अच्छे गुणों की कमी नहीं थी। वह मितभाषी, हाज़िर जवाब, नम्र और अत्यंत उदार पुरुष था। परंतु अपने को वह बहुत बुद्धिमान और समझदार समझता था और उसको इस बात का घमंड था कि अपने बुद्धिबल और प्रयत्न से वह हर काम का प्रबंध कर सकता है। वह यह भी समझता था कि जगत् में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो उसको किसी बात की शिक्षा दे सके। जो लोग डरते-डरते उसे कुछ सलाह देने का साहस कर बैठते, उनके साथ वह बहुत बुरा बर्ताव करता था। इस कारण उसके सच्चे शुभचिंतक भी उसके भाइयों के यत्नों और चालों से उसे सूचित न कर सके। वह डराने और धमकाने में बड़ा निपुण था, यहाँ तक कि बड़े-बड़े उमरा को बुरा भला कहने और उनके अपमान कर डालने में भी वह संकोच न करता था परंतु सौभाग्य की बात यह थी, कि उसका क्रोध शीघ्र ही शांत भी हो जाता था।'[3]

औरंगज़ेब का विरोध

दारा शिकोह सभी धर्म और मज़हबों का आदर करता था और हिन्दू धर्म, दर्शनईसाई धर्म में विशेष दिलचस्पी रखता था। उसके इन उदार विचारों से कुपित होकर कट्टरपंथी मुसलमानों ने उस पर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगाया। इस परिस्थिति का दारा के तीसरे भाई औरंगज़ेब ने खूब फ़ायदा उठाया। दारा ने 1653 ई. में कंधार की तीसरी घेराबंदी में भाग लिया था। यद्यपि वह इस अभियान में वह विफल रहा, फिर भी अपने पिता का कृपापात्र बना रहा। 1657 ई. में जब शाहजहाँ बीमार पड़ा, तो वह उसके पास ही मौजूद रहता था। thumb|left|250px|दार्शनिकों के साथ दारा शिकोह दारा की उम्र इस समय 43 वर्ष की थी और वह पिता के तख़्त-ए-ताऊस को उत्तराधिकार में पाने की उम्मीद रखता था। लेकिन तीनों छोटे भाइयों, ख़ासकर औरंगज़ेब ने उसके इस दावे का विरोध किया।

पलायन एवं पत्नी की मृत्यु

इसके फलस्वरूप दारा शिकोह को उत्तराधिकार के लिए अपने भाइयों के साथ में युद्ध करना पड़ा, लेकिन शाहजहाँ के समर्थन के बावजूद दारा की फ़ौज 15 अप्रैल, 1658 ई. को धर्मट के युद्ध में औरंगज़ेब और मुराद बख़्श की संयुक्त फ़ौज से परास्त हो गई। इसके बाद दारा अपने बाग़ी भाइयों को दबाने के लिए दुबारा खुद अपने नेतृत्व में शाही फ़ौजों के साथ निकला, किन्तु इस बार भी उसे 29 मई, 1658 ई. को सामूगढ़ के युद्ध में पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस बार दारा के लिये आगरा वापस लौटना सम्भव नहीं था। वह शरणार्थी बन गया और पंजाब, कच्छ, गुजरात एवं राजपूताना में भटकने के बाद तीसरी बार फिर एक बड़ी सेना तैयार करने में सफल रहा। दौराई में अप्रैल 1659 ई. में औरंगज़ेब से उसकी तीसरी और आख़िरी मुठभेड़ हुई। इस बार भी वह फिर से हारा। दारा फिर शरणार्थी बनकर अपनी जान बचाने के लिए राजपूताना और कच्छ होता हुआ सिन्ध की तरफ़ भागा। यहाँ पर उसकी प्यारी नादिरा बेगम का इंतक़ाल हो गया।

मौत की सज़ा

दारा शिकोह ने दादर के अफ़ग़ान सरदार जीवन ख़ान का आतिथ्य स्वीकार किया। किन्तु मलिक जीवन ख़ान गद्दार साबित हुआ, और उसने दारा को औरंगज़ेब की फ़ौज के हवाले कर दिया, जो इस बीच बराबर उसका पीछा कर रही थी। दारा को बन्दी बनाकर दिल्ली लाया गया, जहाँ औरंगज़ेब के आदेश पर उसे भिख़ारी की पोशाक़ में एक छोटी-सी हथिनी पर बैठाकर सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद मुल्लाओं के सामने उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाया गया। धर्मद्रोह के अभियोग में मुल्लाओं ने उसे मौत की सज़ा दी।

मृत्यु

30 अगस्त, 1659 अथवा 9 सितम्बर, 1659 को इस सज़ा के तहत दारा शिकोह का सिर काट लिया गया। उसका बड़ा पुत्र सुलेमान पहले से ही औरंगज़ेब का बंदी था। 1662 ई. में औरंगज़ेब ने जेल में उसकी भी हत्या कर दी। दारा के दूसरे पुत्र सेपरहर शिकोह को बख़्श दिया गया, जिसकी शादी बाद में औरंगज़ेब की तीसरी लड़की से हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जूलियन कैलेंडर के अनुसार
  2. ग्रेगोरी कैलेंडर के अनुसार
  3. बर्नियर की भारत यात्रा (हिन्दी) (php) pustak.org। अभिगमन तिथि: 24.10, 2010।

संबंधित लेख