कुकुद्मी

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कुकुद्मी महाराज रेवत के पुत्र थे। महाराज शर्याति के तीन पुत्र थे- 'उत्तानबर्हि', 'आनर्त' और 'भूरिषेण'। आनर्त से रेवत हुए थे। महाराज रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नाम की एक नगरी बसायी थी। उसी में रहकर वे आनर्त आदि देशों का राज्य करते थे। उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे -कुकुद्मी-।[1]

कुकुद्मी अपनी कन्या रेवती को लेकर उसके लिये वर पूछने के उद्देश्य से ब्रह्माजी के पास गये। उस समय ब्रह्मलोक का रास्ता ऐसे लोगों के लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोक में गाने-बजाने की धूम मची हुई थी। बातचीत के लिये अवसर न मिलने के कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये। उत्सव के अन्त में ब्रह्माजी को नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर भगवान ब्रह्माजी ने हँसकर उनसे कहा- "महाराज! तुमने अपने मन में जिन लोगों के विषय में सोच रखा था, वे सब तो काल के गाल में चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियों की तो बात ही क्या है, गोत्रों के नाम भी नहीं सुनायी पड़ते। इस बीच में सत्ताईस चतुर्युगी का समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान नारायण के अंशावतार महाबली बलदेव जी पृथ्वी पर विद्यमान हैं। राजन! उन्हीं नररत्न को यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदि का श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है, वे ही प्राणियों के जीवन सर्वस्व भगवान पृथ्वी का भार उतारने के लिये अपने अंश से अवतीर्ण हुए हैं।"

राजा कुकुद्मी ने ब्रह्माजी का यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणों की वन्दना की और अपने नगर में चले आये। उनके वंशजों ने यक्षों के भय से वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे। राजा कुकुद्मी ने अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री परम बलशाली बलराम जी को सौंप दी और स्वयं तपस्या करने के लिये भगवान नर-नारायण के आश्रम बदरीवन की ओर चल दिये।


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