रसखान की भक्ति-भावना: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "Category:कवि" to "==सम्बंधित लिंक== {{भारत के कवि}} Category:कवि ")
No edit summary
Line 12: Line 12:
निर्गुण भक्ति-धारा की भी दो शाखाएँ थीं। -<br />
निर्गुण भक्ति-धारा की भी दो शाखाएँ थीं। -<br />
'''ज्ञानाश्रयी शाखा'''<br />
'''ज्ञानाश्रयी शाखा'''<br />
पहली शाखा की 'निर्गुण काव्यधारा' या 'निर्गुण सम्प्रदाय' नाम दिया गया है। इस शाखा की विशेषता यह थी कि इसने अधिकतर प्रेरणा भारतीय स्त्रोतों से ग्रहण की। इसमें ज्ञानमार्ग की प्रधानता थी। इसलिए पं॰ रामचंद्र शुक्ल ने इसे 'ज्ञानाश्रयी शाखा' कहा है।<balloon title="हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86" style=color:blue>*</balloon> इस शाखा के कवियों ने भक्तिसाधना के रूप में योग-साधना पर बहुत बल दिया है। इस शाखा के प्रतिनिधि कवि [[कबीर]] हुए।<br />  
पहली शाखा की 'निर्गुण काव्यधारा' या 'निर्गुण सम्प्रदाय' नाम दिया गया है। इस शाखा की विशेषता यह थी कि इसने अधिकतर प्रेरणा भारतीय स्त्रोतों से ग्रहण की। इसमें ज्ञानमार्ग की प्रधानता थी। इसलिए पं॰ रामचंद्र शुक्ल ने इसे 'ज्ञानाश्रयी शाखा' कहा है।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86</ref> इस शाखा के कवियों ने भक्तिसाधना के रूप में योग-साधना पर बहुत बल दिया है। इस शाखा के प्रतिनिधि कवि [[कबीर]] हुए।<br />  
'''प्रेममार्गी शाखा'''<br />
'''प्रेममार्गी शाखा'''<br />
दूसरी शाखा सूफी काव्य धारा के नाम से विख्यात है। इस शाखा के कवियों ने हठयोग आदि की साधना की अपेक्षा भावना को महत्व दिया। इसका मुख्य आधार प्रेम था। प्रेम पर आश्रित होने के कारण ही आचार्य शुक्ल ने इसे 'प्रेममार्गी शाखा' कहा है।<balloon title="हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86" style=color:blue>*</balloon> इस शाखा के भक्त कवियों की भक्ति-भावना पर विदेशी प्रभाव अधिक है। इस प्रसंग में यह बात ध्यान आकर्षित किए बिना नहीं रहती कि इस शाखा के मलिक मुहम्मद जायसी आदि कवि मुसलमान थे। इसलिए उन्होंने अपने संस्कारों के अनुसार भक्ति का निरूपण किया। वे भारतीय थे, इसलिए उन्होंने अपने प्रेमाख्यानों के लिए भारतीय विषय चुने, भारतीय विचारधारा को भी अपनाया, परंतु उस पर विदेशी रंग भी चढ़ा दिया। रसखान भी मुसलमान थे। अतएव उन पर इस्लाम का प्रभाव बहुत था। साथ ही सूफी प्रेम-पद्धति का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से मिलता है। वे किसी मतवाद में बंधे नहीं। उनका प्रेम स्वच्छंद था। जो उन्हें अच्छा लगा, उन्होंने बिना किसी संकोच के उसे आधार बनाया। अतएव उनकी कविता में भारतीय भक्ति-पद्धति और सूफी इश्क-हकीकी का सम्मिश्रण मिलता है। उनकी भक्ति का ढांचा या शरीर भारतीय है किंतु आत्मा इस्लामी एवं तसव्वुफ से रंजित है।  
दूसरी शाखा सूफी काव्य धारा के नाम से विख्यात है। इस शाखा के कवियों ने हठयोग आदि की साधना की अपेक्षा भावना को महत्व दिया। इसका मुख्य आधार प्रेम था। प्रेम पर आश्रित होने के कारण ही आचार्य शुक्ल ने इसे 'प्रेममार्गी शाखा' कहा है।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86</ref> इस शाखा के भक्त कवियों की भक्ति-भावना पर विदेशी प्रभाव अधिक है। इस प्रसंग में यह बात ध्यान आकर्षित किए बिना नहीं रहती कि इस शाखा के मलिक मुहम्मद जायसी आदि कवि मुसलमान थे। इसलिए उन्होंने अपने संस्कारों के अनुसार भक्ति का निरूपण किया। वे भारतीय थे, इसलिए उन्होंने अपने प्रेमाख्यानों के लिए भारतीय विषय चुने, भारतीय विचारधारा को भी अपनाया, परंतु उस पर विदेशी रंग भी चढ़ा दिया। रसखान भी मुसलमान थे। अतएव उन पर इस्लाम का प्रभाव बहुत था। साथ ही सूफी प्रेम-पद्धति का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से मिलता है। वे किसी मतवाद में बंधे नहीं। उनका प्रेम स्वच्छंद था। जो उन्हें अच्छा लगा, उन्होंने बिना किसी संकोच के उसे आधार बनाया। अतएव उनकी कविता में भारतीय भक्ति-पद्धति और सूफी इश्क-हकीकी का सम्मिश्रण मिलता है। उनकी भक्ति का ढांचा या शरीर भारतीय है किंतु आत्मा इस्लामी एवं तसव्वुफ से रंजित है।  


सगुण भक्तिधारा की विशेषता यह है कि उसमें भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम की महिमा का वर्णन होता है। इस वर्णन के लिए भक्तों ने भगवान के अवतारों में [[राम]] और [[कृष्ण]] को अधिक महत्वपूर्ण माना है। भक्तिकाल की रचनाओं में इनकी ही महिमा मुख्य रूप से गाई गई है। इन दोनों अवतारों के आधार पर ही सगुण भक्तिधारा का हिन्दी-साहित्य में दो उपधाराओं के रूप में विभाजन मिलता है-  
सगुण भक्तिधारा की विशेषता यह है कि उसमें भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम की महिमा का वर्णन होता है। इस वर्णन के लिए भक्तों ने भगवान के अवतारों में [[राम]] और [[कृष्ण]] को अधिक महत्वपूर्ण माना है। भक्तिकाल की रचनाओं में इनकी ही महिमा मुख्य रूप से गाई गई है। इन दोनों अवतारों के आधार पर ही सगुण भक्तिधारा का हिन्दी-साहित्य में दो उपधाराओं के रूप में विभाजन मिलता है-  
Line 34: Line 34:
*श्री वल्लभाचार्य ने हृदय के संस्कार और विकास की दृष्टि से भक्ति को साध्य अवश्य कहा है, पर ईश्वर-भक्ति को ही, यह कभी न भूलना चाहिए। पर 'रसखानि' स्पष्ट कहते हैं—
*श्री वल्लभाचार्य ने हृदय के संस्कार और विकास की दृष्टि से भक्ति को साध्य अवश्य कहा है, पर ईश्वर-भक्ति को ही, यह कभी न भूलना चाहिए। पर 'रसखानि' स्पष्ट कहते हैं—
<poem>इक-अंगी बिनु कारनहिं, इक रस सदा समान।  
<poem>इक-अंगी बिनु कारनहिं, इक रस सदा समान।  
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान।<balloon title="प्रेम वाटिका, 21" style=color:blue>*</balloon></poem>
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान।<ref>प्रेम वाटिका, 21</ref></poem>
*श्री [[वल्लभाचार्य]] के अनुसार भगवद्भक्ति या अलौकिक प्रेम ही साध्य हो सकता है। उसे ही एकांगी, निर्हेतुक, एकरस होना चाहिए। पर रसखान लौकिक प्रेम में भी इसे स्वीकार करते हैं। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार ये रीति से अपने को स्वच्छंद रखते थे उसी प्रकार भक्ति की सांप्रदायिक नीति से भी। अत: ये भक्तिमार्गी कृष्णभक्तों, प्रेममार्गी सूफियों, रीतिमार्गी कवियों सबसे पृथक् स्वच्छंदमार्गी प्रेमोन्मत्त गायक थे। कोई इन्हें इनकी भक्तिविषयक रचना के कारण भक्त कहता हो तो कहे, पर इतने 'व्यतिरेक' के साथ कहे कि ये स्वच्छंद प्रेममार्गी भक्त थे, तो कोई बाधा नहीं है।<balloon title="रसखानि ग्रंथावली, प्रस्तावना, पृ0 21-22" style=color:blue>*</balloon>
*श्री [[वल्लभाचार्य]] के अनुसार भगवद्भक्ति या अलौकिक प्रेम ही साध्य हो सकता है। उसे ही एकांगी, निर्हेतुक, एकरस होना चाहिए। पर रसखान लौकिक प्रेम में भी इसे स्वीकार करते हैं। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार ये रीति से अपने को स्वच्छंद रखते थे उसी प्रकार भक्ति की सांप्रदायिक नीति से भी। अत: ये भक्तिमार्गी कृष्णभक्तों, प्रेममार्गी सूफियों, रीतिमार्गी कवियों सबसे पृथक् स्वच्छंदमार्गी प्रेमोन्मत्त गायक थे। कोई इन्हें इनकी भक्तिविषयक रचना के कारण भक्त कहता हो तो कहे, पर इतने 'व्यतिरेक' के साथ कहे कि ये स्वच्छंद प्रेममार्गी भक्त थे, तो कोई बाधा नहीं है।<ref>रसखानि ग्रंथावली, प्रस्तावना, पृ0 21-22</ref>


अपनी उपर्युक्त स्थापना के समर्थन में मिश्र जी ने एक दूसरा ठोस तर्क भी दिया है। रसखान की काव्यशैली कृष्णभक्त कवियों की परंपरागत शैली से भिन्न है। कृष्ण-भक्तों की अधिकतर रचनाएं गीत में ही मिलती हैं। कवित्त-सवैया वाली शैली में इन्होंने पूरी आस्था नहीं  दिखाई। मध्यकाल के श्रृंगारी कवियों ने (विशेष कर के परवर्ती रीतिकाल के श्रृंगारी कवियों में) कवित्त-सवैया वाली शैली को ही प्रमुखता दी है।<balloon title="रसखानि' ग्रंथावली प्रस्तावना पृ0 22" style=color:blue>*</balloon> उनकी सुन्दर समझी जाने वाली रचनाएं इसी शैली में लिखी गई हैं। उनकी ख्याति और लोकप्रियता उनके कवित्त सवैयों पर ही आश्रित है। इस संबंध में यह नहीं भूलना चाहिए कि 'सुजान रसखान' के आरंभिक कवित्त-सवैयों में भक्ति-भाव की प्रधानता है।  
अपनी उपर्युक्त स्थापना के समर्थन में मिश्र जी ने एक दूसरा ठोस तर्क भी दिया है। रसखान की काव्यशैली कृष्णभक्त कवियों की परंपरागत शैली से भिन्न है। कृष्ण-भक्तों की अधिकतर रचनाएं गीत में ही मिलती हैं। कवित्त-सवैया वाली शैली में इन्होंने पूरी आस्था नहीं  दिखाई। मध्यकाल के श्रृंगारी कवियों ने (विशेष कर के परवर्ती रीतिकाल के श्रृंगारी कवियों में) कवित्त-सवैया वाली शैली को ही प्रमुखता दी है।<ref>रसखानि' ग्रंथावली प्रस्तावना पृ0 22</ref> उनकी सुन्दर समझी जाने वाली रचनाएं इसी शैली में लिखी गई हैं। उनकी ख्याति और लोकप्रियता उनके कवित्त सवैयों पर ही आश्रित है। इस संबंध में यह नहीं भूलना चाहिए कि 'सुजान रसखान' के आरंभिक कवित्त-सवैयों में भक्ति-भाव की प्रधानता है।  
==भक्ति का स्वरूप==
==भक्ति का स्वरूप==
भक्तिशास्त्र के आचार्यों ने भक्ति को प्रेमस्वरूप बतलाया है।  
भक्तिशास्त्र के आचार्यों ने भक्ति को प्रेमस्वरूप बतलाया है।  
*शांडिल्य ने अपने भक्तिसूत्र में भक्ति की परिभाषा देते हुए कहा है कि ईश्वर में की गई परानुरक्ति भक्ति है।<balloon title="सा परा नुरक्तिरीश्वरे।– शांडिल्य भक्तिसूत्र, 1 । 1 । 2" style=color:blue>*</balloon>
*शांडिल्य ने अपने भक्तिसूत्र में भक्ति की परिभाषा देते हुए कहा है कि ईश्वर में की गई परानुरक्ति भक्ति है।<ref>सा परा नुरक्तिरीश्वरे।– शांडिल्य भक्तिसूत्र, 1 । 1 । 2</ref>
*नारद ने भी भगवान के प्रति किए गए परम प्रेम को भक्ति कहा है।<balloon title="सात्वस्मिन्नपरमप्रेमरूपा। - नारद-भक्तिसूत्र, 2" style=color:blue>*</balloon>  
*नारद ने भी भगवान के प्रति किए गए परम प्रेम को भक्ति कहा है।<ref>सात्वस्मिन्नपरमप्रेमरूपा। - नारद-भक्तिसूत्र, 2</ref>  
*मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति का लक्षण करते हुए बतलाया है कि भगवद्धर्म के कारण द्रुत चित्त की परमेश्वर के प्रति धारावाहिक वृत्ति को भक्ति कहते हैं।<balloon title="द्रुतस्य भगवद्धर्माद् धारावाहिकतांगता" style=color:blue>*</balloon>  
*मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति का लक्षण करते हुए बतलाया है कि भगवद्धर्म के कारण द्रुत चित्त की परमेश्वर के प्रति धारावाहिक वृत्ति को भक्ति कहते हैं।<ref>द्रुतस्य भगवद्धर्माद् धारावाहिकतांगता</ref>  
*[[पुराण|पुराणों]] आदि में भी इसी प्रकार की भक्ति का निरूपण किया गया है। [[विष्णु पुराण]] में भक्त ने भगवान से प्रार्थना की है- 'हे भगवान! जिस प्रकार युवतियों का मन युवकों में और युवकों का मन युवतियों में रमण करता है, उसी प्रकार मेरा मन तुममें रमण करे।'<balloon title="तुलसी दर्शन मीमांसा, अष्टम अध्याय" style=color:blue>*</balloon> *इसी तरह की प्रार्थना तुलसीदास ने भी भगवान [[राम]] से की है- 'हे रघुनाथ राम ! जैसे कामियों को कामिनी प्रिय होती है, जैसे लोभियों को धन प्रिय होता है, वैसे ही तुम मुझे प्रिय लगो।'<balloon title="कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥ -रामचरितमानस, 7। 130" style=color:blue>*</balloon> भक्तों ने लौकिक जीवन से इस प्रकार की उपमाएं भगवान के प्रति प्रेम की अतिशय आसक्ति सूचित करने के लिए दी हैं। रसखान भी परमप्रेम को भक्ति मानते हैं। प्रेम की अतिशयता और अनंयता का प्रतिपादन करने के लिए भक्तों ने चातक का आदर्श उपस्थित किया है। रसखान ने भी इस आदर्श में अपनी आस्था प्रकट की है-
*[[पुराण|पुराणों]] आदि में भी इसी प्रकार की भक्ति का निरूपण किया गया है। [[विष्णु पुराण]] में भक्त ने भगवान से प्रार्थना की है- 'हे भगवान! जिस प्रकार युवतियों का मन युवकों में और युवकों का मन युवतियों में रमण करता है, उसी प्रकार मेरा मन तुममें रमण करे।'<ref>तुलसी दर्शन मीमांसा, अष्टम अध्याय</ref> *इसी तरह की प्रार्थना तुलसीदास ने भी भगवान [[राम]] से की है- 'हे रघुनाथ राम ! जैसे कामियों को कामिनी प्रिय होती है, जैसे लोभियों को धन प्रिय होता है, वैसे ही तुम मुझे प्रिय लगो।'<ref>कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥ -रामचरितमानस, 7। 130</ref> भक्तों ने लौकिक जीवन से इस प्रकार की उपमाएं भगवान के प्रति प्रेम की अतिशय आसक्ति सूचित करने के लिए दी हैं। रसखान भी परमप्रेम को भक्ति मानते हैं। प्रेम की अतिशयता और अनंयता का प्रतिपादन करने के लिए भक्तों ने चातक का आदर्श उपस्थित किया है। रसखान ने भी इस आदर्श में अपनी आस्था प्रकट की है-
<poem>बिमल सरल रसखानि मिलि भई सकल रसखानि।  
<poem>बिमल सरल रसखानि मिलि भई सकल रसखानि।  
सोई नव रसखानि कौं, चित चातक रसखानि॥<balloon title="सुजान रसखान, 213" style=color:blue>*</balloon></poem>  
सोई नव रसखानि कौं, चित चातक रसखानि॥<ref>सुजान रसखान, 213</ref></poem>  
*संसार के अन्य लोग अपनी अपनी रुचि के अनुसार [[इन्द्र]], [[सूर्य देवता|सूर्य]], [[गणेश]] आदि देवताओं की उपासना करते हैं। उनकी भक्ति करके अपने अभीष्ट फलों की प्राप्ति करते है। परन्तु रसखान की अनुरक्ति एकमात्र श्री[[कृष्ण]] में ही है। उनका दृष्टिकोण उदार है। उनके मन में विभिन्न प्रकार के देवों और देवियों के भक्ति के विषय में कोई विरोधभाव नहीं है। वे दूसरों की निंदा नहीं करते। दूसरे लोग उन्हें भजना चाहते हैं तो भजें। रसखान की दृष्टि में भगवान श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं। वे अपने कृष्ण को चाहते हैं। उन्हें त्रिलोक की चिंता नहीं—
*संसार के अन्य लोग अपनी अपनी रुचि के अनुसार [[इन्द्र]], [[सूर्य देवता|सूर्य]], [[गणेश]] आदि देवताओं की उपासना करते हैं। उनकी भक्ति करके अपने अभीष्ट फलों की प्राप्ति करते है। परन्तु रसखान की अनुरक्ति एकमात्र श्री[[कृष्ण]] में ही है। उनका दृष्टिकोण उदार है। उनके मन में विभिन्न प्रकार के देवों और देवियों के भक्ति के विषय में कोई विरोधभाव नहीं है। वे दूसरों की निंदा नहीं करते। दूसरे लोग उन्हें भजना चाहते हैं तो भजें। रसखान की दृष्टि में भगवान श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं। वे अपने कृष्ण को चाहते हैं। उन्हें त्रिलोक की चिंता नहीं—
<poem>सेष सुरेस दिनेस गनेस प्रजेस घनेस महेस मनावौ।  
<poem>सेष सुरेस दिनेस गनेस प्रजेस घनेस महेस मनावौ।  
कोऊ भवानी भजौ मन की सब आस सबै बिधि जाई पुरावौ।  
कोऊ भवानी भजौ मन की सब आस सबै बिधि जाई पुरावौ।  
कोऊ रमा भजि लेहु महाधन कोउ कहूँ मनबाँदित पावौ।  
कोऊ रमा भजि लेहु महाधन कोउ कहूँ मनबाँदित पावौ।  
पै रसखानि वही मेरो साधन, और त्रिलोक रहौ कि नसावौं।<balloon title="सुजान रसखान, 5" style=color:blue>*</balloon></poem>
पै रसखानि वही मेरो साधन, और त्रिलोक रहौ कि नसावौं।<ref>सुजान रसखान, 5</ref></poem>
*भगवान के प्रति परम प्रेम का उदय होने पर भक्त की सारी कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेंद्रियां, मन और प्राण सब ईश्वर निष्ठ हो जाते हैं। उसे इन सबकी सार्थकता केवल इस बात में दिखाई देती है कि ये सब अपना उपयोग केवल भगवान की महिमा के कीर्तन, श्रवण आदि में करें। रसखान का मत है कि रसखानि वही है जो रसखानि श्रीकृष्ण में परम अनुराग रखे-
*भगवान के प्रति परम प्रेम का उदय होने पर भक्त की सारी कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेंद्रियां, मन और प्राण सब ईश्वर निष्ठ हो जाते हैं। उसे इन सबकी सार्थकता केवल इस बात में दिखाई देती है कि ये सब अपना उपयोग केवल भगवान की महिमा के कीर्तन, श्रवण आदि में करें। रसखान का मत है कि रसखानि वही है जो रसखानि श्रीकृष्ण में परम अनुराग रखे-
<poem>बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।  
<poem>बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।  
हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।  
हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।  
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।  
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।  
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सों है रसखानि ॥<balloon title="सुजान रसखान, 4" style=color:blue>*</balloon></poem>
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सों है रसखानि ॥<ref>सुजान रसखान, 4</ref></poem>
*इस ईश्वर प्रेम की उपलब्धि अपने में इतनी ऊँची है कि इसकी तुलना में संसार के सारे ऐश्वर्य तुच्छ दिखाई पड़ते हैं-
*इस ईश्वर प्रेम की उपलब्धि अपने में इतनी ऊँची है कि इसकी तुलना में संसार के सारे ऐश्वर्य तुच्छ दिखाई पड़ते हैं-
<poem>कंचन मंदिर ऊँचे बनाइ कै मानिक लाई सदा झलकैयत।  
<poem>कंचन मंदिर ऊँचे बनाइ कै मानिक लाई सदा झलकैयत।  
प्रात ही ते सगरी नगरी नग मोतिन ही को तुलानि तुलैयत।  
प्रात ही ते सगरी नगरी नग मोतिन ही को तुलानि तुलैयत।  
जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मघवा ललचैयत।
जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मघवा ललचैयत।
ऐसे भए तो कहा रसखानि जो साँवरे ग्वार सो नेह न लैयत॥<balloon title="सुजान रसखान, 6" style=color:blue>*</balloon></poem>
ऐसे भए तो कहा रसखानि जो साँवरे ग्वार सो नेह न लैयत॥<ref>सुजान रसखान, 6</ref></poem>
*सभी प्रकार के प्रेम की (चाहे वह लौकिक हो या अलौकिक) यह विशेषता है कि प्रेमी केवल अपने प्रेमपात्र से ही प्रेम नहीं करता बल्कि उस प्रेमपात्र से संबंध रखने वाली प्रत्येक वस्तु उसे अत्यन्त प्रिय लगने लगती है। रसखान की भी यही दशा है। इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण वे कृष्ण की लकुटी और कामरी पर तीनों लोकों का राज्य त्यागने को तैयार हैं, [[नंद]] की गायों को चराने में वे आठों सिद्धियों और नवों निधियों के सुख को भुला सकते हैं, [[ब्रज]] के वनों एवं उपवनों पर सोने  के करोड़ों महल निछावर करने को प्रस्तुत हैं-
*सभी प्रकार के प्रेम की (चाहे वह लौकिक हो या अलौकिक) यह विशेषता है कि प्रेमी केवल अपने प्रेमपात्र से ही प्रेम नहीं करता बल्कि उस प्रेमपात्र से संबंध रखने वाली प्रत्येक वस्तु उसे अत्यन्त प्रिय लगने लगती है। रसखान की भी यही दशा है। इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण वे कृष्ण की लकुटी और कामरी पर तीनों लोकों का राज्य त्यागने को तैयार हैं, [[नंद]] की गायों को चराने में वे आठों सिद्धियों और नवों निधियों के सुख को भुला सकते हैं, [[ब्रज]] के वनों एवं उपवनों पर सोने  के करोड़ों महल निछावर करने को प्रस्तुत हैं-
<poem>वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहू पुर को ताजि डारौं।  
<poem>वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहू पुर को ताजि डारौं।  
आठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।  
आठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।  
ए रसखानि जबै इन नैनन तैं ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।  
ए रसखानि जबै इन नैनन तैं ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।  
कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं॥<balloon title="सुजान रसखान, 3" style=color:blue>*</balloon></poem>
कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं॥<ref>सुजान रसखान, 3</ref></poem>
==भक्ति की महिमा==
==भक्ति की महिमा==
रसखान तुलसीदास की भांति भक्तकवि नहीं थे। अपने इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने जोर देकर कहा कि सभी [[वेद|वेदों]], [[पुराण|पुराणों]], आगमों और स्मृतियों का निचोड़ प्रेम (अर्थात ईश्वर-विषयक प्रेम) ही है—
रसखान तुलसीदास की भांति भक्तकवि नहीं थे। अपने इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने जोर देकर कहा कि सभी [[वेद|वेदों]], [[पुराण|पुराणों]], आगमों और स्मृतियों का निचोड़ प्रेम (अर्थात ईश्वर-विषयक प्रेम) ही है—
<poem>स्त्रुति पुरान आगम स्मृतिहि, प्रेम सबहि को सार।  
<poem>स्त्रुति पुरान आगम स्मृतिहि, प्रेम सबहि को सार।  
प्रेम बिना नहि उपज हिय, प्रेम-बीज-अंकुवार॥<balloon title="प्रेमवाटिका 10" style=color:blue>*</balloon></poem>
प्रेम बिना नहि उपज हिय, प्रेम-बीज-अंकुवार॥<ref>प्रेमवाटिका 10</ref></poem>
*मोक्ष के अनेक साधन बतलाए गए हैं जिनमें तीन मुख्य हैं-  
*मोक्ष के अनेक साधन बतलाए गए हैं जिनमें तीन मुख्य हैं-  
#कर्म,  
#कर्म,  
Line 78: Line 78:
*इसी अभिप्राय से रसखान ने इस परमप्रेम को काम आदि से परे कहा है—
*इसी अभिप्राय से रसखान ने इस परमप्रेम को काम आदि से परे कहा है—
<poem>काम क्रोध मद मोह भय लोभ द्रोह मात्सर्य।  
<poem>काम क्रोध मद मोह भय लोभ द्रोह मात्सर्य।  
इन सब ही तें प्रेम है परे, कहत मुनिवर्य॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 14" style=color:blue>*</balloon></poem>  
इन सब ही तें प्रेम है परे, कहत मुनिवर्य॥<ref>प्रेम वाटिका, 14</ref></poem>  
*भक्तों ने इस बात पर जो दिया है कि भक्ति-भाव के अभाव में पुस्तकी विद्या व्यर्थ है। [[तुलसीदास]] ने भी इसे वाक्यज्ञान कहा है और बतलाया है कि वाक्यज्ञान मात्र से भव-सागर को पार करना असंभव है।<balloon title="विनयपत्रिका, 123।2" style=color:blue>*</balloon>
*भक्तों ने इस बात पर जो दिया है कि भक्ति-भाव के अभाव में पुस्तकी विद्या व्यर्थ है। [[तुलसीदास]] ने भी इसे वाक्यज्ञान कहा है और बतलाया है कि वाक्यज्ञान मात्र से भव-सागर को पार करना असंभव है।<ref>विनयपत्रिका, 123।2</ref>
*रसखान के पूर्ववर्ती कवि [[कबीर|कबीरदास]] ने तो बड़े कड़े शब्दों में कोरे शास्त्रज्ञान को व्यर्थ बताकर ईश्वर-प्रेम की महिमा का बखान किया है—
*रसखान के पूर्ववर्ती कवि [[कबीर|कबीरदास]] ने तो बड़े कड़े शब्दों में कोरे शास्त्रज्ञान को व्यर्थ बताकर ईश्वर-प्रेम की महिमा का बखान किया है—
<poem>पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
<poem>पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥<balloon title="कबीर, पृ0 35" style=color:blue>*</balloon></poem>
एकै आखर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥<ref>कबीर, पृ0 35</ref></poem>
*रसखान ने भी मानों कबीर के स्वर में स्वर मिलाकर घोषणा की है कि प्रेम को जाने बिना शास्त्र पढ़कर पंडित होना या क़ुरान पढ़कर मौलवी होना व्यर्थ है—
*रसखान ने भी मानों कबीर के स्वर में स्वर मिलाकर घोषणा की है कि प्रेम को जाने बिना शास्त्र पढ़कर पंडित होना या क़ुरान पढ़कर मौलवी होना व्यर्थ है—
<poem>सास्त्रन पढ़ि पंडित भए, कै मौलवी क़ुरान।  
<poem>सास्त्रन पढ़ि पंडित भए, कै मौलवी क़ुरान।  
जु पै प्रेम जान्यौ नहीं, कहा कियौ रसखान ॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 13" style=color:blue>*</balloon></poem>
जु पै प्रेम जान्यौ नहीं, कहा कियौ रसखान ॥<ref>प्रेम वाटिका, 13</ref></poem>
*उनकी मान्यता है कि जिसने प्रेम को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना और जिसने प्रेम को जान लिया, उसके लिए कुछ भी जानने योग्य बात शेष नहीं रही—
*उनकी मान्यता है कि जिसने प्रेम को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना और जिसने प्रेम को जान लिया, उसके लिए कुछ भी जानने योग्य बात शेष नहीं रही—
<poem>जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं जान्यौ जात बिसेष।  
<poem>जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं जान्यौ जात बिसेष।  
सोइ प्रेम जेहि जानि कै, रहि न जात कछु सेष॥<balloon title="प्रेम वाटिका,18" style=color:blue>*</balloon></poem>
सोइ प्रेम जेहि जानि कै, रहि न जात कछु सेष॥<ref>प्रेम वाटिका,18</ref></poem>
*संसार में जितने भी सुख हैं (चाहे वे विषयों से प्राप्त हों या पूजा, निष्ठा और ध्यान से) भक्ति का सुख उन सबसे बढ़कर है—
*संसार में जितने भी सुख हैं (चाहे वे विषयों से प्राप्त हों या पूजा, निष्ठा और ध्यान से) भक्ति का सुख उन सबसे बढ़कर है—
<poem>दंपति सुख अरु-विषय-रस पूजा निष्ठा ध्यान।  
<poem>दंपति सुख अरु-विषय-रस पूजा निष्ठा ध्यान।  
इन तें परे बखानियै, सुद्ध प्रेम रसखानि॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 19" style=color:blue>*</balloon></poem>
इन तें परे बखानियै, सुद्ध प्रेम रसखानि॥<ref>प्रेम वाटिका, 19</ref></poem>
*दु:ख के नाश और आनंद की प्राप्ति के ज्ञान, ध्यान आदि जितने भी साधन बतलाए गए हैं, वे सब प्रेम-भक्ति के बिना निष्फल हैं—
*दु:ख के नाश और आनंद की प्राप्ति के ज्ञान, ध्यान आदि जितने भी साधन बतलाए गए हैं, वे सब प्रेम-भक्ति के बिना निष्फल हैं—
<poem>ज्ञान ध्यान बिद्यामती, मत बिस्वास बिबेक।  
<poem>ज्ञान ध्यान बिद्यामती, मत बिस्वास बिबेक।  
बिना प्रेम सब धूरि हैं, अगजग एक अनेक॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 25" style=color:blue>*</balloon></poem>
बिना प्रेम सब धूरि हैं, अगजग एक अनेक॥<ref>प्रेम वाटिका, 25</ref></poem>
*प्रेम-भक्ति की महिमा इतनी बड़ी है कि उसे प्राप्त कर लेने पर भक्त भगवान के बैकुण्ठ-लोक और स्वयं भगवान की भी कामना नहीं करता, वह शुद्ध प्रेममय हो जाता है—
*प्रेम-भक्ति की महिमा इतनी बड़ी है कि उसे प्राप्त कर लेने पर भक्त भगवान के बैकुण्ठ-लोक और स्वयं भगवान की भी कामना नहीं करता, वह शुद्ध प्रेममय हो जाता है—
<poem>जेहि पाए बैकुण्ठ अरु हरिहू की नहिं चाहि।  
<poem>जेहि पाए बैकुण्ठ अरु हरिहू की नहिं चाहि।  
सोई अलौकिक सुद्ध सुभ सरस सप्रेम कहाहि॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 28" style=color:blue>*</balloon></poem>
सोई अलौकिक सुद्ध सुभ सरस सप्रेम कहाहि॥<ref>प्रेम वाटिका, 28</ref></poem>
*सामान्य रूप से जीव के चार पुरुषार्थ बतलाए गए है-  
*सामान्य रूप से जीव के चार पुरुषार्थ बतलाए गए है-  
#धर्म,  
#धर्म,  
Line 109: Line 109:
*रसखान का भी ऐसा ही विश्वास है। इसका कारण है ज्ञान-मार्ग के सहारे प्राप्त किए गए मोक्ष पद के खो जाने की संभावना बनी रहती है। लेकिन, प्रेम-भक्ति की विशेषता यह है कि उसका उदय होने पर संसार के जितने भी बंधन हैं वे सब एक बार ही सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं-
*रसखान का भी ऐसा ही विश्वास है। इसका कारण है ज्ञान-मार्ग के सहारे प्राप्त किए गए मोक्ष पद के खो जाने की संभावना बनी रहती है। लेकिन, प्रेम-भक्ति की विशेषता यह है कि उसका उदय होने पर संसार के जितने भी बंधन हैं वे सब एक बार ही सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं-
<poem>याही तें सब मुक्ति तें, लही बड़ाई प्रेम।  
<poem>याही तें सब मुक्ति तें, लही बड़ाई प्रेम।  
प्रेम भए नसि जाहिं सब, बंधे जगत के नेम॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 35" style=color:blue>*</balloon></poem>
प्रेम भए नसि जाहिं सब, बंधे जगत के नेम॥<ref>प्रेम वाटिका, 35</ref></poem>
*प्रेम-भक्ति की श्रेष्ठता का एक कारण और भी है। इस संसार में जितने भी साधन और साध्य हैं, वे सब भगवान के अधीन हैं और भगवान स्वयं प्रेम के वश में हैं।<balloon title="तुलसीदास ने भी कहा है-भाववस्य भगवान सुखनिधान करुना भवन।-दोहावली,135,रामचरितमानस,7।92" style=color:blue>*</balloon>
*प्रेम-भक्ति की श्रेष्ठता का एक कारण और भी है। इस संसार में जितने भी साधन और साध्य हैं, वे सब भगवान के अधीन हैं और भगवान स्वयं प्रेम के वश में हैं।<ref>तुलसीदास ने भी कहा है-भाववस्य भगवान सुखनिधान करुना भवन।-दोहावली,135,रामचरितमानस,7।92</ref>
*उन्होंने ([[गीता]] आदि में) स्वयं ही इसे विशेष गौरव दिया है।  
*उन्होंने ([[गीता]] आदि में) स्वयं ही इसे विशेष गौरव दिया है।  
*रसखान ने भी कहा है—
*रसखान ने भी कहा है—
<poem>हरि के सब आधीन पै हरी प्रेम-आधीन।  
<poem>हरि के सब आधीन पै हरी प्रेम-आधीन।  
याही ते प्रभु आपुहीं, याहि बड़प्पन दीन॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 36" style=color:blue>*</balloon></poem>
याही ते प्रभु आपुहीं, याहि बड़प्पन दीन॥<ref>प्रेम वाटिका, 36</ref></poem>
*प्रेम-भक्ति की इन्हीं विशेषताओं के कारण रसखान उसे परम धर्म मानते हैं। उसे कोई भी शक्ति पराजित नहीं कर सकती—
*प्रेम-भक्ति की इन्हीं विशेषताओं के कारण रसखान उसे परम धर्म मानते हैं। उसे कोई भी शक्ति पराजित नहीं कर सकती—
<poem>बेद मूल सब धर्म यह कहैं सबै स्त्रुति सार।  
<poem>बेद मूल सब धर्म यह कहैं सबै स्त्रुति सार।  
परम धर्म है ताहु तें, प्रेम एक अनिवार ॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 37" style=color:blue>*</balloon></poem>
परम धर्म है ताहु तें, प्रेम एक अनिवार ॥<ref>प्रेम वाटिका, 37</ref></poem>
==प्रेम-भक्ति==
==प्रेम-भक्ति==
अपनी 'प्रेमवाटिका' में रसखान ने प्रेम की जो विशेषताएं बतलाई हैं वे लौकिक प्रेम और पारलौकिक प्रेम पर समान रूप से लागू होती हैं। जीवन-दर्शन के कर्म को समझने वालों ने कहा है कि जीव की जीवन-साधना का सबसे बड़ा लक्ष्य संसार के बंधन से मोक्ष है। कर्म, ज्ञान आदि इसी साध्य के साधन हैं। भक्ति की विलक्षणता इस बात में है कि वह साधन भी है और साध्य भी। यही बात रसखान ने कही है। उनका कहना है कि प्रेम कारण भी है और कार्य भी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रेम या भक्ति के लिए किसी दूसरे साधन की आवश्यकता नहीं है। यह स्वतंत्र है, अपने में पूर्ण है—
अपनी 'प्रेमवाटिका' में रसखान ने प्रेम की जो विशेषताएं बतलाई हैं वे लौकिक प्रेम और पारलौकिक प्रेम पर समान रूप से लागू होती हैं। जीवन-दर्शन के कर्म को समझने वालों ने कहा है कि जीव की जीवन-साधना का सबसे बड़ा लक्ष्य संसार के बंधन से मोक्ष है। कर्म, ज्ञान आदि इसी साध्य के साधन हैं। भक्ति की विलक्षणता इस बात में है कि वह साधन भी है और साध्य भी। यही बात रसखान ने कही है। उनका कहना है कि प्रेम कारण भी है और कार्य भी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रेम या भक्ति के लिए किसी दूसरे साधन की आवश्यकता नहीं है। यह स्वतंत्र है, अपने में पूर्ण है—
<poem>कारज-कारन रूप यह, प्रेम अहै रसखान।  
<poem>कारज-कारन रूप यह, प्रेम अहै रसखान।  
कर्ता कर्म क्रिया करन, आपहि प्रेम बखान॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 47" style=color:blue>*</balloon></poem>
कर्ता कर्म क्रिया करन, आपहि प्रेम बखान॥<ref>प्रेम वाटिका, 47</ref></poem>
ईश्वर-प्रेम अनुपम, अगम्य और असीम है, वह अंतिम विश्राम है।<balloon title="प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान। जो आवत यहि ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान॥-प्रेम वाटिका,3" style=color:blue>*</balloon> [[वरुण देवता|वरुण]] और [[शंकर]] जैसे देवों की महिमा भी प्रेम के ही कारण है।<balloon title="प्रेम-बारुनी छानि कै बरुन भए जल धीस। प्रेमहि तें विषपानि करि, पूजे जात गिरीस। -प्रेम वाटिका,4" style=color:blue>*</balloon> पुत्र, क्लत्र, मित्र, बन्धु आदि के प्रति अथवा इनके द्वारा किया गया स्नेह शुद्ध प्रेम नहीं है—
ईश्वर-प्रेम अनुपम, अगम्य और असीम है, वह अंतिम विश्राम है।<ref>प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान। जो आवत यहि ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान॥-प्रेम वाटिका,3</ref> [[वरुण देवता|वरुण]] और [[शंकर]] जैसे देवों की महिमा भी प्रेम के ही कारण है।<ref>प्रेम-बारुनी छानि कै बरुन भए जल धीस। प्रेमहि तें विषपानि करि, पूजे जात गिरीस। -प्रेम वाटिका,4</ref> पुत्र, क्लत्र, मित्र, बन्धु आदि के प्रति अथवा इनके द्वारा किया गया स्नेह शुद्ध प्रेम नहीं है—
<poem>मित्र कलत्र सुबंधु सुत, इनमें सहज सनेह।  
<poem>मित्र कलत्र सुबंधु सुत, इनमें सहज सनेह।  
सुद्ध प्रेम इनमैं नहीं अकथ कथा सबिसेह॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 20" style=color:blue>*</balloon></poem>
सुद्ध प्रेम इनमैं नहीं अकथ कथा सबिसेह॥<ref>प्रेम वाटिका, 20</ref></poem>
*शुद्ध प्रेम तो केवल भगवान के प्रति ही हो सकता है। इसीलिए भक्त-चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के मुख से कहलवाया है—
*शुद्ध प्रेम तो केवल भगवान के प्रति ही हो सकता है। इसीलिए भक्त-चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के मुख से कहलवाया है—
<poem>जननी जनक बंधु सुत बारा । तनु धन भवन सुहृद परिवारा॥
<poem>जननी जनक बंधु सुत बारा । तनु धन भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बहोरी । मम पद मनहिं बाँध बरि डोरी॥
सब कै ममता ताग बहोरी । मम पद मनहिं बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयं बसै धनु जैसें॥<balloon title="रामचरितमानस, 5/48/2-4" style=color:blue>*</balloon></poem>
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयं बसै धनु जैसें॥<ref>रामचरितमानस, 5/48/2-4</ref></poem>
*रसखान के उपर्युक्त दोहे की भी व्यंजना यही है कि भक्त का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने सभी लौकिक संबंधों का आरोप भगवान पर कर दे। जीव का उत्कर्ष दो प्रकार का माना गया है-  
*रसखान के उपर्युक्त दोहे की भी व्यंजना यही है कि भक्त का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने सभी लौकिक संबंधों का आरोप भगवान पर कर दे। जीव का उत्कर्ष दो प्रकार का माना गया है-  


Line 139: Line 139:
भोग कै कै ललचाइ पुरंदर जोग कै गंग लई घरि मंगहि।  
भोग कै कै ललचाइ पुरंदर जोग कै गंग लई घरि मंगहि।  
ऐसे भए तो कहा रसखानि रसै रसना जौ जु मुक्ति-तरंगहि।  
ऐसे भए तो कहा रसखानि रसै रसना जौ जु मुक्ति-तरंगहि।  
दै चित ताके न रंग रच्यौ जु रह्यौ रचि राधिका रानी के रंगहि॥<balloon title="सुजान रसखान, 16" style=color:blue>*</balloon></poem>
दै चित ताके न रंग रच्यौ जु रह्यौ रचि राधिका रानी के रंगहि॥<ref>सुजान रसखान, 16</ref></poem>
*भगवान केवल प्रेम से ही प्राप्य हैं। [[वेद|वेद-शास्त्र]] के अध्ययन या अन्य उपायों से उनकी प्राप्ति दुर्लभ है। रसखान की अधोलिखित पंक्तियों में इसी भाव की व्यंजना हुई है—
*भगवान केवल प्रेम से ही प्राप्य हैं। [[वेद|वेद-शास्त्र]] के अध्ययन या अन्य उपायों से उनकी प्राप्ति दुर्लभ है। रसखान की अधोलिखित पंक्तियों में इसी भाव की व्यंजना हुई है—
<poem>ब्रह्म में ढूँढ्यौ पुरानन गानन बेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।  
<poem>ब्रह्म में ढूँढ्यौ पुरानन गानन बेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।  
देख्यौ सुन्यौ कबहूँ न कितूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।  
देख्यौ सुन्यौ कबहूँ न कितूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।  
टेरत हेरत हारि परयौ रसखानि बतायो न लोग लुगायन।  
टेरत हेरत हारि परयौ रसखानि बतायो न लोग लुगायन।  
देखौ दुरौ वह कुंज-कुटीर में बैठौ पलोटत राधिका-पायन॥<balloon title="सुजान रसखान, 17" style=color:blue>*</balloon></poem>
देखौ दुरौ वह कुंज-कुटीर में बैठौ पलोटत राधिका-पायन॥<ref>सुजान रसखान, 17</ref></poem>
*प्रेम और हरि में कोई तात्विक भेद नहीं है। प्रेम हरि रूप है और हरि प्रेम-रूप हैं। दोनों में सूरज और धूप की भांति भेदाभेद है। इसका तात्पर्य यह है कि भक्त भगवान से प्रेम करते-करते ईश्वर-रूप हो जाता है, उससे भेद का अनुभव नहीं करता—
*प्रेम और हरि में कोई तात्विक भेद नहीं है। प्रेम हरि रूप है और हरि प्रेम-रूप हैं। दोनों में सूरज और धूप की भांति भेदाभेद है। इसका तात्पर्य यह है कि भक्त भगवान से प्रेम करते-करते ईश्वर-रूप हो जाता है, उससे भेद का अनुभव नहीं करता—
<poem>प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम-सरूप।  
<poem>प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम-सरूप।  
एक होय द्वै यौं लसै, ज्यों सूरज औ' धूप॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 24" style=color:blue>*</balloon></poem>
एक होय द्वै यौं लसै, ज्यों सूरज औ' धूप॥<ref>प्रेम वाटिका, 24</ref></poem>
*भगवान की भांति ही प्रेम भी अनिर्वचनीय है—
*भगवान की भांति ही प्रेम भी अनिर्वचनीय है—
<poem>जग में सब जान्यौ परै अरु सब कहै कहाइ।  
<poem>जग में सब जान्यौ परै अरु सब कहै कहाइ।  
पै जगदीस रु प्रेम यह दोऊ अकथ लखाइ॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 17" style=color:blue>*</balloon></poem>
पै जगदीस रु प्रेम यह दोऊ अकथ लखाइ॥<ref>प्रेम वाटिका, 17</ref></poem>
*प्रेमियों या भक्तों के लिए यह प्रेम-भक्ति अत्यन्त सरल और कमल की भांति कोमल है, परन्तु अन्य लोगों के लिए टेढ़ी और खड्ग की धार की भांति कठिन है-
*प्रेमियों या भक्तों के लिए यह प्रेम-भक्ति अत्यन्त सरल और कमल की भांति कोमल है, परन्तु अन्य लोगों के लिए टेढ़ी और खड्ग की धार की भांति कठिन है-
<poem>कमल तंतु सों हीन अरु कठिन खड्ग की धार।  
<poem>कमल तंतु सों हीन अरु कठिन खड्ग की धार।  
अति सूधौ टेढ़ौ बहुरि, प्रेम पथ अनिवार॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 6" style=color:blue>*</balloon></poem>
अति सूधौ टेढ़ौ बहुरि, प्रेम पथ अनिवार॥<ref>प्रेम वाटिका, 6</ref></poem>
==भक्ति के प्रकार==
==भक्ति के प्रकार==
भगवान की महिमा के श्रवण, कीर्तन आदि से उत्पन्न प्रेम के दो प्रकार हैं- शुद्ध और अशुद्ध। अशुद्ध प्रेम या भक्ति वह है जिसका कारण स्वार्थ (कामना) हो। शुद्ध प्रेम स्वाभाविक प्रेम है। वह नि:स्वार्थ होता है। भक्त के मन में किसी प्रकार की कोई कामना नहीं होती। वह केवल भक्ति के लिए भक्ति करता है। ऐसा प्रेम सदैव एक रस और रसमय रहता है—
भगवान की महिमा के श्रवण, कीर्तन आदि से उत्पन्न प्रेम के दो प्रकार हैं- शुद्ध और अशुद्ध। अशुद्ध प्रेम या भक्ति वह है जिसका कारण स्वार्थ (कामना) हो। शुद्ध प्रेम स्वाभाविक प्रेम है। वह नि:स्वार्थ होता है। भक्त के मन में किसी प्रकार की कोई कामना नहीं होती। वह केवल भक्ति के लिए भक्ति करता है। ऐसा प्रेम सदैव एक रस और रसमय रहता है—
<poem>स्त्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोइ प्रेम।  
<poem>स्त्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोइ प्रेम।  
सुद्धासुद्ध बिभेद तें, द्वैबिध ताके नेम ॥<balloon title="प्रेमवाटिका, 40" style=color:blue>*</balloon>  
सुद्धासुद्ध बिभेद तें, द्वैबिध ताके नेम ॥<ref>प्रेमवाटिका, 40</ref>  
स्वारथमूल असुद्ध त्यौं सुद्ध स्वभाव नुकूल।  
स्वारथमूल असुद्ध त्यौं सुद्ध स्वभाव नुकूल।  
नारदादि प्रस्तार करि, कियौ जाहि को तूल॥<balloon title="प्रेमवाटिका, 41" style=color:blue>*</balloon>
नारदादि प्रस्तार करि, कियौ जाहि को तूल॥<ref>प्रेमवाटिका, 41</ref>
रसमय स्वाभाविक, बिना स्वारथ अचल महानं  
रसमय स्वाभाविक, बिना स्वारथ अचल महानं  
सदा एकरस सुद्ध सोइ, प्रेम अहै रसखान ॥<balloon title="प्रेमवाटिका, 42" style=color:blue>*</balloon>
सदा एकरस सुद्ध सोइ, प्रेम अहै रसखान ॥<ref>प्रेमवाटिका, 42</ref>
बिन गुन जोबन रूप घन, बिन स्वारथ हित हानि।  
बिन गुन जोबन रूप घन, बिन स्वारथ हित हानि।  
सुद्ध कामना तें रहित, प्रेम सकल रसखानि॥<balloon title="प्रेमवाटिका, 15" style=color:blue>*</balloon>  
सुद्ध कामना तें रहित, प्रेम सकल रसखानि॥<ref>प्रेमवाटिका, 15</ref>  
इक अंगी बिनु कारनहि, इकरस सदा समान।  
इक अंगी बिनु कारनहि, इकरस सदा समान।  
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान ॥<balloon title="प्रेमवाटिका, 21" style=color:blue>*</balloon></poem>  
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान ॥<ref>प्रेमवाटिका, 21</ref></poem>  
==ग्यारह आसक्तियाँ==
==ग्यारह आसक्तियाँ==
नारद ने अपने भक्तिसूत्र में परम प्रेम की ग्यारह आसक्तियां बतलाई हैं। वे इस प्रकार हैं-  
नारद ने अपने भक्तिसूत्र में परम प्रेम की ग्यारह आसक्तियां बतलाई हैं। वे इस प्रकार हैं-  
Line 178: Line 178:
#आत्मनिवेदनासक्ति,  
#आत्मनिवेदनासक्ति,  
#तन्मयतासक्ति, और  
#तन्मयतासक्ति, और  
#परमविरहासक्ति।<balloon title="नारद-भक्तिसूत्र, 82" style=color:blue>*</balloon>
#परमविरहासक्ति।<ref>नारद-भक्तिसूत्र, 82</ref>
*जहां पर भक्त भगवान के गुणों और महिमा को विशेष रूप से दृष्टि में रखकर उनके प्रति परमानुरक्ति का निवेदन करता है, वहां पर गुणमाहात्म्यासक्ति होती है। उदाहरणार्थ—
*जहां पर भक्त भगवान के गुणों और महिमा को विशेष रूप से दृष्टि में रखकर उनके प्रति परमानुरक्ति का निवेदन करता है, वहां पर गुणमाहात्म्यासक्ति होती है। उदाहरणार्थ—
<poem>गावें गुनी गनिका गंधरब्ब औ सारद सेष सबै गुन गावत।
<poem>गावें गुनी गनिका गंधरब्ब औ सारद सेष सबै गुन गावत।
नाम अनंत गनंत गनेस ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।  
नाम अनंत गनंत गनेस ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।  
जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरंतर जाहि समाधि लगावत।  
जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरंतर जाहि समाधि लगावत।  
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत॥<balloon title="सुजान रसखान, 12" style=color:blue>*</balloon></poem>
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत॥<ref>सुजान रसखान, 12</ref></poem>
*जहां आसक्त भक्त की दृष्टि भगवान के रमणीय रूप पर विशेष रूप से केंद्रित रहती है: वहां रूपासक्ति होती है। निम्नांकित पद्य में रसखान की इसी भावना का चित्रण हुआ है—
*जहां आसक्त भक्त की दृष्टि भगवान के रमणीय रूप पर विशेष रूप से केंद्रित रहती है: वहां रूपासक्ति होती है। निम्नांकित पद्य में रसखान की इसी भावना का चित्रण हुआ है—
<poem>गुंज गरें सर मोरपखा अरु चाल गयंद की मो मन भावै।  
<poem>गुंज गरें सर मोरपखा अरु चाल गयंद की मो मन भावै।  
साँवरो नंदकुमार सबै ब्रजमंडली में ब्रजराज कहावै।  
साँवरो नंदकुमार सबै ब्रजमंडली में ब्रजराज कहावै।  
साज समाज सबै सिरताज औ छाज की बात नहीं कहि आवै।  
साज समाज सबै सिरताज औ छाज की बात नहीं कहि आवै।  
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै।<balloon title="सुजान रसखान, 15" style=color:blue>*</balloon></poem>
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै।<ref>सुजान रसखान, 15</ref></poem>
*स्मरणासक्ति की किंचित अभिव्यक्ति निम्नांकित पंक्तियों में देखी जा सकती हैं—
*स्मरणासक्ति की किंचित अभिव्यक्ति निम्नांकित पंक्तियों में देखी जा सकती हैं—
#संकर से सुर जाहि जपैं चतुरानन धर्म बढ़ावैं।<balloon title="सुजान रसखान, 14" style=color:blue>*</balloon>
#संकर से सुर जाहि जपैं चतुरानन धर्म बढ़ावैं।<ref>सुजान रसखान, 14</ref>
#जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरंतर जाहि समाधि लगावत।<balloon title="सुजान रसखान, 12" style=color:blue>*</balloon>
#जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरंतर जाहि समाधि लगावत।<ref>सुजान रसखान, 12</ref>
*प्रेम के कवि होने के कारण रसखान ने दास्याभक्ति और सख्याभक्ति को गौरव नहीं दिया है। अधोलिखित पंक्ति में दास्य की झलक मात्र दृष्टिगोचर होती है—
*प्रेम के कवि होने के कारण रसखान ने दास्याभक्ति और सख्याभक्ति को गौरव नहीं दिया है। अधोलिखित पंक्ति में दास्य की झलक मात्र दृष्टिगोचर होती है—
मो कर नीकी करैं करनी जु पै कुँज-कुटीरन देहु बुहारन।<balloon title="सुजान रसखान, 2" style=color:blue>*</balloon>
मो कर नीकी करैं करनी जु पै कुँज-कुटीरन देहु बुहारन।<ref>सुजान रसखान, 2</ref>
*रसखान के कृष्ण और गोपियों के प्रेमवर्णन में गोपियों की कांतासक्ति की अभिव्यंजना मिलती है। गोपियों के वियोग-वर्णन में उनकी परमविरहासक्ति भी अभिव्यक्त हुई है। लेकिन उन पद्यों को भक्तिकाव्य की अपेक्षा श्रृंगार-काव्य मानना ही समीचीन है। भक्ति के विधि-विधान में आस्था न रखने के कारण पूजा-अर्चना से बिलकुल दूर थे। अतएव उनके काव्य में पूजासक्ति का सर्वथा अभाव है।  
*रसखान के कृष्ण और गोपियों के प्रेमवर्णन में गोपियों की कांतासक्ति की अभिव्यंजना मिलती है। गोपियों के वियोग-वर्णन में उनकी परमविरहासक्ति भी अभिव्यक्त हुई है। लेकिन उन पद्यों को भक्तिकाव्य की अपेक्षा श्रृंगार-काव्य मानना ही समीचीन है। भक्ति के विधि-विधान में आस्था न रखने के कारण पूजा-अर्चना से बिलकुल दूर थे। अतएव उनके काव्य में पूजासक्ति का सर्वथा अभाव है।  
*बालक-रूप भगवान की भक्ति रामभक्ति-शाखा और कृष्ण-भक्ति-शाखा दोनों ही काव्य-धाराओं में प्रतिष्ठित हुई है। *वल्लभाचार्य के प्रभाव से कृष्ण-भक्ति शाखा में इसका विशेष आदर हुआ।  
*बालक-रूप भगवान की भक्ति रामभक्ति-शाखा और कृष्ण-भक्ति-शाखा दोनों ही काव्य-धाराओं में प्रतिष्ठित हुई है। *वल्लभाचार्य के प्रभाव से कृष्ण-भक्ति शाखा में इसका विशेष आदर हुआ।  
*रसखान ने भी कृष्ण की बाल लीला का चित्रण किया है।<balloon title="सुजान रसखान, 20,21 आदि" style=color:blue>*</balloon> भगवान के प्रति आत्मनिवेदन, शरणागति या प्रपत्ति को भक्तों ने भक्ति का आवश्यक तत्त्व माना है। निम्नांकित सवैये में रसखान ने भगवान की महिमा का स्मरण करते हुए अपने मन को निश्चिंत हो जाने का आश्वासन दिया है।  
*रसखान ने भी कृष्ण की बाल लीला का चित्रण किया है।<ref>सुजान रसखान, 20,21 आदि</ref> भगवान के प्रति आत्मनिवेदन, शरणागति या प्रपत्ति को भक्तों ने भक्ति का आवश्यक तत्त्व माना है। निम्नांकित सवैये में रसखान ने भगवान की महिमा का स्मरण करते हुए अपने मन को निश्चिंत हो जाने का आश्वासन दिया है।  
<poem>द्रौपदी और गनिका गज गीध अजामिल सों कियो सो न निहारो।  
<poem>द्रौपदी और गनिका गज गीध अजामिल सों कियो सो न निहारो।  
गौतम-गेहिनी कैसी तरी, प्रहलाद कौं कैसे हरयौ दुख भारो।  
गौतम-गेहिनी कैसी तरी, प्रहलाद कौं कैसे हरयौ दुख भारो।  
काहे कौं सोच करै रसखानि कहा करिहै रबिनंद बिचारो।  
काहे कौं सोच करै रसखानि कहा करिहै रबिनंद बिचारो।  
ताखन जाखन राखियै माखन-चाखन हारो सो राखनहारौ।<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon></poem>
ताखन जाखन राखियै माखन-चाखन हारो सो राखनहारौ।<ref>सुजान रसखान, 18</ref></poem>
*कृष्ण में गोपियों की तन्मयता तो प्रसिद्ध ही है। यह विशेषता रसखान की गोपियों में भी पाई जाती है। अन्यत्र भी कवि ने कहा है—
*कृष्ण में गोपियों की तन्मयता तो प्रसिद्ध ही है। यह विशेषता रसखान की गोपियों में भी पाई जाती है। अन्यत्र भी कवि ने कहा है—
<poem>ऐसे ही भए तौ नर कहा रसखानि जो पै
<poem>ऐसे ही भए तौ नर कहा रसखानि जो पै
चित्त दै न कीनी प्रीति पीत पटवारे सों।<balloon title="सुजान रसखान, 11" style=color:blue>*</balloon></poem>
चित्त दै न कीनी प्रीति पीत पटवारे सों।<ref>सुजान रसखान, 11</ref></poem>
==पंचधा भक्ति==
==पंचधा भक्ति==
[[रूप गोस्वामी]] ने 'हरिभक्तिरसामृत सिंधु' में भक्तिरस के दो भेद बतलाए हैं—  
[[रूप गोस्वामी]] ने 'हरिभक्तिरसामृत सिंधु' में भक्तिरस के दो भेद बतलाए हैं—  
#मुख्य भक्तिरस और  
#मुख्य भक्तिरस और  
#गौण भक्तिरस।<balloon title="हरिभक्तिरसामृतसिंधु, दक्षिण विभाग, 5 । 94-95" style=color:blue>*</balloon>
#गौण भक्तिरस।<ref>हरिभक्तिरसामृतसिंधु, दक्षिण विभाग, 5 । 94-95</ref>
इस विभाजन का आधार रतिभाव की मुख्यता या गौणता है। मुख्य भक्तिरस के पांच प्रकार हैं-  
इस विभाजन का आधार रतिभाव की मुख्यता या गौणता है। मुख्य भक्तिरस के पांच प्रकार हैं-  
#शांत-शांत भक्तिरस का स्थायी भाव शमी (तत्वज्ञानी) भक्तों की शांतिरति है।<balloon title="हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 4" style=color:blue>*</balloon>
#शांत-शांत भक्तिरस का स्थायी भाव शमी (तत्वज्ञानी) भक्तों की शांतिरति है।<ref>हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 4</ref>
#प्रीत-प्रीत भक्तिरस का स्थायी भाव संभ्रम प्रीति या गौरवप्रीति है।<balloon title="हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 3-4" style=color:blue>*</balloon> इसी को सामान्यत: दास्य भक्ति कहा जाता है।  
#प्रीत-प्रीत भक्तिरस का स्थायी भाव संभ्रम प्रीति या गौरवप्रीति है।<ref>हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 3-4</ref> इसी को सामान्यत: दास्य भक्ति कहा जाता है।  
#प्रेयान- प्रेयान भक्तिरस का स्थायी भाव सख्य है।<balloon title="हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1" style=color:blue>*</balloon>
#प्रेयान- प्रेयान भक्तिरस का स्थायी भाव सख्य है।<ref>हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1</ref>
#वत्सल-वत्सल भक्तिरस का स्थायी भाव वात्सल्य है।<balloon title="हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1" style=color:blue>*</balloon>
#वत्सल-वत्सल भक्तिरस का स्थायी भाव वात्सल्य है।<ref>हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1</ref>
#मधुर<balloon title="हरिभक्तिरसामृतसिंधु, दक्षिण विभाग, 5 । 96" style=color:blue>*</balloon>-  मधुर भक्तिरस का स्थायी भाव मधुरा रति है।<balloon title="हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1" style=color:blue>*</balloon>
#मधुर<ref>हरिभक्तिरसामृतसिंधु, दक्षिण विभाग, 5 । 96</ref>-  मधुर भक्तिरस का स्थायी भाव मधुरा रति है।<ref>हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1</ref>
इस प्रकार रस-दृष्टि से भक्ति के पांच भेद हुए-  
इस प्रकार रस-दृष्टि से भक्ति के पांच भेद हुए-  
#शांत,  
#शांत,  
Line 228: Line 228:
खेलत खात फिरै अंगना पग पैजनी बाजति पीरी कछौटी।  
खेलत खात फिरै अंगना पग पैजनी बाजति पीरी कछौटी।  
वा छवि कों रसखानि बिलोकत वारत काम कलानिज कोटी।  
वा छवि कों रसखानि बिलोकत वारत काम कलानिज कोटी।  
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयो माखन रोटी॥<balloon title="सुजान रसखान, 20-21" style=color:blue>*</balloon></poem>
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयो माखन रोटी॥<ref>सुजान रसखान, 20-21</ref></poem>
अंतिम पंक्ति में 'हरि' शब्द के प्रयोग से कृष्ण का ईश्वरत्व और कवि की भक्ति-भावना ध्वनित होती है। रसखान माधुर्य के कवि हैं। वे युवावस्था में भी प्रेमी थे और विषय-विरक्त होने पर भी प्रेमी ही रहे। अंतर केवल इतना ही हुआ कि प्रेम का आलंबन बदल गया। सामान्य लड़के और रमणी के प्रति बहने वाली प्रेम-धारा भगवान् के प्रति अविछिन्न रूप से प्रवाहित होने लगी। उनकी इस प्रेम-प्रवृत्ति का प्रभाव यह हुआ कि उन्होंने श्री[[कृष्ण]] की मधुर लीलाओं का ही वर्णन अधिक किया। गोचारण, [[चीरहरण]], कुंजलीला, [[रासलीला]], पनघटलीला, दानलीला, बनलीला, गोरसलीला आदि के प्रसंगों में [[गोपी]]-कृष्ण की विविध श्रृंगारिक लीलाओं का हृदय-स्पर्शी चित्रण किया गया है।  
अंतिम पंक्ति में 'हरि' शब्द के प्रयोग से कृष्ण का ईश्वरत्व और कवि की भक्ति-भावना ध्वनित होती है। रसखान माधुर्य के कवि हैं। वे युवावस्था में भी प्रेमी थे और विषय-विरक्त होने पर भी प्रेमी ही रहे। अंतर केवल इतना ही हुआ कि प्रेम का आलंबन बदल गया। सामान्य लड़के और रमणी के प्रति बहने वाली प्रेम-धारा भगवान् के प्रति अविछिन्न रूप से प्रवाहित होने लगी। उनकी इस प्रेम-प्रवृत्ति का प्रभाव यह हुआ कि उन्होंने श्री[[कृष्ण]] की मधुर लीलाओं का ही वर्णन अधिक किया। गोचारण, [[चीरहरण]], कुंजलीला, [[रासलीला]], पनघटलीला, दानलीला, बनलीला, गोरसलीला आदि के प्रसंगों में [[गोपी]]-कृष्ण की विविध श्रृंगारिक लीलाओं का हृदय-स्पर्शी चित्रण किया गया है।  


Line 235: Line 235:
जानति हैं बर नागर है पर नेकहु भेद लह्यो नहीं ह्यां को।  
जानति हैं बर नागर है पर नेकहु भेद लह्यो नहीं ह्यां को।  
जानति ना हम और कछू मुख देखि जियैं नित नंद लला को।  
जानति ना हम और कछू मुख देखि जियैं नित नंद लला को।  
जात नहीं रसखानि हमें तजि, राखनहारो है मोरपखा को॥<balloon title="सुजान रसखान, 203" style=color:blue>*</balloon></poem>
जात नहीं रसखानि हमें तजि, राखनहारो है मोरपखा को॥<ref>सुजान रसखान, 203</ref></poem>
इन पंक्तियों में गोपियों की कृष्ण-विषयक विरहासक्ति की व्यंजना है। यहाँ पर गोपियों का चित्रण सामान्य वियोगिनी नायिकाओं के रूप में और नंदलाल का चित्रण सामान्य नायक के रूप में ही किया गया है। भक्त और भगवान के स्वरूप का कोई संकेत नहीं है। अतएव यहाँ पर विप्रलंभ श्रृंगार है।  
इन पंक्तियों में गोपियों की कृष्ण-विषयक विरहासक्ति की व्यंजना है। यहाँ पर गोपियों का चित्रण सामान्य वियोगिनी नायिकाओं के रूप में और नंदलाल का चित्रण सामान्य नायक के रूप में ही किया गया है। भक्त और भगवान के स्वरूप का कोई संकेत नहीं है। अतएव यहाँ पर विप्रलंभ श्रृंगार है।  
'प्रेमलक्षणा भक्ति को माधुर्य भक्ति और श्रृंगार रस को उज्ज्वल रस की संज्ञा देकर [[चैतन्य संप्रदाय]] के विद्वान पंडित श्री [[रूप गोस्वामी]] ने अपने भक्ति-ग्रंथों<balloon title="ये ग्रंथ हैं- हरिभक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वल नीलमणि" style=color:blue>*</balloon> में श्रृंगार और प्रेम के लौकिक विषय-वासनामय रूप का उन्नयन किया था। श्रृंगार और प्रेम के सांसारिक चित्रों के माध्यम से उन्होंने हरिभक्ति का उज्ज्वल एवं दिव्य रूप खड़ा करके श्रृंगार की भोग-वृत्ति का भली-भांति परिमार्जन भी किया। भक्ति के क्षेत्र में जिस श्रृंगार को चैतन्य-संप्रदाय के आचार्यों ने अवतरित किया था उसका कृष्ण भक्तिपरक परवर्ती सभी वैष्णव संप्रदायों पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनमें श्रृंगारमयी शैली से रसोपासना प्रवर्तित हो गई। रसिकाचार्यों ने प्रेम और श्रृंगार का वर्णन करके जो शैली ग्रहण की उसमें प्रेम के प्रतिपादन में काम, मनोज, भार, मनसिज, मन्मथ आदि शब्दों का प्रचुर परिमाण में प्रयोग हुआ। साथ ही भाव वस्तु के लिए भी स्थूल काम-चेष्टाओं का सांगोपांग वर्णन किया गया। उस वर्णन के पीछे भक्तों की चाहे जैसी पावन भावना रही हो किंतु सामान्य पाठक को उसमें काम-वासना की गंध आना स्वाभाविक है।<balloon title="राधावल्लभ सम्प्रदाय: सिद्धांत और साहित्य, पृ0 161" style=color:blue>*</balloon>'
'प्रेमलक्षणा भक्ति को माधुर्य भक्ति और श्रृंगार रस को उज्ज्वल रस की संज्ञा देकर [[चैतन्य संप्रदाय]] के विद्वान पंडित श्री [[रूप गोस्वामी]] ने अपने भक्ति-ग्रंथों<ref>ये ग्रंथ हैं- हरिभक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वल नीलमणि</ref> में श्रृंगार और प्रेम के लौकिक विषय-वासनामय रूप का उन्नयन किया था। श्रृंगार और प्रेम के सांसारिक चित्रों के माध्यम से उन्होंने हरिभक्ति का उज्ज्वल एवं दिव्य रूप खड़ा करके श्रृंगार की भोग-वृत्ति का भली-भांति परिमार्जन भी किया। भक्ति के क्षेत्र में जिस श्रृंगार को चैतन्य-संप्रदाय के आचार्यों ने अवतरित किया था उसका कृष्ण भक्तिपरक परवर्ती सभी वैष्णव संप्रदायों पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनमें श्रृंगारमयी शैली से रसोपासना प्रवर्तित हो गई। रसिकाचार्यों ने प्रेम और श्रृंगार का वर्णन करके जो शैली ग्रहण की उसमें प्रेम के प्रतिपादन में काम, मनोज, भार, मनसिज, मन्मथ आदि शब्दों का प्रचुर परिमाण में प्रयोग हुआ। साथ ही भाव वस्तु के लिए भी स्थूल काम-चेष्टाओं का सांगोपांग वर्णन किया गया। उस वर्णन के पीछे भक्तों की चाहे जैसी पावन भावना रही हो किंतु सामान्य पाठक को उसमें काम-वासना की गंध आना स्वाभाविक है।<ref>राधावल्लभ सम्प्रदाय: सिद्धांत और साहित्य, पृ0 161</ref>'
रसखान किसी रसोपासक संप्रदाय में दीक्षित नहीं हुए थे। फिर भी अपनी स्वाभाविक और स्वच्छंद प्रवृत्ति के अनुसार उन्होंने उपर्युक्त उज्ज्वल रस (जिसे रसिक भक्त माधुर्य-भक्ति कहते हैं) की विषद निबंधना की हे। इस विषय में उनका सिद्धांत भी स्पष्ट है। पूर्वोक्त पांच प्रकार के भक्तिरसों में से वत्सल, प्रेयान् और मधुर का उन्होंने आदर के साथ स्मरण किया है। वात्सल्य और सख्य भावों की तुलना में माधुर्य-भाव को उन्होंने सर्वोपरि माना है—
रसखान किसी रसोपासक संप्रदाय में दीक्षित नहीं हुए थे। फिर भी अपनी स्वाभाविक और स्वच्छंद प्रवृत्ति के अनुसार उन्होंने उपर्युक्त उज्ज्वल रस (जिसे रसिक भक्त माधुर्य-भक्ति कहते हैं) की विषद निबंधना की हे। इस विषय में उनका सिद्धांत भी स्पष्ट है। पूर्वोक्त पांच प्रकार के भक्तिरसों में से वत्सल, प्रेयान् और मधुर का उन्होंने आदर के साथ स्मरण किया है। वात्सल्य और सख्य भावों की तुलना में माधुर्य-भाव को उन्होंने सर्वोपरि माना है—
<poem>जदपि जसोदा नंद अरु ग्वाल बाल सब धन्य।  
<poem>जदपि जसोदा नंद अरु ग्वाल बाल सब धन्य।  
पै या जग मैं प्रेम कौं गोपी भई अनन्य॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 38" style=color:blue>*</balloon></poem>  
पै या जग मैं प्रेम कौं गोपी भई अनन्य॥<ref>प्रेम वाटिका, 38</ref></poem>  
*तन्मयता की पराकाष्ठा माधुर्य-भाव में ही संभव है। इसी रतिभाव से कृष्ण के साथ मिलकर एक हो जाने में वास्तविक आनंद है, जीवन फल की प्राप्ति है—
*तन्मयता की पराकाष्ठा माधुर्य-भाव में ही संभव है। इसी रतिभाव से कृष्ण के साथ मिलकर एक हो जाने में वास्तविक आनंद है, जीवन फल की प्राप्ति है—
<poem>मोहनी मोहन सों रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।  
<poem>मोहनी मोहन सों रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।  
जेठ की घाम भई सुखधाम अनंद ही अंग ही अंग समाहीं।  
जेठ की घाम भई सुखधाम अनंद ही अंग ही अंग समाहीं।  
जीवन को फल पायौ भटू रसबातन केलि सों तोरत नाहीं।  
जीवन को फल पायौ भटू रसबातन केलि सों तोरत नाहीं।  
कान्ह को हाथ कंधा पर है मुख ऊपर मोर किरीट की छाहीं॥<balloon title="सुजान रसखान, 185" style=color:blue>*</balloon></poem>
कान्ह को हाथ कंधा पर है मुख ऊपर मोर किरीट की छाहीं॥<ref>सुजान रसखान, 185</ref></poem>
*निम्नलिखित सवैये में भक्ति-भावना का स्पष्ट संकेत है—
*निम्नलिखित सवैये में भक्ति-भावना का स्पष्ट संकेत है—
<poem>मोर के चंदन मौर बन्यौ दिन दूलह है अली नंद को नंदन।  
<poem>मोर के चंदन मौर बन्यौ दिन दूलह है अली नंद को नंदन।  
श्री बृषभानुसुता दुलही दिन जोरी बनी बिधना सुखकंदन।  
श्री बृषभानुसुता दुलही दिन जोरी बनी बिधना सुखकंदन।  
आवै कह्यौ न कछू रसखानि री दोऊ फंदे छबि प्रेम के फंदन।  
आवै कह्यौ न कछू रसखानि री दोऊ फंदे छबि प्रेम के फंदन।  
जाहि बिलोकें सबै सुख पावत वे ब्रज जीवन हैं दुख दंदन॥<balloon title="सुजान रसखान, 190" style=color:blue>*</balloon></poem>
जाहि बिलोकें सबै सुख पावत वे ब्रज जीवन हैं दुख दंदन॥<ref>सुजान रसखान, 190</ref></poem>


==नवधाभक्ति==
==नवधाभक्ति==
[[भागवत पुराण]] में वर्णित नवधा भक्ति का भक्त समाज में बड़ा आदर है और भक्त कवियों ने उसका बहुधा उल्लेख किया है। ये नौ विधाएं हैं- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।<balloon title="श्रवणं कीर्तनंविष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। अर्जनं बन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥  -भागवतपुराण, 7। 5। 23" style=color:blue>*</balloon>
[[भागवत पुराण]] में वर्णित नवधा भक्ति का भक्त समाज में बड़ा आदर है और भक्त कवियों ने उसका बहुधा उल्लेख किया है। ये नौ विधाएं हैं- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।<ref>श्रवणं कीर्तनंविष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। अर्जनं बन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥  -भागवतपुराण, 7। 5। 23</ref>
*प्रथम तीन विधाओं में भगवान के नाम और गुण की प्रधानता है।  
*प्रथम तीन विधाओं में भगवान के नाम और गुण की प्रधानता है।  
*चौथी, पांचवीं और छठी में उनके रूप का वैशिष्ट्य है।  
*चौथी, पांचवीं और छठी में उनके रूप का वैशिष्ट्य है।  
*अंतिम तीन विधाओं में भक्त के भाव पर बल दिया गया है। रसखान ने इन विधाओं का कहीं भी व्यवस्थित निरूपण नहीं किया। वे मर्यादामार्गी भक्त नहीं थे। अत: उनकी रचनाओं में इन सभी विधाओं के अन्वेषण का प्रयास निष्फल होगा। उनकी कविता में कुछ विधाओं की ही सांकेतिक अभिव्यक्ति हुई है। श्रवण, कीर्तन और स्मरण सभी भक्तों को मान्य हैं और रसखान ने भी उनका उल्लेख किया है—
*अंतिम तीन विधाओं में भक्त के भाव पर बल दिया गया है। रसखान ने इन विधाओं का कहीं भी व्यवस्थित निरूपण नहीं किया। वे मर्यादामार्गी भक्त नहीं थे। अत: उनकी रचनाओं में इन सभी विधाओं के अन्वेषण का प्रयास निष्फल होगा। उनकी कविता में कुछ विधाओं की ही सांकेतिक अभिव्यक्ति हुई है। श्रवण, कीर्तन और स्मरण सभी भक्तों को मान्य हैं और रसखान ने भी उनका उल्लेख किया है—
<poem>स्त्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोइ प्रेम।<balloon title="प्रेम वाटिका, 40" style=color:blue>*</balloon>
<poem>स्त्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोइ प्रेम।<ref>प्रेम वाटिका, 40</ref>
बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।<balloon title="सुजान रसखान, 4" style=color:blue>*</balloon>
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।<ref>सुजान रसखान, 4</ref>
संकर से सुर जाहि जपैं चतुरानन ध्यानन धर्म बढ़ावैं।  
संकर से सुर जाहि जपैं चतुरानन ध्यानन धर्म बढ़ावैं।  
नेकु हियें जिहि आनत ही जड़ मूढ़ महा रसखानि कहावैं।<balloon title="सुजान रसखान, 14" style=color:blue>*</balloon>
नेकु हियें जिहि आनत ही जड़ मूढ़ महा रसखानि कहावैं।<ref>सुजान रसखान, 14</ref>
*'पादसेवन' का तात्पर्य है- भगवान की परिचर्या, मूर्ति का दर्शन, मंदिर गमन, तीर्थयात्रा आदि। उन्होंने तीर्थयात्रा का उपहास किया है-
*'पादसेवन' का तात्पर्य है- भगवान की परिचर्या, मूर्ति का दर्शन, मंदिर गमन, तीर्थयात्रा आदि। उन्होंने तीर्थयात्रा का उपहास किया है-
तीरथ हज़ार अरे बूझत लबार को।<balloon title="सुजान रसखान, 9" style=color:blue>*</balloon></poem>
तीरथ हज़ार अरे बूझत लबार को।<ref>सुजान रसखान, 9</ref></poem>
*मंदिर में झाड़ू लगाना आदि भी पादसेवन ही है। कुंज-कुटीरों को बुहारने की कामना में इसी विधा का आभास मिलता है। <br />
*मंदिर में झाड़ू लगाना आदि भी पादसेवन ही है। कुंज-कुटीरों को बुहारने की कामना में इसी विधा का आभास मिलता है। <br />
मो कर नीकी करैं करनी जु पै कुंज-कुटीरन देहु बुहारन।<balloon title="सुजान रसखान, 2" style=color:blue>*</balloon>
मो कर नीकी करैं करनी जु पै कुंज-कुटीरन देहु बुहारन।<ref>सुजान रसखान, 2</ref>
रसखान की अर्चन, वंदन, दास्य और सख्य भक्तियों में प्रवृत्ति नहीं हुए और 'आत्मनिवेदन' तो भगवान के प्रति आत्मसमर्पण, शरणागति या प्रपत्ति है। भक्त भगवान को सर्वशक्तिमान और कृपालु मानता है। वह पूरी आस्था के साथ अपने को भगवान की शरण में समर्पित कर देता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि भगवान के संरक्षण में रहने पर उसका कोइर कुछ बिगाड़ नहीं सकता और भगवान उसके समस्त दु:खों का अवश्य ही अंत कर देंगे-
रसखान की अर्चन, वंदन, दास्य और सख्य भक्तियों में प्रवृत्ति नहीं हुए और 'आत्मनिवेदन' तो भगवान के प्रति आत्मसमर्पण, शरणागति या प्रपत्ति है। भक्त भगवान को सर्वशक्तिमान और कृपालु मानता है। वह पूरी आस्था के साथ अपने को भगवान की शरण में समर्पित कर देता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि भगवान के संरक्षण में रहने पर उसका कोइर कुछ बिगाड़ नहीं सकता और भगवान उसके समस्त दु:खों का अवश्य ही अंत कर देंगे-
<poem>कहा करै रसखानि को कोऊ चुगुल लबार।  
<poem>कहा करै रसखानि को कोऊ चुगुल लबार।  
जो पै राखनहार है माखन चाखन हार॥<balloon title="सुजान रसखान, 19" style=color:blue>*</balloon>
जो पै राखनहार है माखन चाखन हार॥<ref>सुजान रसखान, 19</ref>


देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगौ।  
देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगौ।  
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौं गुन, सौगुन औगुन गांठि परैगौ।  
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौं गुन, सौगुन औगुन गांठि परैगौ।  
बाँसुरीवारो बड़ो रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।  
बाँसुरीवारो बड़ो रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।  
लाड़लो छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ॥<balloon title="सुजान रसखान, 7" style=color:blue>*</balloon></poem>
लाड़लो छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ॥<ref>सुजान रसखान, 7</ref></poem>
==मुक्ति और भक्ति के साधन==
==मुक्ति और भक्ति के साधन==
*विचारक आचार्यों ने भवसागर को पार करने के अनेक साधन बतलाए हैं- कर्म, वैराग्य, योग, ज्ञान, उपासना, भक्ति, प्रपत्ति आदि। रसखान के निम्नलिखित दोहे से निष्कर्ष निकलता है कि उनके अनुसार भव-संतरन के चार उपाय हैं- कर्म, ज्ञान, उपासना और प्रेमलक्षणा भक्ति—
*विचारक आचार्यों ने भवसागर को पार करने के अनेक साधन बतलाए हैं- कर्म, वैराग्य, योग, ज्ञान, उपासना, भक्ति, प्रपत्ति आदि। रसखान के निम्नलिखित दोहे से निष्कर्ष निकलता है कि उनके अनुसार भव-संतरन के चार उपाय हैं- कर्म, ज्ञान, उपासना और प्रेमलक्षणा भक्ति—
<poem>ज्ञान कर्म रु उपासना, सब अहमिति को मूल।  
<poem>ज्ञान कर्म रु उपासना, सब अहमिति को मूल।  
दृढ़ निस्चय नहिं होत बिन किए प्रेम अनुकूल॥<balloon title="प्रेमवाटिका, 12" style=color:blue>*</balloon></poem>
दृढ़ निस्चय नहिं होत बिन किए प्रेम अनुकूल॥<ref>प्रेमवाटिका, 12</ref></poem>
*वैराग्य, जप, तप, संयम, प्राणायाम, तीर्थयात्रा आदि इन्हीं चार साधनों के ही साधन हैं। रसखान का कहना है कि भक्ति को छोड़कर अन्य सभी साधन अमोघ नहीं हैं। संसार को पार करने का एक मात्र अमोघ साधन भगवान श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेम ही है—
*वैराग्य, जप, तप, संयम, प्राणायाम, तीर्थयात्रा आदि इन्हीं चार साधनों के ही साधन हैं। रसखान का कहना है कि भक्ति को छोड़कर अन्य सभी साधन अमोघ नहीं हैं। संसार को पार करने का एक मात्र अमोघ साधन भगवान श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेम ही है—
<poem>कहा रसखानि सुखसंपति सुमार कहा,  
<poem>कहा रसखानि सुखसंपति सुमार कहा,  
Line 286: Line 286:
तीरथ हज़ार अरे बूझत लबार को।
तीरथ हज़ार अरे बूझत लबार को।
कीन्हौ नहीं प्यार, नहीं सेयौ दरबार, चित
कीन्हौ नहीं प्यार, नहीं सेयौ दरबार, चित
चाह्यौ न निहारयौ जो पै नंद के कुमार को॥<balloon title="सुजान रसखान, 9" style=color:blue>*</balloon></poem>
चाह्यौ न निहारयौ जो पै नंद के कुमार को॥<ref>सुजान रसखान, 9</ref></poem>
*भक्ति साधन और साध्य दोनों ही है। उसके लिए अन्य साधन अनिवार्य नहीं हैं। वे केवल सहायक हो सकते हैं। भक्ति की श्रवण आदि नौ विधाएँ वस्तुएं वस्तुत: साधन भक्ति के नौ वर्ग हैं। रसखान ने श्रवण आदि कतिपय विधाओं को प्रेमलक्षणा भक्ति का साधन माना है। उनकी चर्चा पहले की जा चुकी है। उनके अतिरिक्त, भक्ति के सहायक तत्त्वों के रूप में उन्होंने कुछ अन्य साधनों का भी उल्लेख किया है। निम्नोद्धृत सवैये में उन्होंने इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि मन और वाणी के संयम, सच्चाई के साथ किए गए व्रत-नियम पालन, सबके प्रति सद्भाव, सात्विक, सत्संग और अनन्य भाव से भगवान और उनकी भक्ति प्राप्त हो सकती है—
*भक्ति साधन और साध्य दोनों ही है। उसके लिए अन्य साधन अनिवार्य नहीं हैं। वे केवल सहायक हो सकते हैं। भक्ति की श्रवण आदि नौ विधाएँ वस्तुएं वस्तुत: साधन भक्ति के नौ वर्ग हैं। रसखान ने श्रवण आदि कतिपय विधाओं को प्रेमलक्षणा भक्ति का साधन माना है। उनकी चर्चा पहले की जा चुकी है। उनके अतिरिक्त, भक्ति के सहायक तत्त्वों के रूप में उन्होंने कुछ अन्य साधनों का भी उल्लेख किया है। निम्नोद्धृत सवैये में उन्होंने इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि मन और वाणी के संयम, सच्चाई के साथ किए गए व्रत-नियम पालन, सबके प्रति सद्भाव, सात्विक, सत्संग और अनन्य भाव से भगवान और उनकी भक्ति प्राप्त हो सकती है—
<poem>सुनियै सबकी कहियै न कछु रहियै इमि या मन-बागर मैं।  
<poem>सुनियै सबकी कहियै न कछु रहियै इमि या मन-बागर मैं।  
करियै ब्रत-नेम सचाई लियें, जिन तें तरियै मन-सागर मैं।  
करियै ब्रत-नेम सचाई लियें, जिन तें तरियै मन-सागर मैं।  
मिलियै सब सौं दुरभाव बिना, रहियै सतसंग उजागर मैं।  
मिलियै सब सौं दुरभाव बिना, रहियै सतसंग उजागर मैं।  
रसखानि गुबिंदहिं यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागर मैं॥<balloon title="सुजान रसखान, 8" style=color:blue>*</balloon></poem>
रसखानि गुबिंदहिं यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागर मैं॥<ref>सुजान रसखान, 8</ref></poem>


'''मुख्य प्रतिपाद्य: भगवान कृष्ण और उनकी लीला'''
'''मुख्य प्रतिपाद्य: भगवान कृष्ण और उनकी लीला'''
Line 299: Line 299:
छोहरा आजु नयो जनम्यौ तुम सो कोऊ भाग भरयौ नहिं भू पर।  
छोहरा आजु नयो जनम्यौ तुम सो कोऊ भाग भरयौ नहिं भू पर।  
वारि के दाम संवार करौ अपने अपचाल कुचाल ललू पर।  
वारि के दाम संवार करौ अपने अपचाल कुचाल ललू पर।  
नाचत रावरो लाला गुपाल सो काल सौ ब्याल-कपाल के ऊपर॥<balloon title="सुजान रसखान, 201" style=color:blue>*</balloon>
नाचत रावरो लाला गुपाल सो काल सौ ब्याल-कपाल के ऊपर॥<ref>सुजान रसखान, 201</ref>
*कुवलया-वध का वीरसपूर्ण वर्णन भी ओजस्वी शब्दों में किया गया है-
*कुवलया-वध का वीरसपूर्ण वर्णन भी ओजस्वी शब्दों में किया गया है-
कंस के क्रोध की फैलि रही सिगरे ब्रजमंडन मांझ फुकार सी।  
कंस के क्रोध की फैलि रही सिगरे ब्रजमंडन मांझ फुकार सी।  
आइ गए कछनी कछिकै तबहीं नट-नागर नन्दकुमार सी।  
आइ गए कछनी कछिकै तबहीं नट-नागर नन्दकुमार सी।  
द्वरद को रद खैंचि लियौं रसखानि हिये महि लाइ बिचार सी।  
द्वरद को रद खैंचि लियौं रसखानि हिये महि लाइ बिचार सी।  
लीनी कुठौर लगी लखि तोरि कलंक तमाल तें कीरति-डार सी॥<balloon title="सुजान रसखान, 202" style=color:blue>*</balloon>
लीनी कुठौर लगी लखि तोरि कलंक तमाल तें कीरति-डार सी॥<ref>सुजान रसखान, 202</ref>
*कृष्ण के शील की व्यंजना रसखान ने उनके गुण-कथन के सन्दर्भों में की है—
*कृष्ण के शील की व्यंजना रसखान ने उनके गुण-कथन के सन्दर्भों में की है—
(क)गोतम गेहिनी कैसी तेरी, प्रहलाद को कैसैं हरयौ दुख भारो।<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon>
(क)गोतम गेहिनी कैसी तेरी, प्रहलाद को कैसैं हरयौ दुख भारो।<ref>सुजान रसखान, 18</ref>
(ख)बाँसुरीवारो बड़ों रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगो।  
(ख)बाँसुरीवारो बड़ों रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगो।  
(ग)लड़लो छैव वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगो॥<balloon title="सुजान रसखान, 7" style=color:blue>*</balloon></poem>
(ग)लड़लो छैव वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगो॥<ref>सुजान रसखान, 7</ref></poem>
भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम का वर्णन सभी सगुण भक्तों का प्रिय विषय रहा है। रसखान ने इनकी चर्चा बहुत कम की है प्रेममार्गी रुचि के कारण उनका मन कृष्ण के रूप और लीला के चित्रण में अधिक रमा है। दार्शनिक दृष्टि से उन्होंने कृष्ण के स्वरूप का विशद निरूपण नहीं किया। केवल कुछ पद्यों में उसका आभास दिया है। वेदांती लोग जिसे ब्रह्म कहते हैं, जो [[ब्रह्मा]] का सेव्य है, सदाशिव जिसका ध्यान किया करते हैं, वही कृष्ण हैं। जो [[वैष्णव|वैष्णवों]] का [[विष्णु]] है, जो योगियों की साधना का साध्य है, वही ब्रजचन्द कृष्ण हैं। ब्रह्मा, विष्णु और कृष्ण में स्वरूपत: कोई भेद नहीं हैं, केवल नाम की उपाधि भिन्न है। यशोदा आदि भक्तजनों को अपनी लीला का आनन्द देने के लिए ही भगवान कृष्ण अवतार धारण करते हैं—
भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम का वर्णन सभी सगुण भक्तों का प्रिय विषय रहा है। रसखान ने इनकी चर्चा बहुत कम की है प्रेममार्गी रुचि के कारण उनका मन कृष्ण के रूप और लीला के चित्रण में अधिक रमा है। दार्शनिक दृष्टि से उन्होंने कृष्ण के स्वरूप का विशद निरूपण नहीं किया। केवल कुछ पद्यों में उसका आभास दिया है। वेदांती लोग जिसे ब्रह्म कहते हैं, जो [[ब्रह्मा]] का सेव्य है, सदाशिव जिसका ध्यान किया करते हैं, वही कृष्ण हैं। जो [[वैष्णव|वैष्णवों]] का [[विष्णु]] है, जो योगियों की साधना का साध्य है, वही ब्रजचन्द कृष्ण हैं। ब्रह्मा, विष्णु और कृष्ण में स्वरूपत: कोई भेद नहीं हैं, केवल नाम की उपाधि भिन्न है। यशोदा आदि भक्तजनों को अपनी लीला का आनन्द देने के लिए ही भगवान कृष्ण अवतार धारण करते हैं—
<poem>वेई ब्रह्म ब्रह्मा जाहि सेवत हैं रैन-दिन,
<poem>वेई ब्रह्म ब्रह्मा जाहि सेवत हैं रैन-दिन,
Line 317: Line 317:
जाके अभिलाष लाख लाख भाँति बाढ़े हैं।  
जाके अभिलाष लाख लाख भाँति बाढ़े हैं।  
जसुधा के आगे बसुधा के मान-मोचन ये,  
जसुधा के आगे बसुधा के मान-मोचन ये,  
तामरस लोचन खरोचन कौं ठाढ़े हैं॥<balloon title="सुजान रसखान, 10" style=color:blue>*</balloon></poem>
तामरस लोचन खरोचन कौं ठाढ़े हैं॥<ref>सुजान रसखान, 10</ref></poem>
भगवान के नाम और गुण असंख्य हैं। वे अनादि, अनंत, अखंड और अछेद्य हैं। वे भक्त-प्रेम के वशीभूत हैं। उनकी भक्तवत्सलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वे इतने महिमाशाली और शक्तिमान होकर भी अहीरों की छोकरियों को प्रसन्न करने के लिए छछिया भर छाछ पर नाच नाचने को प्रस्तुत करते हैं—
भगवान के नाम और गुण असंख्य हैं। वे अनादि, अनंत, अखंड और अछेद्य हैं। वे भक्त-प्रेम के वशीभूत हैं। उनकी भक्तवत्सलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वे इतने महिमाशाली और शक्तिमान होकर भी अहीरों की छोकरियों को प्रसन्न करने के लिए छछिया भर छाछ पर नाच नाचने को प्रस्तुत करते हैं—
<poem>नाम अनंत गनंत ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।  
<poem>नाम अनंत गनंत ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।  
Line 324: Line 324:
जाहि अनादि अनंत अखड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।  
जाहि अनादि अनंत अखड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।  
नारद से सुक ब्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।  
नारद से सुक ब्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।  
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥<balloon title="सुजान रसखान, 12-13" style=color:blue>*</balloon></poem>
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥<ref>सुजान रसखान, 12-13</ref></poem>
*सौंदर्य-प्रेमी और लीला-गायक रसखान को भगवान के नाम-जप में कोई विशेष आकर्षण नहीं प्रतीत हुआ। इसलिए उन्होंने एकाध स्थलों पर नाम-कीर्तन का उल्लेख किया है यथा-
*सौंदर्य-प्रेमी और लीला-गायक रसखान को भगवान के नाम-जप में कोई विशेष आकर्षण नहीं प्रतीत हुआ। इसलिए उन्होंने एकाध स्थलों पर नाम-कीर्तन का उल्लेख किया है यथा-
<poem>जो रसना रस ना बिलसै तेहि देहु सदा निज नाम उचारन।<balloon title="सुजान रसखान, 2" style=color:blue>*</balloon>
<poem>जो रसना रस ना बिलसै तेहि देहु सदा निज नाम उचारन।<ref>सुजान रसखान, 2</ref>
भगवान कृष्ण के गुणों का गान भी रसखान ने बारंबार किया है-
भगवान कृष्ण के गुणों का गान भी रसखान ने बारंबार किया है-
बेन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैंन सों सानी।<balloon title="सुजान रसखान, 4" style=color:blue>*</balloon>
बेन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैंन सों सानी।<ref>सुजान रसखान, 4</ref>
गावैं गुनी गनिका गंधरब्बा औ सारद सेष सबै गुन गावत।<balloon title="सुजान रसखान, 12" style=color:blue>*</balloon>
गावैं गुनी गनिका गंधरब्बा औ सारद सेष सबै गुन गावत।<ref>सुजान रसखान, 12</ref>
द्रौपदी औ गनिका गज गीध अजामिल सों कियौ सो न निहारो।<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon></poem>
द्रौपदी औ गनिका गज गीध अजामिल सों कियौ सो न निहारो।<ref>सुजान रसखान, 18</ref></poem>


रसखान का मन मुख्य रूप से श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं के गान में ही रमा हैं। कृष्ण भक्त कवियों के द्वारा सामान्यत: वर्णित लीलाओं का उन्होंने भी वर्णन किया है। इन लीलाओं में बाललीला<balloon title="सुजान रसखान,20-21" style=color:blue>*</balloon>, गोचारण<balloon title="सुजान रसखान, 22-26" style=color:blue>*</balloon>, चीरहरण<balloon title="सुजान रसखान, 27" style=color:blue>*</balloon>, कुंजलीला<balloon title="सुजान रसखान, 28-31" style=color:blue>*</balloon>, रासलीला<balloon title="सुजान रसखान, 32-35" style=color:blue>*</balloon>, पनघटलीला<balloon title="सुजान रसखान, 36-37" style=color:blue>*</balloon>, दानलीला<balloon title="सुजान रसखान, 38-39" style=color:blue>*</balloon>, वनलाल<balloon title="सुजान रसखान, 40" style=color:blue>*</balloon>, गोरसलीला<balloon title="सुजान रसखान, 41" style=color:blue>*</balloon>, प्रेमलीला<balloon title="सुजान रसखान, 101" style=color:blue>*</balloon>,  सुरतलीला<balloon title="सुजान रसखान, 120" style=color:blue>*</balloon>, होली<balloon title="सुजान रसखान, 191-93" style=color:blue>*</balloon> आदि प्रमुख हैं। रसखानि के द्वारा किए गए कृष्णलीला वर्णन के एकाध पद्य ही ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर सामान्य पाठक को भक्तिरस की अनुभूति होती है। यह ठीक है परन्तु भक्तजनों का अनुभव इससे भिन्न है। उनके लिए श्रीकृष्ण सदैव भगवान ही हैं- वे चाहे जिस वेष में सामने आएं, चाहे जो लीला करें। जिस प्रकार प्रेमी को अपना प्रेम पात्र प्रत्येक दशा में प्रिय होता है- वह चाहे जो भी वेष-भूषा धारण करे, उसी प्रकार भक्तो को भगवान भगवान के ही रूप में, ही आराध्य रूप में दिखाई देता है- वह चाहे जो भी रूप धारण करे। उसकी प्रत्येक लीला भक्त को अपने इष्टदेव की ही लीला दिखाई देती है। रसखान ने कृष्ण की लीला का गान इसी भक्त-दृष्टि से किया है। कृष्ण की माखनचोरी, पनघटलीला, रासलीला, सुरतलीला, आदि का वर्णन करते समय रसखान के हृदय में यह बात कभी तिरोहित नहीं हुई कि वे अपने आराध्य भगवान कृष्ण की लीला का वर्णन कर रहे हैं।  
रसखान का मन मुख्य रूप से श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं के गान में ही रमा हैं। कृष्ण भक्त कवियों के द्वारा सामान्यत: वर्णित लीलाओं का उन्होंने भी वर्णन किया है। इन लीलाओं में बाललीला<ref>सुजान रसखान,20-21</ref>, गोचारण<ref>सुजान रसखान, 22-26</ref>, चीरहरण<ref>सुजान रसखान, 27</ref>, कुंजलीला<ref>सुजान रसखान, 28-31</ref>, रासलीला<ref>सुजान रसखान, 32-35</ref>, पनघटलीला<ref>सुजान रसखान, 36-37</ref>, दानलीला<ref>सुजान रसखान, 38-39</ref>, वनलाल<ref>सुजान रसखान, 40</ref>, गोरसलीला<ref>सुजान रसखान, 41</ref>, प्रेमलीला<ref>सुजान रसखान, 101</ref>,  सुरतलीला<ref>सुजान रसखान, 120</ref>, होली<ref>सुजान रसखान, 191-93</ref> आदि प्रमुख हैं। रसखानि के द्वारा किए गए कृष्णलीला वर्णन के एकाध पद्य ही ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर सामान्य पाठक को भक्तिरस की अनुभूति होती है। यह ठीक है परन्तु भक्तजनों का अनुभव इससे भिन्न है। उनके लिए श्रीकृष्ण सदैव भगवान ही हैं- वे चाहे जिस वेष में सामने आएं, चाहे जो लीला करें। जिस प्रकार प्रेमी को अपना प्रेम पात्र प्रत्येक दशा में प्रिय होता है- वह चाहे जो भी वेष-भूषा धारण करे, उसी प्रकार भक्तो को भगवान भगवान के ही रूप में, ही आराध्य रूप में दिखाई देता है- वह चाहे जो भी रूप धारण करे। उसकी प्रत्येक लीला भक्त को अपने इष्टदेव की ही लीला दिखाई देती है। रसखान ने कृष्ण की लीला का गान इसी भक्त-दृष्टि से किया है। कृष्ण की माखनचोरी, पनघटलीला, रासलीला, सुरतलीला, आदि का वर्णन करते समय रसखान के हृदय में यह बात कभी तिरोहित नहीं हुई कि वे अपने आराध्य भगवान कृष्ण की लीला का वर्णन कर रहे हैं।  
 
रसखान ने कृष्ण के धाम का भी वर्णन किया है। इस प्रसंग में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने पौराणिक भक्तों की भांति बैकुण्ठ या क्षीरसागर का कोई वर्णन नहीं किया। उन्होंने कृष्ण की अवतार-लीला के धाम ब्रज का ही वर्णन किया है।<balloon title="सुजान रसखान, 1, 3" style=color:blue>*</balloon>


रसखान ने कृष्ण के धाम का भी वर्णन किया है। इस प्रसंग में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने पौराणिक भक्तों की भांति बैकुण्ठ या क्षीरसागर का कोई वर्णन नहीं किया। उन्होंने कृष्ण की अवतार-लीला के धाम ब्रज का ही वर्णन किया है।<ref>सुजान रसखान, 1, 3</ref>
==टीका टिप्पणी==
<references/>
{{रसखान}}
{{रसखान}}
[[Category:साहित्य कोश]]==सम्बंधित लिंक==
[[Category:साहित्य कोश]]==सम्बंधित लिंक==

Revision as of 12:40, 1 June 2010

रसखान की भक्ति-भावना

हिन्दी-साहित्य का भक्ति-युग (संवत् 1375 से 1700 वि0 तक) हिन्दी का स्वर्ण युग माना जाता है। इस युग में हिन्दी के अनेक महाकवियों –विद्यापति, कबीरदास, मलिक मुहम्मद जायसी, सूरदास, नंददास, तुलसीदास, केशवदास, रसखान आदि ने अपनी अनूठी काव्य-रचनाओं से साहित्य के भण्डार को सम्पन्न किया। इस युग में सत्रहवीं शताब्दी का स्थान भक्ति-काव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सूरदास, मीराबाई, तुलसीदास, रसखान आदि की रचनाओं ने इस शताब्दी के गौरव को बढ़ा दिया है। भक्ति का जो आंदोलन दक्षिण से चला वह हिन्दी-साहित्य के भक्तिकाल तक सारे भारत में व्याप्त हो चुका था। उसकी विभिन्न धाराएं उत्तर भारत में फैल चुकी थीं। दर्शन, धर्म तथा साहित्य के सभी क्षेत्रों में उसका गहरा प्रभाव था। एक ओर सांप्रदायिक भक्ति का जोर था, अनेक तीर्थस्थान, मंदिर, मठ और अखाड़े उसके केन्द्र थे। दूसरी ओर ऐसे भी भक्त थे जो किसी भी तरह की सांप्रदायिक हलचल से दूर रह कर भक्ति में लीन रहना पसंद करते थे। रसखान इसी प्रकार के भक्त थे। वे स्वच्छंद भक्ति के प्रेमी थे।

भक्तिकाल के व्यापक अध्ययन से पता चलता है कि उसकी बहुत सी ऐसी विशेषताएं हैं जो सभी भक्त कवियों में समान रूप से पाई जाती हैं। रसखान की कविता में भी वे देखी जा सकती हैं। सभी भक्तों ने भगवान का निरूपण किया है। यह दूसरी बात है कि अपनी-अपनी रूचि और प्रवृत्ति के अनुसार किसी ने भगवान के किसी रूप पर अधिक बल दिया है और किसी ने उसके अन्य रूपों पर। लेकिन यह निश्चित है कि सभी दृष्टि में भगवान एक हैं, अद्वितीय हैं, वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वही संसार की रचना करता है और संहार करता है। वह इस जगत का शासक है। घट-घट व्यापी है। सर्वशक्तिमान है। वह सच्चिदानंद है। भक्त का एकमात्र लक्ष्य है भगवान और उसके प्रेम को प्राप्त करना। भगवान के प्रति प्रेम ही 'भक्ति' है। उसके पा लेने पर जीव को और किसी वस्तु की कामना नहीं रह जाती।

भगवान की भक्ति के बहुत से साधन बतलाए गए हैं। सभी भक्तों ने भक्त और भगवान के बीच रागात्मक-संबंध की स्थापना पर बल दिया है। इसके बिना दूसरे साधन व्यर्थ हो जाते हैं। साधन के रूप में गुरु और सत्संग की महिमा सभी ने बतलाई है। जीव को सांसारिक विषयों से हटाकर भगवान की ओर लगाने के लिए, उसके मन में वैराग्य और ईश्वर-प्रेम की भावना जगाने के लिए, अनेक प्रकार के उपदेशों और चेतावनी की योजना की है। सभी ने चित्त को शुद्ध रखने पर बल दिया है। बाहरी आचारों, आडंबर आदि की कटु निंदा की है। भगवान के प्रति शरणागति या आत्मनिवेदन को सबसे अधिक कल्याणकारी बतलाया है। रसखान के समय हिन्दी-साहित्य में भक्ति की दो मुख्य धाराएं थीं-

  1. निर्गुण भक्तिधारा
  2. सगुण भक्तिधारा।

निर्गुण भक्तिधारा के कवियों ने भगवान के निर्गुण निराकार रूप की उपासना पर बल दिया। उन्होंने भजन-पूजन आदि के विधि-विधान की आवश्यकता नहीं स्वीकार की। भगवान के अवतारों, लीलाओं आदि को माया मानकर उसे अपनी भक्ति का विषय नहीं बनाया। उनका सामान्य सिद्धांत था- ईश्वर को अपने भीतर देखना, सारे संसार में उसकी विभूति का दर्शन करना। निर्गुण भक्ति-धारा की भी दो शाखाएँ थीं। -
ज्ञानाश्रयी शाखा
पहली शाखा की 'निर्गुण काव्यधारा' या 'निर्गुण सम्प्रदाय' नाम दिया गया है। इस शाखा की विशेषता यह थी कि इसने अधिकतर प्रेरणा भारतीय स्त्रोतों से ग्रहण की। इसमें ज्ञानमार्ग की प्रधानता थी। इसलिए पं॰ रामचंद्र शुक्ल ने इसे 'ज्ञानाश्रयी शाखा' कहा है।[1] इस शाखा के कवियों ने भक्तिसाधना के रूप में योग-साधना पर बहुत बल दिया है। इस शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीर हुए।
प्रेममार्गी शाखा
दूसरी शाखा सूफी काव्य धारा के नाम से विख्यात है। इस शाखा के कवियों ने हठयोग आदि की साधना की अपेक्षा भावना को महत्व दिया। इसका मुख्य आधार प्रेम था। प्रेम पर आश्रित होने के कारण ही आचार्य शुक्ल ने इसे 'प्रेममार्गी शाखा' कहा है।[2] इस शाखा के भक्त कवियों की भक्ति-भावना पर विदेशी प्रभाव अधिक है। इस प्रसंग में यह बात ध्यान आकर्षित किए बिना नहीं रहती कि इस शाखा के मलिक मुहम्मद जायसी आदि कवि मुसलमान थे। इसलिए उन्होंने अपने संस्कारों के अनुसार भक्ति का निरूपण किया। वे भारतीय थे, इसलिए उन्होंने अपने प्रेमाख्यानों के लिए भारतीय विषय चुने, भारतीय विचारधारा को भी अपनाया, परंतु उस पर विदेशी रंग भी चढ़ा दिया। रसखान भी मुसलमान थे। अतएव उन पर इस्लाम का प्रभाव बहुत था। साथ ही सूफी प्रेम-पद्धति का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से मिलता है। वे किसी मतवाद में बंधे नहीं। उनका प्रेम स्वच्छंद था। जो उन्हें अच्छा लगा, उन्होंने बिना किसी संकोच के उसे आधार बनाया। अतएव उनकी कविता में भारतीय भक्ति-पद्धति और सूफी इश्क-हकीकी का सम्मिश्रण मिलता है। उनकी भक्ति का ढांचा या शरीर भारतीय है किंतु आत्मा इस्लामी एवं तसव्वुफ से रंजित है।

सगुण भक्तिधारा की विशेषता यह है कि उसमें भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम की महिमा का वर्णन होता है। इस वर्णन के लिए भक्तों ने भगवान के अवतारों में राम और कृष्ण को अधिक महत्वपूर्ण माना है। भक्तिकाल की रचनाओं में इनकी ही महिमा मुख्य रूप से गाई गई है। इन दोनों अवतारों के आधार पर ही सगुण भक्तिधारा का हिन्दी-साहित्य में दो उपधाराओं के रूप में विभाजन मिलता है-

  1. रामभक्ति शाखा और
  2. कृष्णभक्ति शाखा।

रामभक्ति शाखा

राम की उपासना को निर्गुण संतों ने भी आदर दिया और सगुण भक्तों ने भी। अंतर यह था कि निर्गुण संप्रदाय में निर्गुण निराकार राम की उपासना का प्रचार हुआ और सगुण-रामभक्तों ने उनकी अवतार-लीला को गौरव दिया। उन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित किया। रामभक्ति शाखा में मर्यादावाद का पालन किया गया। दास्य भक्ति को प्रधानता दी गई। इसके सबसे बड़े कवि तुलसीदास हुए। कृष्ण भक्त कवियों की माधुर्य भक्ति का प्रभाव रामभक्ति पर भी पड़ा। इस शाखा में एक रसिक संप्रदाय चल पड़ा। उसमें राम और सीता की श्रृंगार-लीलाओं का राधा-कृष्ण की श्रृंगार लीलाओं की भांति ही विस्तृत चित्रण किया गया। फिर भी इस शाखा में भगवान के सौंदर्य की अपेक्षा उनके शील और शक्ति का ही निरूपण अधिक किया गया है।

कृष्णभक्ति शाखा

कृष्ण-भक्ति-शाखा में भगवान कृष्ण के सौंदर्य-पक्ष की ही प्रधानता रही। कृष्ण का चरित्र विलक्षण है। उनका ध्यान कृष्ण के मधुर रूप और उनकी लीला माधुरी पर ही केंद्रित रहा। भगवान की महिमा का गान करते हुए कहीं-कहीं प्रसंगवश उनके लोक रक्षक रूप का भी उल्लेख कर दिया है, किन्तु मुख्य विषय गोपी-कृष्ण का प्रेम है। कृष्ण-भक्ति का केन्द्र वृन्दावन था। श्री कृष्ण की लीला-भूमि होने के कारण उनके भक्तों ने भी ब्रज को अपना निवास स्थान बनाया। रसखान के भी वृन्दावन में रहने का उल्लेख मिलता है।

रसखान की सारी रचनाओं का अनुशीलन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वे अधिकांश में भक्तिपरक न होकर श्रृंगारपरक ही हैं। सत्य तो यह है कि उनके कुछ ही पद्य निर्विवाद रूप से भक्तिपूर्ण कहे जा सकते हैं। 'प्रेमवाटिका' में कुछ पद्य ऐसे भी हैं जिन्हें लौकिक प्रेम और अलौकिक प्रेम दोनों पर घटाया जा सकता है। तो फिर बहुसंख्यक श्रृंगारी कवि न मानकर भक्तकवि कैसे माना जा सकता है? इस विषय में 'आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र' की स्थापना ध्यान देने योग्य है-

  • रसखानि ने स्वयं प्रेम को साध्य कहा है-

जेहि पाए बैकुंठ अरु हरिहूँ की नहिं चाहि।
सोइ अलौकिक सुद्ध सुभ सरस सप्रेम कहाहि॥

  • श्री वल्लभाचार्य ने हृदय के संस्कार और विकास की दृष्टि से भक्ति को साध्य अवश्य कहा है, पर ईश्वर-भक्ति को ही, यह कभी न भूलना चाहिए। पर 'रसखानि' स्पष्ट कहते हैं—

इक-अंगी बिनु कारनहिं, इक रस सदा समान।
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान।[3]

  • श्री वल्लभाचार्य के अनुसार भगवद्भक्ति या अलौकिक प्रेम ही साध्य हो सकता है। उसे ही एकांगी, निर्हेतुक, एकरस होना चाहिए। पर रसखान लौकिक प्रेम में भी इसे स्वीकार करते हैं। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार ये रीति से अपने को स्वच्छंद रखते थे उसी प्रकार भक्ति की सांप्रदायिक नीति से भी। अत: ये भक्तिमार्गी कृष्णभक्तों, प्रेममार्गी सूफियों, रीतिमार्गी कवियों सबसे पृथक् स्वच्छंदमार्गी प्रेमोन्मत्त गायक थे। कोई इन्हें इनकी भक्तिविषयक रचना के कारण भक्त कहता हो तो कहे, पर इतने 'व्यतिरेक' के साथ कहे कि ये स्वच्छंद प्रेममार्गी भक्त थे, तो कोई बाधा नहीं है।[4]

अपनी उपर्युक्त स्थापना के समर्थन में मिश्र जी ने एक दूसरा ठोस तर्क भी दिया है। रसखान की काव्यशैली कृष्णभक्त कवियों की परंपरागत शैली से भिन्न है। कृष्ण-भक्तों की अधिकतर रचनाएं गीत में ही मिलती हैं। कवित्त-सवैया वाली शैली में इन्होंने पूरी आस्था नहीं दिखाई। मध्यकाल के श्रृंगारी कवियों ने (विशेष कर के परवर्ती रीतिकाल के श्रृंगारी कवियों में) कवित्त-सवैया वाली शैली को ही प्रमुखता दी है।[5] उनकी सुन्दर समझी जाने वाली रचनाएं इसी शैली में लिखी गई हैं। उनकी ख्याति और लोकप्रियता उनके कवित्त सवैयों पर ही आश्रित है। इस संबंध में यह नहीं भूलना चाहिए कि 'सुजान रसखान' के आरंभिक कवित्त-सवैयों में भक्ति-भाव की प्रधानता है।

भक्ति का स्वरूप

भक्तिशास्त्र के आचार्यों ने भक्ति को प्रेमस्वरूप बतलाया है।

  • शांडिल्य ने अपने भक्तिसूत्र में भक्ति की परिभाषा देते हुए कहा है कि ईश्वर में की गई परानुरक्ति भक्ति है।[6]
  • नारद ने भी भगवान के प्रति किए गए परम प्रेम को भक्ति कहा है।[7]
  • मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति का लक्षण करते हुए बतलाया है कि भगवद्धर्म के कारण द्रुत चित्त की परमेश्वर के प्रति धारावाहिक वृत्ति को भक्ति कहते हैं।[8]
  • पुराणों आदि में भी इसी प्रकार की भक्ति का निरूपण किया गया है। विष्णु पुराण में भक्त ने भगवान से प्रार्थना की है- 'हे भगवान! जिस प्रकार युवतियों का मन युवकों में और युवकों का मन युवतियों में रमण करता है, उसी प्रकार मेरा मन तुममें रमण करे।'[9] *इसी तरह की प्रार्थना तुलसीदास ने भी भगवान राम से की है- 'हे रघुनाथ राम ! जैसे कामियों को कामिनी प्रिय होती है, जैसे लोभियों को धन प्रिय होता है, वैसे ही तुम मुझे प्रिय लगो।'[10] भक्तों ने लौकिक जीवन से इस प्रकार की उपमाएं भगवान के प्रति प्रेम की अतिशय आसक्ति सूचित करने के लिए दी हैं। रसखान भी परमप्रेम को भक्ति मानते हैं। प्रेम की अतिशयता और अनंयता का प्रतिपादन करने के लिए भक्तों ने चातक का आदर्श उपस्थित किया है। रसखान ने भी इस आदर्श में अपनी आस्था प्रकट की है-

बिमल सरल रसखानि मिलि भई सकल रसखानि।
सोई नव रसखानि कौं, चित चातक रसखानि॥[11]

  • संसार के अन्य लोग अपनी अपनी रुचि के अनुसार इन्द्र, सूर्य, गणेश आदि देवताओं की उपासना करते हैं। उनकी भक्ति करके अपने अभीष्ट फलों की प्राप्ति करते है। परन्तु रसखान की अनुरक्ति एकमात्र श्रीकृष्ण में ही है। उनका दृष्टिकोण उदार है। उनके मन में विभिन्न प्रकार के देवों और देवियों के भक्ति के विषय में कोई विरोधभाव नहीं है। वे दूसरों की निंदा नहीं करते। दूसरे लोग उन्हें भजना चाहते हैं तो भजें। रसखान की दृष्टि में भगवान श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं। वे अपने कृष्ण को चाहते हैं। उन्हें त्रिलोक की चिंता नहीं—

सेष सुरेस दिनेस गनेस प्रजेस घनेस महेस मनावौ।
कोऊ भवानी भजौ मन की सब आस सबै बिधि जाई पुरावौ।
कोऊ रमा भजि लेहु महाधन कोउ कहूँ मनबाँदित पावौ।
पै रसखानि वही मेरो साधन, और त्रिलोक रहौ कि नसावौं।[12]

  • भगवान के प्रति परम प्रेम का उदय होने पर भक्त की सारी कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेंद्रियां, मन और प्राण सब ईश्वर निष्ठ हो जाते हैं। उसे इन सबकी सार्थकता केवल इस बात में दिखाई देती है कि ये सब अपना उपयोग केवल भगवान की महिमा के कीर्तन, श्रवण आदि में करें। रसखान का मत है कि रसखानि वही है जो रसखानि श्रीकृष्ण में परम अनुराग रखे-

बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सों है रसखानि ॥[13]

  • इस ईश्वर प्रेम की उपलब्धि अपने में इतनी ऊँची है कि इसकी तुलना में संसार के सारे ऐश्वर्य तुच्छ दिखाई पड़ते हैं-

कंचन मंदिर ऊँचे बनाइ कै मानिक लाई सदा झलकैयत।
प्रात ही ते सगरी नगरी नग मोतिन ही को तुलानि तुलैयत।
जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मघवा ललचैयत।
ऐसे भए तो कहा रसखानि जो साँवरे ग्वार सो नेह न लैयत॥[14]

  • सभी प्रकार के प्रेम की (चाहे वह लौकिक हो या अलौकिक) यह विशेषता है कि प्रेमी केवल अपने प्रेमपात्र से ही प्रेम नहीं करता बल्कि उस प्रेमपात्र से संबंध रखने वाली प्रत्येक वस्तु उसे अत्यन्त प्रिय लगने लगती है। रसखान की भी यही दशा है। इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण वे कृष्ण की लकुटी और कामरी पर तीनों लोकों का राज्य त्यागने को तैयार हैं, नंद की गायों को चराने में वे आठों सिद्धियों और नवों निधियों के सुख को भुला सकते हैं, ब्रज के वनों एवं उपवनों पर सोने के करोड़ों महल निछावर करने को प्रस्तुत हैं-

वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहू पुर को ताजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।
ए रसखानि जबै इन नैनन तैं ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं॥[15]

भक्ति की महिमा

रसखान तुलसीदास की भांति भक्तकवि नहीं थे। अपने इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने जोर देकर कहा कि सभी वेदों, पुराणों, आगमों और स्मृतियों का निचोड़ प्रेम (अर्थात ईश्वर-विषयक प्रेम) ही है—

स्त्रुति पुरान आगम स्मृतिहि, प्रेम सबहि को सार।
प्रेम बिना नहि उपज हिय, प्रेम-बीज-अंकुवार॥[16]

  • मोक्ष के अनेक साधन बतलाए गए हैं जिनमें तीन मुख्य हैं-
  1. कर्म,
  2. ज्ञान और
  3. उपासना।

रसखान के अनुसार भक्ति या प्रेम इन सबमें श्रेष्ठ है। इसका कारण मनोवैज्ञानिक है। कर्म आदि में अहंकार बना रह सकता है या उसका फिर से उदय हो सकता है। परन्तु भक्ति-दशा में चित्त के द्रुत हो जाने पर अहंकार के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहती। भक्ति रागात्मक वृत्ति है, संकल्प-विकल्पात्मक, मन स्वभावत: रागात्मक है। वह इन्द्रियों के माध्यम से विषयों की ओर प्रवृत्ति रहता है। इस प्रकार जीवों को वासना के बंधन में बांधे रहता है। ईश्वर-विषयक प्रेम का उदय होने पर काम, क्रोध आदि अपने आप तिरोहित हो जाते हैं।

  • इसी अभिप्राय से रसखान ने इस परमप्रेम को काम आदि से परे कहा है—

काम क्रोध मद मोह भय लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सब ही तें प्रेम है परे, कहत मुनिवर्य॥[17]

  • भक्तों ने इस बात पर जो दिया है कि भक्ति-भाव के अभाव में पुस्तकी विद्या व्यर्थ है। तुलसीदास ने भी इसे वाक्यज्ञान कहा है और बतलाया है कि वाक्यज्ञान मात्र से भव-सागर को पार करना असंभव है।[18]
  • रसखान के पूर्ववर्ती कवि कबीरदास ने तो बड़े कड़े शब्दों में कोरे शास्त्रज्ञान को व्यर्थ बताकर ईश्वर-प्रेम की महिमा का बखान किया है—

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥[19]

  • रसखान ने भी मानों कबीर के स्वर में स्वर मिलाकर घोषणा की है कि प्रेम को जाने बिना शास्त्र पढ़कर पंडित होना या क़ुरान पढ़कर मौलवी होना व्यर्थ है—

सास्त्रन पढ़ि पंडित भए, कै मौलवी क़ुरान।
जु पै प्रेम जान्यौ नहीं, कहा कियौ रसखान ॥[20]

  • उनकी मान्यता है कि जिसने प्रेम को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना और जिसने प्रेम को जान लिया, उसके लिए कुछ भी जानने योग्य बात शेष नहीं रही—

जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं जान्यौ जात बिसेष।
सोइ प्रेम जेहि जानि कै, रहि न जात कछु सेष॥[21]

  • संसार में जितने भी सुख हैं (चाहे वे विषयों से प्राप्त हों या पूजा, निष्ठा और ध्यान से) भक्ति का सुख उन सबसे बढ़कर है—

दंपति सुख अरु-विषय-रस पूजा निष्ठा ध्यान।
इन तें परे बखानियै, सुद्ध प्रेम रसखानि॥[22]

  • दु:ख के नाश और आनंद की प्राप्ति के ज्ञान, ध्यान आदि जितने भी साधन बतलाए गए हैं, वे सब प्रेम-भक्ति के बिना निष्फल हैं—

ज्ञान ध्यान बिद्यामती, मत बिस्वास बिबेक।
बिना प्रेम सब धूरि हैं, अगजग एक अनेक॥[23]

  • प्रेम-भक्ति की महिमा इतनी बड़ी है कि उसे प्राप्त कर लेने पर भक्त भगवान के बैकुण्ठ-लोक और स्वयं भगवान की भी कामना नहीं करता, वह शुद्ध प्रेममय हो जाता है—

जेहि पाए बैकुण्ठ अरु हरिहू की नहिं चाहि।
सोई अलौकिक सुद्ध सुभ सरस सप्रेम कहाहि॥[24]

  • सामान्य रूप से जीव के चार पुरुषार्थ बतलाए गए है-
  1. धर्म,
  2. अर्थ,
  3. काम और
  4. मोक्ष।

इन चारों में मोक्ष सबसे महान है। परन्तु प्रेम-भक्ति की तुलना में मोक्ष भी तुच्छ है। इसीलिए सच्चा भक्त मोक्ष प्राप्त करने की कामना नहीं करता। स्वयं भगवान भी भक्तों की इस विशेषता को जानते हैं। अतएव वे उन्हें मुक्ति न देकर भक्ति का ही वरदान देते हैं।

  • गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

सुगनोपासक मोच्छ न लेहीं।
तिन्ह कहुँ भेद भगति प्रभु देहीं॥

  • रसखान का भी ऐसा ही विश्वास है। इसका कारण है ज्ञान-मार्ग के सहारे प्राप्त किए गए मोक्ष पद के खो जाने की संभावना बनी रहती है। लेकिन, प्रेम-भक्ति की विशेषता यह है कि उसका उदय होने पर संसार के जितने भी बंधन हैं वे सब एक बार ही सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं-

याही तें सब मुक्ति तें, लही बड़ाई प्रेम।
प्रेम भए नसि जाहिं सब, बंधे जगत के नेम॥[25]

  • प्रेम-भक्ति की श्रेष्ठता का एक कारण और भी है। इस संसार में जितने भी साधन और साध्य हैं, वे सब भगवान के अधीन हैं और भगवान स्वयं प्रेम के वश में हैं।[26]
  • उन्होंने (गीता आदि में) स्वयं ही इसे विशेष गौरव दिया है।
  • रसखान ने भी कहा है—

हरि के सब आधीन पै हरी प्रेम-आधीन।
याही ते प्रभु आपुहीं, याहि बड़प्पन दीन॥[27]

  • प्रेम-भक्ति की इन्हीं विशेषताओं के कारण रसखान उसे परम धर्म मानते हैं। उसे कोई भी शक्ति पराजित नहीं कर सकती—

बेद मूल सब धर्म यह कहैं सबै स्त्रुति सार।
परम धर्म है ताहु तें, प्रेम एक अनिवार ॥[28]

प्रेम-भक्ति

अपनी 'प्रेमवाटिका' में रसखान ने प्रेम की जो विशेषताएं बतलाई हैं वे लौकिक प्रेम और पारलौकिक प्रेम पर समान रूप से लागू होती हैं। जीवन-दर्शन के कर्म को समझने वालों ने कहा है कि जीव की जीवन-साधना का सबसे बड़ा लक्ष्य संसार के बंधन से मोक्ष है। कर्म, ज्ञान आदि इसी साध्य के साधन हैं। भक्ति की विलक्षणता इस बात में है कि वह साधन भी है और साध्य भी। यही बात रसखान ने कही है। उनका कहना है कि प्रेम कारण भी है और कार्य भी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रेम या भक्ति के लिए किसी दूसरे साधन की आवश्यकता नहीं है। यह स्वतंत्र है, अपने में पूर्ण है—

कारज-कारन रूप यह, प्रेम अहै रसखान।
कर्ता कर्म क्रिया करन, आपहि प्रेम बखान॥[29]

ईश्वर-प्रेम अनुपम, अगम्य और असीम है, वह अंतिम विश्राम है।[30] वरुण और शंकर जैसे देवों की महिमा भी प्रेम के ही कारण है।[31] पुत्र, क्लत्र, मित्र, बन्धु आदि के प्रति अथवा इनके द्वारा किया गया स्नेह शुद्ध प्रेम नहीं है—

मित्र कलत्र सुबंधु सुत, इनमें सहज सनेह।
सुद्ध प्रेम इनमैं नहीं अकथ कथा सबिसेह॥[32]

  • शुद्ध प्रेम तो केवल भगवान के प्रति ही हो सकता है। इसीलिए भक्त-चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के मुख से कहलवाया है—

जननी जनक बंधु सुत बारा । तनु धन भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बहोरी । मम पद मनहिं बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयं बसै धनु जैसें॥[33]

  • रसखान के उपर्युक्त दोहे की भी व्यंजना यही है कि भक्त का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने सभी लौकिक संबंधों का आरोप भगवान पर कर दे। जीव का उत्कर्ष दो प्रकार का माना गया है-
  1. अभ्युदय और
  2. नि:श्रेयस।

इन्हीं को दूसरे शब्दों में भुक्ति और मुक्ति भी कहा गया है। भौतिक भुक्ति क्षणिक है। मुक्ति का स्थायित्व भी भक्त की दृष्टि में संदेहास्पद है। अत: वह इन दोनों से ऊपर उठकर केवल भक्ति की कामना करता है।

  • रसखान के निम्नलिखित सवैये में इसी भाव की अभिव्यक्ति की गई है—

संपति सौं सकुचाइ कुबेरहि रूप सौं दीनी चिनौती अनंगहिं।
भोग कै कै ललचाइ पुरंदर जोग कै गंग लई घरि मंगहि।
ऐसे भए तो कहा रसखानि रसै रसना जौ जु मुक्ति-तरंगहि।
दै चित ताके न रंग रच्यौ जु रह्यौ रचि राधिका रानी के रंगहि॥[34]

  • भगवान केवल प्रेम से ही प्राप्य हैं। वेद-शास्त्र के अध्ययन या अन्य उपायों से उनकी प्राप्ति दुर्लभ है। रसखान की अधोलिखित पंक्तियों में इसी भाव की व्यंजना हुई है—

ब्रह्म में ढूँढ्यौ पुरानन गानन बेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यौ सुन्यौ कबहूँ न कितूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।
टेरत हेरत हारि परयौ रसखानि बतायो न लोग लुगायन।
देखौ दुरौ वह कुंज-कुटीर में बैठौ पलोटत राधिका-पायन॥[35]

  • प्रेम और हरि में कोई तात्विक भेद नहीं है। प्रेम हरि रूप है और हरि प्रेम-रूप हैं। दोनों में सूरज और धूप की भांति भेदाभेद है। इसका तात्पर्य यह है कि भक्त भगवान से प्रेम करते-करते ईश्वर-रूप हो जाता है, उससे भेद का अनुभव नहीं करता—

प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम-सरूप।
एक होय द्वै यौं लसै, ज्यों सूरज औ' धूप॥[36]

  • भगवान की भांति ही प्रेम भी अनिर्वचनीय है—

जग में सब जान्यौ परै अरु सब कहै कहाइ।
पै जगदीस रु प्रेम यह दोऊ अकथ लखाइ॥[37]

  • प्रेमियों या भक्तों के लिए यह प्रेम-भक्ति अत्यन्त सरल और कमल की भांति कोमल है, परन्तु अन्य लोगों के लिए टेढ़ी और खड्ग की धार की भांति कठिन है-

कमल तंतु सों हीन अरु कठिन खड्ग की धार।
अति सूधौ टेढ़ौ बहुरि, प्रेम पथ अनिवार॥[38]

भक्ति के प्रकार

भगवान की महिमा के श्रवण, कीर्तन आदि से उत्पन्न प्रेम के दो प्रकार हैं- शुद्ध और अशुद्ध। अशुद्ध प्रेम या भक्ति वह है जिसका कारण स्वार्थ (कामना) हो। शुद्ध प्रेम स्वाभाविक प्रेम है। वह नि:स्वार्थ होता है। भक्त के मन में किसी प्रकार की कोई कामना नहीं होती। वह केवल भक्ति के लिए भक्ति करता है। ऐसा प्रेम सदैव एक रस और रसमय रहता है—

स्त्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोइ प्रेम।
सुद्धासुद्ध बिभेद तें, द्वैबिध ताके नेम ॥[39]
स्वारथमूल असुद्ध त्यौं सुद्ध स्वभाव नुकूल।
नारदादि प्रस्तार करि, कियौ जाहि को तूल॥[40]
रसमय स्वाभाविक, बिना स्वारथ अचल महानं
सदा एकरस सुद्ध सोइ, प्रेम अहै रसखान ॥[41]
बिन गुन जोबन रूप घन, बिन स्वारथ हित हानि।
सुद्ध कामना तें रहित, प्रेम सकल रसखानि॥[42]
इक अंगी बिनु कारनहि, इकरस सदा समान।
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान ॥[43]

ग्यारह आसक्तियाँ

नारद ने अपने भक्तिसूत्र में परम प्रेम की ग्यारह आसक्तियां बतलाई हैं। वे इस प्रकार हैं-

  1. गुणमाहात्म्यसक्ति,
  2. रूपासक्ति,
  3. पूजासक्ति,
  4. स्मरणसक्ति,
  5. दास्यासक्ति,
  6. सख्यासक्ति,
  7. कांतासक्ति,
  8. वात्सल्यासक्ति,
  9. आत्मनिवेदनासक्ति,
  10. तन्मयतासक्ति, और
  11. परमविरहासक्ति।[44]
  • जहां पर भक्त भगवान के गुणों और महिमा को विशेष रूप से दृष्टि में रखकर उनके प्रति परमानुरक्ति का निवेदन करता है, वहां पर गुणमाहात्म्यासक्ति होती है। उदाहरणार्थ—

गावें गुनी गनिका गंधरब्ब औ सारद सेष सबै गुन गावत।
नाम अनंत गनंत गनेस ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।
जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरंतर जाहि समाधि लगावत।
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत॥[45]

  • जहां आसक्त भक्त की दृष्टि भगवान के रमणीय रूप पर विशेष रूप से केंद्रित रहती है: वहां रूपासक्ति होती है। निम्नांकित पद्य में रसखान की इसी भावना का चित्रण हुआ है—

गुंज गरें सर मोरपखा अरु चाल गयंद की मो मन भावै।
साँवरो नंदकुमार सबै ब्रजमंडली में ब्रजराज कहावै।
साज समाज सबै सिरताज औ छाज की बात नहीं कहि आवै।
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै।[46]

  • स्मरणासक्ति की किंचित अभिव्यक्ति निम्नांकित पंक्तियों में देखी जा सकती हैं—
  1. संकर से सुर जाहि जपैं चतुरानन धर्म बढ़ावैं।[47]
  2. जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरंतर जाहि समाधि लगावत।[48]
  • प्रेम के कवि होने के कारण रसखान ने दास्याभक्ति और सख्याभक्ति को गौरव नहीं दिया है। अधोलिखित पंक्ति में दास्य की झलक मात्र दृष्टिगोचर होती है—

मो कर नीकी करैं करनी जु पै कुँज-कुटीरन देहु बुहारन।[49]

  • रसखान के कृष्ण और गोपियों के प्रेमवर्णन में गोपियों की कांतासक्ति की अभिव्यंजना मिलती है। गोपियों के वियोग-वर्णन में उनकी परमविरहासक्ति भी अभिव्यक्त हुई है। लेकिन उन पद्यों को भक्तिकाव्य की अपेक्षा श्रृंगार-काव्य मानना ही समीचीन है। भक्ति के विधि-विधान में आस्था न रखने के कारण पूजा-अर्चना से बिलकुल दूर थे। अतएव उनके काव्य में पूजासक्ति का सर्वथा अभाव है।
  • बालक-रूप भगवान की भक्ति रामभक्ति-शाखा और कृष्ण-भक्ति-शाखा दोनों ही काव्य-धाराओं में प्रतिष्ठित हुई है। *वल्लभाचार्य के प्रभाव से कृष्ण-भक्ति शाखा में इसका विशेष आदर हुआ।
  • रसखान ने भी कृष्ण की बाल लीला का चित्रण किया है।[50] भगवान के प्रति आत्मनिवेदन, शरणागति या प्रपत्ति को भक्तों ने भक्ति का आवश्यक तत्त्व माना है। निम्नांकित सवैये में रसखान ने भगवान की महिमा का स्मरण करते हुए अपने मन को निश्चिंत हो जाने का आश्वासन दिया है।

द्रौपदी और गनिका गज गीध अजामिल सों कियो सो न निहारो।
गौतम-गेहिनी कैसी तरी, प्रहलाद कौं कैसे हरयौ दुख भारो।
काहे कौं सोच करै रसखानि कहा करिहै रबिनंद बिचारो।
ताखन जाखन राखियै माखन-चाखन हारो सो राखनहारौ।[51]

  • कृष्ण में गोपियों की तन्मयता तो प्रसिद्ध ही है। यह विशेषता रसखान की गोपियों में भी पाई जाती है। अन्यत्र भी कवि ने कहा है—

ऐसे ही भए तौ नर कहा रसखानि जो पै
चित्त दै न कीनी प्रीति पीत पटवारे सों।[52]

पंचधा भक्ति

रूप गोस्वामी ने 'हरिभक्तिरसामृत सिंधु' में भक्तिरस के दो भेद बतलाए हैं—

  1. मुख्य भक्तिरस और
  2. गौण भक्तिरस।[53]

इस विभाजन का आधार रतिभाव की मुख्यता या गौणता है। मुख्य भक्तिरस के पांच प्रकार हैं-

  1. शांत-शांत भक्तिरस का स्थायी भाव शमी (तत्वज्ञानी) भक्तों की शांतिरति है।[54]
  2. प्रीत-प्रीत भक्तिरस का स्थायी भाव संभ्रम प्रीति या गौरवप्रीति है।[55] इसी को सामान्यत: दास्य भक्ति कहा जाता है।
  3. प्रेयान- प्रेयान भक्तिरस का स्थायी भाव सख्य है।[56]
  4. वत्सल-वत्सल भक्तिरस का स्थायी भाव वात्सल्य है।[57]
  5. मधुर[58]- मधुर भक्तिरस का स्थायी भाव मधुरा रति है।[59]

इस प्रकार रस-दृष्टि से भक्ति के पांच भेद हुए-

  1. शांत,
  2. दास्य,
  3. सख्य,
  4. वात्सल्य और
  5. मधुर।

रसखान के काव्य में शांति रति की व्यंजना नहीं हुई है। इसका कारण यह है कि रसखान स्वयं प्रेममार्गी थे, ज्ञानमार्गी नहीं। उन्होंने अपने लौकिक प्रेम को भगवान की ओर उन्मुख कर दिया था। वे शास्त्रज्ञ ज्ञानी नहीं थे। और अपनी कविता उन्होंने संभवत: ज्ञानियों के लिए लिखी भी नहीं थी। प्रेमी कवि की प्रेम-प्रधान रचना में तत्वज्ञान-प्रधान भक्ति का निरूपण संभव नहीं था। दास्य और सख्य के प्रति भी उन्होंने कोई रुचि नहीं दिखलाई। दास्य में प्रेमी भक्त और प्रेमपात्र भगवान के बीच दूरी बनी रहती है। सख्य में भी उतनी तन्मयता नहीं आ पाती जितनी की माधुर्य में हो सकती है। वात्सल्य-भक्ति का वर्णन भी रसखान ने अधिक नहीं किया है। निम्नलिखित पद्यों में बालरूप कृष्ण के प्रति रसखान के वात्सल्यपूर्ण भक्तिभाव की हृदयहारिणी अभिव्यक्ति हुई है—

आजु गई हुती भोर ही हौं रसखानि रई वहि नंद के भौनहिं।
वाको जियो जुग लाख करोर जसोमति को सुख जात कह्यौ नहिं।
तेल लगाइ लगाइ कै अंजन भौंहें बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डालि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौं चुचकारत छौनहिं॥
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरै अंगना पग पैजनी बाजति पीरी कछौटी।
वा छवि कों रसखानि बिलोकत वारत काम कलानिज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयो माखन रोटी॥[60]

अंतिम पंक्ति में 'हरि' शब्द के प्रयोग से कृष्ण का ईश्वरत्व और कवि की भक्ति-भावना ध्वनित होती है। रसखान माधुर्य के कवि हैं। वे युवावस्था में भी प्रेमी थे और विषय-विरक्त होने पर भी प्रेमी ही रहे। अंतर केवल इतना ही हुआ कि प्रेम का आलंबन बदल गया। सामान्य लड़के और रमणी के प्रति बहने वाली प्रेम-धारा भगवान् के प्रति अविछिन्न रूप से प्रवाहित होने लगी। उनकी इस प्रेम-प्रवृत्ति का प्रभाव यह हुआ कि उन्होंने श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं का ही वर्णन अधिक किया। गोचारण, चीरहरण, कुंजलीला, रासलीला, पनघटलीला, दानलीला, बनलीला, गोरसलीला आदि के प्रसंगों में गोपी-कृष्ण की विविध श्रृंगारिक लीलाओं का हृदय-स्पर्शी चित्रण किया गया है।

प्रस्तुत प्रसंग में एक प्रश्न विचारणीय है- क्या जिन पद्यों में रसखान ने कृष्ण और गोपियों की मधुर प्रेम-लीलाओं का निरूपण किया है उनमें भक्तिरस है? यह ठीक है कि कृष्ण को स्वयं भगवान् या भगवान् का अवतार माना गया है। यह भी सही है कि भक्तों ने गोपियों को जीवों का प्रतीक माना है। परन्तु उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है। अन्यत्र चाहे जो कुछ भी माना गया हो, रस के विषय में उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता। कविता-विशेष में पात्रों का जो चित्रण हुआ है, वही प्रमाण है। रस-निर्णय की कसौटी भावक है। प्रश्न यह है कि रसखान द्वारा किए गए इन लीला वर्णनों को पढ़कर भावुक के मन में वासना-रूप से विद्यमान कौन-सा स्थायी भाव विकसित होकर उसे रसानुभूति कराता है। इन कविताओं के सामान्य पाठक का अनुभव यह है कि वह स्थायी भाव कामरति है। भक्तों की बात भिन्न है। वे तो राम, कृष्ण आदि की किसी भी लीला का वर्णन पढ़कर या सुनकर भक्ति-भाव से गदगद हो जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि जहां अभिधा या व्यंजना के द्वारा कृष्ण के ईश्वरत्व का संकेत नहीं है, वहां भक्ति का अस्तित्व मानना अनुचित है। रसखान के भ्रमरगीत से उद्धृत निम्नांकित पद्य पर विचार कीजिए-

जोग सिखावत आवत है वह, कौन कहावत, को है, कहाँ को।
जानति हैं बर नागर है पर नेकहु भेद लह्यो नहीं ह्यां को।
जानति ना हम और कछू मुख देखि जियैं नित नंद लला को।
जात नहीं रसखानि हमें तजि, राखनहारो है मोरपखा को॥[61]

इन पंक्तियों में गोपियों की कृष्ण-विषयक विरहासक्ति की व्यंजना है। यहाँ पर गोपियों का चित्रण सामान्य वियोगिनी नायिकाओं के रूप में और नंदलाल का चित्रण सामान्य नायक के रूप में ही किया गया है। भक्त और भगवान के स्वरूप का कोई संकेत नहीं है। अतएव यहाँ पर विप्रलंभ श्रृंगार है। 'प्रेमलक्षणा भक्ति को माधुर्य भक्ति और श्रृंगार रस को उज्ज्वल रस की संज्ञा देकर चैतन्य संप्रदाय के विद्वान पंडित श्री रूप गोस्वामी ने अपने भक्ति-ग्रंथों[62] में श्रृंगार और प्रेम के लौकिक विषय-वासनामय रूप का उन्नयन किया था। श्रृंगार और प्रेम के सांसारिक चित्रों के माध्यम से उन्होंने हरिभक्ति का उज्ज्वल एवं दिव्य रूप खड़ा करके श्रृंगार की भोग-वृत्ति का भली-भांति परिमार्जन भी किया। भक्ति के क्षेत्र में जिस श्रृंगार को चैतन्य-संप्रदाय के आचार्यों ने अवतरित किया था उसका कृष्ण भक्तिपरक परवर्ती सभी वैष्णव संप्रदायों पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनमें श्रृंगारमयी शैली से रसोपासना प्रवर्तित हो गई। रसिकाचार्यों ने प्रेम और श्रृंगार का वर्णन करके जो शैली ग्रहण की उसमें प्रेम के प्रतिपादन में काम, मनोज, भार, मनसिज, मन्मथ आदि शब्दों का प्रचुर परिमाण में प्रयोग हुआ। साथ ही भाव वस्तु के लिए भी स्थूल काम-चेष्टाओं का सांगोपांग वर्णन किया गया। उस वर्णन के पीछे भक्तों की चाहे जैसी पावन भावना रही हो किंतु सामान्य पाठक को उसमें काम-वासना की गंध आना स्वाभाविक है।[63]' रसखान किसी रसोपासक संप्रदाय में दीक्षित नहीं हुए थे। फिर भी अपनी स्वाभाविक और स्वच्छंद प्रवृत्ति के अनुसार उन्होंने उपर्युक्त उज्ज्वल रस (जिसे रसिक भक्त माधुर्य-भक्ति कहते हैं) की विषद निबंधना की हे। इस विषय में उनका सिद्धांत भी स्पष्ट है। पूर्वोक्त पांच प्रकार के भक्तिरसों में से वत्सल, प्रेयान् और मधुर का उन्होंने आदर के साथ स्मरण किया है। वात्सल्य और सख्य भावों की तुलना में माधुर्य-भाव को उन्होंने सर्वोपरि माना है—

जदपि जसोदा नंद अरु ग्वाल बाल सब धन्य।
पै या जग मैं प्रेम कौं गोपी भई अनन्य॥[64]

  • तन्मयता की पराकाष्ठा माधुर्य-भाव में ही संभव है। इसी रतिभाव से कृष्ण के साथ मिलकर एक हो जाने में वास्तविक आनंद है, जीवन फल की प्राप्ति है—

मोहनी मोहन सों रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।
जेठ की घाम भई सुखधाम अनंद ही अंग ही अंग समाहीं।
जीवन को फल पायौ भटू रसबातन केलि सों तोरत नाहीं।
कान्ह को हाथ कंधा पर है मुख ऊपर मोर किरीट की छाहीं॥[65]

  • निम्नलिखित सवैये में भक्ति-भावना का स्पष्ट संकेत है—

मोर के चंदन मौर बन्यौ दिन दूलह है अली नंद को नंदन।
श्री बृषभानुसुता दुलही दिन जोरी बनी बिधना सुखकंदन।
आवै कह्यौ न कछू रसखानि री दोऊ फंदे छबि प्रेम के फंदन।
जाहि बिलोकें सबै सुख पावत वे ब्रज जीवन हैं दुख दंदन॥[66]

नवधाभक्ति

भागवत पुराण में वर्णित नवधा भक्ति का भक्त समाज में बड़ा आदर है और भक्त कवियों ने उसका बहुधा उल्लेख किया है। ये नौ विधाएं हैं- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।[67]

  • प्रथम तीन विधाओं में भगवान के नाम और गुण की प्रधानता है।
  • चौथी, पांचवीं और छठी में उनके रूप का वैशिष्ट्य है।
  • अंतिम तीन विधाओं में भक्त के भाव पर बल दिया गया है। रसखान ने इन विधाओं का कहीं भी व्यवस्थित निरूपण नहीं किया। वे मर्यादामार्गी भक्त नहीं थे। अत: उनकी रचनाओं में इन सभी विधाओं के अन्वेषण का प्रयास निष्फल होगा। उनकी कविता में कुछ विधाओं की ही सांकेतिक अभिव्यक्ति हुई है। श्रवण, कीर्तन और स्मरण सभी भक्तों को मान्य हैं और रसखान ने भी उनका उल्लेख किया है—

स्त्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोइ प्रेम।[68]
बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।[69]
संकर से सुर जाहि जपैं चतुरानन ध्यानन धर्म बढ़ावैं।
नेकु हियें जिहि आनत ही जड़ मूढ़ महा रसखानि कहावैं।[70]

  • 'पादसेवन' का तात्पर्य है- भगवान की परिचर्या, मूर्ति का दर्शन, मंदिर गमन, तीर्थयात्रा आदि। उन्होंने तीर्थयात्रा का उपहास किया है-

तीरथ हज़ार अरे बूझत लबार को।[71]

  • मंदिर में झाड़ू लगाना आदि भी पादसेवन ही है। कुंज-कुटीरों को बुहारने की कामना में इसी विधा का आभास मिलता है।

मो कर नीकी करैं करनी जु पै कुंज-कुटीरन देहु बुहारन।[72] रसखान की अर्चन, वंदन, दास्य और सख्य भक्तियों में प्रवृत्ति नहीं हुए और 'आत्मनिवेदन' तो भगवान के प्रति आत्मसमर्पण, शरणागति या प्रपत्ति है। भक्त भगवान को सर्वशक्तिमान और कृपालु मानता है। वह पूरी आस्था के साथ अपने को भगवान की शरण में समर्पित कर देता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि भगवान के संरक्षण में रहने पर उसका कोइर कुछ बिगाड़ नहीं सकता और भगवान उसके समस्त दु:खों का अवश्य ही अंत कर देंगे-

कहा करै रसखानि को कोऊ चुगुल लबार।
जो पै राखनहार है माखन चाखन हार॥[73]

देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगौ।
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौं गुन, सौगुन औगुन गांठि परैगौ।
बाँसुरीवारो बड़ो रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लो छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ॥[74]

मुक्ति और भक्ति के साधन

  • विचारक आचार्यों ने भवसागर को पार करने के अनेक साधन बतलाए हैं- कर्म, वैराग्य, योग, ज्ञान, उपासना, भक्ति, प्रपत्ति आदि। रसखान के निम्नलिखित दोहे से निष्कर्ष निकलता है कि उनके अनुसार भव-संतरन के चार उपाय हैं- कर्म, ज्ञान, उपासना और प्रेमलक्षणा भक्ति—

ज्ञान कर्म रु उपासना, सब अहमिति को मूल।
दृढ़ निस्चय नहिं होत बिन किए प्रेम अनुकूल॥[75]

  • वैराग्य, जप, तप, संयम, प्राणायाम, तीर्थयात्रा आदि इन्हीं चार साधनों के ही साधन हैं। रसखान का कहना है कि भक्ति को छोड़कर अन्य सभी साधन अमोघ नहीं हैं। संसार को पार करने का एक मात्र अमोघ साधन भगवान श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेम ही है—

कहा रसखानि सुखसंपति सुमार कहा,
कहा तन जोगी ह्वै लगाए अंग छार को।
कहा साधे पंचानल, कहा सोए बीच नल,
कहा जीति लाए राज सिंधु-आरपार को।
जप बार-बार तप संजम बयार-ब्रत,
तीरथ हज़ार अरे बूझत लबार को।
कीन्हौ नहीं प्यार, नहीं सेयौ दरबार, चित
चाह्यौ न निहारयौ जो पै नंद के कुमार को॥[76]

  • भक्ति साधन और साध्य दोनों ही है। उसके लिए अन्य साधन अनिवार्य नहीं हैं। वे केवल सहायक हो सकते हैं। भक्ति की श्रवण आदि नौ विधाएँ वस्तुएं वस्तुत: साधन भक्ति के नौ वर्ग हैं। रसखान ने श्रवण आदि कतिपय विधाओं को प्रेमलक्षणा भक्ति का साधन माना है। उनकी चर्चा पहले की जा चुकी है। उनके अतिरिक्त, भक्ति के सहायक तत्त्वों के रूप में उन्होंने कुछ अन्य साधनों का भी उल्लेख किया है। निम्नोद्धृत सवैये में उन्होंने इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि मन और वाणी के संयम, सच्चाई के साथ किए गए व्रत-नियम पालन, सबके प्रति सद्भाव, सात्विक, सत्संग और अनन्य भाव से भगवान और उनकी भक्ति प्राप्त हो सकती है—

सुनियै सबकी कहियै न कछु रहियै इमि या मन-बागर मैं।
करियै ब्रत-नेम सचाई लियें, जिन तें तरियै मन-सागर मैं।
मिलियै सब सौं दुरभाव बिना, रहियै सतसंग उजागर मैं।
रसखानि गुबिंदहिं यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागर मैं॥[77]

मुख्य प्रतिपाद्य: भगवान कृष्ण और उनकी लीला

भगवान की तीन प्रमुख विभूतियां मानी गईं हैं- शक्ति, शील और सौन्दर्य। जिस प्रकार तुलसीदास ने राम के शील और शक्ति का विस्तृत निरूपण किया है वैसा किसी भी कृष्ण भक्त कवि ने कृष्ण की इन विभूतियों का नहीं किया। उन्होंने कृष्ण की सौंदर्य-विभूतियों के विविध रूपों को ही अपने वर्णन का मुख्य विषय बनाया। रसखान का मन भी सौंदर्य की ही परिधि में घूमता रहा। उन्होंने कुछ गिने-चुने स्थलों पर ही कृष्ण की शक्ति और शील का चित्रण किया है। कालिय दमन और कुवलया वध के प्रसंग इसी प्रकार के स्थल हैं। कालियादमन के प्रसंग में रसखान ने व्याजस्तुति के सहारे कृष्ण के शक्ति-संपन्न रूप का बड़ा मनोहर चित्र अंकित किया है—

लोग कहैं ब्रज के रसखानि अनंदित नन्द जसोमति जू पर।
छोहरा आजु नयो जनम्यौ तुम सो कोऊ भाग भरयौ नहिं भू पर।
वारि के दाम संवार करौ अपने अपचाल कुचाल ललू पर।
नाचत रावरो लाला गुपाल सो काल सौ ब्याल-कपाल के ऊपर॥[78]

  • कुवलया-वध का वीरसपूर्ण वर्णन भी ओजस्वी शब्दों में किया गया है-

कंस के क्रोध की फैलि रही सिगरे ब्रजमंडन मांझ फुकार सी।
आइ गए कछनी कछिकै तबहीं नट-नागर नन्दकुमार सी।
द्वरद को रद खैंचि लियौं रसखानि हिये महि लाइ बिचार सी।
लीनी कुठौर लगी लखि तोरि कलंक तमाल तें कीरति-डार सी॥[79]

  • कृष्ण के शील की व्यंजना रसखान ने उनके गुण-कथन के सन्दर्भों में की है—

(क)गोतम गेहिनी कैसी तेरी, प्रहलाद को कैसैं हरयौ दुख भारो।[80]
(ख)बाँसुरीवारो बड़ों रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगो।
(ग)लड़लो छैव वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगो॥[81]

भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम का वर्णन सभी सगुण भक्तों का प्रिय विषय रहा है। रसखान ने इनकी चर्चा बहुत कम की है प्रेममार्गी रुचि के कारण उनका मन कृष्ण के रूप और लीला के चित्रण में अधिक रमा है। दार्शनिक दृष्टि से उन्होंने कृष्ण के स्वरूप का विशद निरूपण नहीं किया। केवल कुछ पद्यों में उसका आभास दिया है। वेदांती लोग जिसे ब्रह्म कहते हैं, जो ब्रह्मा का सेव्य है, सदाशिव जिसका ध्यान किया करते हैं, वही कृष्ण हैं। जो वैष्णवों का विष्णु है, जो योगियों की साधना का साध्य है, वही ब्रजचन्द कृष्ण हैं। ब्रह्मा, विष्णु और कृष्ण में स्वरूपत: कोई भेद नहीं हैं, केवल नाम की उपाधि भिन्न है। यशोदा आदि भक्तजनों को अपनी लीला का आनन्द देने के लिए ही भगवान कृष्ण अवतार धारण करते हैं—

वेई ब्रह्म ब्रह्मा जाहि सेवत हैं रैन-दिन,
सदासिव सदा ही धरत ध्यान गाढ़े हैं।
वेई विष्नु जाके काज मानी मूढ़ राजा रंक,
जोगी जती ह्वै के सीत सह्यौ अंग डाढ़े हैं।
कोई ब्रजचन्द रसखानि प्रान प्रानन के,
जाके अभिलाष लाख लाख भाँति बाढ़े हैं।
जसुधा के आगे बसुधा के मान-मोचन ये,
तामरस लोचन खरोचन कौं ठाढ़े हैं॥[82]

भगवान के नाम और गुण असंख्य हैं। वे अनादि, अनंत, अखंड और अछेद्य हैं। वे भक्त-प्रेम के वशीभूत हैं। उनकी भक्तवत्सलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वे इतने महिमाशाली और शक्तिमान होकर भी अहीरों की छोकरियों को प्रसन्न करने के लिए छछिया भर छाछ पर नाच नाचने को प्रस्तुत करते हैं—

नाम अनंत गनंत ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।
 
सेष गनेस महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक ब्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥[83]

  • सौंदर्य-प्रेमी और लीला-गायक रसखान को भगवान के नाम-जप में कोई विशेष आकर्षण नहीं प्रतीत हुआ। इसलिए उन्होंने एकाध स्थलों पर नाम-कीर्तन का उल्लेख किया है यथा-

जो रसना रस ना बिलसै तेहि देहु सदा निज नाम उचारन।[84]
भगवान कृष्ण के गुणों का गान भी रसखान ने बारंबार किया है-
बेन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैंन सों सानी।[85]
गावैं गुनी गनिका गंधरब्बा औ सारद सेष सबै गुन गावत।[86]
द्रौपदी औ गनिका गज गीध अजामिल सों कियौ सो न निहारो।[87]

रसखान का मन मुख्य रूप से श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं के गान में ही रमा हैं। कृष्ण भक्त कवियों के द्वारा सामान्यत: वर्णित लीलाओं का उन्होंने भी वर्णन किया है। इन लीलाओं में बाललीला[88], गोचारण[89], चीरहरण[90], कुंजलीला[91], रासलीला[92], पनघटलीला[93], दानलीला[94], वनलाल[95], गोरसलीला[96], प्रेमलीला[97], सुरतलीला[98], होली[99] आदि प्रमुख हैं। रसखानि के द्वारा किए गए कृष्णलीला वर्णन के एकाध पद्य ही ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर सामान्य पाठक को भक्तिरस की अनुभूति होती है। यह ठीक है परन्तु भक्तजनों का अनुभव इससे भिन्न है। उनके लिए श्रीकृष्ण सदैव भगवान ही हैं- वे चाहे जिस वेष में सामने आएं, चाहे जो लीला करें। जिस प्रकार प्रेमी को अपना प्रेम पात्र प्रत्येक दशा में प्रिय होता है- वह चाहे जो भी वेष-भूषा धारण करे, उसी प्रकार भक्तो को भगवान भगवान के ही रूप में, ही आराध्य रूप में दिखाई देता है- वह चाहे जो भी रूप धारण करे। उसकी प्रत्येक लीला भक्त को अपने इष्टदेव की ही लीला दिखाई देती है। रसखान ने कृष्ण की लीला का गान इसी भक्त-दृष्टि से किया है। कृष्ण की माखनचोरी, पनघटलीला, रासलीला, सुरतलीला, आदि का वर्णन करते समय रसखान के हृदय में यह बात कभी तिरोहित नहीं हुई कि वे अपने आराध्य भगवान कृष्ण की लीला का वर्णन कर रहे हैं।

रसखान ने कृष्ण के धाम का भी वर्णन किया है। इस प्रसंग में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने पौराणिक भक्तों की भांति बैकुण्ठ या क्षीरसागर का कोई वर्णन नहीं किया। उन्होंने कृष्ण की अवतार-लीला के धाम ब्रज का ही वर्णन किया है।[100]

टीका टिप्पणी

  1. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86
  2. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 86
  3. प्रेम वाटिका, 21
  4. रसखानि ग्रंथावली, प्रस्तावना, पृ0 21-22
  5. रसखानि' ग्रंथावली प्रस्तावना पृ0 22
  6. सा परा नुरक्तिरीश्वरे।– शांडिल्य भक्तिसूत्र, 1 । 1 । 2
  7. सात्वस्मिन्नपरमप्रेमरूपा। - नारद-भक्तिसूत्र, 2
  8. द्रुतस्य भगवद्धर्माद् धारावाहिकतांगता
  9. तुलसी दर्शन मीमांसा, अष्टम अध्याय
  10. कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥ -रामचरितमानस, 7। 130
  11. सुजान रसखान, 213
  12. सुजान रसखान, 5
  13. सुजान रसखान, 4
  14. सुजान रसखान, 6
  15. सुजान रसखान, 3
  16. प्रेमवाटिका 10
  17. प्रेम वाटिका, 14
  18. विनयपत्रिका, 123।2
  19. कबीर, पृ0 35
  20. प्रेम वाटिका, 13
  21. प्रेम वाटिका,18
  22. प्रेम वाटिका, 19
  23. प्रेम वाटिका, 25
  24. प्रेम वाटिका, 28
  25. प्रेम वाटिका, 35
  26. तुलसीदास ने भी कहा है-भाववस्य भगवान सुखनिधान करुना भवन।-दोहावली,135,रामचरितमानस,7।92
  27. प्रेम वाटिका, 36
  28. प्रेम वाटिका, 37
  29. प्रेम वाटिका, 47
  30. प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान। जो आवत यहि ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान॥-प्रेम वाटिका,3
  31. प्रेम-बारुनी छानि कै बरुन भए जल धीस। प्रेमहि तें विषपानि करि, पूजे जात गिरीस। -प्रेम वाटिका,4
  32. प्रेम वाटिका, 20
  33. रामचरितमानस, 5/48/2-4
  34. सुजान रसखान, 16
  35. सुजान रसखान, 17
  36. प्रेम वाटिका, 24
  37. प्रेम वाटिका, 17
  38. प्रेम वाटिका, 6
  39. प्रेमवाटिका, 40
  40. प्रेमवाटिका, 41
  41. प्रेमवाटिका, 42
  42. प्रेमवाटिका, 15
  43. प्रेमवाटिका, 21
  44. नारद-भक्तिसूत्र, 82
  45. सुजान रसखान, 12
  46. सुजान रसखान, 15
  47. सुजान रसखान, 14
  48. सुजान रसखान, 12
  49. सुजान रसखान, 2
  50. सुजान रसखान, 20,21 आदि
  51. सुजान रसखान, 18
  52. सुजान रसखान, 11
  53. हरिभक्तिरसामृतसिंधु, दक्षिण विभाग, 5 । 94-95
  54. हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 4
  55. हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 3-4
  56. हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1
  57. हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1
  58. हरिभक्तिरसामृतसिंधु, दक्षिण विभाग, 5 । 96
  59. हरिभक्तिरसामृतसिंधु, पश्चिम विभाग, 1 । 1
  60. सुजान रसखान, 20-21
  61. सुजान रसखान, 203
  62. ये ग्रंथ हैं- हरिभक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वल नीलमणि
  63. राधावल्लभ सम्प्रदाय: सिद्धांत और साहित्य, पृ0 161
  64. प्रेम वाटिका, 38
  65. सुजान रसखान, 185
  66. सुजान रसखान, 190
  67. श्रवणं कीर्तनंविष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। अर्जनं बन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥ -भागवतपुराण, 7। 5। 23
  68. प्रेम वाटिका, 40
  69. सुजान रसखान, 4
  70. सुजान रसखान, 14
  71. सुजान रसखान, 9
  72. सुजान रसखान, 2
  73. सुजान रसखान, 19
  74. सुजान रसखान, 7
  75. प्रेमवाटिका, 12
  76. सुजान रसखान, 9
  77. सुजान रसखान, 8
  78. सुजान रसखान, 201
  79. सुजान रसखान, 202
  80. सुजान रसखान, 18
  81. सुजान रसखान, 7
  82. सुजान रसखान, 10
  83. सुजान रसखान, 12-13
  84. सुजान रसखान, 2
  85. सुजान रसखान, 4
  86. सुजान रसखान, 12
  87. सुजान रसखान, 18
  88. सुजान रसखान,20-21
  89. सुजान रसखान, 22-26
  90. सुजान रसखान, 27
  91. सुजान रसखान, 28-31
  92. सुजान रसखान, 32-35
  93. सुजान रसखान, 36-37
  94. सुजान रसखान, 38-39
  95. सुजान रसखान, 40
  96. सुजान रसखान, 41
  97. सुजान रसखान, 101
  98. सुजान रसखान, 120
  99. सुजान रसखान, 191-93
  100. सुजान रसखान, 1, 3

==सम्बंधित लिंक==