रसखान का दर्शन: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "{{रसखान}}" to "==सम्बंधित लिंक== {{रसखान2}} {{रसखान}}")
No edit summary
Line 196: Line 196:
<references/>
<references/>
==सम्बंधित लिंक==
==सम्बंधित लिंक==
{{भारत के कवि}}
{{रसखान2}}
{{रसखान2}}
{{रसखान}}
{{रसखान}}
==सम्बंधित लिंक==
{{भारत के कवि}}
[[Category:कवि]]
[[Category:कवि]]
[[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]]
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 14:59, 2 June 2010

रसखान का दर्शन

साहित्य, दर्शन और जीवन तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। साहित्य जीवन को हृदय द्वारा समझने का प्रयास है, और दर्शन उसे मस्तिष्क के द्वारा समझता है। मस्तिष्क जीवन को जिस रूप में समझता है साहित्य उसी को सरस बनाकर जन-जन के मन में उतारने का प्रयास करता है। दर्शन जीवन की गहराइयों का ठीक-ठीक पता बताता है। साहित्य उसे जन-जन के लिए सुलभ करता है। जैसे ईश्वर-प्राप्ति के लिए ज्ञान और भक्ति दो अलग-अलग मार्ग हैं, वैसे ही साहित्य और दर्शन में दोनों की पहुंच एक ही तथ्य तक है। दोनों का प्रतिपाद्य विषय भी एक ही है। साक्षात ज्ञान के समान दर्शन को श्रेय और साहित्य को प्रेम तक कहने की उदारता करते हैं।

  • आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री अपनी रचना 'साहित्य दर्शन' में इसका तीव्र खंडन करते हुए कहते हैं कि 'साहित्य को प्रेम कहना उसे दूसरे शब्दों में नरक का पंथ कहना है। साहित्य स्वर्ग का स्वर्णिम सोपान है।' साहित्य और दर्शन को एक ही श्रेय का हृदय और मस्तिष्क भाव और अनुभूति और चिंता कहकर समान मिलना चाहिए।[1] भक्ति-काव्य में साहित्य और दर्शन दोनों ही एक दूसरे के घनिष्ठ संबंधी हैं। अत: भक्त कवि के साहित्य में दर्शन की खोज करना समीचीन है।
  • डॉ॰ रामकुमार वर्मा के अनुसार रसखान श्रीकृष्ण प्रेम और तन्मयता के लिए प्रसिद्ध हैं।[2]
  • श्यामसुन्दर के मतानुसार कृष्ण भक्त कवियों में सच्चे प्रेममग्न कवि रसखान का नाम भगवान कृष्ण की सगुगोपासना में विशेष ऊंचा है।[3]
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह बड़े भारी कृष्ण भक्त थे। इनका प्रेम अत्यंत भगवद्-भक्ति में परिणत हुआ।[4]
  • आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार परमाकर्षक कृष्ण भक्ति के मुस्लिम सहृदयों में रसखान एक प्रमुख कवि हैं।[5]
  • पं॰ विश्वनाथ प्रसाद अनेक तर्क देते हुए अन्त में कहते हैं कि रसखान भक्तिमार्गी कृष्ण भक्तों , प्रेममार्गी सूफियों, रीतिमार्गी कवियों इन सब ही से पृथक् स्वच्छंदमार्गी प्रेमोन्मत्त गायक थे। यदि उन्हें भक्त कहना हो तो स्वच्छंद प्रेममार्गी भक्त कहा जा सकता है।[6]

उपर्युक्त मतों में अधिकांश इस विषय पर एकमत हैं कि ये प्रेम के दीवाने थे। इनकी भक्ति में प्रेम की प्रधानता है।

  • मिश्र जी के तर्कों का सार इस प्रकार है: हिन्दी-साहित्य के मध्यकाल में तीन प्रकार की काव्यधाराएं थीं- एक शुद्ध भक्ति की, दूसरी काव्य-रीति की, तीसरी स्चच्छंद वृत्ति की। प्रथम पक्ष वालों के लिए भक्ति साध्य थी, कविता साधन, क्योंकि वे केवल भक्ति की अभिव्यक्ति के लिए कविता नहीं करते थे। वे भक्ति के प्रचारक भी थे। पर रसखान की रचना को हम भक्ति की प्रचारक रचना नहीं कह सकते जैसा कबीर, जायसी, सूर और तुलसी की रचना को कहा जाता है। रसखान तो प्रेमोमंग के कवि थे। ये हिन्दी की स्वच्छंद काव्यधारा के सबसे प्राचीन कवि ठहरते हैं। रीतिधारा वालों के लिए काव्य ही साध्य था किंतु काव्य के साधन रीति के ऊपर ही इन्होंने विशेष ध्यान दिया। वे केवल चमत्कार के लिए कविता करते थे। रसखान में हृदय-पक्ष की प्रधानता के कारण उन्हें इस धारा में नहीं माना जा सकता। तीसरी धारा थी स्वच्छंद इस धारा के कवियों को कलापक्ष का आग्रह नहीं था। प्रेम में लीन होने पर काव्य का प्रवाह आप से आप बाहर आ जाता था। अत: रसखान को स्वच्छंद काव्यधारा का ही कवि मानना चाहिए। कृष्ण भक्तों की गीति परम्परा का त्याग करके कवित्त सवैया-पद्धति का सहारा लेना ही उन्हें भक्त कवियों की सामान्य श्रेणी से अलग कर देता है। इसी से रसखान को उन्मुक्त प्रेमोन्मत्त कवि कहा जाता है। मिश्र जी आगे चलकर कहते हैं कि निर्गुण में रूप की योजना न होने के कारण उन्होंने सगुण में अपनी स्वच्छंद वृत्ति लीन की—

आनन्द-अनुभव होत नहिं बिना प्रेम जग जान।
कै वह विषयानन्द कै ब्रह्मानंद बखान ॥[7]

इसीलिए वे कृष्ण भक्ति की ओर आकृष्ट और लीन हुए। इसी कारण से उन्हें शुद्ध भक्त न मानकर प्रमोमंग का कवि माना जाता है। वे बिहारी लाल, घनानंद, रहीम, रसखान, आलम, शेख को भक्ति के पद रचने पर भी उनको शुद्ध भक्त कहने में हिचक प्रकट करते हैं। रसखान ने कृष्ण भक्ति दर्शन में वल्लभाचार्य जी का शुद्धाद्वैतवाद, निंबार्क का द्वैताद्वैतवाद, मध्वाचार्य का द्वैतवाद अथवा चैतन्य महाप्रभु के अचिंत्य भेदाभेद किसी का भी अनुसरण नहीं किया। वल्लभाचार्य जी ने हृदय के संस्कार और विकास की दृष्टि से ईश्वर भक्ति अर्थात अलौकिक प्रेम को ही साध्य माना है किन्तु रसखान लौकिक प्रेम को साध्य मानते हुए कहते हैं—

अकथ कहानी प्रेम की, जानत लैली ख़ूब।
दो तनहूँ जहँ एक भे, मन मिलाइ महबूब॥[8]

इस प्रकार यह शुद्ध अद्वैतवादी पुष्टि मार्ग से भी अलग हो जाते हैं। मिश्र जी के अनुसार रसखान ने भक्तों की गीति और रीति दोनों का ही त्याग कर दिया। इसी से उन्हें स्वच्छंद मार्गी प्रेमोन्मत्त गायक ही कहा जा सकता है भक्त नहीं। यद्यपि मिश्र जी का विवेचन अत्यन्त तर्कपूर्ण है किन्तु फिर भी कुछ विचारणीय विषय रह जाता है। ग्रंथावली की भूमिका में स्थान-स्थान पर यह कहा गया है यदि कोई इन्हें भक्ति विषयक रचना के कारण भक्त कहता है तो कहे, स्वच्छंद प्रेममार्गी भक्त कहा जाय तो कोई बाधा नहीं।[9] इन बातों से यह स्पष्ट हो गया कि मिश्र जी इनकी कविता को भक्ति का विषय मानते हैं और अगर कोई इन्हें भक्त कवि कहे तो उसमें कोई आपत्ति भी नहीं मानते। यहाँ तक कि जब उन्हें भक्तों की श्रेणी से खारिज करने की बात आती है तो जोरदार शब्दों में यह भी कहते हैं कि इन्हें भक्तों की श्रेणी से खारिज करने की आवश्यकता नहीं। इससे सिद्ध होता है कि मिश्र जी भी इस बात को मानते हैं कि वे शक्त थे। इनकी रचना भक्ति प्रधान है। इन दो तथ्यों को प्राय: सभी ने पूर्णरूपेण स्वीकार भी किया है।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब वे भक्त थे और उनकी रचना भक्ति प्रधान है तो उसका कोई दर्शन भी अवश्य होगा। जहां आलोचक की जानकारी के लिए नियमों की श्रृंखला में कोई वस्तु नहीं बंधती, वहां उसे स्वच्छंद कह दिया जाता है। पर वास्तव में ऐसी बात नहीं। प्रत्येक कार्य का मूल कारण अवश्य रहता है। मिश्र जी ने एक बात बार-बार कही है कि रसखान में विदेशीपन की झलक अवश्य दिखाइर पड़ती है।[10] यह प्रेममार्गी भक्त थे।[11] लौकिक पक्ष में इनका विरह फ़ारसी काव्य की वंदना से प्रभावित है, अलौकिक पक्ष में सूफियों की प्रेमपीर से। आगे कहते हैं स्वच्छंद कवियों ने प्रेम की पीर सूफी कवियों से ही ली है इसमें कोई संदेह नहीं।[12] रसखान जैसे पिछले कांटे के कृष्णभक्त कवि सूफी संतों और फ़ारसी साहित्य की प्रवृत्ति से प्रभावित हुए हैं, यह असंदिग्ध है।[13]

  • सूफी साधना में सूफी मत गणित की तरह कोई वस्तु नहीं जो समझाने से समझ में आ जाय। न ही चलचित्र की भांति कोई कला है कि चित्रों के देखने से सारी स्थिति स्पष्ट हो जाय।
  • डॉ. ताराचंद के अनुसार तसव्वुफ वास्तव में गहन पवित्रता, उपासना, तल्लीनता एवं आत्मसमर्पण का धर्म है। मुहब्बत उसका आवेग है। काव्य, संगीत नृत्य उसकी साधना और लौकिक अवस्था से गुजर कर खुदा से मिल जाना उसका लक्ष्य है।[14] सूफियों के संबंध में कहा गया है कि जब प्रेम का पूर्ण स्फुरण हो जाता है तब वे संसार को समझने-देखने लगते हैं। उनके हृदय में मुसलमान, इसाई, हिन्दू का भेदभाव नहीं रह जाता। उसका धर्म केवल एक रह जाता है, वह है प्रेम का धर्म।
  • प्रसिद्ध सूफी साधक रूमी ने एक स्थान पर कहा है- इश्क का मजहब सभी मजहबों से अलग है। खुदा के आशिकों का खुदा के अलावा कोई मजहब नहीं है।[15]
  • इब्नुल अरबी का कथन है कि सच्चे सूफी को हर मजहब में खुदा मिल जाता है।[16] हो सकता है कि रसखान भी इस विषय में पूर्ण विश्वास रखते हों और उन्होंने खुदा की प्राप्ति भारत के प्रसिद्ध अवतार कृष्ण के माध्यम से की।
  • अब्दुलवाहिद बिलग्रामी ने हकाएके-हिन्दी की रचना 1566 ई॰ में की।[17] जिसके द्वारा उन्होंने हिन्दी कविता की आध्यात्मिक कुंजी दी।
  • उसके संबंध में आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि इस पुस्तक से केवल सूफी साधकों के आध्यात्मिक संकेतों का ही ज्ञान नहीं होता अपितु सूरदास के पूर्ववर्ती ब्रजभाषा साहित्य की एक समृद्ध परम्परा का भी आभास मिलता है।[18]
  • गुलामअली आजाद की कथन है कि समा (संगीत) को चिश्ती सूफियों की साधना में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इस प्रश्न पर वह कट्टर आलिमों तथा राज्य के अधिकारियों से भी टक्कर लेने में न डरते थे। यद्यपि शेख शहाबुद्दीन सुहरावर्दी तथा हुजबेरी ने अपनी पुस्तक में समा के नियम निर्धारित कर दिए थे और बाद के सूफियों ने भी उन नियमों का पालन करने तथा कराने का प्रयत्न किया, किन्तु भावावेश में किसी नियम का पालन करना तथा कराना कठिन है।
  • अमीर ख़ुसरो ने हिन्दी रागों का भी आविष्कार किया और प्रचलित रागों में भी संशोधन किए। इस प्रकार समा में भी हिन्दी गानों को प्रविष्ट कर दिया गया। कभी-कभी हिन्दी राग तो फ़ारसी गजलों से कहीं अधिक प्रभावशाली हो जाते थे। क़ुरान की आयतें भी हिन्दी रागों में गाई जाने लगी थीं।[19]
  • सैयद अतहर अब्बास रिजवी के अनुसार इन हिन्दी कविताओं में भारतीय तथा हिन्दू संस्कार मूलरूप में विद्यमान रहते थे। हकाएके-हिन्दी के अध्ययन से पता चलता है कि ध्रुवपद तथा विष्णुपद को सबसे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त थी। श्रीकृष्ण तथा राधा की प्रेम-कथाएं सूफियों को भी अलौकिक रहस्य से पूर्ण ज्ञात होती थीं। इन कविताओं का 'समा' में गाया जाना आलिमों को तो अच्छा लगता ही न होगा। कदाचित कुछ सूफी भी इन हिन्दी गानों की कटु आलोचना करते होंगे। अत: इन कविताओं का आध्यात्मिक रहस्य बताना भी परम आवश्यक हो गया है। अब्दुल वाहिद सूफी ने हकाएके हिन्दी में उन ही शब्दों के रहस्य की बड़ी गूढ़ व्याख्या है जो उस समय हिन्दी गानों में प्रयोग में आते थे।[20]
  • रसखान ने भी कृष्ण का निरूपण अलौकिक सौंदर्य या रहस्य के प्रतीक या आधार रूप में किया। यह भी संभव है कि रसखान मीर अब्दुल वाहिद और उनकी रचना हकाएके हिन्दी से भी परिचित रहे हों क्योंकि वे आयु में रसखान से लगभग चौंतीस वर्ष बड़े थे। अत: उस समय की परिस्थिति और सूफी मत के स्वरूप को देखते हुए रसखान ने भी उसका निरूपण मौलिक ढंग से किया जो उनकी प्रतिभा और मस्त स्वभाव के अनुकूल सर्वथा है।
  • स्वच्छन्द कवि होने के कारण रसखान से सूफी सिद्धांतों के पूर्ण विवेचन की आशा नहीं करनी चाहिए। संभवत: इसी कारण रसखान के काव्य में सूफी मत के सिद्धान्तों का विधिवत निरूपण नहीं मिलता। स्त्री के रूप में अलौकिक सौंदर्य की चर्चा तथा मसनवी शैली के भी दर्शन नहीं होते। किन्तु रसखान के काव्य का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि सूफी मत का विधिवत निरूपण न होने पर उनके काव्य दर्शन पर सूफी साधना का व्यापक प्रभाव पड़ा। उनकी भक्ति का बाहरी स्वरूप भारतीय है किंतु आत्मा सूफी से रंजित है। सूफी साधना के उस स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत है जो रसखान के काव्य में परिलक्षित होता है।
  • इश्क (प्रेम) 'किसी के गुण पर जब रुझान होता है तो उस दशा को मुहब्बत कहते हैं लेकिन जब यह मुहब्बत बढ़ते-बढ़ते तीव्र हो जाती है तो इश्क कहलाती है। यही आशिक (प्रेमी) माशूक (प्रिय) के मिलन का कारण बन जाती है। तसव्वुक पूर्णतया इश्क पर आधारित है। साधक को खुदा के औसाफ (गुण) नजर आने लगते हैं और प्रेम बढ़ता ही जाता है। प्रेम की अधिकता के कारण खुदा की प्राप्ति के मार्ग में साधक सबको त्यागने लगता है। यहाँ तक कि लोक-परलोक का भेद समाप्त हो जाता है। खुदा के अतिरिक्त उसे और किसी की चिन्ता नहीं रहती। ऐसी अवस्था आ जाती है कि इश्क में तल्लीन साधक को संसार का कोई दु:ख दु:ख नहीं प्रतीत होता। हर समय मृत्यु की प्रतीक्षा रहती है कि आत्मा स्वतंत्र होकर वास्तविक प्रिय से जा मिले।[21] रसखान में इस इश्क का पूर्ण निरूपण मिलता है। मनुष्य का खुदा से इश्क करना, स्वयं को उसमें लीन कर देना सूफी मत की संगेबुनियाद (नींव) है।[22] सूफियों ने प्रेम के दो सोपान माने हैं: इश्के मजाजी और इश्के हकीकी (अलौकिक)। सूफी साधक इश्के मजाजी के माध्यम से इश्के हकीकी को प्राप्त करता है। रसखान ने अलौकिक सत्ता की प्राप्ति का आधार इश्क को मानते हुए लौकिक अलौकिक दोनों प्रेमों की चर्चा की है। बिना प्रेम के किसी भी प्रकार के आनन्द की प्राप्ति संभव नहीं—

आनन्द अनुभव होत नहिं बिना प्रेम जग जान।
कै वह बिषयानन्द कै ब्रह्मानन्द बखान॥[23]

  • ज्ञान, कर्म और उपासना के द्वारा सूफी साधक को खुदा की प्राप्ति नहीं। यह सूफी मत की चार अवस्थाओं में से प्रथम अवस्था शरीयत मानी गई है। रसखान उस हकीकत मत इश्क के द्वारा ही पहुंचते हैं। उसी के माध्यम से उन्हें दृढ़ निश्चय की प्राप्ति होती है-

ज्ञान कर्म रु उपासना, सब अहमिति को मूल।
दृढ़ निस्चय नहिं होत, बिन किये प्रेम अनुकूल॥[24]

रसखान शास्त्रों और वेदों के पाठ को भी व्यर्थ बताते हुए कहते हैं कि वेद और क़ुरान के पढ़ने से कुछ नहीं होता जब तक साधक को प्रेम का पूर्ण ज्ञान नहीं होता अर्थात खुदा को इश्क के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है—

ज्ञान ध्यान बिद्यामती, मत बिस्वास बिबेक।
बिना प्रेम सब धूरि हैं अगजग एक अनेक॥[25]

  • प्रसिद्ध फ़ारसी सूफी कवि हाफिज ने भी कहा है—

इश्कत रसद बफरयाद गर खुद बसान हाफिज।
क़ुरान जबर बखवानी बाचार दह रिवायत॥[26]

  • यदि तुम इतने बड़े ज्ञानी भी हो कि क़ुरानमजीद चौदह रिवायतें के साथ तुम्हें कंठस्थ हो तो भी बगैर इश्क के तुम्हारा काम नहीं चलेगा।

सास्त्रन पढ़ि पंडित भए, कै मौलवी क़ुरान।
जु पै प्रेम जान्यौ नहीं, कहा कियौ रसखान॥[27]

  • फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि नजीरी ने भी कहा है—

किताबे हफते मिल्लतगर बेखवांद आदमी आमी अस्त।
न खुवांद ताजे जुज आशनाई दास्तानीए रा॥[28]

अर्थात अगर इंसान सातों धर्मों की किताबें पढ़ ले तो भी जाहिल रहता है जब तक कि मुहब्बत की किताब से कोई दास्तां न पढ़े। रसखान ने इश्क को पूर्णतया निर्लिप्त माना है जहां काम, क्रोध, मद, मोह, भय, लोभ आदि होता है सूफी साधना के अनुसार वहां प्रेम नहीं होता। रसखान ने भी कहा है—

काम क्रोध मद मोह भय लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सब ही तें प्रेम है परे, कहत मुनिवर्य॥[29]

  • प्रसिद्ध फ़ारसी कवि मौलाना रूम ने भी कहा है—

हर करा जामा ज इश्के चाक शुद।
ऊ जे हिरसो जुमलए ऐबो पाक शुद॥[30]

अर्थात जिसने अपना लिबास इश्क में चाक किया, वह लालच और समस्त दुर्गुणों से पाक हो गया। इश्के हकीकी लौकिक स्वरूपों से ऊंचा उठकर खुदा से प्रेम करना है। रसखान के अनुसार इश्क शुद्ध, कामना रहित रूप, गुण, यौवन, धन आदि से परे होना चाहिए:

बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना तें रहित प्रेम सकल रसखानि ॥[31]

  • मंसूर हल्लाज ने कहा है ईश्वर से मिलन तभी संभव है जब हम कष्टों के बीच से होकर गुजरें।[32] हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्य में भी प्रेम के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का निरूपण किया गया है।
  • हुज्वेरी ने भी यह बताया है कि प्रेम मार्ग में मुसीबतें झेलना अनिवार्य है। ईश्वर से पृथक् होकर रूह (आत्मा) उस समय तक निरन्तर कष्ट सहती रहती है जब तक कि वह अपने प्रिय ईश्वर से साक्षात्कार या तादात्म्य न हो जाय। फ़ारसी साहित्य में जो इश्किया मसनवियां हैं उनमें प्रेमी को बहुत कष्ट उठाना पड़ता है।[33] प्रेम के मार्ग को अगम्य तथा सागर के समान रसखान ने भी बताया है—

प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत यहि ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान॥[34]

  • फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि हाफिज का वर्णन भी इससे मिलता-जुलता है:

बहरीस्त बहरे इश्क कि हीचश किनारा नीस्त।
आँजा जजा नीके जाम बेसिपारंद चारा नीस्त॥[35]

  • प्रेम मार्ग में साधक को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है कितने कष्ट सहने पड़ते हैं। कैसे उसके प्राण तड़पते हैं। रसखान के अनुसार केवल उसांसें ही चलती रहती हैं—

प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, कठिन प्रेम की फाँस।
प्रान तरफि निकरै नहीं, केवल चलत उसाँस॥[36]

  • सच्चे प्रेम के स्वरूप का वर्णन करते हुए रसखान कहते हैं कि यह अत्यन्त सूक्ष्म, कोमल, क्षीण और अगम्य सदैव एक-सा रहने वाला रस से परिपूर्ण होते हुए भी कठिन होता है—

अति सूछम कोमल अतिहि अति पतरो अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इक रस भरपूर॥[37]

  • प्रेम मार्ग की अद्भुतता, दुर्गमता एवं दुर्लभता का उल्लेख करते हुए रसखान कहते हैं कि प्राणों को निछावर करके ही प्रिय की प्राप्ति होती है—

पै ऐतोहू हम सुन्यौं, प्रेम अजूबो खेल।
जाँबाजी बाजी जहाँ दिल का दिल से मेल॥[38]

रसखान के अनुसार संसार में समस्त चीजें देखी एव जानी जा सकती हैं किन्तु खुदा एवं प्रेम ऐसे हैं कि न उनको देखा जा सकता है न जाना।[39] सूफियों के प्रेम को केवल अनुभव किया जा सकता है। दाम्पत्य सुख सांसारिक पदार्थों से प्राप्त आनन्द, पूजा, धार्मिक विश्वास इन सबसे इश्के हकीकी उच्च एवं परे हैं—

दम्पति सुख अरु बिषय रस पूजा निष्ठा ध्यान।
इन तें परे बखानियै शुद्ध द्रेम रसखानि ॥[40]

  • सूफी साधक प्रेम-मार्ग में समस्त सांसारिक संबंध को त्याग अपना ध्यान इश्के हकीकी के माध्यम से अलौकिक सत्ता की ओर केन्द्रित कर लेता है। वह केवल अपने प्रेमी की ही सत्ता को सर्वस्व आधार मानकर उसी में तल्लीनता को प्रेम मानते हैं। रसखान के अनुसार भी—

इक अंगी बिनु कारणहि, इकरस सदा समान।
गनै प्रियहि सर्वस्व जो सोइ प्रेम प्रमान ॥[41]

  • हजरत मुहम्मद साहेब की एक हदीस में कहा गया है, 'अल्लाह ने कहा मेरा बंदा प्रेम-साधना और पुण्य कार्यों से मेरे निकट हो जाता है और मैं उससे मुहब्बत करने लगता हूं, मैं उसकी आंख बन जाता हूं गोया वह मेरे जरिए देखता है। मैं उसकी जबान बन जाता हूं, वह मेरे जरिए बोलता है। मैं उसका हाथ बन जाता हूं, वह मेरे द्वारा ग्रहण करता है।[42] खुदा के इस प्रेम के वशीभूत होने की चर्चा रसखान के काव्य में भी मिलती है। वह कृष्ण के रूप में कुंज-कुटीर में राधा के पैर दबाता दृष्टिगोचर होता है।[43] संभवत: यहाँ राधा का आत्मा और कृष्ण का परमात्मा के रूप में चित्रण हुआ है। रसखान संपत्ति, रूप, भोग, जोग एवं मुक्ति सबको व्यर्थ मानते हुए कहते हैं कि जो स्वयं राधिका रानी के रंग में रचा हुआ है अर्थात प्रेम के वशीभूत है उसी में लीन होकर प्रेम करना चाहिए- दै चित्तताके न रंग रच्यौ जु रह्यौ रचि राधिका रानी के रंगहि।[44] खुदा के प्रेम के वशीभूत होने की चर्चा रसखान ने अनेक स्थलों पर की है। प्रेम के वशीभूत होने पर वह छछिया भरी छाछ पर नाचने को तैयार है—

संकर से सुर जाहि जपैं चतुरानन ध्यानन धर्म बढ़ावै।
नेकु हियें जिहि आनत ही जड़ मूढ़ महा रसखानि कहावै।
जा पर देव अदेव भू अंगना वारत प्रानन प्रानन पावै।
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भर छाछ पै नाच नचावै।[45]

  • प्रेम की तल्लीनता इस सीमा तक बढ़ती है कि एक बंदे और खुदा एक हो जाते हैं। रसखान ने बंदे खुदा के एक होने तथा हरि के प्रेमाधीन स्वरूप की चर्चा है:

हरि के सब आधीन, पै हरी प्रेम-आधीन।
याही तें हरि आपुहीं, याहि बड़प्पन दीन॥[46]

  • प्रसिद्ध सूफी जुनैद का कथन है प्रिय की विशेषताओं में अपनी विशेषताओं को मिला देना प्रेम है। प्रेम की विशेषता यह होती है कि निज के व्यक्तित्व को समाप्त कर दिया जाय। यह आनंद ऐसा होता है कि इस पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता। यह ईस्वरीय कृपा है जो निरंतर विनय करते रहने व आकांक्षा करते रहने से प्राप्त होती है।[47]

प्रेम हरी को रूप है त्यौ हरि प्रेम-सरूप।
एक होइ है यौं लसै ज्यों सूरज औ धूप।[48]
सिर काटौ, छेदौ हियो, टूक टूक करि देहु।
पै याके बदले बिहँसि वाह वाह ही लेहु।[49]

  • प्रसिद्ध सूफी अलफराबी ने प्रेम को ही ईश्वर माना है और सृष्टि का राज भी उन्होंने प्रेम को ही स्वीकार किया है। उनका मत है कि 'भौतिक वस्तुओं तथा ज्ञान और बुद्धि से परे एक विशिष्ट वस्तु है जिसे प्रेम कहते हैं। प्रेम के सहारे इस सृष्टि में हर चीज जिसमें व्यक्ति भी शामिल है, अपनी पूर्णता पर पहुंच जाती है।[50] सूफियों के अनुसार ईश्वर ने आत्मबोध के लिए सृष्टि की रचना की। एक हदीस के अनुसार 'मैं एक छिपा हुआ खजाना था मेरी चाह थी कि मैं पहचाना जाऊं, सब लोग मुझे जानें, अत: मैंने सृष्टि की रचना की।[51]
  • अलफराबी के अनुसार ईश्वर स्वयं प्रेम है। सृष्टि की रचना का कारण भी प्रेम है। प्रेम के द्वारा सृष्टि प्रेम के परमस्त्रोत में, जो पूर्ण सौंदर्य और सर्वोत्तम है, निमग्न हो जाने के लिए पूर्ण रूप से जुड़ी हुई है।[52] रसखान ने प्रेम का निरूपण करते हुए प्रेम की वास्तविकता के सम्बन्ध में कहा है—

कारज कारन रूप यह, प्रेम अहै रसखान।
कर्ता कर्म क्रिया करन, आपहि प्रेम बखान॥[53]
जातें उपजत प्रेम सोई, बीज कहावत प्रेम।
जामैं उपजत प्रेम सोइ क्षेत्र कहावत प्रेम॥[54]
जाते पनपत बढ़त अरु फूलत फलत महान।
सो सब प्रेमहिं प्रेम यह कहत रसिक रसखान॥[55]
वही बीज अंकुर वही, सेक वही आधार।
डाल पात फल फूल सब वही प्रेम सुखसार॥[56]
जो जातें जामैं बहुरि जा हित कहियत बेष।
सो सब प्रेमहिं प्रेम है जग रसखानि असेष॥[57]

  • सच्चा प्रेमी मृत्यु से भयभीत नहीं होता। वह उसे एक यात्रा का अवसान और दूसरी यात्रा का प्रारंभ समझता है। निजामी ने लैला मजनू में मृत्यु के दर्शन किये हैं। उनके अनुसार यह मौत नहीं, बाग और बोस्तां है यह दोस्त के महल का रास्ता है। इसके बिना महबूबा तक पहुंचना नहीं होगा।[58] इसी मसनवी में उन्होंने कहा है, अगर मैं अक्ल की आंख से देखूं तो यह मौत, मौत नहीं है बल्कि एक जगह से दूसरी जगह जाना है। इसी सिद्धांत में विश्वास रखते हुए रसखान ने भी कहा है—

प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जौ जन जानै प्रेम तौ, मरै जगत क्यौं रोइ॥[59]
इसी भाव का फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि हाफिज ने इस प्रकार वर्णन किया है—
हरगिज नमीरद आकि दिलश जेंदाशुद्ध बइश्क।
सिबत् अस्त कर जुरीदाए आलमे दवामे मा॥[60]
प्रेम में आत्मसर्पण कर प्राण देकर जीव सदा जीवित रहता है। रसखान ने प्रेम के इस स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा है—
प्रेम-फाँस मैं फँसि मरै, सोइ जियै सदाहि।
प्रेम-मरम जाने बिना, मरि कोउ जीवत नाहिं॥[61]
पै तिठास या मार के, रोम रोम भरपूर।
मरत जियै, झुकतौ थिरै बने सु चकनाचूर॥[62]

  • अत: मनुष्य प्रेम के मार्ग में मरकर ही अमर होता है। मुसलमानों की धार्मिक पुस्तकों में कहा गया है कि मरने के बाद कयामत महाप्रलय होगी। उस समय प्रत्येक मानव को एक पुल (पुले सरात) से गुजरना होगा। वह पुल बाल से भी अधिक बारीक, तलवार की धार से अधिक तेज होगा। प्रेमी व्यक्ति ईश्वर के सच्चे साधक उसे पार कर लेंगे। रसखान ने भी कुछ इसी प्रकार भावों का निरूपण किया—

कमलतंतु सो हीन अरु कठिन खड्ग की धार।
अति सूघो टेढ़ो बहुरि प्रेम पंथ अनिवार॥[63]

अत: कहा जा सकता है रसखान द्वारा निरूपित प्रेम सूफी साधना से पूर्णतया रंजित है।

तवक्कुल

तवक्कुल का सम्बन्ध अपने निजत्व से तनिक भी सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तु के प्रतिपूर्ण उदासीलता से होता है। यह उस स्थिति का नाम है जब मनुष्य अपने समस्त सम्बन्धों को खुदा को सौंपकर यकीन कर ले कि जो कुछ करेगा खुदा ही करेगा।[64] तवक्कुल में इस बात पर पूर्ण विश्वास हो जाता है कि जो कुछ है खुदा है उसके सिवा कोई भी नहीं न दूसरा कुछ करना है। तवक्कुल में साधक पूरी तल्लीनता से साधना करता हे, उसका ध्यान किसी तरफ नहीं भटकता वह खुदा पर पूरा भरोसा रखता है। रसखान के काव्य में भी तवक्कुल की सफल अभिव्यंजना हुई है वे कहते हैं कि मनुष्य अनेक देवी-देवताओं को भेजकर अनेक साधनों से धन एकत्रित करते हैं तथा अपने मन की आशाएं पूर्ण करते हैं, किन्तु रसखान कहते हैं कि मेरा साधन तो केवल यही (परम सत्ता) है। मैं उस पर तवक्कुल करता हूं—

सेष सुरेस दिनेस गनेस प्रजेस धनेस महेस मनावौ।
कोऊ भवानी भजौ, मन की सब आस सभी विधि पुरावौ।
कोऊ रमा भजि लेहु महा धन, कोऊ कहूँ मनवांछित पावौ।
पै रसखानि वही मेरो साधन, और त्रिलोक रहौ कि नवासौ॥[65]

  • तवक्कुल पर अटल विश्वास रखते हुए रसखान अपने मन को सांत्वना देते हुए कहते हैं—

द्रौपदी औ गनिका गज गीध अजामिल सों कियौं सो न निहारो।
गौतम-गेहनो कैसी तरी, प्रहलाद कों कैसे हरयौ दुख भारो।
काहे को सोच करै रसखानि कहा करि है रविनंद बिचारो।
ताखन जाखन राखियै माखन चाखन हारो सो राखन हारो॥[66]

  • तवक्कुल की भावना पर अटल विश्वास रखते हुए अपने आप को पूर्णतया निश्चिंत रखते हुए रसखान कहते हैं—

कहा करै रसखानि को कोऊ चुगुल लबार।
जौ पै राखन हार है माखन चाखन हार॥[67]

फकीर और फुकर

तसव्वुफ की शब्दावली में फकीर उसे कहते हैं जो यह विश्वास रखता हो कि लोक-परलोक में मैं किसी वस्तु का स्वामी नहीं हूं। न मुझे किसी चीज पर अधिकार है यहाँ तक कि वह साधना को भी अपनी संपत्ति नहीं समझता। लोक-परलोक की समस्त चीजों को हेच निस्सार समझता है। न उसे धन सम्पत्ति की इच्छा होती है न नरक-स्वर्ग का ध्यान। उसे केवल खुदा का ध्यान रहता है।[68] यह स्थिति दैन्य की स्थिति से मिलती-जुलती है। सच्चा दैन्य केवल संपति का अभाव नहीं बल्कि संपयि की इच्छा का भी अभाव है। वर्तमान जीवन एवं भविष्य जीवन दोनों से पूर्णरूप से पृथक् हो जाना तथा वर्तमान जीवन और भविष्य जीवन के स्वामी के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की इच्छा न रखना ही सच्चा दैन्य है। ऐसा फकीर व्यक्तिगत अस्तित्व से निर्लिप्त होता है, यहाँ तक कि वह किसी क्रिया, भावना या गुण का आरोप अपने में नहीं करता।[69] रसखान के काव्य के अवलोकन से ज्ञात होता है कि रसखान के काव्य में इस प्रकार के भाव पूर्णतया विद्यमान हैं। 'कलधौत के धाम' , 'कंचन मंदिर' , 'मानक मोति' किसी के भी प्रति उनके मन में तनिक मोह नहीं। सिद्धियों और निधियों को जो कठिन साधना से प्राप्त होती हैं रसखान तनिक महत्त्व न देते हुए कहते हैं—

वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तहूँ पुर को तजि डारौ।
आठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौ।
एक रसखानि जबै इन नैनन तैं ब्रज के बन-बाग निहारौ।
कोटक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं॥[70]
रसखान ने निर्लिप्त सूफी फकीर की विशेषताएं विद्यमान हैं उन्हें तनिक भी मोह नहीं।
कंचन मंदिर ऊंचे बनाइ कै मानिक लाई सदा झलकैयत।
प्रात ही तें सगरी नगरी नग मोतिन ही की तुलानि तुलैयत।
जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मघवा ललचैयत।
ऐसे भए तो कहा रसखानि जो साँवरे उचार सों नेह न लैयत॥[71]
रसखान सुखसंपत्ति को भी सारहीन समझते हैं। योग आदि में विश्वास न रखते हुए कहते हैं—
कहा रसखानि सुख संपत्ति सुमार कहा,
कहा तन जोगी ह्व लगाए अंग छार को
कहा साधे पंचानल, कहा सौए बीच नल
कहा जीति लाए राज सिंधु-आर-पार को
जप बार बार, तप संजम बयार व्रत,
तीरथ हज़ार अरे बूझत लबार को।
कीन्हौ नहीं प्यार, नहीं से यौ दरबार, चित
चाहयौ न निहारयौ जौ पै नंद के कुमार को।[72]

  • सूफी फकीर को केवल खुदा का ध्यान रहता है, उसके लिए सोना मिट्टी के बराबर है। दूसरों के माल पर नजर डालना पाप है—

डरै सदा चाहै न कछु, सहै सबै जो होइ।
रहै एकरस चाहि कै, प्रेम बखानौ सोइ॥[73]

ज़िक्रफ़िक्र

सूफी अनुशासन के विधायक तत्त्वों में ज़िक्र को सभी रहस्यवादी सूफी एक मत से स्वीकार करते हैं। क़ुरान में धर्म पर ईमान लाने वालों को उपदेश दिया गया है कि ईश्वर का स्मरण प्राय करते रहो।[74] खुदा के नाम के अनेक पर्याय हैं जिनके जप पर महत्त्व दिया गया है, 'ज़िक्र ही पहली सीढ़ी निजत्व को भूलना है और अन्तिम सीढ़ी उपासक का उपासना-कार्य में इस प्रकार लुप्त हो जाना कि उसे उपासना की चेतना न रहे और वह उपास्य में ऐसा लवलीन हो जाय कि उसका स्वयं तक लौटना प्रतिबंधित हो जाय।[75] रसखान के काव्य में हमें ज़िक्र का निरूपण पद: पद: मिलता है। यह दूसरी बात है कि उन्होंने ज़िक्र का आधार कृष्ण और कृष्ण लीलाओं को बनाया। उस युग में कृष्णलीला को अलौकिक रहस्य प्राप्ति का मार्ग मानना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं मानी गई होगी। कृष्ण काव्य के इस स्वरूप को देखकर ही सम्भवत: मीर अब्दुलवाहिद विलग्रामी ने अपने ग्रंथ हकाएके हिन्दी को तीन भागों में बांटा है। प्रथम भाग में ध्रुव-पद में प्रयुक्त हिन्दी-शब्दों के सूफियाना अर्थ दिये गए हैं। दूसरे भाग में उन हिन्दी शब्दों की व्याख्या है जो विष्णु-पद में प्रयुक्त होते थे। तीसरे भाग में अन्य प्रकार के गीतों और काव्यों आदि में आय शब्दों की व्याख्या की गयी है।[76] उदाहरणार्थ यदि हिन्दी काव्यों में कृष्ण अथवा अन्य नामों का उल्लेख हो तो उससे मुहम्मद साहब की ओर संकेत होता है, कभी केवल मनुष्य से तात्पर्य, कभी मनुष्य की वास्तविकता समझी जाती है जो परमेश्वर के जात (सत्ता) की वहदत (एक होना) से संबंधित होती है।[77] कहीं-कहीं कन्हैया मारग रोकी से इबलीस के नाना प्रकार से मार्ग-भ्रष्ट करने की ओर संकेत होता है।[78] होली खेलने की चर्चा लगभग समस्त कृष्ण-भक्त कवियों ने किया है। उसका संकेत अग्नि की ओर किया जाता है जो आशिकों के हृदय को सजाए हुए है और इस अग्नि ने उनके अस्तित्व को सिर से पैर तक घेर रखा है।[79] रसखान ने होली के पदों के माध्यम से इस आग का ज़िक्र किया है।[80] रसखान उस अलौकिक रहस्य की चर्चा कृष्ण के ज़िक्र के माध्यम से करते हैं। यदि उनकी जिह्वा किसी शब्द का उच्चारण करे तो केवल उनके नाम का हो— जो रसना रसना विलसै तेहि देहु सदा निज नाम उचारन।[81]

  • सूफी साधक भी ज़िक्र को बहुत महत्त्व देते हैं। वे ज़िक्र करते-करते अलौकिक रहस्य में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि उन्हें अपनी सुध नहीं रहती। रसखान ने अलौकिक प्रेम की प्राप्ति के लिए श्रवण कीर्तन दर्शन को आवश्यक माना है—

स्त्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोइ प्रेम।[82]

  • यहाँ कीर्तन से अभिप्राय ज़िक्र से है। रसखान ने श्रीकृष्ण के माध्यम से अलौकिक रहस्य का ज़िक्र किया। फ़ारसी के प्रसिद्ध ईरानी सूफी जलालुद्दीन रूमी ने अपनी तसव्वुफ की प्रसिद्ध पुस्तक मसनवी के पहले शेर (पद) में रुह (आत्मा) को जो खुदा से अलग हो चुकी है वंशी से तारबीर (उपमा) किया है। प्रसिद्ध मौलविया संप्रदाय के सूफी साधक बांसुरी को अपना मुकद्दम (पवित्र) साज (राग) समझते हैं।[83] रसखान ने भी इस साज के अलौकिक प्रभाव की चर्चा (ज़िक्र) की है। गोपियों का वंशी ध्वनि से बेसुध होना जीवात्मा की बेसुधी का प्रतीक है।
  • रसखान ने अलौकिक रहस्य के ज़िक्र को बहुत महत्त्व दिया। उनका ज़िक्र कृष्ण चर्चा तथा लीलागान के रूप में मिलता है। संभवत: इसी कारण उनकी कृष्ण चर्चा में आवेग की गहन अनुभूति, तल्लीनता और आत्मसमर्पण की सफल अभिव्यंजना मिलती है।

तर्क (त्याग)

सूफियों ने तर्क को बहुत महत्ता प्रदान की है। जब तक संसार में लिप्त रहने की इच्छा मन में रहती है। साधक अपनी मंजिल से दूर रहता है। 'सूफी के लिए तर्केदुनिया इतना ही ज़रूरी है जितना कि जहाज के लिए पानी या नमाज के लिए वजू। जब तक दुनिया की ख्वाहिश दिल से दूर नहीं मंज़िले मकसूद कोसों दूर रहती है।[84] रसखान के काव्य में भी तर्क के दर्शन होते हैं—

जग में सब ते अधिक अति, ममता तनहिं लखाइ।
पै या तनहूँ ते अधिक, प्यारों प्रेम कहाई॥[85]

  • रसखान अपनी साधना के माध्यम से उस मंजिल तक पहुंच चुके थे जहां पहुंच कर स्वर्ग और हरि की प्राप्ति की इच्छा भी बाकी नहीं रहती—

जेहि पाए बैकुंठ अरु, हरि हूँ की नहिं चाहि।
सोइ अलौकिक सुद्ध सुभ, सरस सुप्रेम कहाहि॥[86]

  • यह अवस्था तर्के-तर्क की अवस्था है। साधक इस अवस्था में इतना निर्लिप्त हो जाता है कि सब कुछ तर्क (त्याग) कर देता है। मुक्ति भी उसकी दृष्टि में निस्सार हो जाती है। इस सम्बन्ध में रसखान कहते हैं—

याही तें सब मुक्ति तें, लही बढ़ाई प्रेम।
प्रेम भए नसि जाहिं सब, बंधे जगत के नाम॥[87]

फना

तसव्वुफ में फना को अंतिम सोपान माना गया है। साधक इस स्थिति में अपने व्यक्तित्व को पूर्णतया ईश्वर को समर्पित कर अपनी इच्छाओं एवं अहम् भावनाओं को समाप्त कर दे।[88] उसकी स्मृति में इतना तल्लीन हो जाय कि उसे अपनी सुधि न रहे। आत्म विस्तृति की यह अवस्था ही फना कहलाती है। रसखान के काव्य में इस आत्म विस्तृति और समर्पण का विवेचन मिलता है—

बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सों रसखानि॥[89]

  • यह स्थिति मन को परमात्मा के चिंतन में केंद्रीभूत करके मानसिक पृथक्करण अर्थात् मन को सभी दृश्य पदार्थों, विचारों, कार्यो तथा भावनाओं से अलग करना है।[90] सिखाने के अनुसार समस्त शारीरिक अंगों की सार्थकता उस प्रिय में तल्लीन हो जाने में है—

प्रान वही जु रहैं रिझि वा पर रूप वही जिहि वाहि रिझायौ।
सीस वही जिन वे परसे पद अंक वही जिन वा परसायौ।
दूध वही जु दुहायौ री वाही दही सु सही जु वही ढरकायौ।
और कहाँलौं कहौं रसखानि री भाव वही जु वही मन भायौं॥[91]

  • फना की स्थिति में साधक को अपना ज्ञान नहीं रहता। आत्मा के समस्त रागों और इच्छाओं का अंत हो जाता है। रसखान द्वारा निरूपित फना की स्थिति इस प्रकार है—

अकथ कहानी प्रेम की जानत लैली ख़ूब।
दो तनहूँ जहँ एक भे, मन मिलाइ महबूब।[92]
दो मन एक होते सुन्यौ, पै वह प्रेम न आहि।
होइ जबै द्वै तनहूँ इक, सोई प्रेम कहाहि॥[93]

  • रसखान ने इस अवस्था का इस प्रकार वर्णन किया है—

पै मिठास वा मार के, रोम-रोम भरपूर।
मरत जियै झुकतो थिरै बनै सु चकनाचूर॥[94]

  • इस स्थिति को सूफी फनाअल फना कहते हैं, फना की पूर्ण स्थिति में अहम् का लोभ हो जाता है और आत्मा का परमात्मा में वास हो जाता है। सूफी सिद्धांतों की दृष्टि से रसखान के काव्य पर विचार करने से यह भली भांति विदित होता है कि उनके काव्य की आत्मा सूफी साधना से पूर्णतया रंजित है।

टीका टिप्पणी

  1. साहित्यदर्शन, पृ0 38
  2. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ0 595
  3. हिन्दी साहित्य, पृ0 230
  4. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 176
  5. हिन्दी साहित्य, पृ0 205
  6. रसखानि ग्रंथावली, प्रस्तावना, पृ0 22
  7. रसखानि ग्रंथावली, प्रस्तावना, पृ0 19
  8. प्रेमवाटिका, 33
  9. रसखानि (ग्रंथावली), प्रस्तावना, पृ0 22
  10. रसखानि (ग्रंथावली), प्रस्तावना, पृ0 24
  11. रसखानि (ग्रंथावली), प्रस्तावना, पृ0 22
  12. रसखानि (ग्रंथावली), प्रस्तावना, पृ0 18
  13. रसखानि (ग्रंथावली), प्रस्तावना, पृ0 18
  14. इंफ्लूएंस आफ इस्लाम ओन इंडियन कल्चर, पृ0 83
  15. मध्ययुगीन हिन्दी प्रेमाख्यान, पृ0 16
  16. मीरासे इस्लाम, पृ0 314
  17. हकाएके हिन्दी, पृ0 31
  18. हकाएके हिन्दी प्राक्कथन, पृ0 12
  19. मआसेरूलकराम, पृ0 39
  20. हकाएके हिन्दी, पृ0 22
  21. आइनाए मारफत, पृ0 101
  22. मीर नम्बर दिल्ली कॉलेज उर्दू पत्रिका पृ0 223
  23. प्रेम वाटिका 11
  24. प्रेम वाटिका 12
  25. प्रेम वाटिका 25
  26. अलतकश्शुक अन मुहिम्मातुत तसव्वुफ, पृ0 416
  27. प्रेम वाटिका, 13
  28. नफहाते अबीरी शरह दीवाने नजीरी, पृ0 100
  29. प्रेम वाटिका 14
  30. मसनवी मानवी, पहला भाग, पृ0 4
  31. प्रेम वाटिका 15
  32. आउट लाइन ऑफ इस्लामिक कल्चर, पृ0 350
  33. मध्ययुगीन प्रेमाख्यान, पृ0 16
  34. प्रेम वाटिका 3
  35. अलतकश्शुफ अन मुहिम्मातुत यसव्वुफ, पृ0 410
  36. प्रेम वाटिका 23
  37. प्रेम वाटिका 16
  38. प्रेम वाटिका 31
  39. प्रेम वाटिका 17
  40. प्रेम वाटिका 19
  41. प्रेम वाटिका 21
  42. मीरा से इस्लाम, पृ0 297
  43. सुजान रसखान, 17
  44. सुजान रसखान, 16
  45. सुजान रसखान, 14
  46. प्रेम वाटिका, 36
  47. मिस्टिक्स आफ इस्लाम, पृ0 112
  48. प्रेम वाटिका, 24
  49. प्रेम वाटिका, 32
  50. आउट लाइन आफ इस्लामि क कल्चर, पृ0 311
  51. कुतो कंजन मखफिया फअह वबतो अन ओ रफा, फखलकतुल खलक
  52. आउट लाइन ऑफ इस्लामिक कल्चर, पृ0 311
  53. प्रेम वाटिका 47
  54. प्रेम वाटिका 43
  55. प्रेम वाटिका 44
  56. प्रेम वाटिका 45
  57. प्रेम वाटिका 46
  58. लैला मजनू, पृ0 4
  59. प्रेम वाटिका 2
  60. अलतकश्शुफ अन महिम्मातुततसव्वुफ, पृ0 218
  61. प्रेम वाटिका 26
  62. प्रेम वाटिका 30
  63. प्रेम वाटिका 6
  64. आइतरे मारफत पृ0 89
  65. सुजान रसखान, 5
  66. सुजान रसखान, 18
  67. सुजान रसखान,19
  68. आइनए मारफत पृ0 96
  69. इस्लाम के सूफी साधक, पृ0 31
  70. सुजान रसखान, 3
  71. सुजान रसखान, 6
  72. सुजान रसखान, 9
  73. प्रेम वाटिका, 22
  74. शारटर एंसाइक्लोपीडिया आफ इस्लामख् पृ0 75
  75. इस्लाम के सूर्फ साधक, पृ0 40
  76. हकाएके हिन्दी, पृ0 6
  77. हकाएके हिन्दी, पृ0 73
  78. हकाएके हिन्दी पृ0 80
  79. हकाएके हिन्दी पृ0 102
  80. सुजान रसखान, 191, 192, 193, 194, 195, 196, 197, 198
  81. प्रेम वाटिका, 40
  82. मीरासे इस्लाम, पृ0 324
  83. आइनए मारफत पृ0 219
  84. सुजान रसखान, 3
  85. प्रेम वाटिका, 28
  86. प्रेम वाटिका, 35
  87. आइनए मारफत, पृ0 87
  88. सुजान रसखान, 4
  89. इस्लाम के सूफी साधक, पृ0 50
  90. सुजान रसखान, 90
  91. प्रेम वाटिका, 33
  92. प्रेम वाटिका, 34
  93. प्रेम वाटिका, 30
  94. प्रे0 वा0, 30

सम्बंधित लिंक