सूरदास का काल-निर्णय

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[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-20.jpg|सूरदास, सूरकुटी, सूर सरोवर, आगरा|thumb|left]] सूरदास हिन्दी साहित्य के भक्ति काल में कृष्ण भक्ति के भक्त कवियों में अग्रणी हैं। महाकवि सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने शृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। उनका जन्म मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ था। कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत 1540 विक्रमी के सन्निकट और मृत्यु संवत 1620 विक्रमी के आसपास मानी जाती है।

पुष्टिमार्ग में दीक्षा

सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में भी मतभेद हैं। आगरा के समीप गऊघाट पर उनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षा देकर कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास 'अष्टछाप' के कवियों में से एक थे। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के पास पारसौली ग्राम में 1563 ईस्वी में हुई। उनकी जन्म-तिथि तथा उनके जीवन की कुछ अन्य मुख्य घटनाओं के काल-निर्णय का भी प्रयत्न किया गया है। इस आधार पर कि गऊघाट पर भेंट होने के समय वल्लभाचार्य गद्दी पर विराजमान थे, यह अनुमान किया गया है कि उनका विवाह हो चुका था, क्योंकि ब्रह्मचारी का गद्दी पर बैठना वर्जित है। वल्लभाचार्य का विवाह संवत 1560-61 (सन 1503-1504 ई.) में हुआ था, अत: यह घटना इसके बाद की है। 'वल्लभ दिग्विजय' के अनुसार यह घटना संवत 1567 विक्रमी के (सन 1510 ई.) आसपास की है। इस प्रकार सूरदास 30-32 वर्ष की अवस्था में पुष्टिमार्ग में दीक्षित हुए होंगे।

विट्ठलनाथ का सत्संग

'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' से सूचित होता है कि सूरदास को गोसाई विट्ठलनाथ का यथेष्ट सत्संग प्राप्त हुआ था। गोसाई जी संवत 1628 विक्रमी (सन 1571 ई.) में स्थायी रूप से गोकुल में रहने लगे थे। उनका देहावसान संवत 1642 विक्रमी (सन 1585 ई.) में हुआ। 'वार्ता' से सूचित होता है कि सूरदास को देहावसान गोसाई जी के सामने ही हो गया था। सूरदास ने गोसाई जी के सत्संग का एकाध स्थल पर संकेत करते हुए ब्रज के जिस वैभवपूर्ण जीवन का वर्णन किया है, उससे विदित होता है कि गोसाई जी को सूरदास के जीवनकाल में ही सम्राट अकबर की ओर से वह सुविधा और सहायता प्राप्त हो चुकी थी, जिसका उल्लेख संवत 1634 (सन 1577 ई.) तथा संवत 1638 विक्रमी (सन 1581 ई.) के शाही फ़रमानों में हुआ है। अत: यह अनुमान किया जा सकता है कि सूरदास संवत 1638 (सन 1581 ई.) या कम से कम संवत 1634 विक्रमी के बाद तक जीवित रहे होंगे।

अकबर की सूरदास से भेंट

मौटे तौर पर कहा जा सकता है कि वे संवत 1640 विक्रमी अथवा सन् 1582-83 ई. के आसपास गोकुलवासी हुए होंगे। इन तिथियों के आधार पर भी उनका जन्म संवत 1535 विक्रमी (सन 1478 ई.) के आसपास पड़ता है, क्योंकि वे 30-32 वर्ष की अवस्था में पुष्टिमार्ग में दीक्षित हुए थे। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में अकबर और सूरदास की भेंट का वर्णन हुआ है। गोसाई हरिराय के अनुसार यह भेंट तानसेन ने करायी थी। तानसेन संवत 1621 (सन 1564 ई.) में अकबर के दरबार में आये थे। अकबर के राज्य काल की राजनीतिक घटनाओं पर विचार करते हुए यह अनुमान किया जा सकता है कि वे संवत 1632-33 (सन 1575-76 ई.) के पहले सूरदास से भेंट नहीं कर पाये होंगे, क्योंकि संवत 1632 में (सन 1575 ई.) उन्होंने फ़तेहपुर सीकरी में इबादतख़ाना बनवाया था तथा संवत 1633 (सन 1576 ई.) तक वे उत्तरी भारत के साम्राज्य को पूर्ण रूप में अपने अधीन कर उसे संगठित करने में व्यस्त रहे थे। गोसाई विट्ठलनाथ से भी अकबर ने इसी समय के आसपास भेंट की थी।



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