पिप्पलाद

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 11:02, 1 August 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - " महान " to " महान् ")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

पिप्पलाद महर्षि दधीचि जी के पुत्र थे। 'पिप्पलाद' का शाब्दिक अर्थ होता है- 'पीपल के पेड़ के पत्ते खाकर जीवित रहने वाला।' संस्कृत वाङ्मय कोश के प्रणेता डॉक्टर श्रीधर भास्कर वर्णेकर के अनुसार पिप्पलाद उच्च कोटि के एक ऋषि थे। इनकी माता का नाम 'गभस्तिनी' था। पिप्पलाद के पिता दधीचि ऋषि ने जिस स्थान पर देह त्याग किया था, वहाँ पर कामधेनु ने अपनी दुग्ध धारा छोड़ी थी। अत: उस स्थान को ‘दुग्धेश्वर’ कहा जाने लगा। पिप्पलाद उसी स्थान पर तपस्या किया करते थे, इसलिए उसे 'पिप्पलाद तीर्थ' भी कहते हैं।

जन्म

पिप्पलाद की माता के तीन नाम प्राप्त होते हैं-'गभस्तिनी', 'सुवर्चा' और 'सुभद्रा'। दधीचि के देहावसान के समय गभस्तिनी गर्भवती थी तथा अन्यत्र रहती थी। पति के निधन का समाचार विदित होते ही उन्होंने अपना पेट चीरकर गर्भ को बाहर निकाला तथा उसे पीपल वृक्ष के नीचे रखा। इसके पश्चात् वे सती हो गईं। गभस्तिनी के इस गर्भ का वृक्षों ने संरक्षण किया। आगे चलकर इस गर्भ से जो शिशु बाहर निकला वही पिप्पलाद कहलाया। पशु-पक्षियों ने इस शिशु का पालन पोषण किया तथा सोम ने उसे सभी विधाएं सिखाईं।

शनि को दण्ड

यह ज्ञात होने पर कि अपने मातृपितृवियोग के लिए शनि कारणीभूत है, पिप्पलाद ने शनि को आकाश से नीचे गिराया। शनि उनकी शरण में आये। तब शनि को यह चेतावनी देकर कि बारह वर्ष की आयु तक बालकों को वे भविष्य में पीड़ा न पहुँचाए, पिप्पलाद ने उन्हें छोड़ दिया। ऐसा कहते हैं कि 'गाधि' (विश्वामित्र के पिता), पिप्पलाद व कौशिक (विश्वामित्र) इस त्रयी का स्मरण करने से शनि को पीड़ा नहीं होती। देवताओं की सहायता से अपने माता-पिता से मिलने पिप्पलाद स्वर्ग लोक गए, वहाँ से लौटने पर उन्होंने गौतम की कन्या से विवाह कर लिया।

शाखा प्रवर्तन

वेदव्यास जी ने अपने शिष्य सुमन्तु को अथर्वसंहिता दी थी। पिप्पलाद उन्हीं सुमन्तु के शिष्य थे। इन्होंने अथर्ववेद की एक शाखा का प्रवर्तन किया था। अत: उस शाखा को 'पिप्पलाद' कहा जाने लगा। इन्होंने अथर्ववेद की एक पाठशाला भी स्थापित की थी। पिप्पलाद एक महान् दार्शनिक भी थे। जगत् की उत्पत्ति के बारे में कबंधी कात्यायन द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर इन्होंने इस प्रकार दिया-
"सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व जगतकर्ता थे। उन्होंने रे व प्राण की जोड़ी का निर्माण किया। प्राण आत्मा से उत्पन्न हुआ, और आत्मा पर छाया के समान फैल गया। मन की क्रिया से प्राण मानव शरीर में प्रवेश करते हुए स्वयं को पांच रूपों में विभाजित करता है।"

प्रवचन

पिप्पलाद ने गार्ग्य को बताया कि गहरी नींद में इन्द्रियाँ निष्क्रिय रहती हैं, केवल प्रतीति ही कार्य करती है। शैव्य सत्यकाम से वे कहते हैं, ओंकार की विभिन्न मात्राओं का ध्यान करने से जीव-ब्रह्मैक्य साध्य होता है। एक अन्य स्थान पर वे बताते हैं कि, ओंकार का ध्यान व योगमार्ग के द्वारा परब्रह्म की प्राप्ति होती है। 'शरभ उपनिषद' पिप्पलाद का महाशास्त्र है। इसमें ब्रह्मा, विष्णुमहेश की एकरूपता प्रतिपादित की गई है। भीष्म पितामह के निर्वाण के समय, पिप्पलाद अन्य मुनिजनों के साथ वहाँ पर उपस्थित थे।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 493 |

  1. सं.व.को. (द्वितीय खण्ड), पृष्ठ 494

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः