कश्यप: Difference between revisions

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Revision as of 11:16, 14 October 2011

कश्यप ॠषि

  • प्राचीन वैदिक ॠषियों में प्रमुख ॠषि, जिनका उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है। अन्य संहिताओं में भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एंव रह्स्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एंव अति प्राचीन कहा गया है।
  • ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उन्होंने 'विश्वकर्मभौवन' नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मणों ने कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया गया है।
  • शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया हैः

"स यत्कुर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत।
यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्म्स्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः कश्यपः।"

  • महाभारत एवं पुराणों में असुरों की उत्पत्ति एवं वंशावली के वर्णन में कहा गया है की ब्रह्मा के छः मानस पुत्रों में से एक 'मरीचि' थे जिन्होंने अपनी इच्छा से कश्यप नामक प्रजापति पुत्र उत्पन्न किया।
  • कश्यप ने दक्ष प्रजापति की 17 पुत्रियों से विवाह किया। दक्ष की इन पुत्रियों से जो सन्तान उत्पन्न हुई उसका विवरण निम्नांकित है -
  1. अदिति से आदित्य (देवता)
  2. दिति से दैत्य
  3. दनु से दानव
  4. काष्ठा से अश्व आदि
  5. अनिष्ठा से गन्धर्व
  6. सुरसा से राक्षस
  7. इला से वृक्ष
  8. मुनि से अप्सरागण
  9. क्रोधवशा से सर्प
  10. सुरभि से गौ और महिष
  11. सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु)
  12. ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि
  13. तिमि से यादोगण (जलजन्तु)
  14. विनता से गरुड़ और अरुण
  15. कद्रु से नाग
  16. पतंगी से पतंग
  17. यामिनी से शलभ
  1. दिति
  2. अदिति
  3. दनु
  4. विनता
  5. खसा
  6. कद्रु
  7. मुनि
  8. क्रोधा
  9. रिष्टा
  10. इरा
  11. ताम्रा
  12. इला
  13. प्रधा
  • इन्हीं से सब सृष्टि हुई।
  • कश्यप एक गोत्र का भी नाम है। यह बहुत व्यापक गोत्र है। जिसका गोत्र नहीं मिलता उसके लिए कश्यप गोत्र की कल्पना कर ली जाती है, क्योंकि एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई।
  • एक बार समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने वह कश्यप मुनि को दान कर दी। कश्यप मुनि ने कहा-'अब तुम मेरे देश में मत रहो।' अत: गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने रात को पृथ्वी पर न रहने का संकल्प किया। वे प्रति रात्रि में मन के समान तीव्र गमनशक्ति से महेंद्र पर्वत पर जाने लगे। [1]
  • सत युग में दक्ष प्रजापति की दो कन्याएं थी- कद्रु तथा विनता। उन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप के साथ हुआ। एक बार प्रसन्न होकर कश्यप ने उन दोनों को मनचाहा वर मांगने को कहा। कद्रु ने समान पराक्रमी एक सहस्त्र नाग-पुत्र मांगे तथा विनता ने उसके पुत्रों से अधिक तेजस्वी दो पुत्र मांगे। कालांतर में दोनों को क्रमश: एक सहस्त्र, तथा दो अंडे प्राप्त हुए। 500 वर्ष बाद कद्रु के अंडों के नाग प्रकट हुए। विनता ने ईर्ष्यावश अपना एक अंडा स्वयं ही तोड़ डाला। उसमें से एक अविकसित बालक निकला जिसका ऊर्ध्वभाग बन चुका था, अधोभाग का विकास नहीं हुआ थां उसने क्रुद्ध होकर मां को 500 वर्ष तक कद्रु की दासी रहने का शाप दिया तथा कहा कि यदि दूसरा अंडा समय से पूर्व नहीं फोड़ा तो वह पूर्णविकसित बालक मां को दासित्व से मुक्त करेगा। पहला बालक अरुण बनकर आकाश में सूर्य का सारथि बन गया तथा दूसरा बालक गरुड़ बनकर आकाश में उड़ गया।
  • विनता तथा कद्रु एक बार कहीं बाहर घूमने गयीं। वहां उच्चैश्रवा नामक घोड़े को देखकर दोनों की शर्त लग गयी कि जो उसका रंग ग़लत बतायेगी, वह दूसरी की दासी बनेगी। अगले दिन घोड़े का रंग देखने की बात रही। विनता ने उसका रंग सफ़ेद बताया था तथा कद्रु ने उसका रंग सफ़ेद, पर पूंछ का रंग काला बताया था। कद्रु के मन में कपट था। उसने घर जाते ही अपने पुत्रों को उसकी पूंछ पर लिपटकर काले बालों का रूप धारण करने का आदेश दिया जिससे वह विजयी हो जाय। जिन सर्पों ने उसका आदेश नहीं माना, उन्हें उसने शाप दिया कि वे जनमेजय के यज्ञ में भस्म हो जायें। इस शाप का अनुमोदन करते हुए ब्रह्मा ने कश्यप को बुलाया और कहा-'तुमसे उत्पन्न सर्पों की संख्या बहुत बढ़ गयी है। तुम्हारी पत्नी ने उन्हें शाप देकर अच्छा ही किया, अत: तुम उससे रुष्ट मत होना।' ऐसा कहकर ब्रह्मा ने कश्यप को सर्पों का विष उतारने की विद्या प्रदान की। विनता तथा कद्रु जब उच्चैश्रवा को देखने अगले दिन गयीं तब उसकी पूंछ काले नागों से ढकी रहने के कारण काली जान पड़ रही थी। विनता अत्यंत दुखी हुई तथा उसने कद्रु की दासी का स्थान ग्रहण किया। [2]
  • गरुड़ ने सर्पों से पूछा कि कौन-सा ऐसा कार्य है जिसको करने से उसकी माता को दासित्व से छुटकारा मिल जायेगा? उसके नाग भाइयों ने अमृत लाकर देने के लिए कहा। गरुड़ ने अमृत की खोज में प्रस्थान किया। उसको समस्त देवताओं से युद्ध करना पड़ा। सबसे अधिक शक्तिशाली होने के कारण गरुड़ ने सभी को परास्त कर दिया। तदनंतर वे अमृत के पास पहुंचा। अत्यंत सूक्ष्म रूप धारण करके वह अमृतघट के पास निरंतर चलने वाले चक्र को पार कर गया। वहां दो सर्प पहरा दे रहे थे। उन दोनों को मारकर वह अमृतघट उठाकर ले उड़ा। उसने स्वयं अमृत का पान नहीं किया था, यह देखकर विष्णु ने उसके निर्लिप्त भाव पर प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि कह बिना अमृत पीये भी अजर-अमर होगा तथा विष्णु-ध्वजा पर उसका स्थान रहेगा। गरुड़ ने विष्णु का वाहन बनना भी स्वीकार किया। मार्ग में इन्द्र मिले। इन्द्र ने उससे अमृत-कलश मांगा और कहा कि यदि सर्पों ने इसका पान कर लिया तो अत्यधिक अहित होगा। गरुड़ ने इन्द्र को बताया कि वह किसी उद्देश्य से अमृत ले जा रहा है। जब वह अमृत-कलश कहीं रख दे, इन्द्र उसे ले ले। इन्द्र ने प्रसन्न होकर गरुड़ को वरदान दिया कि सर्प उसकी भोजन सामग्री होंगे। तदनंतर गरुड़ अपनी मां के पास पहुंचा। उसने सर्पों को सूचना दी कि वह अमृत ले आया है। सर्प विनता को दासित्व से मुक्त कर दें तथा स्नान कर लें। उसने कुशासन पर अमृत-कलश रख दियां जब तक सर्प स्नान करके लौटे, इन्द्र ने अमृत चुरा लिया था। सर्पों ने कुशा को ही चाटा जिससे उनकी जीभ के दो भाग हो गए, अत: वे द्विजिव्ह कहलाने लगे [3]
  • इन्द्र को बालखिल्य महर्षियों से बहुत ईर्ष्या थी। रुष्ट होकर बालखिल्य ने अपनी तपस्या का भाग कश्यप मुनि को दिया तथा इन्द्र का मद नष्ट करने के लिए कहा। कश्यप ने सुपर्णा तथा कद्रु से विवाह किया। दोनों के गर्भिणी होने पर वे उन्हें सदाचार से घर में ही रहने के लिए कहकर अन्यत्र चले गये। उनके जाने के बाद दोनों पत्नियां ऋषियों के यज्ञों में जाने लगीं। वे दोनों ऋषियों के मना करने पर भी हविष्य को दूषित कर देती थीं। अत: उनके शाप से वे नदियां (अपगा) बन गयीं। लौटने पर कश्यप को ज्ञात हुआ। ऋषियों के कहने से उन्होंने शिवाराधना की। शिव के प्रसन्न होने पर उन्हें आशीर्वाद मिला कि दोनों नदियां गंगा से मिलकर पुन: नारी-रूप धारण करेंगी। ऐसा ही होने पर प्रजापति कश्यप ने दोनों का सीमांतोन्नयन संस्कार किया। यज्ञ के समय कद्रु ने एक आंख से संकेत द्वारा ऋषियों का उपहास किया। अत: उनके शाप से वह कानी हो गयी। कश्यप ने पुन: ऋषियों को किसी प्रकार प्रसन्न किया। उनके कथनानुसार गंगा स्नान से उसने पुन: पुर्वरूप धारण किया। [4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, सर्ग 76, श्लोक 11-16
  2. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 16, 20 । अ0 23 श्लोक 1 से 3 तक भा0 2।11।12।–
  3. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 28, अ0 29 श्लोक 1 से 14 तक, अ0 30, श्लोक 32 से 52 तक अध्याय 32, 33, 34
  4. ब्रह्म पुराण, 100 ।-

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