मैथिलीशरण गुप्त: Difference between revisions

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'''मैथिलीशरण गुप्त''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Maithili Sharan Gupt'', जन्म- [[3 अगस्त]], [[1886]], [[झाँसी]]; मृत्यु- [[12 दिसंबर]], [[1964]], [[झाँसी]]) [[खड़ी बोली]] के प्रथम महत्त्वपूर्ण [[कवि]] थे। [[महावीर प्रसाद द्विवेदी]] की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी [[कविता]] के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह [[ब्रजभाषा]] जैसी समृद्ध काव्य भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। [[हिन्दी]] कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है।<ref>{{cite web |url=http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%A3_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF |title=मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ |accessmonthday=25 जुलाई |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink=|format=पी एच पी |publisher=कविता कोश|language=हि्न्दी}}</ref>   
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
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Revision as of 11:45, 9 June 2015

मैथिलीशरण गुप्त
पूरा नाम मैथिलीशरण गुप्त
जन्म 3 अगस्त, 1886
जन्म भूमि चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 12 दिसंबर, 1964
मृत्यु स्थान चिरगाँव, झाँसी
अभिभावक सेठ रामचरण, काशीबाई
कर्म-क्षेत्र नाटककार, लेखक, कवि
मुख्य रचनाएँ पंचवटी, साकेत, जयद्रथ वध, यशोधरा, द्वापर, झंकार, जयभारत
भाषा ब्रजभाषा
विद्यालय राजकीय विद्यालय
पुरस्कार-उपाधि पद्मभूषण अलंकार, हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, मंगला प्रसाद पारितोषिक, साहित्य वाचस्पति, डी.लिट्. की उपाधि
पद राष्ट्रकवि, सांसद
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ

मैथिलीशरण गुप्त (अंग्रेज़ी: Maithili Sharan Gupt, जन्म- 3 अगस्त, 1886, झाँसी; मृत्यु- 12 दिसंबर, 1964, झाँसी) खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है।[1]

जीवन परिचय

मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। संभ्रांत वैश्य परिवार में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम 'सेठ रामचरण' और माता का नाम 'श्रीमती काशीबाई' था। पिता रामचरण एक निष्ठावान प्रसिद्ध राम भक्त थे।[2] इनके पिता 'कनकलता' उप नाम से कविता किया करते थे और राम के विष्णुत्व में अटल आस्था रखते थे। गुप्त जी को कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक देन में मिली थी। वे बाल्यकाल में ही काव्य रचना करने लगे। पिता ने इनके एक छंद को पढ़कर आशीर्वाद दिया कि "तू आगे चलकर हमसे हज़ार गुनी अच्छी कविता करेगा" और यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य हुआ।[3] मुंशी अजमेरी के साहचर्य ने उनके काव्य-संस्कारों को विकसित किया। उनके व्यक्तित्व में प्राचीन संस्कारों तथा आधुनिक विचारधारा दोनों का समन्वय था। मैथिलीशरण गुप्त जी को साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था।

शिक्षा

मैथिलीशरण गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव, झाँसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त गुप्त जी झाँसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहाँ इनका मन न लगा और दो वर्ष पश्चात ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया। लेकिन पढ़ने की अपेक्षा इन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिन्दी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। इन्हें 'आल्हा' पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था।

काव्य प्रतिभा

इसी बीच गुप्तजी मुंशी अजमेरी के संपर्क में आये और उनके प्रभाव से इनकी काव्य-प्रतिभा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अतः अब ये दोहे, छप्पयों में काव्य रचना करने लगे, जो कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में प्रकाशित होने वाले 'वैश्योपकारक' पत्र में प्रकाशित हुई। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जब झाँसी के रेलवे ऑफिस में चीफ़ कलर्क थे, तब गुप्तजी अपने बड़े भाई के साथ उनसे मिलने गए और कालांतर में उन्हीं की छत्रछाया में मैथिलीशरण जी की काव्य प्रतिभा पल्लवित व पुष्पित हुई। वे द्विवेदी जी को अपना काव्य गुरु मानते थे और उन्हीं के बताये मार्ग पर चलते रहे तथा जीवन के अंत तक साहित्य साधना में रत रहे। उन्होंने राष्ट्रीय आंदलनों में भी भाग लिया और जेल यात्रा भी की।[3]

लोकसंग्रही कवि

मैथिलीशरण गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि का क्रान्तिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 1936 में गांधी ने ही उन्हें मैथिली काव्य–मान ग्रन्थ भेंट करते हुए राष्ट्रकवि का सम्बोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्तजी की काव्य–कला में निखार आया और उनकी रचनाएँ 'सरस्वती' में निरन्तर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला काव्य जयद्रथ-वध आया। जयद्रथ-वध की लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनुदत सब मिलाकर, हिन्दी को लगभग 74 रचनाएँ प्रदान की हैं। जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं।

देश प्रेम

काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्रभक्ति की भावना भर दी थी। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्त्र धारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव से कविता के माध्यम से हो रहा था। बाद में इस राष्ट्रप्रेम की इस धारा को देश भर में प्रवाहित किया था, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने। thumb|left|मैथिलीशरण गुप्त

जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।

पिताजी के आशीर्वाद से वह राष्ट्रकवि के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे। धोती और बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में अपनी हवेली में बैठे रहा करते थे। उन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत है। वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परन्तु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शो में उनका विश्वास नहीं था। वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे।

महाकाव्य

मैथिलीशरण गुप्त को काव्य क्षेत्र का शिरोमणि कहा जाता है। मैथिलीशरण जी की प्रसिद्धी का मूलाधार भारत–भारती है। भारत–भारती उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। साकेत और जयभारत, दोनों महाकाव्य हैं। साकेत रामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। साकेत में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है। यशोधरा में गौतम बुद्ध की मानिनी पत्नी यशोधरा केन्द्र में है। यशोधरा की मनःस्थितियों का मार्मिक अंकन इस काव्य में हुआ है। विष्णुप्रिया में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी केन्द्र में है। वस्तुतः गुप्त जी ने रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा बांग्ला भाषा में रचित 'काव्येर उपेक्षित नार्या' शीर्षक लेख से प्रेरणा प्राप्त कर अपने प्रबन्ध काव्यों में उपेक्षित, किन्तु महिमामयी नारियों की व्यथा–कथा को चित्रित किया और साथ ही उसमें आधुनिक चेतना के आयाम भी जोड़े।

विविध धर्मों, सम्प्रदायों, मत–मतांतरों और विभिन्न संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता व समन्वय की भावना गुप्त जी के काव्य का वैशिष्ट्य है। पंचवटी काव्य में सहज वन्य–जीवन के प्रति गहरा अनुराग और प्रकृति के मनोहारी चित्र हैं, तो नहुष पौराणिक कथा के आधार के माध्यम से कर्म और आशा का संदेश है। झंकार वैष्णव भावना से ओतप्रोत गीतिकाव्य है, तो गुरुकुल और काबा–कर्बला में कवि के उदार धर्म–दर्शन का प्रमाण मिलता है। खड़ी बोली के स्वरूप निर्धारण और विकास में गुप्त जी का अन्यतम योगदान रहा।

भारत-भारती

'भारत-भारती', मैथिलीशरण गुप्तजी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति 'भारत-भारती' निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है। गुप्तजी की सृजनता की दक्षता का परिचय देने वाली यह पुस्तक कई सामाजिक आयामों पर विचार करने को विवश करती है। यह सामग्री तीन भागों में बाँटीं गयी है।
[[चित्र:Saket-maithilisharan-gupt.jpg|thumb|साकेत का आवरण पृष्ठ]] अतीत-खंड
भारत–भारती, यह भाग भारतवर्ष के इतिहास पर गर्व करने को पूर्णत: विवश करता है। उस समय के दर्शन, धर्म-काल, प्राकृतिक संपदा, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक-व्यवस्था जैसे तत्त्वों को संक्षिप्त रूप से स्मरण करवाया गया है। अतिशयोक्ति से दूर इसकी सामग्री संलग्न दी गयी टीका-टिप्पणियों के प्रमाण के कारण सरलता से ग्राह्य हो जाती हैं। मेगस्थनीज से लेकर आर. सी. दत्त. तक के कथनों को प्रासंगिक ढंग से पाठकों के समक्ष रखना एक कुशल नियोजन का सूचक है। निरपेक्षता का ध्यान रखते हुए निन्दा और प्रशंसा के प्रदर्शन हुए है, जैसे मुग़ल काल के कुछ क्रूर शासकों की निंदा हुयी है तो अकबर जैसे मुग़ल शासक का बखान भी हुआ है। अंग्रेज़ों की उनके विष्कार और आधुनिकीकरण के प्रचार के कारण प्रशंसा भी हुई है।

भारतवर्ष के दर्शन पर वे कहते हैं-
पाये प्रथम जिनसे जगत ने दार्शनिक संवाद हैं-
गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजली, व्यास और कणाद है।
नीति पर उनके द्विपद ऐसे हैं-
सामान्य नीति समेत ऐसे राजनीतिक ग्रन्थ हैं-
संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पंथ हैं।
सूत्रग्रंथ के सन्दर्भ में ऋषियों के विद्वता पर वे लिखते हैं-
उन ऋषि-गणों ने सूक्ष्मता से काम कितना है लिया,
आश्चर्य है, घट में उन्होंने सिन्धु को है भर दिया।

वर्तमान-खंड
दारिद्रय, नैतिक पतन, अव्यवस्था और आपसी भेदभाव से जूझते उस समय के देश की दुर्दशा को दर्शाते हुए, सामजिक नूतनता की माँग रखी गयी है।

अपनी हुयी आत्म-विस्मृति पर वे कहते हैं-
हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे,
है ध्यान अपने मान का, हममें बताओ अब किसे!
पूर्वज हमारे कौन थे, हमको नहीं यह ज्ञान भी,
है भार उनके नाम पर दो अंजली जल-दान भी।

नैतिक और धार्मिक पतन के लिए गुप्तजी ने उपदेशकों, संत-महंतों और ब्राह्मणों की निष्क्रियता और मिथ्या-व्यवहार को दोषी मान शब्द बाण चलाये हैं। इस तरह कविवर की लेखनी सामाजिक दुर्दशा के मुख्य कारणों को खोज़ उनके सुधार की माँग करती है। हमारे सामाजिक उत्तरदायित्त्व की निष्क्रियता को उजागर करते हुए भी 'वर्तमान खंड' आशा की गाँठ को बाँधे रखती है।

भविष्यत्-खंड

अपने ज्ञान, विवेक और विचारों की सीमा को छूते हुए राष्ट्कवि ने समस्या समाधान के हल खोजने और लोगों से उसके के लिए आवाहन करने का भरसक प्रयास किया है।

आर्य वंशज हिन्दुओं को देश पुनर्स्थापना के लिए प्रेरित करते हुए वे कहते हैं-
हम हिन्दुओं के सामने आदर्श जैसे प्राप्त हैं-
संसार में किस जाती को, किस ठौर वैसे प्राप्त हैं,
भव-सिन्धु में निज पूर्वजों के रीति से ही हम तरें,
यदि हो सकें वैसे न हम तो अनुकरण तो भी करें।

पुस्तक की अंत की दो रचनाएं 'शुभकामना' और 'विनय' कविवर की देशभक्ति की परिचायक है। तन में देश सद्भावना की ऊर्जा का संचार करने वाली यह दो रचनाएं किसी प्रार्थना से कम नहीं लगती।

वह अमर लेखनी ईश्वर से प्रार्थना करती है-
इस देश को हे दीनबन्धो!आप फिर अपनाइए,
भगवान्! भारतवर्ष को फिर पुण्य-भूमि बनाइये,
जड़-तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा पूर्ण है,
हेरम्ब! अब अवलंब देकर विघ्नहर कहलाइए।[4]

राष्ट्रकवि

अपने साहित्यिक गुरु महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से गुप्त जी ने 'भारत-भारती' की रचना की। 'भारत-भारती' के प्रकाशन से ही गुप्त जी प्रकाश में आये। उसी समय से आपको 'राष्ट्रकवि' के नाम से अभिनंदित किया गया। उनकी साहित्य साधना सन 1921 से सन 1964 तक निरंतर आगे बढती रही। गुप्त जी युग-प्रतिनिधि राष्ट्रीय कवि थे। इस अर्ध-शताब्दी की समस्त सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक हलचलों का प्रतिनिधित्व इनकी रचनाओं में मिल जाता है। इनके काव्य में राष्ट्र की वाणी मुखर हो उठी है। देश के समक्ष सबसे प्रमुख समस्या दासता से मुक्ति थी। गुप्त जी ने 'भारत-भारती' तथा अपनी अन्य रचनाओं के माध्यम से इस दिशा में प्रेरणा प्रदान की। इन्होने अतीत गौरव का भाव जगाकर वर्तमान को सुधारने की प्रेरणा दी। अपनी अभिलाषा अभिव्यक्त करते हुए वे कहते हैं-

"मानव-भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती।
भगवान् भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती।"

इस युग की प्रमुख समस्या हिन्दू-मुस्लिम एकता थी। गुप्त जी ने अपनी अनेक रचनाओं में दोनों की एकता पर बल दिया। 'काबा और कर्बला' में उन्होंने मुसलामानों की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास किया है। इस प्रकार गुप्त जी ने समस्त समस्याओं का राष्ट्रीय दृष्टि से समाधान प्रस्तुत किया है।

काव्य सौन्दर्य

मैथिलीशरण गुप्त अपनी भाव रश्मियों से हिन्दी साहित्य को प्रकाशित करने वाले युग कवि थे। 40 वर्ष तक निरंतर इनकी रचनाओं में युग स्वर गूंजता रहा। इन्होने गौरवपूर्ण अतीत को प्रस्तुत करने के साथ-साथ भविष्य का भी भव्य रूप प्रस्तुत किया-

"मैं अतीत नहीं भविष्यत् भी हूँ आज तुम्हारा।"

  • गुप्त जी मानवतावाद के पोषक और समर्थक थे। इनकी भगवत भावना महान थी। इनके काव्य में निर्गुण नारायण ही पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिए भूतल पर आते हैं।

'भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया,
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल ही को स्वर्ग बनाने आया।

  • गुप्त जी का काव्य मानस की प्रेरणा और प्रवृति का स्त्रोत है। आधुनिक काल का यह समन्वित रूप है। मानवीय चरित्र की जितनी भी संभावनाएँ संभव हैं, उस सबकी सृष्टि राम का चरित्र है।[3]

भाषा-शैली

शैलियों के निर्वाचन में मैथिलीशरण गुप्त ने विविधता दिखाई, किन्तु प्रधानता प्रबंधात्मक इतिवृतमय शैली की है। उनके अधिकांश काव्य इसी शैली में हैं- 'रंग में भंग', 'जयद्रथ वध', 'नहुष', 'सिद्धराज', 'त्रिपथक', 'साकेत' आदि प्रबंध शैली में हैं। यह शैली दो प्रकार की है- 'खंड काव्यात्मक' तथा 'महाकाव्यात्मक'। साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड काव्य के अंतर्गत आते हैं।

  • गुप्त जी की एक शैली विवरण शैली भी है। 'भारत-भरती' और 'हिन्दू' इस शैली में आते हैं।
  • तीसरी शैली गीत शैली है। इसमें गुप्त जी ने नाटकीय प्रणाली का अनुगमन किया है। 'अनघ' इसका उदाहरण है।
  • आत्मोदगार प्रणाली गुप्त जी की एक और शैली है, जिसमें 'द्वापर' की रचना हुई है।
  • नाटक, गीत, प्रबंध, पद्य और गद्य सभी के मिश्रण एक मिश्रित शैली है, जिसमें 'यशोधरा' की रचना हुई है।

इन सभी शैलियों में गुप्त जी को समान रूप से सफलता नहीं मिली। उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें इनका व्यक्तित्व झलकता है। पूर्ण प्रवाह है। भावों की अभिव्यक्ति में सहायक होकर उपस्थित हुई हैं। मैथिलीशरण गुप्त की काव्य भाषा खड़ी बोली है। इस पर उनका पूर्ण अधिकार है। भावों को अभिव्यक्त करने के लिए गुप्त जी के पास अत्यंत व्यापक शब्दावली है। उनकी प्रारंभिक रचनाओं की भाषा तत्सम है। इसमें साहित्यिक सौन्दर्य कला नहीं है। 'भारत-भरती' की भाषा में खड़ी बोली की खड़खड़ाहट है, किन्तु गुप्त जी की भाषा क्रमशः विकास करती हुई सरस होती गयी। संस्कृत के शब्द भण्डार से ही उन्होंने अपनी भाषा का भण्डार भरा है, लेकिन 'प्रियप्रवास' की भाषा में संस्कृत बहुला नहीं होने पायी। इसमें प्राकृत रूप सर्वथा उभरा हुआ है। भाव व्यंजना को स्पष्ट और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए संस्कृत का सहारा लिया गया है। संकृत के साथ गुप्त जी की भाषा पर प्रांतीयता का भी प्रभाव है। उनका काव्य भाव तथा कला पक्ष दोनों की दृष्टि से सफल है।[3]

काव्यगत विशेषताएँ

इनके काव्य की विशेषताएँ इस प्रकार उल्लेखित की जा सकती हैं -

  1. राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता
  2. गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता
  3. पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता
  4. नारी मात्र को विशेष महत्त्व
  5. प्रबंध और मुक्तक दोनों में लेखन
  6. शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग

प्रमुख कृतियाँ

thumb|'भारत–भारती' पुस्तक का आवरण पृष्ठ मैथिलीशरण के नाटकों में 'अनघ' जातक कथा से सम्बद्ध बोधिसत्व की कथा पर आधारित पद्य में लिखा गया नाटक है।

प्रमुख कृतियाँ [5]
नाम प्रकाशित वर्ष
जयद्रथ वध 1910
भारत–भारती 1912
पंचवटी 1925
साकेत 1933
यशोधरा 1932
विष्णुप्रिया 1957
झंकार 1929
जयभारत 1952
द्वापर 1936
कुणाल गीत
अजित
अर्जन और विसर्जन
प्रमुख नाटक[5]
मौलिक नाटक भास नाटक
अनघ स्वप्नवासवदत्ता
चरणदास प्रतिमा
तिलोत्तमा अभिषेक
निष्क्रिय प्रतिरोध अविमारक
विसर्जन

गुप्त जी की 52 से भी अधिक काव्य रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से कुछ अनुदित भी हैं। उन्होंने 'मधुप' उपनाम से 'विरहणी ब्रजांगन', 'प्लासी का युद्ध' और 'मेघनाद वध' नामक बंगला काव्य कृतियों का अनुवाद किया है तथा कुछ संस्कृत नाटकों के अनुवाद भी किये। इसी प्रकार 'रुबाइयात उमरखय्याम' भी उमर खयाम की रुबाईयों का हिन्दी रूपान्तर है। इनकी उल्लेखनीय मौलिक रचनाओं की तालिका में- रंग में भंग, जयद्रथ वध, पद्य प्रबंध, भारत भारती, शकुंतला, तिलोत्तमा, चंद्रहास, पत्रावली, वैतालिका, किसान, अनघ, पंचवटी, स्वदेश संगीत, हिन्दू, विपथगा, शक्ति विकटभट, गुरुकुल, झंकार, साकेत, यशोधरा, सिद्धराज, द्वापर, मंगलघट, नहुष, कुणालगीत , काबा और कर्बला, प्रदक्षिणा, जयभारत, विष्णुप्रिया आदि आते हैं।[3]

पुरस्कार व सम्मान

मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी के प्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि कहे जाते हैं। सन 1936 में इन्हें काकी में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था। इनकी साहित्य सेवाओं के उपलक्ष्य में आगरा विश्वविद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने इन्हें डी. लिट. की उपाधि से विभूषित भी किया। 1952 में गुप्त जी राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुए और 1954 में उन्हें 'पद्मभूषण' अलंकार से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 'साकेत' पर 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' तथा 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। 'हिन्दी कविता' के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।

मृत्यु

मैथिलीशरण गुप्त जी का देहावसान 12 दिसंबर, 1964 को चिरगांव में ही हुआ। इनके स्वर्गवास से हिन्दी साहित्य को जो क्षति पहुंची, उसकी पूर्ती संभव नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ (हि्न्दी) (पी एच पी) कविता कोश। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2010।
  2. तिवारी, नीशू। राष्ट्रप्रेम की भावना (हि्न्दी) (एच.टी.एम.एल) हिन्दी साहित्य मंच। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2010।
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 3.4 मैथिलीशरण गुप्त (हिन्दी) राजभाषा हिन्दी। अभिगमन तिथि: 04 जून, 2015।
  4. एस. तिवारी, अवनीश। मैथिलीशरण गुप्त और भारत-भारती (हि्न्दी) सृजनगाथा। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2010।
  5. 5.0 5.1 मैथिलीशरण गुप्त (हिन्दी) काव्यांचल। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2010।

बाहरी कड़ियाँ

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