अंगुलिमाल: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
('{{पुनरीक्षण}} *अंगुलिमाल एक बौद्ध कालीन एक दुर्दांत ड...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
(13 intermediate revisions by 8 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
'''अंगुलिमाल''' [[बौद्ध|बौद्ध कालीन]] एक दुर्दांत डाकू था जो [[प्रसेनजित|राजा प्रसेनजित]] के राज्य [[श्रावस्ती]] में निरापद जंगलों में राहगीरों को मार देता था और उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहनता था। इसीलिए उसका नाम '''अंगुलिमाल''' पड़ गया था। एक डाकू जो बाद मे संत बन गया। | |||
;परिचय | |||
लगभग ईसा के 500 [[वर्ष]] पूर्व [[कोशल]] देश की राजधानी श्रावस्ती में एक [[ब्राह्मण]] [[पुत्र]] के बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह बालक हिंसक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर हत्यारा डाकू बन सकता है। [[माता]]-[[पिता]] ने उसका नाम 'अहिंसक' रखा और उसे प्रसिद्ध [[तक्षशिला विश्वविद्यालय]] में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा। अहिंसक बड़ा मेधावी छात्र था और आचार्य का परम प्रिय भी था। सफलता ईर्ष्या का जन्म देती है। कुछ ईर्ष्यालु सहपाठियों ने आचार्य को अहिंसक के बारे में झूठी बातें बताकर उन्हें अहिंसक के विरुद्ध कर दिया। आचार्य ने अहिंसक को आदेश दिया कि वह सौ व्यक्तियों की उँगलियाँ काट कर लाए तब वे उसे आखिरी शिक्षा देंगे। अहिंसक गुरु की आज्ञा मान कर हत्यारा बन गया और लोगों की हत्या कर के उनकी उँगलियों को काट कर उनकी माला पहनने लगा। इस प्रकार उसका नाम '''अंगुलिमाल''' पड़ा गया।<ref>{{cite web |url=http://kavyakala.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html|title= अंगुलिमाल |accessmonthday=8 जून|accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | |||
;कथा | |||
भगवान [[बुद्ध]] एक समय उसी वन से जाने को उद्यत हुए तो अनेक पुरवासियों-श्रमणों ने उन्हें समझाया कि वे अंगुलिमाल विचरण क्षेत्र में न जायें। अंगुलिमाल का इतना भय था कि महाराजा प्रसेनजित भी उसको वश में नहीं कर पाए। | |||
भगवान [[बुद्ध]] मौन धारण कर चलते रहे। कई बार रोकने पर भी वे चलते ही गए। अंगुलिमाल ने दूर से ही भगवान को आते देखा। वह सोचने लगा - 'आश्चर्य है! पचासों आदमी भी मिलकर चलते हैं तो मेरे हाथ में पड़ जाते हैं, पर यह श्रमण अकेला ही चला आ रहा है, मानो मेरा तिरस्कार ही करता आ रहा है। क्यों न इसे जान से मार दूँ।' | |||
'''अंगुलिमाल''' ढ़ाल-तलवार और तीर-[[धनुष]] लेकर भगवान की तरफ दौड़ पड़ा। फिर भी वह उन्हें नहीं पा सका। अंगुलिमाल सोचने लगा - 'आश्चर्य है! मैं दौड़ते हुए [[हाथी]], [[घोड़ा|घोड़े]], रथ को पकड़ लेता हूँ, पर मामूली चाल से चलने वाले इस श्रमण को नहीं पकड़ पा रहा हूँ! बात क्या है। वह भगवान बुद्ध से बोला - 'खड़ा रह श्रमण!' इस पर भगवान बोले - 'मैं स्थित हूँ अँगुलिमाल! तू भी स्थित हो जा।' अंगुलिमाल बोला - 'श्रमण! चलते हुए भी तू कहता है 'स्थित हूँ' और मुझ खड़े हुए को कहता है 'अस्थित'। भला यह तो बता कि तू कैसे स्थित है और मैं कैसे अस्थित?' | |||
'''भगवान बुद्ध बोले''' - 'अंगुलिमाल! सारे प्राणियों के प्रति दंड छोड़ने से मैं सर्वदा स्थित हूँ। तू प्राणियों में असंयमी है। इसलिए तू अस्थित है।<ref name =''वेब दुनिया''/> अंगुलिमाल पर भगवान की बातों का असर पड़ा। उसने निश्चय किया कि मैं चिरकाल के पापों को छोड़ूँगा। उसने अपनी तलवार व हथियार खोह, प्रपात और नाले में फेंक दिए। भगवान के चरणों की वंदना की और उनसे [[प्रव्रज्या]] माँगी। 'आ भिक्षु!' कहकर भगवान ने उसे [[दीक्षा]] दी। | |||
;शिक्षा | |||
अंगुलिमाल पात्र - [[चीवर]] ले [[श्रावस्ती]] में भिक्षा के लिए निकला। किसी का फेंका ढेला उसके शरीर पर लगा। दूसरे का फेंका डंडा उसके शरीर पर लगा। तीसरे का फेंका ढेला कंकड़ उसके शरीर पर लगा। बहते ख़ून, फटे सिर, टूटे पात्र, फटी संघाटी के साथ अंगुलिमाल भगवान के पास पहुँचा। उन्होंने दूर से कहा- '[[ब्राह्मण]]! तूने कबूल कर लिया। जिस कर्मफल के लिए तुझे हज़ारों [[वर्ष]] [[नरक]] में पचना पड़ता, उसे तू इसी जन्म में भोग रहा है।<ref name =''वेब दुनिया''>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion/religion/buddhism/0704/21/1070421181_1.htm |title=धर्म दर्शन |accessmonthday= [[28 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=एच. टी.एम |publisher=वेब दुनिया |language= [[हिन्दी]]}}</ref> | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
{{संदर्भ ग्रंथ}} | {{संदर्भ ग्रंथ}} | ||
Line 17: | Line 18: | ||
<references/> | <references/> | ||
==बाहरी कड़ियाँ== | ==बाहरी कड़ियाँ== | ||
[[Category: | *[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/kidsworld/stories/0908/27/1090827122_1.htm अंगुलिमाल और बुद्ध] | ||
*[http://kavyakala.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html अंगुलिमाल] | |||
*[http://pustak.org/home.php?bookid=153 अंगुलिमाल] | |||
==सम्बंधित लेख== | |||
{{कथा}} | |||
{{पौराणिक चरित्र}} | |||
[[Category:बौद्ध धर्म]] | |||
[[Category:पौराणिक चरित्र]] | |||
[[Category:बौद्ध काल]] | |||
[[Category:कथा_साहित्य]] | |||
[[Category:पौराणिक कोश]][[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 10:04, 24 July 2018
अंगुलिमाल बौद्ध कालीन एक दुर्दांत डाकू था जो राजा प्रसेनजित के राज्य श्रावस्ती में निरापद जंगलों में राहगीरों को मार देता था और उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहनता था। इसीलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। एक डाकू जो बाद मे संत बन गया।
- परिचय
लगभग ईसा के 500 वर्ष पूर्व कोशल देश की राजधानी श्रावस्ती में एक ब्राह्मण पुत्र के बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह बालक हिंसक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर हत्यारा डाकू बन सकता है। माता-पिता ने उसका नाम 'अहिंसक' रखा और उसे प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा। अहिंसक बड़ा मेधावी छात्र था और आचार्य का परम प्रिय भी था। सफलता ईर्ष्या का जन्म देती है। कुछ ईर्ष्यालु सहपाठियों ने आचार्य को अहिंसक के बारे में झूठी बातें बताकर उन्हें अहिंसक के विरुद्ध कर दिया। आचार्य ने अहिंसक को आदेश दिया कि वह सौ व्यक्तियों की उँगलियाँ काट कर लाए तब वे उसे आखिरी शिक्षा देंगे। अहिंसक गुरु की आज्ञा मान कर हत्यारा बन गया और लोगों की हत्या कर के उनकी उँगलियों को काट कर उनकी माला पहनने लगा। इस प्रकार उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा गया।[1]
- कथा
भगवान बुद्ध एक समय उसी वन से जाने को उद्यत हुए तो अनेक पुरवासियों-श्रमणों ने उन्हें समझाया कि वे अंगुलिमाल विचरण क्षेत्र में न जायें। अंगुलिमाल का इतना भय था कि महाराजा प्रसेनजित भी उसको वश में नहीं कर पाए।
भगवान बुद्ध मौन धारण कर चलते रहे। कई बार रोकने पर भी वे चलते ही गए। अंगुलिमाल ने दूर से ही भगवान को आते देखा। वह सोचने लगा - 'आश्चर्य है! पचासों आदमी भी मिलकर चलते हैं तो मेरे हाथ में पड़ जाते हैं, पर यह श्रमण अकेला ही चला आ रहा है, मानो मेरा तिरस्कार ही करता आ रहा है। क्यों न इसे जान से मार दूँ।'
अंगुलिमाल ढ़ाल-तलवार और तीर-धनुष लेकर भगवान की तरफ दौड़ पड़ा। फिर भी वह उन्हें नहीं पा सका। अंगुलिमाल सोचने लगा - 'आश्चर्य है! मैं दौड़ते हुए हाथी, घोड़े, रथ को पकड़ लेता हूँ, पर मामूली चाल से चलने वाले इस श्रमण को नहीं पकड़ पा रहा हूँ! बात क्या है। वह भगवान बुद्ध से बोला - 'खड़ा रह श्रमण!' इस पर भगवान बोले - 'मैं स्थित हूँ अँगुलिमाल! तू भी स्थित हो जा।' अंगुलिमाल बोला - 'श्रमण! चलते हुए भी तू कहता है 'स्थित हूँ' और मुझ खड़े हुए को कहता है 'अस्थित'। भला यह तो बता कि तू कैसे स्थित है और मैं कैसे अस्थित?'
भगवान बुद्ध बोले - 'अंगुलिमाल! सारे प्राणियों के प्रति दंड छोड़ने से मैं सर्वदा स्थित हूँ। तू प्राणियों में असंयमी है। इसलिए तू अस्थित है।Cite error: The opening <ref>
tag is malformed or has a bad name अंगुलिमाल पर भगवान की बातों का असर पड़ा। उसने निश्चय किया कि मैं चिरकाल के पापों को छोड़ूँगा। उसने अपनी तलवार व हथियार खोह, प्रपात और नाले में फेंक दिए। भगवान के चरणों की वंदना की और उनसे प्रव्रज्या माँगी। 'आ भिक्षु!' कहकर भगवान ने उसे दीक्षा दी।
- शिक्षा
अंगुलिमाल पात्र - चीवर ले श्रावस्ती में भिक्षा के लिए निकला। किसी का फेंका ढेला उसके शरीर पर लगा। दूसरे का फेंका डंडा उसके शरीर पर लगा। तीसरे का फेंका ढेला कंकड़ उसके शरीर पर लगा। बहते ख़ून, फटे सिर, टूटे पात्र, फटी संघाटी के साथ अंगुलिमाल भगवान के पास पहुँचा। उन्होंने दूर से कहा- 'ब्राह्मण! तूने कबूल कर लिया। जिस कर्मफल के लिए तुझे हज़ारों वर्ष नरक में पचना पड़ता, उसे तू इसी जन्म में भोग रहा है।[2]
|
|
|
|
|