न्यायसूत्र का काल: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replacement - "डा." to "डॉ.")
 
(One intermediate revision by one other user not shown)
Line 1: Line 1:
'''न्याय दर्शन''' के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। म.म. हरप्रसाद शास्त्री इसका काल खृष्टीय द्वितीय शतक मानते हैं। सूत्रों में [[शून्यवाद]] का खण्डन पाकर डा. याकोबी महाशय न्यायसूत्रों का रचनाकाल खृष्टीय तृतीय शताब्दी मानते हैं। महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने 'भारतीय न्यायशास्त्र' के इतिहास में कहा है कि लक्षणसूत्रों का निर्माण [[मिथिला]] के निवासी [[महर्षि गौतम]] ने खृष्टपूर्व षष्ठ शतक में किया है और परीक्षासूत्रों की रचना खृष्टीय द्वितीय शतक में प्रभासतीर्थ के निवासी [[महर्षि अक्षपाद]] ने की है। फलत: उपलब्ध न्यायसूत्र दो भिन्न समयों में भिन्न ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। इनकी दो प्रमुख युक्तियाँ यहाँ देखी जाती हैं- [[बौद्ध दर्शन]] के शून्यवाद का खण्डन तथा [[कौटिल्य]] के द्वारा आन्वीक्षिकी विद्या में न्याय का अपरिग्रह एवं सांख्य, योग और लोकायत का परिग्रह।  
'''न्याय दर्शन''' के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। म.म. हरप्रसाद शास्त्री इसका काल खृष्टीय द्वितीय शतक मानते हैं। सूत्रों में [[शून्यवाद]] का खण्डन पाकर डॉ. याकोबी महाशय न्यायसूत्रों का रचनाकाल खृष्टीय तृतीय शताब्दी मानते हैं। महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने 'भारतीय न्यायशास्त्र' के इतिहास में कहा है कि लक्षणसूत्रों का निर्माण [[मिथिला]] के निवासी [[महर्षि गौतम]] ने खृष्टपूर्व षष्ठ शतक में किया है और परीक्षासूत्रों की रचना खृष्टीय द्वितीय शतक में प्रभासतीर्थ के निवासी [[महर्षि अक्षपाद]] ने की है। फलत: उपलब्ध न्यायसूत्र दो भिन्न समयों में भिन्न ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। इनकी दो प्रमुख युक्तियाँ यहाँ देखी जाती हैं- [[बौद्ध दर्शन]] के शून्यवाद का खण्डन तथा [[कौटिल्य]] के द्वारा आन्वीक्षिकी विद्या में न्याय का अपरिग्रह एवं सांख्य, योग और लोकायत का परिग्रह।  


किन्तु यहाँ विचार अपेक्षित है। न्यायसूत्र में जिस शून्यवाद का खण्डन किया है, वह [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|बौद्ध आचार्य नागार्जुन]] के प्रतिपादित शून्यवाद से सर्वथा भिन्न है। दोनों में केवल नाम का ही साम्य है। महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश ने अपनी बंगला न्याय दर्शन की भूमिका में परीक्षा करके दिखाया है कि न्यायसूत्र में पूर्वपक्ष रूप में समागत शून्यवाद तत्काल प्रसिद्ध तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] में संकेतित दर्शनान्तर का मत रहा है, जो आज लुप्त है, वह नागार्जुन का प्रसिद्ध शून्यवाद नहीं है। वस्तुस्थिति तो सर्वथा इसके विपरीत यह है कि नागार्जुन ने अपने प्रमाण विहेटन तथा वैदल्यसूत्र में [[न्याय दर्शन]] के पदार्थों का खण्डन किया है। अत: न्यायविद्या की प्रसिद्धि नागार्जुन से पहले ही माननी होगी और उसका प्रभाव नागार्जुन पर मानना होगा, न कि नागार्जुन का प्रभाव न्यायसूत्र पर।  
किन्तु यहाँ विचार अपेक्षित है। न्यायसूत्र में जिस शून्यवाद का खण्डन किया है, वह [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|बौद्ध आचार्य नागार्जुन]] के प्रतिपादित शून्यवाद से सर्वथा भिन्न है। दोनों में केवल नाम का ही साम्य है। महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश ने अपनी बंगला न्याय दर्शन की भूमिका में परीक्षा करके दिखाया है कि न्यायसूत्र में पूर्वपक्ष रूप में समागत शून्यवाद तत्काल प्रसिद्ध तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] में संकेतित दर्शनान्तर का मत रहा है, जो आज लुप्त है, वह नागार्जुन का प्रसिद्ध शून्यवाद नहीं है। वस्तुस्थिति तो सर्वथा इसके विपरीत यह है कि नागार्जुन ने अपने प्रमाण विहेटन तथा वैदल्यसूत्र में [[न्याय दर्शन]] के पदार्थों का खण्डन किया है। अत: न्यायविद्या की प्रसिद्धि नागार्जुन से पहले ही माननी होगी और उसका प्रभाव नागार्जुन पर मानना होगा, न कि नागार्जुन का प्रभाव न्यायसूत्र पर।  

Latest revision as of 09:52, 4 February 2021

न्याय दर्शन के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। म.म. हरप्रसाद शास्त्री इसका काल खृष्टीय द्वितीय शतक मानते हैं। सूत्रों में शून्यवाद का खण्डन पाकर डॉ. याकोबी महाशय न्यायसूत्रों का रचनाकाल खृष्टीय तृतीय शताब्दी मानते हैं। महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने 'भारतीय न्यायशास्त्र' के इतिहास में कहा है कि लक्षणसूत्रों का निर्माण मिथिला के निवासी महर्षि गौतम ने खृष्टपूर्व षष्ठ शतक में किया है और परीक्षासूत्रों की रचना खृष्टीय द्वितीय शतक में प्रभासतीर्थ के निवासी महर्षि अक्षपाद ने की है। फलत: उपलब्ध न्यायसूत्र दो भिन्न समयों में भिन्न ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। इनकी दो प्रमुख युक्तियाँ यहाँ देखी जाती हैं- बौद्ध दर्शन के शून्यवाद का खण्डन तथा कौटिल्य के द्वारा आन्वीक्षिकी विद्या में न्याय का अपरिग्रह एवं सांख्य, योग और लोकायत का परिग्रह।

किन्तु यहाँ विचार अपेक्षित है। न्यायसूत्र में जिस शून्यवाद का खण्डन किया है, वह बौद्ध आचार्य नागार्जुन के प्रतिपादित शून्यवाद से सर्वथा भिन्न है। दोनों में केवल नाम का ही साम्य है। महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश ने अपनी बंगला न्याय दर्शन की भूमिका में परीक्षा करके दिखाया है कि न्यायसूत्र में पूर्वपक्ष रूप में समागत शून्यवाद तत्काल प्रसिद्ध तथा उपनिषदों में संकेतित दर्शनान्तर का मत रहा है, जो आज लुप्त है, वह नागार्जुन का प्रसिद्ध शून्यवाद नहीं है। वस्तुस्थिति तो सर्वथा इसके विपरीत यह है कि नागार्जुन ने अपने प्रमाण विहेटन तथा वैदल्यसूत्र में न्याय दर्शन के पदार्थों का खण्डन किया है। अत: न्यायविद्या की प्रसिद्धि नागार्जुन से पहले ही माननी होगी और उसका प्रभाव नागार्जुन पर मानना होगा, न कि नागार्जुन का प्रभाव न्यायसूत्र पर।

उपर्युक्त दूसरी युक्ति के प्रसंग में कहना है कि आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत कौटिल्य ने जिस योगशास्त्र का उल्लेख किया है, वह वह न्यायविद्या ही है 'पतंजलि योग' नहीं। प्राचीन समय में न्याय तथा वैशेषिक दर्शनों के लिए योग या यौग पद का व्यवहार देखा जाता है। जैन दर्शन के अनेक प्राचीन ग्रन्थों में’[1] न्याय-वैशेषिक के लिए योग या यौग पद व्यवहृत हुआ है।

न्यायभाष्यकार ने 1.1.29 सूत्र के भाष्य में न्याय दर्शन के सिद्धान्त का प्रतिपादन योगशब्द से किया है, जो कि पतंजलि योग के सर्वथा विपरीत है। वस्तुत: कौटिल्य ने सांख्य पद से सांख्य और योग दोनों को लिया है। प्राचीन समय में निरीश्वर सांख्य से सांख्य दर्शन और सेश्वर सांख्य से पतंजलि योग का व्यवहार होता रहा है। अतएव एक नाम से ही कौटिल्य ने उन दोनों दर्शनों का संकेत किया है। इसका कारण प्राय: यह भी रहा है कि दोनों ही दर्शनों की चिन्तन-पद्धति एवं प्रमाण आदि के विषय में मतैक्य है। फलत: योग पद से यहाँ न्यायदर्शन ही ग्रन्थकार का विवक्षित रहा है।

न्याय दर्शन का प्रसिद्ध आरम्भवाद

न्याय दर्शन का प्रसिद्ध आरम्भवाद प्राय: इस योग पद के व्यवहार का मूल रहा है। क्योंकि दो परमाणुओं के योग से द्वयणुक की सृष्टि होती है और तीन द्वयणुक मिलकर त्रसरेणु बनते हैं। इस तरह परमाणुओं के योग से सृष्टि-प्रक्रिया का निर्वाह एवं आरम्भवाद की स्थापना के कारण शायद योगपद से प्राचीन समय में न्यायविद्या का परिग्रह किया गया हो। अथवा पाशुपत योग का प्रभाव न्याय दर्शन पर आदिकाल से ही रहा है, अत एव योग पद से न्यायविद्या और योग से नैयायिक की प्रसिद्धि हुई होगी। यहाँ उल्लिखित लोकायत, वह नास्तिक तार्किक के लिए प्रयुक्त है, जो उस समय में अपना स्थान बना चुके थे और समाज में इनकी प्रतिष्ठा नहीं थी। अतएव मनुस्मृति आदि में इस शास्त्र की जमकर निन्दा की गयी है।

निष्कर्ष यह हुआ कि न्यायसूत्र की रचना दो समयों में दो ऋषियों के द्वारा नहीं हुई है, अपितु एक समय में एक ही ऋषि द्वारा वह प्रणीत है। और वह ऋषि हैं महामुनि गौतम। इसमें जन-प्रसिद्धि भी अनुकूल है।

पितृमेघसूत्र

पितृमेघसूत्र[2] की व्याख्या में अनन्त यज्वा ने गौतम और अक्षपाद को एक ही ऋषि माना है। इनके मत में गौतम धर्मसूत्र और न्यायसूत्र के रचयिता एक ही ऋषि हैं। न्यायकोष में उद्धृत है कि गौतम के विचारमग्न रहने से एक बार कूप में गिर जाने पर प्रभु ने अनुग्रह करके उनके पैर में एक आँख दे दी। अनन्तवासुदेव के मन्दिर में उत्कीर्ण पद्य गौतम और अक्षपाद को दो नहीं मानता है। देवी पुराण आदि की कथा, महाकवि भास की उक्ति, रामायण तथा महाभारत में न्याय विद्या के प्रवर्तक गौतम ऋषि का उल्लेख इस पक्ष में प्रबल प्रमाण उपलब्ध हैं।

कौटिल्य इस न्यायविद्या से कथमापि अपरिचित नहीं हो सकतें हैं। अन्यथा वे ‘प्रदीप: सर्वविद्यानां’ आदि पद तथा ‘व्यसने अभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति’ आदि गद्य न्यायविद्या या आन्वीक्षिकी की प्रशंसा में नहीं कहते। अत: तर्क और प्रमाणों के आधार पर खृष्टपूर्व षष्ठ शतक ही न्यायसूत्र का रचनाकाल मानना उचित है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. षड्दर्शनसमुच्चय की नवम कारिका, इसकी गुणरत्नसूरिकृत व्याख्या एवं स्याद्वादमञ्जरी आदि में ऐसा देखा जाता है।
  2. हिस्ट्री आफ इण्डियन लॉजिक पृ0 48 में उद्धृत फुटनोट सं. 4 से गृहीत।

संबंधित लेख

श्रुतियाँ