न्याय दर्शन के प्रवर्तक: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 15: Line 15:
हेत्वागमसदाचरैर्यद् युक्तं तत्प्रगृह्यताम्॥<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत|महाभारत शान्तिपर्व]] 210.22</ref></poem>
हेत्वागमसदाचरैर्यद् युक्तं तत्प्रगृह्यताम्॥<ref>[[शान्ति पर्व महाभारत|महाभारत शान्तिपर्व]] 210.22</ref></poem>


{{लेख क्रम2 |पिछला=न्याय दर्शन का इतिहास|पिछला शीर्षक=न्याय दर्शन का इतिहास|अगला शीर्षक= न्याय दर्शन में प्रमेय का उल्लेख|अगला= न्याय दर्शन में प्रमेय का उल्लेख}}
{{लेख क्रम2 |पिछला=न्याय दर्शन का इतिहास|पिछला शीर्षक=न्याय दर्शन का इतिहास|अगला शीर्षक=न्याय दर्शन के प्रतिपाद्य |अगला=न्याय दर्शन के प्रतिपाद्य}}


{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2|पूर्णता=|शोध=}}
{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2|पूर्णता=|शोध=}}

Revision as of 12:51, 18 October 2015

न्याय दर्शन विषय सूची

किसी धर्म अथवा सम्प्रदाय चलाने वाले को प्रवर्तक कहा जाता है। मानभाउ सम्प्रदाय में इस शब्द का विशेष रुप से प्रयोग हुआ है।

आदि प्रवर्तक अक्षपाद गौतम

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

उपलब्ध न्याय दर्शन के आदि प्रवर्तक महर्षि गोतम या गौतम हैं। यही अक्षपाद नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने उपलब्ध न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया। न्यायवार्त्तिककार उद्योतकराचार्य ने इनको इस शास्त्र का कर्ता नहीं वक्ता कहा है। यदक्षपाद: प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद।[1] अत: वेदविद्या की तरह इस आन्वीक्षिकी को भी विश्वसृष्टा का ही अनुग्रहदान मानना चाहिए। महर्षि अक्षपाद से पहले भी यह विद्या अवश्य रही होगी। इन्होंने तो सूत्रों में बाँधकर इसे सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं पूर्णांग करने का सफल प्रयास किया है। इससे शास्त्र का एक परिनिष्ठित स्वरूप प्रकाश में आया और चिन्तन की धारा अपनी गति एवं पद्धति से आगे की ओर उन्मुख होकर बढ़ने लगी। वात्स्यायन ने भी न्यायभाष्य के उपसंहार में कहा है कि ऋषि अक्षपाद को यह विद्या प्रतिभात हुई थी- योऽक्षपादमृर्षि न्याय: प्रत्यभाद् वदतां वरम्।

न्याय-सूत्रों के परिसीलन से भी ज्ञात होता है कि इस शास्त्र की पृष्ठभूमि में अवश्य ही चिरकाल की गवेषणा तथा अनेक विशिष्ट नैयायिकों का योगदान रहा होगा। अन्यथा न्यायसूत्र इतने परिष्कृत एवं परिपूर्ण नहीं रहते। चतुर्थ अध्याय में सूत्रकार ने प्रावादुकों के मतों का उठा कर संयुक्तिक खण्डन किया है तथा अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा की है। इससे प्रतीत होता है कि उनके समक्ष अनेक दार्शनिकों के विचार अवश्य उपलब्ध थे। महाभारत में भी इसकी पुष्टि देखी जाती है। वहाँ कहा गया है कि न्याय दर्शन अनेक हैं उनमें से हेतु, आगम और सदाचार के अनुकूल न्यायशास्त्र पारिग्राह्य है-

न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभि:।
हेत्वागमसदाचरैर्यद् युक्तं तत्प्रगृह्यताम्॥[2]


left|30px|link=न्याय दर्शन का इतिहास|पीछे जाएँ न्याय दर्शन के प्रवर्तक right|30px|link=न्याय दर्शन के प्रतिपाद्य|आगे जाएँ


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायवार्त्तिक का मङ्गलाचरण।
  2. महाभारत शान्तिपर्व 210.22

संबंधित लेख

श्रुतियाँ