Difference between revisions of "दर्शन शास्त्र"

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अध्यात्म का मूलाधार दर्शन है। [[भारत]] में [[धर्म]] और दर्शन परस्पर ऐसे रचे-बसे हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। दोनों की परंपरा समान गति से निरंतर प्रवाहमान द्रष्टव्य है। भारत चिरकाल से एक दर्शन प्रधान देश रहा है। भौतिक जगत् का मिथ्यात्व तथा निराकार ब्रह्म का सत्य एवं सर्वव्यापकता यहाँ सदैव विचार का विषय बने रहे हैं।
अध्यात्म का मूलाधार दर्शन है। [[भारत]] में धर्म और दर्शन परस्पर ऐसे रचे-बसे हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। दोनों की परंपरा समान गति से निरंतर प्रवाहमान द्रष्टव्य है। [[भारत]] चिरकाल से एक दर्शन प्रधान देश रहा हे। भौतिक जगत का मिथ्यात्व तथा निराकार ब्रह्म का सत्य एवं सर्वव्यापकता यहाँ सदैव विचार का विषय बने रहे हैं। भारतीय दार्शनिक विचारधारा को समय की दृष्टि से चार कालों में विभाजित कर सकते हैं:
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#वैदिक काल में वेद से उपनिषद तक रचा साहित्य समाहित है।
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{{main|भारतीय दर्शन}}
#महाभारत काल- चार्वाक और गीता का युग।
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==विभाजन==
#बौद्ध काल- जैन तथा बौद्ध धर्म का युग।
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भारतीय दार्शनिक विचारधारा को समय की दृष्टि से चार कालों में विभाजित कर सकते हैं-
#उत्तर बौद्ध काल- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व तथा उत्तर मीमांसा का युग।  
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#[[वैदिक काल]] में [[वेद]] से [[उपनिषद]] तक रचा [[साहित्य]] समाहित है।
वैदिक काल में आर्यों की चिंताधारा उल्लास तथा ऐश्वर्य भोगने की कामना से युक्त थी। ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक ऋचाओं और मन्त्रों के अर्थ के साथ-साथ तत्कालीन [[पुराण]] और इतिहास के संदर्भ भी मिलते हैं। उनके माध्यम से कर्म की महत्ता बढ़ने लगी। उनकी सबसे बड़ी विशेषता [[वेद]] और वेदोत्तर साहित्य की मध्यवर्ती कड़ी होने में है। धीरे-धीरे आर्यों की विचारधारा अंतर्मुखी होने लगी। अत: [[उपनिषद|उपनिषदों]] की रचना हुई। औपनिषदिक साहित्य में अनेक कथाएं दार्शनिक तथ्यांकन करती है।
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#[[महाभारत|महाभारत काल]] - [[चार्वाक दर्शन|चार्वाक]] और [[गीता]] का युग।
*पिप्पलाद की कथा ब्रह्म जीव, जगत पर प्रकाश डालती है।  
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#बौद्ध काल - [[जैन]] तथा [[बौद्ध धर्म]] का युग।
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#उत्तर बौद्ध काल - [[न्याय दर्शन|न्याय]], [[वैशेषिक दर्शन|वैशेषिक]], [[सांख्य दर्शन|सांख्य]], [[योग दर्शन|योग]], [[पूर्व मीमांसा|पूर्व]] तथा [[उत्तर मीमांसा]] का युग।  
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==वैदिक काल==
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वैदिक काल में आर्यों की चिंताधारा उल्लास तथा ऐश्वर्य भोगने की कामना से युक्त थी। [[ब्राह्मण ग्रंथ|ब्राह्मण ग्रंथों]] में वैदिक ऋचाओं और [[मन्त्र|मन्त्रों]] के अर्थ के साथ-साथ तत्कालीन [[पुराण]] और [[इतिहास]] के संदर्भ भी मिलते हैं। उनके माध्यम से कर्म की महत्ता बढ़ने लगी। उनकी सबसे बड़ी विशेषता [[वेद]] और वेदोत्तर साहित्य की मध्यवर्ती कड़ी होने में है। धीरे-धीरे [[आर्य|आर्यों]] की विचारधारा अंतर्मुखी होने लगी। अत: [[उपनिषद|उपनिषदों]] की रचना हुई। औपनिषदिक साहित्य में अनेक कथाएं दार्शनिक तथ्यांकन करती हैं-
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*[[पिप्पलाद]] की कथा ब्रह्म जीव, जगत् पर प्रकाश डालती है।  
 
*[[नचिकेता]] भौतिक सुखों की नि:सारता पर।  
 
*[[नचिकेता]] भौतिक सुखों की नि:सारता पर।  
*[[सुकेशा]] के माध्यम से [[सोलह कला|सोलह कलाओं]] से युक्त पुरुष का अंकन है तो  
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*सुकेशा के माध्यम से सोलह कलाओं से युक्त पुरुष का अंकन है तो  
 
*[[वरुण देवता|वरुण]] और [[भृगु]] का वार्तालाप ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करता है।  
 
*[[वरुण देवता|वरुण]] और [[भृगु]] का वार्तालाप ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करता है।  
 
*[[छान्दोग्य उपनिषद|छांदोग्योपनिषद]] में अंकित [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] की कथा इन्द्रियों की नश्वरता को उजागर करती हे। ऐसी अनेक कथाएं उपलब्ध हैं।
 
*[[छान्दोग्य उपनिषद|छांदोग्योपनिषद]] में अंकित [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] की कथा इन्द्रियों की नश्वरता को उजागर करती हे। ऐसी अनेक कथाएं उपलब्ध हैं।
==वैदिक काल==
 
वैदिक ऋषियों ने एकांत अरण्यों (वनों) में रहकर जिन ग्रंथों की रचना की, वे [[आरण्यक]] कहलाये। इन ग्रंथों में तप को ज्ञान मार्ग का आधार मानकर तप पर ही बल दिया गया था। सूत्र ग्रंथों की रचना के साथ कर्मकांड की महत्ता बढ़ने लगी। भारतीय यज्ञ पद्धति का सम्यक विवेचन श्रौत सूत्रों में मिलता है, मानव जीवन के सोलह संस्कारों का विवेचन [[स्मृति]] सूत्रों में उपलब्ध है। स्मृतियों का परिगणन भी वैदिक साहित्य में ही होता है। इन ग्रंथों में वैदिक संस्कृति का स्वरूप अंकित किया गया है। यद्यपि [[मनुस्मृति]] तथा [[याज्ञवल्क्य स्मृति]] ही सर्वाधिक चर्चा का विषय बनीं किंतु स्मृतियों की संख्या पुराणों की भांति बहुत अधिक है। स्मृति ग्रंथ लोक जीवन के आचार-विचार, धर्मशास्त्र, आश्रम, वर्ण, राज्य और समाज आदि परक अनुशासन का अंकन प्रस्तुत करते हैं। कुल मिलाकर इस समस्त वैदिक साहित्य में निर्गुण परम सत्ता की विद्यमानता मान्य थी। उसी परम सत्ता की दैवीय शक्ति प्रकृति के विभिन्न तत्त्वों में समाहित मानी जाती थी। [[वरुण देवता|वरुण]], [[सूर्य देवता|सूर्य]], [[अग्निदेव|अग्नि]] भौतिक तत्त्व प्रदान करने वाले देवताओं के रूप में पूज्य थे। [[इन्द्र]] उन देवताओं के नियंता थे। तब लोग मंदिरों की स्थापना नहीं करते थे क्योंकि प्रकृति के अंश-अंश में उसकी अभिव्यक्ति का अनुभव करते थे। उनके आचार-विचार में कर्म, ज्ञान, उपासना की स्वीकृति थी। तत्कालीन संस्कृति में यज्ञ की प्रधानता थी।
 
==महाभारत काल==
 
[[महाभारत]] युग तक वैचारिक विरोध बढ़ चुका था। उस संघर्षमय समाज में एक ओर ज्ञान पर बल दिया जा रहा था दूसरी ओर कर्म पर। ऐसी विषम कड़ियों में एक ओर चार्वाक ने ज्ञान और कर्म की निरर्थकता पर प्रकाश डालकर जीवन के भौतिक सुख को उजागर करने का कार्य किया, तो दूसरी ओर सांख्य दर्शन के अंकुर भी तत्कालीन संस्कृति में उभरते दिखलायी पड़े। [[गीता|भगवद्गीता]] ने सामाजिक विषमताओं को दूर कर समानता लाने का कार्य किया। गीता ने नैतिक दृष्टिकोण को सर्वसुलभ बनाया। इसके माध्यम से प्रबुद्ध मानव समाज से इतर जनसाधारण में चार्वाकजन्य प्रवृत्ति तथा उपनिषदजन्य निवृत्ति तथा उपनिषदजन्य निवृत्ति का समन्वित रूप अंकित हुआ। गीता के उपदेश ने फलाकांक्षाविहीन कर्म में लगे रहने की ओर प्रवृत्त किया। इसके अनुसार समस्त कर्म ईश्वर के प्रति अर्पित होने चाहिए। अत: उत्तर वैदिक काल में सर्वेश्वरवाद का प्रचार हुआ, आत्मा-परमात्मा के अंश-अंशी संबंध का विवेचन हुआ। यज्ञों की अनेक रूपता का प्रसार हुआ। गृह यज्ञ, पंचमहायज्ञ, [[सोलह संस्कार]] संबंधी यज्ञों की संपन्नता भिन्न-भिन्न मन्त्रों से होती थी; अत: यज्ञ विषयक ज्ञान पुरोहितों तक सीमित होता गया। उत्तरोत्तर कर्मवाद की महत्त् बढ़ती गयी। ज्ञान तथा उपासना की अपेक्षा कर्मकांड अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया। यज्ञों में अनेक प्रकार के जीवों की आहुतियां दी जाने लगीं।
 
*इस प्रकार का रक्तपात जनसाधारण की उत्पीड़ा का कारण बन बैठा। उन विषय घड़ियों में नास्तिक दर्शनों ने जन्म लिया। नास्तिक का अभिप्राय वेदों में विश्वास न होने से था। चार्वाक, [[जैन]] तथा [[बौद्ध]] दर्शनवादी कर्मकांड की अतिशयता को वैदिक परंपरा मानकर उससे दूर हट रहे थे। उन्होंने मानव-समाज को लेकर जीवन की व्यावहारिक पक्ष की ओर ले जाने का प्रयास किया। [[चार्वाक दर्शन]] में सुखपूर्वक जीवनयापन करने पर बल दिया गया था।:
 
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतंपिवेत्।<br />
 
भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।।<br />
 
*जनता जनार्दन के लिए इस प्रकार के कथन इतने सुंदर थे कि यह दर्शन चार्वाक (चारु+वाक् =चार्वाक) कहलाया। यह भौतिकवादी, प्रत्यक्षवादी, निरीश्वरवादी, यदृच्छावादी, स्वभाववादी तथा सुखवादी दर्शन है। यह पांच तत्त्वों में से आकाश को स्वीकार नहीं करता, केवल प्रत्यक्ष पर विश्वास करता है। जीवन का लक्ष्य अधिकाधिक भौतिक सुख प्राप्त करना है।
 
  
==बौद्ध काल==
 
महाभारत युद्ध के उपरांत समाज कुछ ऐसी विचारधारा में फंस गया था कि मानवमात्र स्वयमेतर किसी पर विश्वास नहीं करना चाहता था। जैन तथा बौद्ध मत ने मानव समाज के आत्मविश्वास को पुष्ट कर उन्हें व्यावहारिक जीवन सुचारु रूप से जीने के लिए प्रेरित किया।
 
==जैन दर्शन==
 
जैन दर्शन में सत्य-अहिंसा पर विशेष बल दिया गया। यह निरीश्वरवादी दर्शन है। इसमें सृष्टि को अनादि तथा छह तत्त्वों से – जीव, पुद्गल (शरीर), धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश (अनत) तथा काल (मृत्यु) से बना हुआ माना है। साधना के सात सोपान हैं:
 
#जीव (आत्मा),
 
#अजीव (शरीर),
 
#प्रास्राव,
 
#बंध,
 
#संवर,
 
#निर्जरा तथा
 
#सप्तम् सोपान कैवल्य (मोक्ष) है।
 
==बौद्ध दर्शन==
 
बौद्ध दर्शन के प्रतिष्ठापक महात्मा [[बुद्ध]] (सिद्धार्थ) थे। महात्मा बुद्ध ने राजसी वैभव की निस्सारता का अनुभव किया तथा बोधिसत्त्व प्राप्त करके उन्होंने निरीश्वरवाद की स्थापना की। बौद्ध दर्शन के अनुसार चार आर्यसत्य हैं:
 
#सर्वंदु:खम्,
 
#दु:ख समुदाय,
 
#दु:ख निरोध,
 
#दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपद। न सांसारिक भोग में लिप्त रहना उचित है और न शरीर को व्यर्थ का कष्ट देना। आष्टांगिक मार्ग से इच्छाओं और तृष्णाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती हैं यह दर्शन क्षणिकवादी है। इस दर्शन में आत्मा के स्थायित्व की भी अस्वीकृति है, वह निरंतर परिवर्तनशील मानी गयी है। बौद्ध दर्शन में मुख्य रूप से सत्कर्म पर बल दिया गया है, वही निर्वाण तक पहुंचा सकता है।
 
  
प्राचीन परंपराओं का पालन करने वाले, वेद में आस्था रखने वाले लोग चार्वाक, जैन और बौद्ध मत की नास्तिक गतिविधि से विशेष आहत हुए। उन्होंने आस्तिक दार्शनिक विचारधारा को तर्क की कसौटी पर कसकर जीवन के निकट लाने का प्रयास किया। इस प्रकार समाज का एक वर्ग नास्तिक दर्शनों में विश्वास कर रहा था तो दूसरा वर्ग आस्तिक दर्शनों में आस्था रखता था। इस वर्ग के दार्शनिक आत्मा-परमात्मा के गुह्य रहस्यों को विभिन्न आयामों से देखकर अपनी अलग-अलग दर्शन पद्धतियों का परिचय दे रहे थे। आस्तिक दर्शनों की संख्या छह थी, अत: वे षड्दर्शन नाम से अभिहित हैं:
+
{{seealso|सांख्य दर्शन|योग दर्शन|न्याय दर्शन|वैशेषिक दर्शन|मीमांसा दर्शन|वेदांत}}
*[[न्याय दर्शन]] के प्रणेता [[गौतम]] मुनि थे। यह मत तर्क तथा ज्ञान पर बल देता है। इसके अनुसार ब्रह्म सर्वशक्तिसंपन्न, सर्वज्ञ तथा सत्य है। आत्मा भी सत्य, अजर तथा अमर है। तर्क चार प्रमाणों (अनुमान, उपमान, प्रत्यक्ष तथा आप्त शब्द) पर आधारित रहता है। इस दर्शन ने तर्क-प्रणाली को विकसित किया।
 
*[[वैशेषिक दर्शन]] के उद्भावक [[कणाद]] मुनि थे। उन्होंने दृश्य जगत की व्याख्या, उसे विभिन्न श्रेणियों में विभक्त करके की है, अत: इस दर्शन के अनुसार विश्व का सत्य-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय है। वैशेषिक ने परमाणुवाद पर फिर से दृष्टि डाली।
 
*[[सांख्य दर्शन]] के प्रणेता [[कपिल मुनि|कपिल]] मुनि थे। उन्होंने जड़ जंगम जगत की प्रहेलिका सुलझाते हुए पुरुष के साथ चौबीस प्राकृतिक तत्त्वों का आख्यान किया। इसी से यह सांख्य दर्शन नाम से अभिहित हुआ। कपिल मुनि के अनुसार जब तक प्रकृति की सत्त्व रज तम में साम्यावस्था है, उत्पत्ति नहीं होती। विषमावस्था में उत्पत्ति होती है, पुन: साम्य होने पर प्रलय में सब कुछ समाहित हो जाता है। पुरुष अजन्मा, सर्वशक्तिसंपन्न, अमर और अलिप्त है। वह केवल प्रकृति की साम्यावस्था को भंग करता है। चौबीस तत्त्वों की गणना इस प्रकार की है:
 
'''प्रकृति (सत्, रज, तम् से युक्त) 1+बुद्धि 1+अहंकार 1। (सत्, रज, तम के उद्वेलन से कुछ आंतरिक परिणाम उत्पन्न होते हैं तथा कुछ बाह्य): आंतरिक परिणाम = मन (1) + ज्ञानेंद्रियां (5)+ कर्मेंन्द्रियां (5)बाह्य परिणाम= तन्मात्रा (5)+ पंचभूत (5) फलत: सृष्टि का उद्भव होता है।'''
 
कपिल मुनि ने सांख्य दर्शन में मात्र सिद्धांतों का विवेचन किया है।
 
*[[योग दर्शन]] के उद्भावक [[पतंजलि]] ने सांख्य दर्शन के सिद्धांतों को कर्म से जोड़कर प्रस्तुत किया। उन्होंने चित्तवृत्ति निरोध पर बल दिया। उसको दो श्रेणियों में बांटा-
 
#शरीरपरक (हठयोग),
 
#मनपरक (राजयोग)।
 
हठयोग के अंतर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार का विवेचन है तथा राजयोग के अंतर्गत धारणा, ध्यान, समाधि का अंकन है।
 
इन्द्रियों के लोभ संवरण तथा चित्तवृत्ति निरोध के फलस्वरूप तुरीयावस्था (समाधि की अवस्था) तदुपरांत जीवनमुक्ति (जब तक शरीर नहीं त्यागा) और अंततोगत्वा देहमुक्ति (शरीर त्याग कर) की उपलब्धि होती है।
 
  
==पूर्व मीमांसा या कर्मकांड==
+
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}}
पूर्व मीमांसा की स्थापना करते हुए [[जैमिनी]] ने निरीश्वरवाद, बहुदेववाद तथा कर्मकांड का योग प्रस्तुत किया। उन्होंने नित्यनैमित्तिक कर्मों के साथ-साथ निषद्ध कर्मों पर भी विचार किया। उन्होंने आत्मा को अजर-अमर तथा वेदों को अपौरुषेय माना। ब्राह्य जगत का आख्यान तीन घटकों के रूप में किया-
 
#शरीर
 
#इन्द्रियां तथा
 
#विषय। उनके अनुसार अभीष्ट तत्त्व मोक्ष है। मोक्ष का अभिप्राय आत्मज्ञान से है।
 
==उत्तर मीमांसा या वेदांत दर्शन==
 
वेदांत दर्शन को [[उत्तर मीमांसा]] भी कहा जाता है। इसके प्रतिष्ठापक बादरायण व्यास थे। उन्होंने [[वेद]]त्रयी (ऋक्, यज् तथा साम) को विशेष महत्त्व दिया। उस युग तक [[अथर्ववेद]] की रचना नहीं हुई थी। इस दर्शन का मुख्याधार प्रस्थान त्रयी है अर्थात [[उपनिषद]], [[ब्रह्मसूत्र]] तथा [[गीता|भगवद्गीता]] नामक ग्रंथों को मुख्य रूप से ग्रहण किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्म जगत की उत्पत्ति का कारण है। वह केवल अनुभूति का विषय है। आत्मा स्वत:सिद्ध है तथा मोक्ष ब्रह्म में लीन होने का अथवा मुक्ति का पर्याय है। वेदांत में उपनिषदों के तत्त्व ज्ञान को विशेष रूप से ग्रहण किया गया है। वेदांत दर्शन का नाम ही वैदिक युग के अंतिम चरण का द्योतक है। उस युग में यह दर्शन सर्वाधिक प्रचलित हुआ क्योंकि बादरायण व्यास ने दार्शनिक व्याख्या के साथ-साथ समाजपरक अनेक तथ्यों को सामने रखा था; जैसे स्त्री-पुरुष समानता, शूद्रों के विषय में उदारता आदि। इसका सबसे बड़ा योगदान समस्त विश्व में एकता का भाव जगाने का प्रयास है। उपनिषदों में द्वैत तथा अद्वैत दर्शन का सुंदर विवेचन उपलब्ध है। बादरायण व्यास ने अब उसके साथ भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र के तथ्यों को समाविष्ट करके अत्यंत निखरा हुआ दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया। उन्होंने पुन: 'तत्त्वमसि', 'अहं ब्रह्मास्मि' की स्थापना की। इस दर्शन में एक धूमिल तत्त्व दर्शनीय है, वह यह कि बादरायण ने ब्रह्म को परिणाम और नित्य दृष्टि दोनों ही रूपों में अंकित किया है<ref>'जन्माद्यस्य यत:' तथा 'आत्मकृते: परिणामात्।'-वेदांत दर्शन-सूत्र 1।1।2 1।4।26</ref>जो कि परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं।<ref>उत्तरोत्पादे च पूर्वनिरोधाम्। असति प्रतिज्ञोपरोधो योगपद्यमान्यथा।-वेदांत दर्शन- सूत्र 2।2।20।21</ref>विरोधी तत्त्वजन्य उलझन को दूर करते हुए शंकराचार्य ने परिणामवाद को विवर्तवाद में परिणत किया। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद की प्रतिष्ठा की, जो मायावाद भी कहलाया। उन्होंने पारमार्थिक सत्ता को 'एक' न कहकर 'अद्वैत' कहा जिसका अंकन 'नेति, नेति' के माध्यम से ही संभव है।<ref>शांकरभाष्य 3।2।22</ref>जगत की संपूर्ण सत्ता को नकार कर ही ब्रह्म की सत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। शंकराचार्य ने ब्रह्म को 'एकता', 'अनेकता' से अलग 'उपाधिशून्य चेतन तत्त्व' माना है। माया भी अनिर्वचनीय है-वह न सत है, न असत। सत असत से विलक्षण है। उसका परिणामी उपादान कारण जगत है। जैसे रज्जु में सांप की अथवा सीपी में रजत की प्रतीत होती है- उसका परिणामी उपादान कारण अज्ञान है- वही माया है- जो सत असत विलक्षण है। अद्वैत ब्रह्म  की अवस्थाएं हैं- पारमार्थक अवस्था में वह अद्वैत ब्रह्म है, सत्य है। व्यावहारिक अवस्था में वह जीव, तथा प्रतिभासित अवस्था में स्वप्न कहलाता है। अत: जगत एवं संसार का विवर्तोपादन कारण ब्रह्म है। माया की उपाधि से ब्रह्म ही ईश्वर बन जाता है।<ref>छांदोग्योपनिषद भाष्य-शंकर- 3।14।2</ref>जैसे [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] से अनेक वस्तुओं का जन्म होता है, वैसे ही ईश्वर से जीव और विभिन्नताएं आभावित होती हैं।<ref>शांकरभाष्य 2।1।23</ref> इस अनेकता से ब्रह्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता वह मायावी मायाजन्य तत्त्वों से अप्रभावित रहता है।<ref>वृहदारण्यक उपनिषद भाष्य- शंकर- 2।4।12</ref>अविद्या की निवृत्ति से मोक्ष का साक्षात्कार होता है। शंकराचार्य के अद्वैतवाद ने समस्त [[भारत]] को प्रभावित किया। आज भी भारतीय समाज का प्रबुद्ध वर्ग इससे प्रभावित है। [[शैव मत]] का आधार भी अद्वैतवाद ही था। लगभग तीन शताब्दी बाद इसके प्रतिरोध में स्वर उठा। अद्वैतवाद का विरोध सहज कार्य नहीं था, किंतु भक्ति के प्रचार के निमत्त विभिन्न ग्रंथों की रचना हुई। उत्तरोत्तर दक्षिण प्रदेशीय [[आलवार]] अथवा आडवार भक्तों का महत्त्व बढ़ा- वैष्णव भक्ति का उद्भव हुआ। समसामयिक विद्वानों ने विभिन्न दर्शनों की स्थापना की। उनकी वैचारिकता का मूलाधार श्रीमद्भागवत था। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक ब्रह्म को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने विभिन्न कोणों से जगत, ब्रह्म और जीव की व्याख्या की। अत: शंकराचार्य की अद्वैतवादी विचारधारा के विरोध में मुख्य रूप से चार दार्शनिक संप्रदायों की स्थापना हुई:
 
#विशिष्ठाद्वैत,
 
#द्वैत,
 
#शुद्वाद्वैत तथा
 
#द्वैताद्वैत।
 
 
 
==विशिष्टाद्वैत दर्शन==
 
विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रतिष्ठापक [[रामानुजाचार्य]] थे। उनका जन्म सं0 1084 के आस-पास हुआ था। उनकी विचारधारा शंकराचार्य के अद्वैतवादी निर्गुण ब्रह्म के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया थी। उन्होंने सगुण ब्रह्म के साथ-साथ जगत और जीव की सत्ता की प्रतिष्ठा की। उन्होंने शरीर को विशेषण तथा आत्मतत्त्व को विशेष्य माना। शरीर विशिष्ट है, जीवात्मा अंश तथा अंतर्यामी परमात्मा अंशी है। संसार प्रारंभ होने से पूर्व '''सूक्ष्म चिद् चिद् विशिष्ट ब्रह्म''' की स्थिति होती है संसार एवं जगत की उत्पत्ति के उपरांत '''स्थूल चिद् चिद् विशिष्ट ब्रह्म''' की स्थिति रहती है। '''तयो एकं इति ब्रह्म''' अपनी सीमाओं की परिधि से छूट जाना ही मोक्ष है। मुक्तात्माएं ईश्वर की भांति हो जाती हैं- किंतु ईश्वर नहीं होतीं।
 
==द्वैतवाद==
 
द्वैतवाद के प्रणेता [[मध्वाचार्य]] थे। 'एक' से अधिक की स्वीकृति होने के कारण यह 'द्वैत' तथा 'त्रैत' दोनों ही नामों से अभिहित है। इस दर्शन के अनुसार प्रकृति, जीव तथा परमात्मा तीनों का अस्तित्व मान्य है। मध्वाचार्य ने 'भाव' और 'अभाव' का अंकन करते हुए भ्रम का मूल कारण अभाव को माना। इस मत में विभिन्न दर्शनों में से अनेक तत्त्व गृहीत हैं। द्वैत में भेद की धारणा का बड़ा महत्त्व है। भेद ही पदार्थ की विशेषता कहलाता है। अत: उसे सविशेषाभेद कहा गया। मुक्ति चार प्रकार की होती है: सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य।
 
==शुद्धाद्वैतवाद==
 
शुद्धाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक [[वल्लभाचार्य]] थे। उनके अनुसार ब्रह्म सत्य है। माया ब्रह्म की इच्छा का परिणाम मात्र है। इच्छा आंतरिक तत्त्व है अत: उसे ब्रह्म से अलग नहीं कर सकते। साथ ही उसके अस्तित्व को नकार भी नहीं सकते। माया का अस्तित्व है- अत: अद्वैतवाद अमान्य है।
 
==द्वैताद्वैतवाद==
 
द्वैताद्वैतवाद की स्थापना करते हुए [[निम्बार्काचार्य]] ने कहा कि जिस प्रकार पेड़ भी सत्य है तथा शाखाएं भी सत्य हैं, उनका अलग अस्तित्वांकन दृष्टिभेद के कारण से होता है- ठीक उसी प्रकार की स्थिति जगत, जीव और ब्रह्म की है। ब्रह्म निजानंद का अविराम भोक्ता होने के कारण अक्षर ब्रह कहलाता है। अपने अंश (जीव) और जगत के रूपों का द्रष्टा होने के कारण ईश्वर कहलाता है। कारण ब्रह्म का मुख्य कर्तृरूप जीव है अत: वह जीव ब्रह्म कहलाता है। चिद् अंश के तिरोभाव के कारण जीव जगत को जड़ देखता है, इसलिए जगत ब्रह्म नाम से भी अभिहित है। मुक्ति का अभिप्राय ब्रह्मा में लीन होना नहीं है। जीव ब्रह्म से अलग रहते हुए भी दृश्यमान जगत के ब्रह्म तत्त्व को देखने में समर्थ हो जाता है- स्वांतरिक आनंद का भोग करता है।
 
==भारतीय दार्शनिक==
 
भारतीय दार्शनिक परंपरा ने चिंतनशील मानव समाज को आत्मचिंतन के प्रति जागरूक रहकर आत्मिक विकास के लिए प्रेरित किया। समय-समय पर चिंताधारा के कोण भले ही बदलते हुए दिखायी पड़ते हैं किंतु यह दार्शनिक विचारधारा आस्तिकता, नैतिकता तथा अध्यात्म की आधारशिला के रूप में द्रष्टव्य है। भारतीय मिथक साहित्य में दर्शन के विविध रूपों को आख्यानों के माध्यम से आरक्षित रखा गया। कहीं-कहीं तो मिथक के माध्यम से ही दार्शनिक विचारों का क्लिष्ट रूप सर्वसुलभ हो पाया है। नचिकेता के माध्यम से संसार की निस्सारता- मुंडकोपनिषद में पक्षी युगल के माध्यम से जीव और आत्मा, देवासुर संग्राम के माध्यम से हृदयजन्य सुवृत्तियों एवं कुवृत्तियों का संघर्ष सहज रूप में अंकित है। राजा अलर्क की कथा जीवन के प्रति अनासक्ति पर प्रकाश डालती है। समुद्रपर्यंत पृथ्वी के स्वामित्व की निस्सारता को पहचानकर उन्होंने ध्यान योग से मोक्ष प्राप्त किया था। दार्शनिक परंपरा ने भारतीय समाज की चिंताधारा पर आध्यात्मिक अंकुश लगाये रखने का कार्य किया है।
 
{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{संस्कृत साहित्य}}
+
{{दर्शन साँचे सूची}}
{{दर्शन शास्त्र}}
+
[[Category:दर्शन]][[Category:संस्कृति]][[Category:संस्कृति कोश]][[Category:भारतीय संस्कृति के प्रतीक]][[Category:दर्शन कोश]][[Category:नया पन्ना]][[Category:हिन्दी विश्वकोश]]
 
 
[[Category:दर्शन कोश]]
 
 
 
 
 
 
__INDEX__
 
__INDEX__
 +
__NOTOC__

Latest revision as of 13:54, 30 June 2017

darshan parichay
adhyatm ka mooladhar darshan hai. bharat mean dharm aur darshan paraspar aise rache-base haian ki unhean alag nahian kiya ja sakata. donoan ki paranpara saman gati se nirantar pravahaman drashtavy hai. bharat chirakal se ek darshan pradhan desh raha hai. bhautik jagath ka mithyatv tatha nirakar brahm ka saty evan sarvavyapakata yahaan sadaiv vichar ka vishay bane rahe haian.

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

vibhajan

bharatiy darshanik vicharadhara ko samay ki drishti se char kaloan mean vibhajit kar sakate haian-

  1. vaidik kal mean ved se upanishad tak racha sahity samahit hai.
  2. mahabharat kal - charvak aur gita ka yug.
  3. bauddh kal - jain tatha bauddh dharm ka yug.
  4. uttar bauddh kal - nyay, vaisheshik, saankhy, yog, poorv tatha uttar mimaansa ka yug.

vaidik kal

vaidik kal mean aryoan ki chiantadhara ullas tatha aishvary bhogane ki kamana se yukt thi. brahman granthoan mean vaidik rrichaoan aur mantroan ke arth ke sath-sath tatkalin puran aur itihas ke sandarbh bhi milate haian. unake madhyam se karm ki mahatta badhane lagi. unaki sabase b di visheshata ved aur vedottar sahity ki madhyavarti k di hone mean hai. dhire-dhire aryoan ki vicharadhara aantarmukhi hone lagi. at: upanishadoan ki rachana huee. aupanishadik sahity mean anek kathaean darshanik tathyaankan karati haian-

  • pippalad ki katha brahm jiv, jagath par prakash dalati hai.
  • nachiketa bhautik sukhoan ki ni:sarata par.
  • sukesha ke madhyam se solah kalaoan se yukt purush ka aankan hai to
  • varun aur bhrigu ka vartalap brahm ke svaroop ko spasht karata hai.
  • chhaandogyopanishad mean aankit brihaspati ki katha indriyoan ki nashvarata ko ujagar karati he. aisi anek kathaean upalabdh haian.


  1. REDIRECTsaancha:inhean bhi dekhean


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

sanbandhit lekh