त्रिशिरा: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
m (Text replace - "==टीका-टिप्पणी==" to "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "करनेवाला" to "करने वाला") |
||
(11 intermediate revisions by 4 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
'''त्रिशिरा''' अथवा '''त्रिशिख''' लंकापति [[रावण]] के एक पुत्र का नाम है।<ref>पुस्तक- पौराणिक कोश, लेखक- राणा प्रसाद शर्मा, पृष्ठ संख्या- 209</ref> सूत्रद्रष्टा त्रिशिरा के तीन सिर थे। वह एक मुंह से सुरापान, दूसरे से सोमपान और तीसरे से अन्न ग्रहण करता था। वह त्वष्ट्र का पुत्र होने के कारण त्वांष्ट्र भी कहलाया। उसकी माँ असुरों की बहन थी, अत: त्रिशिरा देवपुरोहित होते हुए भी असुरों से अधिक प्रेम करता था। एक बार [[इन्द्र]] ने सोचा कि त्रिशिरा को असुर-पुरोहित बनाना असुरों की चाल है, अत: उन्होंने उसके तीनों सिरों को काट डाला। सोमपान करने वाला मुख गिरते ही 'कपिंजल' पक्षी बन गया। सुरापान वाला मुंह 'कलविड्क' (चिड़िया) बन गया और अन्न ग्रहण करने वाला 'तित्तिर' पक्षी बन गया। इन्द्र पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया। इन्द्र ने अपना पाप तीन भागों में विभक्त कर पृथ्वी, वृक्ष तथा स्त्रियों में स्थापित कर दिया, अत: [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] में सड़ने का, वृक्षों में गिरने का और स्त्रियों में रजस्वला का दोष उत्पन्न हो गया। इन्द्र के पातक को दूर करने के लिए सिंधु द्वीप के बांबरीष ऋषि ने जल अभिसिंचित किया। अभिषिक्त जल इन्द्र की मूर्धा पर डालकर इन्द्र की मलिनता को शुद्ध किया गया। <ref>ऋग्वेद, 10।8-9, ता0 ब्रा0 17।5।1<br /> | |||
सूत्रद्रष्टा त्रिशिरा के तीन सिर थे। वह एक मुंह से सुरापान, दूसरे से सोमपान और तीसरे से अन्न ग्रहण करता था। वह त्वष्ट्र का पुत्र होने के कारण त्वांष्ट्र भी कहलाया। उसकी | |||
जै0ब्रा0 2।135, 2।153-154</ref> | जै0ब्रा0 2।135, 2।153-154</ref> | ||
==महाभारत के अनुसार== | ==महाभारत के अनुसार== | ||
त्वष्टा नामक प्रसिद्ध देवता की इन्द्र के प्रति द्रोह बुद्धि हो गयी। अत: त्वष्टा ने एक तीन सिरवाले (त्रिशिरा) विश्वरूप नामक बालक को जन्म दिया। वह तेजस्वी था, इन्द्र का स्थान प्राप्त करने की प्रार्थना करता था। आरंभ में वह यज्ञ का होता बनकर देवताओं को प्रत्यक्ष तथा असुरों का भांजा था। अत: [[हिरण्यकशिपु]] को आगे करके समस्त असुर उसकी | त्वष्टा नामक प्रसिद्ध देवता की इन्द्र के प्रति द्रोह बुद्धि हो गयी। अत: त्वष्टा ने एक तीन सिरवाले (त्रिशिरा) विश्वरूप नामक बालक को जन्म दिया। वह तेजस्वी था, इन्द्र का स्थान प्राप्त करने की प्रार्थना करता था। आरंभ में वह यज्ञ का होता बनकर देवताओं को प्रत्यक्ष तथा असुरों का भांजा था। अत: [[हिरण्यकशिपु]] को आगे करके समस्त असुर उसकी माँ के पास पहुंचे और उसे अपने पुत्र को समझाने के लिए कहने लगे क्योंकि [[देवता|देवताओं]] की वृद्धि और असुरों का क्षय होता जा रहा था। माँ की आज्ञा अलंघनीय मानकर विश्वरूप ने राजा हिरण्यकशिपु के पुरोहित का स्थान ग्रहण किया। राजा के पूर्व पुरोहित, [[वसिष्ठ]] ने क्रोधवश शाप दिया कि वह (राजा) यज्ञपूर्ति से पूर्व ही किसी अभूतपूर्व प्राणी के हाथों मारा जायेगा। ऐसा ही होने पर विश्वरूप देवताओं का चिर विरोधी बन गया। वह एक मुख से [[वेद|वेदों]] का स्वाध्याय, दूसरे से सुरापान करता था तथा तीसरे से समस्त दिशाओं को ऐसे देखता था जैसे उन्हें पी जायेगा। साथ ही अन्न भक्षण भी करता था। इन्द्र ने भयभीत होकर अप्सराओं को उसकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। त्रिशिरा में इससे कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ, तो इन्द्र ने अपने वज्र से उसकी हत्या कर दी, फिर भी उसे संतोष नहीं हुआ। एक बढ़ई से इन्द्र ने उसके तीनों सिरों को खंडित करवाया। तीनों सिर कटने पर जिस मुंह से वह वेदपाठ करता था, उससे 'कपिंजल' पक्षी; जिससे सुरापान करता था, उससे 'गौरैये' तथा जिससे दिशाओं को देखता था, उससे 'तीतर' पक्षी प्रकट हुए। इन्द्र ने इस ब्रह्महत्या को एक वर्ष तक छिपाकर रखा, फिर समुद्र, पृथ्वी, वृक्ष तथा स्त्री समुदाय में ब्रह्महत्या के पाप को बांटकर स्वयं शुद्ध हो गया। <ref>महाभारत, [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योगपर्व]], अध्याय 9 । श्लोक 1 से 44 तक, शांतिपर्व, अ0 342।27-42।–</ref> | ||
==भागवत के अनुसार== | ==भागवत के अनुसार== | ||
*इन्द्र को अपनी शक्ति का मद हो गया था। एक बार उनकी सभा में बृहस्पति पहुंचे तो उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। [[बृहस्पति]] देवताओं का साथ छोड़कर अंतर्धान हो गयें फलस्वरूप [[शुक्राचार्य]] से आदिष्ट असुर बलवान होकर युद्ध विजयी होने लगे। देवता [[ब्रह्मा]] की सलाह से त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप की शरण में गये। उनकी नीति का पालन करके देवताओं ने पुन: विजय प्राप्त की। विश्वरूप के तीन सिर थे। उनके पिता देवता तथा | *इन्द्र को अपनी शक्ति का मद हो गया था। एक बार उनकी सभा में बृहस्पति पहुंचे तो उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] देवताओं का साथ छोड़कर अंतर्धान हो गयें फलस्वरूप [[शुक्राचार्य]] से आदिष्ट असुर बलवान होकर युद्ध विजयी होने लगे। देवता [[ब्रह्मा]] की सलाह से त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप की शरण में गये। उनकी नीति का पालन करके देवताओं ने पुन: विजय प्राप्त की। विश्वरूप के तीन सिर थे। उनके पिता देवता तथा माँ असुरों से संबद्ध थीं अत: वे लुक-छिपकर असुरों को भी आहुति दिया करते थे। इन्द्र को पता चला तो उसने उनके तीनों सिर काट डाले। विश्वरूप का सोमरस पान करने वाला मुंह 'पपीहा', सुरापान करने वाला 'गौरैया' तथा अन्न खानेवाला 'तीतर' हो गया। इन्द्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा, जिसे स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षों ने परस्पर बांटकर इन्द्र को दोष-मुक्त कर दिया। <ref> श्रीमद् भागवत, षष्ठ स्कंध, अध्याय 7-9</ref> | ||
*[[विश्वकर्मा]] देवताओं का प्रिय शिल्पी था। उसने [[इन्द्र]] के प्रति विद्वेष के कारण परम् रूपवान त्रिशिरा (विश्वरूप) नामक पुत्र को उत्पन्न किया। उसके तीन मुख थे। एक से वह [[वेद]] पढ़ता था, दूसरे से सुरापान करता था तथा तीसरे से समस्त विशाएं देखता था। वह घोर तपस्या करने लगा। ग्रीष्म में वह पेड़ से उलटा लटककर तथा शीत में पानी में निवास करते हुए तपस्या करता था। इन्द्र को भय हुआ कि कहीं वह इन्द्रासन न प्राप्त कर ले, अत: उसने [[उर्वशी]] आदि अप्सराओं को उसकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। वे असफल होकर लौट आयीं। इन्द्र ने क्रुद्ध होकर अपने वज्र से त्रिशिरा का सिर काट डाला। मुनि भूमि पर गिरकर भी तेजस्वी जीवित-सा जान पड़ रहा था, अत: इन्द्र ने तक्ष (बढ़ई) को यज्ञ में, सदा पशु का सिर देने का, लालच देकर उसके कुठार से त्रिशिरा के तीनों मस्तकों का छेदन करवाया। तत्काल तीनों मुखों से-<br /> | *[[विश्वकर्मा]] देवताओं का प्रिय शिल्पी था। उसने [[इन्द्र]] के प्रति विद्वेष के कारण परम् रूपवान त्रिशिरा (विश्वरूप) नामक पुत्र को उत्पन्न किया। उसके तीन मुख थे। एक से वह [[वेद]] पढ़ता था, दूसरे से सुरापान करता था तथा तीसरे से समस्त विशाएं देखता था। वह घोर तपस्या करने लगा। ग्रीष्म में वह पेड़ से उलटा लटककर तथा शीत में पानी में निवास करते हुए तपस्या करता था। इन्द्र को भय हुआ कि कहीं वह इन्द्रासन न प्राप्त कर ले, अत: उसने [[उर्वशी]] आदि अप्सराओं को उसकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। वे असफल होकर लौट आयीं। इन्द्र ने क्रुद्ध होकर अपने वज्र से त्रिशिरा का सिर काट डाला। मुनि भूमि पर गिरकर भी तेजस्वी जीवित-सा जान पड़ रहा था, अत: इन्द्र ने तक्ष (बढ़ई) को यज्ञ में, सदा पशु का सिर देने का, लालच देकर उसके कुठार से त्रिशिरा के तीनों मस्तकों का छेदन करवाया। तत्काल तीनों मुखों से-<br /> | ||
(1) कलविंक (सुरापान करने वाले मुख से), <br /> | (1) कलविंक (सुरापान करने वाले मुख से), <br /> | ||
(2) तीतर (समस्त दिशादर्शी मुख से) तथा <br /> | (2) तीतर (समस्त दिशादर्शी मुख से) तथा <br /> | ||
(3) कपिंजल (वेदाभ्यासी मुख से) आविर्भूत हुए।<br /> | (3) कपिंजल (वेदाभ्यासी मुख से) आविर्भूत हुए।<br /> | ||
इन्द्र प्रसन्न होकर चला गया। विश्वकर्मा ने दुर्घटना के विषय में जाना तो पुत्रोत्पत्ति के निमित्त यज्ञ करने लगा। यज्ञ से तपस्वी पुत्र पाकर विश्वकर्मा ने उसे अपना समस्त बल और | इन्द्र प्रसन्न होकर चला गया। विश्वकर्मा ने दुर्घटना के विषय में जाना तो पुत्रोत्पत्ति के निमित्त यज्ञ करने लगा। यज्ञ से तपस्वी पुत्र पाकर विश्वकर्मा ने उसे अपना समस्त बल और तेज़ प्रदान किया। पर्वतवत विशाल उस पुत्र का नाम वृत्र रखा क्योंकि वह दु:ख से रक्षा करने के लिए निमित्त उत्पन्न किया गया था। | ||
<ref>भागवत, 6।1।29, 6।2।–</ref> | <ref>भागवत, 6।1।29, 6।2।–</ref> | ||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | |||
== | {{पौराणिक चरित्र}}{{रामायण}} | ||
{{ | [[Category:पौराणिक चरित्र]] | ||
[[Category:पौराणिक कोश]][[Category:रामायण]] | |||
[[Category:पौराणिक कोश]] | [[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]] | ||
[[Category: | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 13:53, 6 September 2017
त्रिशिरा अथवा त्रिशिख लंकापति रावण के एक पुत्र का नाम है।[1] सूत्रद्रष्टा त्रिशिरा के तीन सिर थे। वह एक मुंह से सुरापान, दूसरे से सोमपान और तीसरे से अन्न ग्रहण करता था। वह त्वष्ट्र का पुत्र होने के कारण त्वांष्ट्र भी कहलाया। उसकी माँ असुरों की बहन थी, अत: त्रिशिरा देवपुरोहित होते हुए भी असुरों से अधिक प्रेम करता था। एक बार इन्द्र ने सोचा कि त्रिशिरा को असुर-पुरोहित बनाना असुरों की चाल है, अत: उन्होंने उसके तीनों सिरों को काट डाला। सोमपान करने वाला मुख गिरते ही 'कपिंजल' पक्षी बन गया। सुरापान वाला मुंह 'कलविड्क' (चिड़िया) बन गया और अन्न ग्रहण करने वाला 'तित्तिर' पक्षी बन गया। इन्द्र पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया। इन्द्र ने अपना पाप तीन भागों में विभक्त कर पृथ्वी, वृक्ष तथा स्त्रियों में स्थापित कर दिया, अत: पृथ्वी में सड़ने का, वृक्षों में गिरने का और स्त्रियों में रजस्वला का दोष उत्पन्न हो गया। इन्द्र के पातक को दूर करने के लिए सिंधु द्वीप के बांबरीष ऋषि ने जल अभिसिंचित किया। अभिषिक्त जल इन्द्र की मूर्धा पर डालकर इन्द्र की मलिनता को शुद्ध किया गया। [2]
महाभारत के अनुसार
त्वष्टा नामक प्रसिद्ध देवता की इन्द्र के प्रति द्रोह बुद्धि हो गयी। अत: त्वष्टा ने एक तीन सिरवाले (त्रिशिरा) विश्वरूप नामक बालक को जन्म दिया। वह तेजस्वी था, इन्द्र का स्थान प्राप्त करने की प्रार्थना करता था। आरंभ में वह यज्ञ का होता बनकर देवताओं को प्रत्यक्ष तथा असुरों का भांजा था। अत: हिरण्यकशिपु को आगे करके समस्त असुर उसकी माँ के पास पहुंचे और उसे अपने पुत्र को समझाने के लिए कहने लगे क्योंकि देवताओं की वृद्धि और असुरों का क्षय होता जा रहा था। माँ की आज्ञा अलंघनीय मानकर विश्वरूप ने राजा हिरण्यकशिपु के पुरोहित का स्थान ग्रहण किया। राजा के पूर्व पुरोहित, वसिष्ठ ने क्रोधवश शाप दिया कि वह (राजा) यज्ञपूर्ति से पूर्व ही किसी अभूतपूर्व प्राणी के हाथों मारा जायेगा। ऐसा ही होने पर विश्वरूप देवताओं का चिर विरोधी बन गया। वह एक मुख से वेदों का स्वाध्याय, दूसरे से सुरापान करता था तथा तीसरे से समस्त दिशाओं को ऐसे देखता था जैसे उन्हें पी जायेगा। साथ ही अन्न भक्षण भी करता था। इन्द्र ने भयभीत होकर अप्सराओं को उसकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। त्रिशिरा में इससे कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ, तो इन्द्र ने अपने वज्र से उसकी हत्या कर दी, फिर भी उसे संतोष नहीं हुआ। एक बढ़ई से इन्द्र ने उसके तीनों सिरों को खंडित करवाया। तीनों सिर कटने पर जिस मुंह से वह वेदपाठ करता था, उससे 'कपिंजल' पक्षी; जिससे सुरापान करता था, उससे 'गौरैये' तथा जिससे दिशाओं को देखता था, उससे 'तीतर' पक्षी प्रकट हुए। इन्द्र ने इस ब्रह्महत्या को एक वर्ष तक छिपाकर रखा, फिर समुद्र, पृथ्वी, वृक्ष तथा स्त्री समुदाय में ब्रह्महत्या के पाप को बांटकर स्वयं शुद्ध हो गया। [3]
भागवत के अनुसार
- इन्द्र को अपनी शक्ति का मद हो गया था। एक बार उनकी सभा में बृहस्पति पहुंचे तो उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। बृहस्पति देवताओं का साथ छोड़कर अंतर्धान हो गयें फलस्वरूप शुक्राचार्य से आदिष्ट असुर बलवान होकर युद्ध विजयी होने लगे। देवता ब्रह्मा की सलाह से त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप की शरण में गये। उनकी नीति का पालन करके देवताओं ने पुन: विजय प्राप्त की। विश्वरूप के तीन सिर थे। उनके पिता देवता तथा माँ असुरों से संबद्ध थीं अत: वे लुक-छिपकर असुरों को भी आहुति दिया करते थे। इन्द्र को पता चला तो उसने उनके तीनों सिर काट डाले। विश्वरूप का सोमरस पान करने वाला मुंह 'पपीहा', सुरापान करने वाला 'गौरैया' तथा अन्न खानेवाला 'तीतर' हो गया। इन्द्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा, जिसे स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षों ने परस्पर बांटकर इन्द्र को दोष-मुक्त कर दिया। [4]
- विश्वकर्मा देवताओं का प्रिय शिल्पी था। उसने इन्द्र के प्रति विद्वेष के कारण परम् रूपवान त्रिशिरा (विश्वरूप) नामक पुत्र को उत्पन्न किया। उसके तीन मुख थे। एक से वह वेद पढ़ता था, दूसरे से सुरापान करता था तथा तीसरे से समस्त विशाएं देखता था। वह घोर तपस्या करने लगा। ग्रीष्म में वह पेड़ से उलटा लटककर तथा शीत में पानी में निवास करते हुए तपस्या करता था। इन्द्र को भय हुआ कि कहीं वह इन्द्रासन न प्राप्त कर ले, अत: उसने उर्वशी आदि अप्सराओं को उसकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। वे असफल होकर लौट आयीं। इन्द्र ने क्रुद्ध होकर अपने वज्र से त्रिशिरा का सिर काट डाला। मुनि भूमि पर गिरकर भी तेजस्वी जीवित-सा जान पड़ रहा था, अत: इन्द्र ने तक्ष (बढ़ई) को यज्ञ में, सदा पशु का सिर देने का, लालच देकर उसके कुठार से त्रिशिरा के तीनों मस्तकों का छेदन करवाया। तत्काल तीनों मुखों से-
(1) कलविंक (सुरापान करने वाले मुख से),
(2) तीतर (समस्त दिशादर्शी मुख से) तथा
(3) कपिंजल (वेदाभ्यासी मुख से) आविर्भूत हुए।
इन्द्र प्रसन्न होकर चला गया। विश्वकर्मा ने दुर्घटना के विषय में जाना तो पुत्रोत्पत्ति के निमित्त यज्ञ करने लगा। यज्ञ से तपस्वी पुत्र पाकर विश्वकर्मा ने उसे अपना समस्त बल और तेज़ प्रदान किया। पर्वतवत विशाल उस पुत्र का नाम वृत्र रखा क्योंकि वह दु:ख से रक्षा करने के लिए निमित्त उत्पन्न किया गया था।
[5]
|
|
|
|
|