नामवर सिंह: Difference between revisions

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====पहली कविता====
====पहली कविता====
नामवर सिंह के स्कूल के छात्र –संघ से एक मासिक [[पत्रिका]] निकलती थी- 'क्षत्रिय मित्र'। सरस्वती प्रसाद सिंह उसके संपादक थे। आगे चलकर शम्भूनाथ सिंह उसके संपादक हुए। कुछ समय तक त्रिलोचन ने भी उसका संपादन किया था। कवि नामवर की [[कविता|कवितांए]] उसमें छपने लगी। पहली कविता 'दीवाली' शीर्षक से छपी। दूसरी कविता थी-'सुमन रो मत, छेड़ गाना': त्रिलोचन ने पढने की ओर, ख़ासकर आधुनिक साहित्य, उन्हें प्रेरित किया। उनकी ही प्रेरणा से उन्होंने पहली बार दो पुस्तकें ख़रीदी। पहली [[निराला]] की 'अनामिका',एवं दूसरी [[इलाचन्द्र जोशी]] द्रारा अनूदित गोर्की की 'आवारा की डायरी'। बनारस में सरसौली भवन में सागर सिंह नामक एक साहित्यिक व्यक्ति रहते थे। उनके घर पर '[[अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ|प्रगतिशील लेखक संघ]]' की एक गोष्ठी हुई थी, जिसमें त्रिलोचन कवि नामवर को भी ले गए थे यहीं पहली बार शिवदान सिंह चौहान और [[शमशेर बहादुर सिंह]] से परिचय हआ। यह बनारस की पहली गोष्ठी थी जिसमें उन्होंने कविता-पाठ किया।  
नामवर सिंह के स्कूल के छात्र –संघ से एक मासिक [[पत्रिका]] निकलती थी- 'क्षत्रिय मित्र'। सरस्वती प्रसाद सिंह उसके संपादक थे। आगे चलकर शम्भूनाथ सिंह उसके संपादक हुए। कुछ समय तक त्रिलोचन ने भी उसका संपादन किया था। कवि नामवर की [[कविता|कवितांए]] उसमें छपने लगी। पहली कविता 'दीवाली' शीर्षक से छपी। दूसरी कविता थी-'सुमन रो मत, छेड़ गाना': त्रिलोचन ने पढ़ने की ओर, ख़ासकर आधुनिक साहित्य, उन्हें प्रेरित किया। उनकी ही प्रेरणा से उन्होंने पहली बार दो पुस्तकें ख़रीदी। पहली [[निराला]] की 'अनामिका',एवं दूसरी [[इलाचन्द्र जोशी]] द्रारा अनूदित गोर्की की 'आवारा की डायरी'। बनारस में सरसौली भवन में सागर सिंह नामक एक साहित्यिक व्यक्ति रहते थे। उनके घर पर '[[अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ|प्रगतिशील लेखक संघ]]' की एक गोष्ठी हुई थी, जिसमें त्रिलोचन कवि नामवर को भी ले गए थे यहीं पहली बार शिवदान सिंह चौहान और [[शमशेर बहादुर सिंह]] से परिचय हआ। यह बनारस की पहली गोष्ठी थी जिसमें उन्होंने कविता-पाठ किया।  
==बनारस में मिले साहित्य के संस्कार==
==बनारस में मिले साहित्य के संस्कार==
कहा जाता है कि [[बनारस]] अपने आप में एक अद्भुत शहर है- तरह-तरह के मंदिर, [[गंगा]] के अनेक घाट, पंडे, [[पुरोहित]] और पाखंडी, पतली-पतली गलियां और सनातन काल से अपने पांडित्य, शास्त्रीयता के लिए प्रसिद्ध लोग! बनारस के विषय में नामवर सिंह कहते हैं कि [[काशी]] पंडे-पुरोहित और धार्मिक लोगों की है, किंतु उसमें [[कबीर]] और [[तुलसीदास]] की भी उपस्थिति है। उसी काशी में [[प्रेमचंद]], [[जयशंकर प्रसाद]] हुए, इसलिए हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि काशी केवल एक पुरातनपंथी शहर ही नहीं है, बल्कि उसके विरोधी लड़ने वाले विचारक भी हुए। उसी काशी में [[सारनाथ]] भी है और [[विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग|विश्वनाथ]] भी है। काशी में क्वींस कॉलेज है, जो कभी अंग्रेज़ियत का गढ़ था और गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज हुआ करता था, जिसमें [[संस्कृत]] के बड़े-बड़े विद्वान् हुआ करते थे, जिसे अंग्रेज़ों ने बनाया था और वहीं [[मदनमोहन मालवीय]] ने [[काशी हिंदू विश्वविद्यालय]] स्थापित किया। वहीं बाबू [[शिवप्रसाद गुप्त]] और आदरणीय [[नरेन्द्र देव]] ने [[काशी विद्यापीठ]] स्थापित किया। उस काशी में आया तो एक ओर [[नागरी प्रचारिणी सभा]] और दूसरी ओर [[प्रगतिशील लेखक संघ]] था। उसी काशी में प्रेमचंद का ‘हंस’ निकलता था, जो तब प्रगतिशील लेखक संघ का मुख पत्र था। उस काशी में जहां एक ओर भारत धर्म मंडल था, वहां कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर भी था। वहीं [[कांग्रेस]] का दफ्तर था, वहीं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का भी दफ्तर था। तो काशी के कई रूप हैं।
कहा जाता है कि [[बनारस]] अपने आप में एक अद्भुत शहर है- तरह-तरह के मंदिर, [[गंगा]] के अनेक घाट, पंडे, [[पुरोहित]] और पाखंडी, पतली-पतली गलियां और सनातन काल से अपने पांडित्य, शास्त्रीयता के लिए प्रसिद्ध लोग! बनारस के विषय में नामवर सिंह कहते हैं कि [[काशी]] पंडे-पुरोहित और धार्मिक लोगों की है, किंतु उसमें [[कबीर]] और [[तुलसीदास]] की भी उपस्थिति है। उसी काशी में [[प्रेमचंद]], [[जयशंकर प्रसाद]] हुए, इसलिए हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि काशी केवल एक पुरातनपंथी शहर ही नहीं है, बल्कि उसके विरोधी लड़ने वाले विचारक भी हुए। उसी काशी में [[सारनाथ]] भी है और [[विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग|विश्वनाथ]] भी है। काशी में क्वींस कॉलेज है, जो कभी अंग्रेज़ियत का गढ़ था और गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज हुआ करता था, जिसमें [[संस्कृत]] के बड़े-बड़े विद्वान् हुआ करते थे, जिसे अंग्रेज़ों ने बनाया था और वहीं [[मदनमोहन मालवीय]] ने [[काशी हिंदू विश्वविद्यालय]] स्थापित किया। वहीं बाबू [[शिवप्रसाद गुप्त]] और आदरणीय [[नरेन्द्र देव]] ने [[काशी विद्यापीठ]] स्थापित किया। उस काशी में आया तो एक ओर [[नागरी प्रचारिणी सभा]] और दूसरी ओर [[प्रगतिशील लेखक संघ]] था। उसी काशी में प्रेमचंद का ‘हंस’ निकलता था, जो तब प्रगतिशील लेखक संघ का मुख पत्र था। उस काशी में जहां एक ओर भारत धर्म मंडल था, वहां कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर भी था। वहीं [[कांग्रेस]] का दफ्तर था, वहीं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का भी दफ्तर था। तो काशी के कई रूप हैं।

Revision as of 07:34, 7 November 2017

नामवर सिंह
पूरा नाम डॉ. नामवर सिंह
जन्म 1 मई, 1927
जन्म भूमि वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, छायावाद, इतिहास और आलोचना, कविता के नए प्रतिमान आदि
भाषा हिन्दी
शिक्षा एम.ए., पी.एच.डी. (हिन्दी)
पुरस्कार-उपाधि साहित्य अकादमी पुरस्कार (1971), शलाका सम्मान” (1991) एवं “साहित्य भूषण सम्मान" (1993)
नागरिकता भारतीय
अद्यतन‎
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

नामवर सिंह (अंग्रेज़ी: Namvar Singh, जन्म: 1 मई, 1927) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और प्रमुख समकालीन आलोचक हैं।

जीवन परिचय

नामवर सिंह का जन्म 1 मई, 1927 को वाराणसी ज़िले के जीयनपुर नामक गाँव में हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से उन्होंने हिन्दी में एम.ए. और पी.एच डी. की उपाधि ली। 82 वर्ष की उम्र पूर्ण कर चुके नामवर जी विगत 65 से भी अधिक वर्षो से साहित्य के क्षेत्र में हैं। पिछले 30-35 वर्षों से वे भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर व्याख्यान भी दे रहे हैं। जब वे गांव में थे तो ब्रजभाषा में प्रायः शृंगारिक कविताएं लिखा करते थे। अब उन्होंने खड़ी बोली हिंदी में लिखना शुरू किया।

बनारस निवासी

नामवर सिंह बनारस के ईश्वर गंगी मुहल्ले में रहते थे। 1940 ई. में उन्होंने 'नवयुवक साहित्यिक संघ', नामक एवं साहित्यिक संस्था अपने सहयोगी पारसनाथ मिश्र सेवक के साथ निर्मित की थी, जिसमें हर सप्ताह एक साहित्यिक गोष्ठी होती थी। 1944 ई. से नामवर भी इसकी गंगी मुहल्ले में शामिल होते थे। ठाकुर प्रसाद सिंह ने ईश्वर गंगी मुहल्ले में 'भारतेन्दु विद्यालय' एवं 'ईश्वर गंगी पुस्तकालय' की स्थापना की थी। 1947 ई.में उनकी नियुक्ति बलदेव इंटर कॉलेज, बडा़गांव में हो गई। नवयुवक साहित्य संघ की ज़िम्मेदारी उन्होंने नामवर और सेवक जी को दे दी। इसकी गोष्ठियां टाकुर प्रसाद सिंह के बगैर भी बरसों चलती रही। बाद में इसका नाम सिर्फ 'साहित्यिक संघ' हो गया। इसकी गोष्टियों में बनारस के तत्कालीन प्रायः सभी साहित्यकार उपस्थित होते थे। नामवर के साथ त्रिलोचन एवं साही की इसमें नियमित उपस्थिति होती थी। नामवर की काव्य-प्रतिभा के निर्माण में इस संस्था का भी अप्रतिम योगदान है।

पहली कविता

नामवर सिंह के स्कूल के छात्र –संघ से एक मासिक पत्रिका निकलती थी- 'क्षत्रिय मित्र'। सरस्वती प्रसाद सिंह उसके संपादक थे। आगे चलकर शम्भूनाथ सिंह उसके संपादक हुए। कुछ समय तक त्रिलोचन ने भी उसका संपादन किया था। कवि नामवर की कवितांए उसमें छपने लगी। पहली कविता 'दीवाली' शीर्षक से छपी। दूसरी कविता थी-'सुमन रो मत, छेड़ गाना': त्रिलोचन ने पढ़ने की ओर, ख़ासकर आधुनिक साहित्य, उन्हें प्रेरित किया। उनकी ही प्रेरणा से उन्होंने पहली बार दो पुस्तकें ख़रीदी। पहली निराला की 'अनामिका',एवं दूसरी इलाचन्द्र जोशी द्रारा अनूदित गोर्की की 'आवारा की डायरी'। बनारस में सरसौली भवन में सागर सिंह नामक एक साहित्यिक व्यक्ति रहते थे। उनके घर पर 'प्रगतिशील लेखक संघ' की एक गोष्ठी हुई थी, जिसमें त्रिलोचन कवि नामवर को भी ले गए थे यहीं पहली बार शिवदान सिंह चौहान और शमशेर बहादुर सिंह से परिचय हआ। यह बनारस की पहली गोष्ठी थी जिसमें उन्होंने कविता-पाठ किया।

बनारस में मिले साहित्य के संस्कार

कहा जाता है कि बनारस अपने आप में एक अद्भुत शहर है- तरह-तरह के मंदिर, गंगा के अनेक घाट, पंडे, पुरोहित और पाखंडी, पतली-पतली गलियां और सनातन काल से अपने पांडित्य, शास्त्रीयता के लिए प्रसिद्ध लोग! बनारस के विषय में नामवर सिंह कहते हैं कि काशी पंडे-पुरोहित और धार्मिक लोगों की है, किंतु उसमें कबीर और तुलसीदास की भी उपस्थिति है। उसी काशी में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद हुए, इसलिए हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि काशी केवल एक पुरातनपंथी शहर ही नहीं है, बल्कि उसके विरोधी लड़ने वाले विचारक भी हुए। उसी काशी में सारनाथ भी है और विश्वनाथ भी है। काशी में क्वींस कॉलेज है, जो कभी अंग्रेज़ियत का गढ़ था और गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज हुआ करता था, जिसमें संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान् हुआ करते थे, जिसे अंग्रेज़ों ने बनाया था और वहीं मदनमोहन मालवीय ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित किया। वहीं बाबू शिवप्रसाद गुप्त और आदरणीय नरेन्द्र देव ने काशी विद्यापीठ स्थापित किया। उस काशी में आया तो एक ओर नागरी प्रचारिणी सभा और दूसरी ओर प्रगतिशील लेखक संघ था। उसी काशी में प्रेमचंद का ‘हंस’ निकलता था, जो तब प्रगतिशील लेखक संघ का मुख पत्र था। उस काशी में जहां एक ओर भारत धर्म मंडल था, वहां कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर भी था। वहीं कांग्रेस का दफ्तर था, वहीं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का भी दफ्तर था। तो काशी के कई रूप हैं।

व्यक्तित्व

नामवर के व्यक्तित्व के विकास में काशी की परंपरा और परिवेश की अहम भूमिका है। काशी उनके संस्कार में रचा-बसा है। लेकिन उनके निर्माण में आवाजापुर की साहित्यिक मंडली के बाद बनारस के हीवेट क्षत्रिय स्कूल के परिवेश की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जहां एक से एक तपे-तपाए शिक्षक थे। उस स्कूल के प्राचार्य पहले अंग्रेज़ हुआ करते थे, पहले भारतीय प्राचार्य जगदीश प्रसाद सिंह थे, जिन्हें लोग जे.पी. सिंह कहा करते थे। वे सेंट जोन्स कॉलेज, आगरा के पढ़े थे और अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। उस समय बनारस में लोगों की यह धारणा थी कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति राधाकृष्णन सबसे अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं और दूसरे जे.पी. सिंह। उनका अंग्रेज़ी कविता पढ़ाने का प्रभावशाली ढंग था। नामवर कहते हैं- ‘वे कविता बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे। ‘गोल्डन ट्रेजरी’ पढ़ाई थी। वे इस कदर पढ़ाते थे कि कविता याद तो हो ही जाती थी, यह भी कि कविता को किस तरह पढ़ना चाहिए। रिसाइट कैसे करना चाहिए, एप्रीशिएट कैसे करना चाहिए। समझाना कैसे चाहिए।'

खड़ी बोली का सवैया

‘तान के सोता रहा जल चादर, वायु-सा खींच जगा गया कोई।’ मैं जब उसे पढ़ता था तो वे साथ-साथ उसे गाते थे। बड़े सहृदय थे। संगीत के मर्मज्ञ थे। गाते अच्छा थे क्लासिकल। तो एक उनकी छाप पड़ी। उनकी याददाश्त अद्भुत थी। जिसका नाम वो एक बार सुन लेते थे, याद रहता था। स्कूल के हजार-बारह सौ विद्यार्थी और सबके नाम उन्हें याद थे। किसी को देख लेते तो नाम से बुलाते। एक बार की घटना है। कुछ विद्यार्थी छिपकर सिनेमा देखने गए थे और देर से लौटे थे। छह बजे शाम के बाद आए। सर्दियों के दिन थे। धुंधलका हो चुका था। तांगे पर से उतरकर जैसे ही अंदर घुसे कि प्रिंसिपल साहब छड़ी उठाकर सामने थे। टोका। बारहों विद्यार्थियों को खड़ा कर दिया। नए लड़के थे। सबका नाम पूछा और सबको जाने दिया। अगले दिन जिस क्रम से वे खड़े थे, उसी क्रम से नोटिस उनको पहुंच गया और उन्हें उसी क्रम से प्रिंसिपल रूम में बुलाया गया। तो अद्भुत स्मरणशक्ति थी। आवाज़ गूंजती थी।’ हीवेट क्षत्रिय स्कूल, इंटर में उदय प्रताप कॉलेज के नाम से जाना जाता था। पहले वहां इंटर तक की पढ़ाई होती थी। अब तो वह पी.जी. कॉलेज हो गया है। नामवर सिंह ने 1941 से 1947 तक वहां पढ़ाई की। जे.पी. सिंह के कारण स्कूल में कड़ा अनुशासन था। एक से एक शिक्षक थे। सुबह पी.टी. से लेकर शाम तक के हर घंटे का हिसाब था। पढ़ने का, खेलने का निर्धारित समय था। साप्ताहिक सांस्कृतिक-साहित्यिक कार्यक्रम होते थे।

बनारस में निराला का अभिनंदन

1947 ई. में उन्होंने बारहवीं की परीक्षा पास की। इसी वर्ष बनारस में निराला का अभिनंदन किया गया था। समारोह का आयोजन नन्ददुलारे वाजपेयी ने किया था। इस आयोजन में कई युवा कवियों ने काव्य-पाठ किया था। निराला के हाथों नामवर सिंह को सौ रुपए का पुरस्कार भी मिला था। इस अवसर पर निराला ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ का पाठ भी किया था। इसी वर्ष इलाहाबाद में प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन भी हुआ था, जिसमें पहली बार राहुल सांकृत्यायन से भेंट हुई। उन्होंने समारोह की अध्यक्षता की थी। अज्ञेय, सज्जाद जहीर, नेमिचन्द्र जैन, प्रभाकर माचवे आदि ने इसमें भाग लिया था। यशपाल ने ‘शेखर : एक जीवनी’ की कड़ी आलोचना करते हुए एक लेख पढ़ा था।

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश

नामवर सिंह ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में बी.ए. में प्रवेश किया तो रहने के लिए विश्वविद्यालय के पास ही संकटमोचन के इलाके में स्थित एक छात्रवास में आ गए। त्रिलोचन जी तब लंका मोहल्ले के अकनू भवन में रहते थे। प्राय: रोज सुबह गंगा-स्नान त्रिलोचन के साथ होता। वे इस क्रम में बताते हैं- अक्षर-स्नान के साथ-साथ गंगा-स्नान भी रोज ही होता था। 1947 से 1951 तक रोज गंगा-स्नान करता था। यह क्रम बरसात में भी चलता था। बल्कि बरसात में जो चिकनी मिट्टी घुली रहती, बदन पर कुछ मलना नहीं पड़ता। उनको लहरों से होड़ करने में आनंद आता था। गंगा की चिकनी मिट्टी से बढ़िया साबुन आज तक नहीं बना। हम पैदल भी खूब चलते थे। इक्के-घोड़े पर चलना अय्याशी-सी लगती। तैरने और चलने में त्रिलोचन जी का साथ रहता। एक बार की बात है। त्रिलोचन ने नामवर से कहा- मैंने तो बनारस की बाढ़ आई गंगा तैरकर पार की है, चलो, फिर पार करते हैं। वे दोनों तैरने लगे। थोड़ी दूर जाने के बाद त्रिलोचन ने कहा- छोड़ो, लौट चलो। पर नामवर आगे बढ़ गए। आधी नदी पार करने के बाद बांहें भरी और थकी हुई लगने लगीं। आगे बढ़ने की हिम्मत जवाब देने लगी। उस समय लगने लगा कि बचपन में तो डूबने से बच गया था, लेकिन आज तो डूब ही जाऊंगा। कोई बचाने वाला भी नहीं था। दूर-दूर तक कोई नाव भी नहीं दिखाई दे रही थी। लेकिन फिर हिम्मत जुटाई और केवल अपने को बचाया ही नहीं, गंगा भी पार की। शायद यह इसलिए कर सके कि तैरने का लगातार अभ्यास था।

योगदान

बनारस में नामवर की अभिन्नता ठाकुर प्रसाद सिंह से थी। वे व्यक्तित्व के तरल और सरल आदमी थे। वे बनारस के ईश्वरगंगी मुहल्ले में रहते थे। 1940 ई. में उन्होंने ‘नवयुवक साहित्यिक संघ’ नामक एवं साहित्यिक संस्था अपने सहयोगी पारसनाथ मिश्र ‘सेवक’ के साथ निर्मित की थी, जिसमें हर सप्ताह एक साहित्यिक गोष्ठी होती थी। 1944 ई. से नामवर भी इसकी गोष्ठियों में शामिल होते थे। ठाकुर प्रसाद सिंह ने ईश्वरगंगी मुहल्ले में भारतेन्दु विद्यालय एवं ‘ईश्वरगंगी पुस्तकालय’ की स्थापना की थी। 1947 ई. में उनकी नियुक्ति बलदेव इंटर कॉलेज, बड़ागांव में हो गई। ‘नवयुवक साहित्य संघ’ की जिम्मेवारी उन्होंने नामवर और सेवक जी को दे दी। इसकी गोष्ठियां ठाकुर प्रसाद सिंह के बगैर भी बरसों चलती रहीं। बाद में इसका नाम सिर्फ साहित्यिक संघ हो गया। इसकी गोष्ठियों में बनारस के तत्कालीन प्राय: सभी साहित्यकार उपस्थित होते थे। नामवर के साथ त्रिलोचन एवं विजयदेव नारायण साही की इसमें नियमित उपस्थिति होती थी। नामवर की काव्य-प्रतिभा के निर्माण में इस संस्था का भी अप्रतिम योगदान है।[1]

कार्यक्षेत्र

अध्यापन

नामवर सिंह ने अध्यापन कार्य का आरम्भ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (1953-1959) किया और फिर 'जोधपुर विश्वविद्यालय' में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष (1970-74), 'आगरा विश्वविद्यालय' के क.मु. हिन्दी विद्यापीठ के प्रोफेसर निदेशक (1974), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में 'भारतीय भाषा केन्द्र' के संस्थापक अध्यक्ष तथा हिन्दी प्रोफेसर (1965-92) और अब उसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर इमेरिट्स हैं। नामवर सिंह महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी रहे।

सम्पादन
  • “आलोचना” त्रैमासिक के प्रधान सम्पादक।
  • “जनयुग” साप्ताहिक (1965-67) और “आलोचना” का सम्पादन (1967-91)
  • 2000 से पुन: आलोचना का सम्पादन ।
  • 1992 से राजा राममोहन राय पुस्तकालय प्रतिष्ठान के अध्यक्ष
सम्पादित ग्रंथ
  1. कहानी:नई कहानी,
  2. कविता के नये प्रतिमान
  3. दूसरी परम्परा की खोज
  4. वाद विवाद सम्वाद
  5. कहना न होगा

कृतियाँ

  • 1996 बकलम खुद
  • हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग
  • पृथ्वीराज रासो की भाषा,
  • आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ,
  • छायावाद, इतिहास और आलोचना ।

सम्मान और पुरस्कार


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बनारस में मिले साहित्य के संस्कार (हिन्दी) हिन्दुस्तान लाइव। अभिगमन तिथि: 31 जनवरी, 2015।

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