जगन्नाथदास 'रत्नाकर': Difference between revisions

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जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने [[भक्ति काल]] की भाव प्रवणता और [[रीति काल]] की श्रंगारिकता को अपनी [[कविता]] के नए बाने में सजाया। उन्होंने भक्ति भावना से समन्वित कविताएँ भी लिखीं, वीरों के वृत्तांत भी लिखे, नीति को भी कविता में उतारा; लेकिन उनका मन मूलतः श्रंगारिकता की अभिव्यक्ति में ही अधिक रमा है और इस श्रंगारिकता की ख़ूबी यह रही कि इसके अंतर्गत [[भक्ति]], स्नेह, प्रेम, वात्सल्य सभी का समाहार हो गया। उनका [[ग्रंथ]] ’उद्धवशतक‘ मानव मन की अद्भुत चित्रशाला बनकर सामने आया। [[श्रृंगार रस]] के निरूपण में उनका कोई भी समकालीन उनके समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। श्रृंगार के दोनों पक्षों के निरूपण में जगह-जगह तीव्र भावावेश के क्षणों में ऐसा लगता है मानो [[कवि]] स्वयं ही द्रविभूत होकर कविता बन उपस्थित हुआ हो। भाव-चित्रों के इस शिल्पी ने ’उद्धवशतक‘ में अनुभवों की योजना, मूक मौन व्यजंना और रससिक्त मर्मस्पर्शी सूक्तियों का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस कृति का ताना-बाना भावुकता के अतिरेक से पैदा होने वाले कृतिम उद्वेग से नहीं, बल्कि [[हृदय]] की सच्ची पुकार से बुना गया है, जहाँ विरहणी ब्रजांगनाओं के आँसुओं में प्रेम की स्निग्धता, अनुभूति की आर्द्रता उनके विश्वास में संयम की धार भी है।
जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने [[भक्ति काल]] की भाव प्रवणता और [[रीति काल]] की श्रंगारिकता को अपनी [[कविता]] के नए बाने में सजाया। उन्होंने भक्ति भावना से समन्वित कविताएँ भी लिखीं, वीरों के वृत्तांत भी लिखे, नीति को भी कविता में उतारा; लेकिन उनका मन मूलतः श्रंगारिकता की अभिव्यक्ति में ही अधिक रमा है और इस श्रंगारिकता की ख़ूबी यह रही कि इसके अंतर्गत [[भक्ति]], स्नेह, प्रेम, वात्सल्य सभी का समाहार हो गया। उनका [[ग्रंथ]] ’उद्धवशतक‘ मानव मन की अद्भुत चित्रशाला बनकर सामने आया। [[श्रृंगार रस]] के निरूपण में उनका कोई भी समकालीन उनके समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। श्रृंगार के दोनों पक्षों के निरूपण में जगह-जगह तीव्र भावावेश के क्षणों में ऐसा लगता है मानो [[कवि]] स्वयं ही द्रविभूत होकर कविता बन उपस्थित हुआ हो। भाव-चित्रों के इस शिल्पी ने ’उद्धवशतक‘ में अनुभवों की योजना, मूक मौन व्यजंना और रससिक्त मर्मस्पर्शी सूक्तियों का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस कृति का ताना-बाना भावुकता के अतिरेक से पैदा होने वाले कृतिम उद्वेग से नहीं, बल्कि [[हृदय]] की सच्ची पुकार से बुना गया है, जहाँ विरहणी ब्रजांगनाओं के आँसुओं में प्रेम की स्निग्धता, अनुभूति की आर्द्रता उनके विश्वास में संयम की धार भी है।


जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने अपनी कृतियों से सामर्थ्य का झंडा ऊँचा कर दिखाया है, जिसमें शब्द और अर्थ एक हो गये हैं, जहाँ शब्द अपने आप बोलते हैं, मानो शब्द का अर्थ-विधान ही अपने पट खोलता चलता हो। उन्होंने [[अलंकार|अलंकारों]] के बड़े ही संतुलित और अपेक्षित प्रयोगों द्वारा भाव-व्यजंना को उत्कर्ष दिया है। उनके सांगरूपक तो [[हिन्दी]] में विरले ही हैं। परंपरा की कई लीकों से हटकर लोकोक्तियों और मुहावरों का अलग अंदाज है। रीति काव्य परंपरा का प्रेम और ब्रजभाषा को उनकी दृष्टि की सीमा भले ही माना जाये, लेकिन यह ब्रजभाषा के प्रति अपूर्व निष्ठा थी, जो ब्रजभाषा को अपने सशक्त मानदंडो में सुरक्षित रखना चाहती थी। सामयिक आंदोलनों से परे रहकर उन्होंने ब्रजभाषा साहित्य का परिष्कार करने और मानवीय अंतर्मन का कोना-कोना झाँकने में अपनी शक्ति लगा दी। नारी मन का कोई छोर ऐसा नहीं बचा, जिसे उनके शब्दों के कोमल और तीव्र स्पर्श ने छुआ न हो।<ref name="अभिव्यक्ति"/>
जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने अपनी कृतियों से सामर्थ्य का झंडा ऊँचा कर दिखाया है, जिसमें शब्द और अर्थ एक हो गये हैं, जहाँ शब्द अपने आप बोलते हैं, मानो शब्द का अर्थ-विधान ही अपने पट खोलता चलता हो। उन्होंने [[अलंकार|अलंकारों]] के बड़े ही संतुलित और अपेक्षित प्रयोगों द्वारा भाव-व्यजंना को उत्कर्ष दिया है। उनके सांगरूपक तो [[हिन्दी]] में विरले ही हैं। परंपरा की कई लीकों से हटकर लोकोक्तियों और मुहावरों का अलग अंदाज़है। रीति काव्य परंपरा का प्रेम और ब्रजभाषा को उनकी दृष्टि की सीमा भले ही माना जाये, लेकिन यह ब्रजभाषा के प्रति अपूर्व निष्ठा थी, जो ब्रजभाषा को अपने सशक्त मानदंडो में सुरक्षित रखना चाहती थी। सामयिक आंदोलनों से परे रहकर उन्होंने ब्रजभाषा साहित्य का परिष्कार करने और मानवीय अंतर्मन का कोना-कोना झाँकने में अपनी शक्ति लगा दी। नारी मन का कोई छोर ऐसा नहीं बचा, जिसे उनके शब्दों के कोमल और तीव्र स्पर्श ने छुआ न हो।<ref name="अभिव्यक्ति"/>
==निधन==
==निधन==
सन [[1930]], [[कलकत्ता]] में हुए 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य' के जगन्नाथजी अध्यक्ष नियुक्त हुए थे। [[ब्रजभाषा]] के कवियों में आधुनिक कवियों के तौर पर ये सर्वथा विशिष्ट हैं। [[22 जून]], [[1932]] को इनकी मृत्यु के पश्चात् 'कविवर बिहारी' शीर्षक ग्रंथ की रचना का प्रकाशन इनके पौत्र रामकृण ने किया था। मरणोपरांत ‘सूरसागर’ सम्पादित [[ग्रंथ]] का प्रकाशन आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निरीक्षण में हुआ।
सन [[1930]], [[कलकत्ता]] में हुए 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य' के जगन्नाथजी अध्यक्ष नियुक्त हुए थे। [[ब्रजभाषा]] के कवियों में आधुनिक कवियों के तौर पर ये सर्वथा विशिष्ट हैं। [[22 जून]], [[1932]] को इनकी मृत्यु के पश्चात् 'कविवर बिहारी' शीर्षक ग्रंथ की रचना का प्रकाशन इनके पौत्र रामकृण ने किया था। मरणोपरांत ‘सूरसागर’ सम्पादित [[ग्रंथ]] का प्रकाशन आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निरीक्षण में हुआ।

Latest revision as of 06:36, 10 February 2021

जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
पूरा नाम जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
जन्म सन् 1866
जन्म भूमि वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 22 जून, 1932
मृत्यु स्थान हरिद्वार
अभिभावक पुरुषोत्तमदास
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र कवि, लेखक, सम्पादक
मुख्य रचनाएँ 'गंगावतरण', 'श्रृंगारलहरी', 'गंगालहरी', 'विष्णुलहरी', 'उद्धवशतक', 'हिंडोल' आदि।
भाषा ब्रजभाषा
विद्यालय क्वींस कॉलेज, काशी
शिक्षा बी.ए.
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी इन्होंने अंग्रेज़ी कवि पोप की प्रसिद्ध रचना ’एसे ऑन क्रिटिसिज्म‘ का रोला छंद में अनुवाद भी किया।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

जगन्नाथदास 'रत्नाकर' (अंग्रेज़ी: Jagannathdas Ratnakar, जन्म- 1866 ई., काशी, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 22 जून, 1932 ई.) भारत के प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। उन्हें आधुनिक युग के श्रेष्ठ ब्रजभाषा के कवियों में गिना जाता है। प्राचीन संस्कृति, मध्यकालीन हिन्दी काव्य, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, हिन्दी, आयुर्वेद, संगीत, ज्योतिष तथा दर्शनशास्त्र इन सभी की अच्छी जानकारी जगन्नाथदास जी को थी। इन्होंने प्रचुर साहित्य सेवा की थी। ब्रजभाषा काव्यधारा के अंतिम सर्वश्रेष्ठ कवि जगन्नाथदास ’रत्नाकर‘ आधुनिक हिंदी साहित्य में अनुभूतियों के सशक्त चित्रकार, ब्रजभाषा के समर्थ कवि और एक अद्वितीय भाष्यकार के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने खड़ीबोली के युग में जीवित व्यक्ति की तरह हृदय के प्रत्येक स्पंदन को महसूस करने वाली ब्रजभाषा का आदर्श खड़ा किया, जिसके हर शब्द की अपनी गति और लय है।[1]

जीवन परिचय

बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर' का जन्म संवत 1923 (1866 ई.) में भाद्रपद शुक्ल पक्ष पंचमी को काशी (वर्तमान बनारस) के शिवाला घाट मोहल्ले में हुआ था। इनके पिता पुरुषोत्तमदास दिल्ली वाले अग्रवाल वैश्य थे और पूर्वज पानीपत के रहने वाले थे, जिनका मुग़ल दरबारों में बड़ा सम्मान था। लेकिन परिस्थितिवश उन्हें काशी आकर रहना पड़ा। पुरुषोत्तमदास फ़ारसी भाषा के अच्छे विद्वान् थे और हिन्दी फ़ारसी कवियों का बड़ा सम्मान करते थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र उनके मित्र थे और इनके यहाँ बहुधा आया-जाया करते थे। रत्नाकर जी ने बाल्यावस्था में भारतेंदु हरिश्चंद्र का सत्संग भी किया था। भारतेंदु जी ने कहा भी था कि, "किसी दिन यह बालक हिन्दी की शोभा वृद्धि करेगा"।

शिक्षा

जगन्नाथदास 'रत्नाकर' के रहन-सहन में राजसी ठाठ-बाट था। इन्हें हुक्का, इत्र, पान, घुड़सवारी आदि का बहुत शौक़ था। हिन्दी का संस्कार उन्हें अपने हिन्दी-प्रेमी पिता से मिला था। स्कूली शिक्षा में उन्होंने कई भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया। काशी के क्वींस कॉलेज से रत्नाकर जी ने सन 1891 ई. में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की, जिसमें अंग्रेज़ी के साथ दूसरी भाषा फ़ारसी भी थी। ये फ़ारसी में एम.ए. की परीक्षा देना चाहते थे, पर कुछ कारणों से न दे सके।

जीविकोपार्जन

जगन्नाथदास जी ने 'जकी' उपनाम से फ़ारसी में कविताएँ लिखना प्रारंभ किया। इस सम्बन्ध में इनके उस्ताद मुहम्मद हसन फायज थे। जब रत्नाकर जी जीविकोपार्जन की तरफ़ मुड़े तो वे अबागढ़ के खजाने के निरीक्षक नियुक्त हुए। सन 1902 में वे अयोध्या नरेश के निजी सचिव नियुक्त हुए, किन्तु सन 1906 में महाराजा का स्वर्गवास हो गया। लेकिन इनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महारानी जगदंबा देवी ने इन्हें अपना निजी सेक्रेटरी नियुक्त किया तथा मृत्युपर्यंत रत्नाकर जी इस पद पर रहे। अयोध्या में रहते हुए जगन्नाथदास रत्नाकर की कार्य-प्रतिभा समय-समय पर विकास के अवसर पाती रही। महारानी जगदंबा देवी की कृपा से उनकी काव्य कृति ’गंगावतरण‘ सामने आई।[1] इन्होंने हिन्दी काव्य का अभ्यास प्रारंभ किया और ब्रजभाषा में काव्य रचना की।[2]

लेखन कार्य

जगन्नाथदास 'रत्नाकर' हिन्दी लेखन की ओर उस समय प्रवृत्त हुए, जब खड़ी बोली हिन्दी को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने का व्यापक अभियान चल रहा था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक, पं. नाथूराम शंकर शर्मा जैसे लोग खड़ी बोली हिन्दी को भारी समर्थन दे रहे थे, लेकिन काव्य भाषा की बदलती लहर रत्नाकर जी के ब्रजभाषा-प्रेम को अपदस्थ नहीं कर सकी। वे ब्रजभाषा का आँचल छोड़कर खड़ी बोली के पाले में जाने को किसी भी तरह तैयार नहीं हुए। जब उनके समकालीन खड़ी बोली के परिष्कार और परिमार्जन में संलग्न थे, तब वे ब्रजभाषा की त्रुटियों का परिष्कार कर साहित्यिक ब्रजभाषा के रूप की साज-सँवार कर रहे थे। उन्होंने ब्रजभाषा का नए शब्दों, मुहावरों से ऐसा श्रृंगार किया कि वे सूरदास, पद्माकर और घनानंद की ब्रजभाषा से अलग केवल उनकी ब्रजभाषा बन गई, जिसमें उर्दू और फ़ारसी की रवानगी, संस्कृत का आभिजात्य और लोकभाषा की शक्ति समा गई। जिसके एक-एक वर्ण में एक-एक शब्द में और एक-एक पर्याय में भावलोक को चित्रित करने की अदम्य क्षमता है।

कवित्त

जगन्नाथदास 'रत्नाकर' की संवेदनशीलता ने बचपन में ही कविता में ढलना शुरू कर दिया था। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने उर्दूफ़ारसी के साथ हिन्दी में कवित्त लिखना शुरू कर दिया था। वे ’जकी‘ उपनाम से उर्दू शायरी करते थे। बाद में उन्होंने ब्रजभाषा काव्य को ही अपना क्षेत्र बना लिया। काव्य सृजन के साथ-साथ उन्होंने अपनी पठन रुचि को भी बराबर विकसित किया। वे साहित्य, दर्शन, अध्यात्म, पुराण-सब पढ़ डालते।[1] रत्नाकर जी का भावों का वैभव है। उनके काव्य-विषय विशुद्ध पौराणिक हैं। आपने इन कथानकों में नवीनता भरकर उन्हें नवीन रूप प्रदान किया। उन्होंने प्रबंध और मुक्तक दोनों प्रकार के काव्य लिखे। वे विशेषत: श्रृंगार के कवि हैं; परन्तु इनके श्रृंगार में न तो रीति काल की अफीमची मादकता है और न नायिका भेद की बारीकी ही है। इनका श्रृंगार भक्ति-परक होकर मर्यादित रूप में सामने आया। विशुद्ध श्रृंगार में भी हृदय की अनुभूतिपूर्ण भावनाओं ही का तीव्र वेग है। राधा-कृष्ण के हृदय में स्वाभाविक प्रेम के उदय पर रत्नाकर जी की कलम का एक दृष्टव्य[2]-

आवन लगी है दिन द्वैक ते हमारे धाम,
रहे बिनु काम काज आई अरुझाई है।
कहैं रत्नाकर खिलौननी सम्हारि राखि,
बार-बार जननी चितावत कन्हाई है।
देखी सुनु ग्वारिनी किती ब्रजवासिन पै,
राधा सी न और अभिहारिन लखाई है।
हेरत ही हेरत हरयौ तौ है हमारो कछु,
काहि धौं हिरानी पै न परत जनाई है।

  • विरह विरहिरिनों के हृदय को विदीर्ण कर देता है। विरह-विपत्ति का झेलना अत्यंत कठिन है। इसी की अनुभूति पूर्ण अवस्था का एक उदाहरण निम्नलिखित है-

पीर सों धीर धरावत वीर, कटाक्ष हूँ कुंतल सेल नहीं है।
ज्वाल न याकी मिटे रत्नाकर, नेह कछू तिल तेल नहीं है।
जानत अंग जो झेलत हैं, यह रंग गुलाल की झेल नहीं है।
थामे थमें न बहें अंसुवा, यह रोयबो है, हंसी-खेल नहीं है।

श्रृंगार रस के पश्चात् जगन्नाथदास 'रत्नाकर' जी के काव्य में वीर रस को प्रमुख स्थान मिला है। करुण रस की सुन्दर व्यंजना 'हरिश्चंद्र' में हुई है। इसके अतिरिक्त वीभत्स तथा वात्सल्य आदि रसों का यथास्थान सफलता से चित्रण हुआ है। रत्नाकर जी को भावों के चित्रण में विशेष सफलता मिली है। क्रोध, हर्ष, उत्साह, शोक, प्रेम, घृणा आदि मानवीय व्यापारों की अभिव्यंजना रत्नाकर जी ने बड़ी सफलता से की है। आधुनिक युग के होते हुए भी रत्नाकर जी ने भक्ति काल एवं रीति काल के आदर्शों को अपनाया। इनके काव्य में भक्ति कवियों के भाव की सी भावुकता, रसमग्नता तथा रीति कालीन कवियों जैसा शब्द-कौशल तथा चमत्कार प्रियता मिलती है। इनके काव्य पर आधुनिक युग के बुद्धिवाद का भी प्रभाव है। इनकी 'उद्धवशतक', गंगावतरण', हरिश्चंद्र' आदि रचनायें प्राचीन युग का उच्चादर्श उपस्थित करती हैं।

भाषा-शैली

रत्नाकर जी की काव्य भाषा नवीनता से परिपूर्ण है। उन्होंने ब्रजभाषा को संयत और परिष्कृत रूप प्रदान किया है। ब्रजभाषा के अप्रचलित प्रयोगों को उन्होंने सर्वथा छोड़ दिया। इस प्रकार ब्रजभाषा को खड़ी बोली के समान प्रतिष्ठित करने का उनका सराहनीय प्रयास रहा। उनकी शब्द योजना सर्वथा दोष मुक्त है। भाषा क्लिष्ट भावों की चेरी बन कर चलती है। इसमें इतनी सरलता और स्वाभाविकता है कि भावों को समझने में कठिनाई नहीं पड़ती। भाषा में ओज और माधुर्य गुण मिलता है। इसमें कहीं भी शिथिलता नहीं है। अनुप्रास योजना भाषा को स्वाभाविकता प्रदान करती है। रत्नाकर जी की कविता में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ है, परन्तु इससे उनकी भाषा में कृत्रिमता और शिथिलता नहीं आने पायी। साहित्यिक स्वरूप में घनानंद की भाषा ही रत्नाकर जी की भाषा की समता कर सकती है। रत्नाकर जी को "आधुनिक ब्रजभाषा का पद्माकर" कहा जा सकता है। उन्होंने जिस शैली को अपनाया, उसमें मानवीय व्यापारों को सफलतापूर्वक चित्रित किया गया है। उनकी शैली में सर्वत्र ही कलात्मकता और स्वाभाविकता मिलती है।[2]

कृतियाँ

राजनीतिक उलझनों और कचहरी के मामलों में उनके काव्य-सृजर को मनमाना विस्तार भले ही न मिल पाया हो, लेकिन व्यस्तता के बावजूद उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य संपदा की वृद्धि करने वाली कृतियाँ रचीं। इनके द्वारा रचित, सम्पादित तथा प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं-

पद्य रचनाएँ गद्य रचनाएँ सम्पादित रचनाएँ प्रकाशित रचनाएँ
  • हरिश्चंद्र (खंडकाव्य)
  • गंगावतरण (पुराख्यान काव्य)
  • उद्धवशतक (प्रबंध काव्य)
  • हिंडोला (मुक्तक)
  • कलकाशी (मुक्तक)
  • समालोचनादर्श (पद्यनिबंध)
  • श्रृंगारलहरी
  • गंगालहरी
  • विष्णुलहरी (मुक्तक)
  • रत्नाष्टक (मुक्तक)
  • वीराष्टक (मुक्तक)
  • प्रकीर्णक पद्यावली (मुक्तक संग्रह)।
साहित्यिक लेख ऐतिहासिक लेख
  • रोला छंद के लक्षण
  • महाकवि बिहारीलाल की जीवनी
  • बिहारी सतसई संबंधी साहित्य
  • साहित्यिक ब्रजभाषा तथा उसके व्याकरण की सामग्री
  • बिहारी सतसई की टीकाएँ
  • बिहारी पर स्फुट लेख।
  • महाराज शिवाजी का एक नया पत्र
  • शुगवंश का एक शिलालेख
  • शुंग वंश का एक नया शिलालेख
  • एक ऐतिहासिक पापाणाश्व की प्राप्ति
  • एक प्राचीन मूर्ति
  • समुद्रगुप्त का पाषाणाश्व
  • घनाक्षरी निय रत्नाकर
  • वर्ण
  • सवैया
  • छंद
  • सुधासागर (प्रथम भाग)
  • कविकुल कंठाभरण
  • दीपप्रकाश
  • सुंदरश्रृंगार
  • नृपशंमुकृत नखशिख
  • हम्मीर हठ
  • रसिक विनोद
  • समस्यापूर्ति (भाग 1)
  • हिततरंगिणी
  • केशवदासकृत नखशिख
  • सुजानसागर
  • बिहारी रत्नाकर
  • सूरसागर।
  • ’हिंडोल‘
  • ’हरिश्चंद्र‘
  • ’गंगावतरण‘
  • ’उद्धवशतक‘
  • ’कलकाशी‘
  • ’समस्यापूर्ति‘
  • ’जयप्रकाश‘
  • ’सर्वस्व‘
  • ’घनाक्षरी नियम रत्नाकर‘
  • ’गंगा विष्णु लहरी‘
  • ’रत्नाष्टक‘
  • ’वीराष्टक‘
  • ’प्रकीर्ण पदावली‘।

इन्होंने अंग्रेज़ी कवि पोप की प्रसिद्ध रचना ’एसे ऑन क्रिटिसिज्म‘ का रोला छंद में अनुवाद भी किया। इन कृतियों में ’उद्धवशतक‘ और ’बिहारी रत्नाकर‘ को विशेष महत्व मिला। ’उद्धवशतक‘, ’भ्रमरगीत‘ परंपरा का विशिष्ट काव्य बना तो ’बिहारी रत्नाकर‘ ’बिहारी सतसई‘ पर लिखी गई कविताओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया। इनके अतिरिक्त 'हमीर हट', 'हित तरंगिणी', 'कविकुल कण्ठाभरण' नामक कृतियों का भी सम्पादन इन्होंने किया। ‘साहित्य सुधा’ नामक पत्र का सम्पादन भी आपने किया था।[1] इसके साथ ही जगन्नाथदास 'रत्नाकर' बहुत अधिक परिश्रम और अपना बहुत-सा धन व्यय कर 'सूरसागर' का सम्पादन भी कर रहे थे, पर उसका केवल तीन चतुर्थांश ही पूर्ण कर सके। बहुत अधिक संख्या में इनकी स्फुट रचनाएँ भी मिलती हैं। 'नागरी प्रचारिणी सभा' काशी ने इन स्फुट कविताओं व उक्त सभी काव्य कृतियों का एक सुन्दर संग्रह 'रत्नाकर' नामक प्रकाशित किया है।

हिन्दी साहित्य निर्माता

हिन्दी साहित्य में रत्नाकर जी एक निर्माता के रूप में स्मरण करने योग्य हैं। ये नवीन और प्राचीन को साथ लेकर चले हैं। इन्होंने आधुनिक हिन्दी साहित्य के तीनों काल देखे थे, पर किसी भी युग विशेष से प्रभावित नहीं हो सके। द्विवेदी युग में होने वाली खड़ी बोली के आन्दोलन ने इनको तनिक भी आकर्षित नहीं किया और ये ब्रजभाषा की उपासना-अराधना में लगे रहे। रत्नाकर जी हिन्दी के स्वर्ण-युग (मध्य युग) के पुजारी थे।

साहित्यिक विशेषताएँ

जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने भक्ति काल की भाव प्रवणता और रीति काल की श्रंगारिकता को अपनी कविता के नए बाने में सजाया। उन्होंने भक्ति भावना से समन्वित कविताएँ भी लिखीं, वीरों के वृत्तांत भी लिखे, नीति को भी कविता में उतारा; लेकिन उनका मन मूलतः श्रंगारिकता की अभिव्यक्ति में ही अधिक रमा है और इस श्रंगारिकता की ख़ूबी यह रही कि इसके अंतर्गत भक्ति, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य सभी का समाहार हो गया। उनका ग्रंथ ’उद्धवशतक‘ मानव मन की अद्भुत चित्रशाला बनकर सामने आया। श्रृंगार रस के निरूपण में उनका कोई भी समकालीन उनके समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। श्रृंगार के दोनों पक्षों के निरूपण में जगह-जगह तीव्र भावावेश के क्षणों में ऐसा लगता है मानो कवि स्वयं ही द्रविभूत होकर कविता बन उपस्थित हुआ हो। भाव-चित्रों के इस शिल्पी ने ’उद्धवशतक‘ में अनुभवों की योजना, मूक मौन व्यजंना और रससिक्त मर्मस्पर्शी सूक्तियों का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस कृति का ताना-बाना भावुकता के अतिरेक से पैदा होने वाले कृतिम उद्वेग से नहीं, बल्कि हृदय की सच्ची पुकार से बुना गया है, जहाँ विरहणी ब्रजांगनाओं के आँसुओं में प्रेम की स्निग्धता, अनुभूति की आर्द्रता उनके विश्वास में संयम की धार भी है।

जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने अपनी कृतियों से सामर्थ्य का झंडा ऊँचा कर दिखाया है, जिसमें शब्द और अर्थ एक हो गये हैं, जहाँ शब्द अपने आप बोलते हैं, मानो शब्द का अर्थ-विधान ही अपने पट खोलता चलता हो। उन्होंने अलंकारों के बड़े ही संतुलित और अपेक्षित प्रयोगों द्वारा भाव-व्यजंना को उत्कर्ष दिया है। उनके सांगरूपक तो हिन्दी में विरले ही हैं। परंपरा की कई लीकों से हटकर लोकोक्तियों और मुहावरों का अलग अंदाज़है। रीति काव्य परंपरा का प्रेम और ब्रजभाषा को उनकी दृष्टि की सीमा भले ही माना जाये, लेकिन यह ब्रजभाषा के प्रति अपूर्व निष्ठा थी, जो ब्रजभाषा को अपने सशक्त मानदंडो में सुरक्षित रखना चाहती थी। सामयिक आंदोलनों से परे रहकर उन्होंने ब्रजभाषा साहित्य का परिष्कार करने और मानवीय अंतर्मन का कोना-कोना झाँकने में अपनी शक्ति लगा दी। नारी मन का कोई छोर ऐसा नहीं बचा, जिसे उनके शब्दों के कोमल और तीव्र स्पर्श ने छुआ न हो।[1]

निधन

सन 1930, कलकत्ता में हुए 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य' के जगन्नाथजी अध्यक्ष नियुक्त हुए थे। ब्रजभाषा के कवियों में आधुनिक कवियों के तौर पर ये सर्वथा विशिष्ट हैं। 22 जून, 1932 को इनकी मृत्यु के पश्चात् 'कविवर बिहारी' शीर्षक ग्रंथ की रचना का प्रकाशन इनके पौत्र रामकृण ने किया था। मरणोपरांत ‘सूरसागर’ सम्पादित ग्रंथ का प्रकाशन आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निरीक्षण में हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 शर्मा, कुमुद। जगन्नाथदास रत्नाकर (हिंदी) अभिव्यक्ति। अभिगमन तिथि: 21 फ़रवरी, 2014।
  2. 2.0 2.1 2.2 बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर' (हिन्दी) राजभाषा हिन्दी। अभिगमन तिथि: 4 जून, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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