न्यायसूत्र: Difference between revisions
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न्यायसूत्र के अनुसार दु:ख से अत्यन्त विमोक्ष को ‘अपवर्ग’ कहा गया है <ref>‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग: (न्यायसूत्र 1/1/22)।</ref> मुक्तावस्था में आत्मा अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित और अखिल गुणों से रहित होता है। मुक्तात्मा में सुख का भी अभाव रहता है अत: उस अवस्था में 'आनन्द' की भी प्राप्ति नहीं होती है। उद्योतकर के मत में नि:श्रेयस के दो भेद हैं- अपर नि:श्रेयस तथा परनि:श्रेयस। तत्त्वज्ञान ही इन दोनों का कारण है। जीवन मुक्ति को अपरनि:श्रेयस और विदेहमुक्ति को परनि:श्रेयस कहते हैं। भारतीय दर्शन-साहित्य को [[न्याय दर्शन]] की सबसे अमूल्य देन शास्त्रीय विवेचनात्मक पद्धति है। प्रमाण की विस्तृत व्याख्या तथा विवेचना कर न्याय ने जिन तत्त्वों को खोज निकाला है, उनका उपयोग अन्य दर्शन ने भी कुछ परिवर्तनों के साथ किया है। हेत्वाभासों का सूक्ष्म विवरण देकर न्याय दर्शन ने अनुमान को दोषमुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है। न्याय दर्शन की तर्कपद्धति श्लाघनीय है। | न्यायसूत्र के अनुसार दु:ख से अत्यन्त विमोक्ष को ‘अपवर्ग’ कहा गया है <ref>‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग: (न्यायसूत्र 1/1/22)।</ref> मुक्तावस्था में आत्मा अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित और अखिल गुणों से रहित होता है। मुक्तात्मा में सुख का भी अभाव रहता है अत: उस अवस्था में 'आनन्द' की भी प्राप्ति नहीं होती है। उद्योतकर के मत में नि:श्रेयस के दो भेद हैं- अपर नि:श्रेयस तथा परनि:श्रेयस। तत्त्वज्ञान ही इन दोनों का कारण है। जीवन मुक्ति को अपरनि:श्रेयस और विदेहमुक्ति को परनि:श्रेयस कहते हैं। भारतीय दर्शन-साहित्य को [[न्याय दर्शन]] की सबसे अमूल्य देन शास्त्रीय विवेचनात्मक पद्धति है। प्रमाण की विस्तृत व्याख्या तथा विवेचना कर न्याय ने जिन तत्त्वों को खोज निकाला है, उनका उपयोग अन्य दर्शन ने भी कुछ परिवर्तनों के साथ किया है। हेत्वाभासों का सूक्ष्म विवरण देकर न्याय दर्शन ने अनुमान को दोषमुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है। न्याय दर्शन की तर्कपद्धति श्लाघनीय है। | ||
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न्यायसूत्रकार के समक्ष ईश्वर विवेच्य विषय नहीं था, अपितु उपास्य के रूप में वह प्रसिद्ध था। ईश्वर के अस्तित्व में किसी को सन्देह नहीं था अत सूत्रकार ने इस पर अपना मन्तव्य प्रस्तुत नहीं किया है। अन्यथा [[ऋषि]] की दृष्टि से इसका ओझल होना असंभव है। प्रावादुकों के मत के प्रसंग में जो ईश्वर के विषय में तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं, वे तो निराकरणीय मतों के मध्य विद्यमान है। अत: उनका महत्त्व अधिक नहीं माना जा सकता है। उसका आशय तो कुछ भिन्न ही प्रतीत होता है। वार्त्तिक एवं तात्पर्य टीका में यहाँ मतभेद है। एक केवल ईश्वर कारणतावाद को पूर्वपक्ष के रूप में लेता है तो ईश्वर में अभिन्न निमित्त उपादान कारणतावाद को पूर्वपक्ष रूप में स्वीकार करता है। यह मतभेद प्रमाणित करता है कि सम्प्रदाय में ईश्वरवाद प्रचलित नहीं था। किन्तु पूर्वपक्षी के रूप में [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध]], [[मीमांसा दर्शन|मीमांसक]] एवं अन्य दार्शनिकों के खड़ा होने पर [[आचार्य उदयन]] ने उनके मुखविधान हेतु एक विशाल प्रकरण ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया, व्याख्यामुखेन इसका उपपादन तो किया ही। वही प्रकरण ग्रन्थ है न्यायकुसुमांजलि, जिसकी व्याख्या एवं उपव्याख्याएँ इस वर्तमान शताब्दी में भी लिखी जा रही हैं। सबसे पहले ईश्वर के विषय में भाष्यकार के समक्ष बौद्ध आदि की ओर से समस्या आयी होगी। अत: इन्होंने इसका समाधान किया है। | न्यायसूत्रकार के समक्ष ईश्वर विवेच्य विषय नहीं था, अपितु उपास्य के रूप में वह प्रसिद्ध था। ईश्वर के अस्तित्व में किसी को सन्देह नहीं था अत सूत्रकार ने इस पर अपना मन्तव्य प्रस्तुत नहीं किया है। अन्यथा [[ऋषि]] की दृष्टि से इसका ओझल होना असंभव है। प्रावादुकों के मत के प्रसंग में जो ईश्वर के विषय में तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं, वे तो निराकरणीय मतों के मध्य विद्यमान है। अत: उनका महत्त्व अधिक नहीं माना जा सकता है। उसका आशय तो कुछ भिन्न ही प्रतीत होता है। वार्त्तिक एवं तात्पर्य टीका में यहाँ मतभेद है। एक केवल ईश्वर कारणतावाद को पूर्वपक्ष के रूप में लेता है तो ईश्वर में अभिन्न निमित्त उपादान कारणतावाद को पूर्वपक्ष रूप में स्वीकार करता है। यह मतभेद प्रमाणित करता है कि सम्प्रदाय में ईश्वरवाद प्रचलित नहीं था। किन्तु पूर्वपक्षी के रूप में [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध]], [[मीमांसा दर्शन|मीमांसक]] एवं अन्य दार्शनिकों के खड़ा होने पर [[आचार्य उदयन]] ने उनके मुखविधान हेतु एक विशाल प्रकरण ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया, व्याख्यामुखेन इसका उपपादन तो किया ही। वही प्रकरण ग्रन्थ है न्यायकुसुमांजलि, जिसकी व्याख्या एवं उपव्याख्याएँ इस वर्तमान शताब्दी में भी लिखी जा रही हैं। सबसे पहले ईश्वर के विषय में भाष्यकार के समक्ष बौद्ध आदि की ओर से समस्या आयी होगी। अत: इन्होंने इसका समाधान किया है। | ||
Revision as of 12:08, 15 October 2015
न्यायसूत्र में दो तरह से न्याय पद की व्युत्पत्ति की गयी है-
- ‘प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:’ तथा
- ‘नीयते प्राप्यते विवक्षितार्थसिद्धिरनेनेति न्याय:’ तथापि प्रमाणों के द्वारा पदार्थों के परीक्षण में ही दोनों व्युत्पित्तियों का तात्पर्य है। अत: यहाँ अधिक विचार की अपेक्षा नहीं है। न्यायभाष्यकार ने कहा है कि न्यायविद्या की प्रवृत्ति तीन प्रकार की देखी जाती है-
- उद्देश्य - पदार्थों के नाम का निर्देश करना ‘उद्देश्य’ है।
- लक्षण - उसके परिचयार्थ उसके स्वरूप का निरूपण ‘लक्षण’ है।
- परीक्षा - उसका यह लक्षण सर्वथा उपयुक्त है या नहीं- इसका विचार या आलोचन परीक्षा है।
यह परीक्षा न्याय वाक्य के द्वारा की जाती है। इस न्याय के पाँच अवयव प्रसिद्ध हैं-
- प्रतिज्ञा,
- हेतु,
- उदाहरण,
- उपनय, और
- निगमन।
- इनमें से प्रथम चार क्रमश: शब्द, अनुमान, प्रत्यक्ष, और उपमान रूप न्यायशास्त्र में प्रसिद्ध चार प्रमाणों से संबद्ध हैं।
- यही न्यायशास्त्र का केन्द्रबिन्दु है, जो पाँच अध्यायों में विभक्त है।
- पुनश्च अध्याय दो-दो आह्निकों में क्रमश: विभक्त है।
- यहाँ सोलह पदार्थ माने गये हैं। वे इस प्रकार वर्णित हैं-
- प्रमाण,
- प्रमेय,
- संशय,
- प्रयोजन,
- दृष्टान्त,
- सिद्धान्त,
- अवयव,
- तर्क,
- निर्णय,
- वाद,
- जल्प,
- वितण्डा,
- हेत्वाभास,
- छल,
- जाति और
- निग्रहस्थान।
चूँकि आदि के नौ पदार्थ प्रमाण आदि प्रामाण्यवाद से संबद्ध हैं तथा न्यायवाक्य के उपयोगी अंग हैं, अत: इनके लक्षण एवं अपेक्षानुसार विभाग प्रथम अध्याय के प्रथम आह्निक में किये गये हैं। शेष सात पदार्थों के लक्षण तथा यथापेक्षित विभाग इसके द्वितीय आह्निक में हुआ है। वाद-विवाद रूप कथाओं से इन पदार्थों का घनिष्ठ संबन्ध रहा है। यहाँ सूचीकटाह-न्याय का अवलम्बन कर छल पदार्थ की परीक्षा भी की गयी है एवं जाति और निग्रहस्थान का लक्षण मात्र कहकर उनके विभागों को नहीं दिखाया गया है।
- द्वितीय अध्याय के प्रथम आह्निक में संशय की तथा न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध चारों प्रमाणों की परीक्षा की गयी है। इसके साथ ही प्रसंगत: अवयवी की परीक्षा एवं वर्तमान काल की सिद्धि हेतु प्रयास किया गया है। इसके द्वितीय आह्निक में अन्य शास्त्रसम्मत प्रमाणों के परीक्षण द्वारा निराकरण तथा शब्द प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया गया है। यहाँ शब्द का अनित्यत्व, शब्द का परिणाम तथा शब्द-शक्ति आदि का विचार विस्तार से हुआ है।
- तृतीय अध्याय के प्रथम आह्निक में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और अर्थ की परीक्षा की गयी है। द्वितीय आह्निक में बुद्धि तथा मनस की परीक्षा के साथ शरीर और आत्मा के संबन्ध के गुण एवं दोष का कारणसहित विवेचन हुआ है।
- चतुर्थ अध्याय के प्रथम आह्निक में प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग की परीक्षा के साथ सृष्टि के प्रसंग में तत्काल प्रसिद्ध आठ दार्शनिक विचारधाराओं का आलोचन भी किया गया है। इसके द्वितीय आह्निक में तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति, उसकी विवृद्धि और उसके परिपालन की विधि के साथ अवयव एवं अवयवी की सिद्धि तथा परमाणु के निरवयवत्व का प्रदर्शन भी हुआ है।
- पंचम अध्याय के प्रथम आह्निक में जाति के विभाग एवं लक्षण किये गये हैं, आवश्यकतानुसार परीक्षा भी कहीं-कहीं उनकी देखी जाती है। द्वितीय आह्निक में निग्रहस्थान का विवेचन हुआ है। न्यायसूत्रकार महर्षि गौतम ने यथास्थान अपने उद्दिष्ट पदार्थों के लक्षण एवं परीक्षण कर शास्त्र को पूर्णांग एवं क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है और उसमें सफलता भी पायी है।
परवर्ती काल में इन सूत्रों की बहुत व्याख्याएँ एवं उपव्याख्याएँ हुईं उन सबों का अवधारण सुबुद्धों के लिए भी कठिन होने लगा, फलत: इन सूत्रों तथा व्याख्याओं के आधार पर विविध संग्रहग्रन्थ, प्रकरणग्रन्थ तथा लक्षणग्रन्थ आदि का पर्याप्त मात्रा में निर्माण हुआ। इन ग्रन्थों के ऊपर भी व्याख्याएँ एवं उपव्याख्याएँ लिखी गयीं। इस तरह शास्त्र की निरन्तर अभिवृद्धि होती रही।
- काल के अन्तराल में इन सूत्रों में विकार आने लगा, जोड़-घटाव होने लगा। अत एव खृष्टीय नवम शतक के दार्शनिक तात्पर्यटीकाकार वाचस्पति मिश्र ने न्यायसूची-निबन्ध लिखकर सूत्र का पाठ स्थिर करने का प्रयास किया तथा सर्वप्रथम प्रकरण का निर्देश किया। इसके पहले न्यासूत्रों में प्रकरण का निर्देश नहीं हुआ था। खृष्टीय पंचदश शतक के नैयायिक द्वितीय वाचस्पति मिश्र ने भी न्यायसूत्रोद्धार का प्रणयन कर इस ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया। दोनों के सूत्रपाठ में अन्तर होना स्वाभाविक है। दोनों के मध्य छह शतकों का कालिक व्यवधान स्पष्टत: उपलब्ध है। एक यदि 528 सूत्र गिनाते हैं तो अपर के मत में 532 सूत्र हैं। गौतमीय सूत्रप्रकाश में केशवमिश्र तर्काचार्य ने तथा न्यायरहस्य में रामभद्र सार्वभौम ने इस प्रसङ्ग में अपनी जागरूकता दिखायी है।
यद्यपि महामहोपाध्याय डाक्टर सर गंगानाथ झा तथा महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश न्यायसूची - निबन्ध के कट्टर पक्षपाती रहे हैं, तथापि अनुसन्धाननिरत उनके परवर्ती अधिक विद्वान केशवमिश्र तर्काचार्य के सूत्रपाठ को ही अधिक परिशुद्ध मानते हैं। द्वितीय वाचस्पति मिश्र के न्यायतत्त्वालोक में भी वही सूत्रपाठ है जो गौतमीयसूत्रप्रकाश में केशवमिश्र ने दिया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि न्यायसूत्रोद्धार और न्यायतत्त्वालोक में सूत्रपाठ का परस्पर साम्य नहीं है, जबकि एक ही विद्वान की दोनों ही कृतियाँ मानी जाती हैं।
यद्यपि वृत्तिकारों में न्यायसूचीनिबन्ध का अनुसरण पूर्णत: नहीं हुआ है, किन्तु उस समय में किया गया वह कार्य गवेषकों के लिए एक दृष्टि अवश्य प्रदान करता है तथा काल की विपरीत परिस्थिति में नष्ट-भ्रष्ट होने से उसका परिरक्षण अपने आप में महत्त्वपूर्ण है।
आजकल न्यायसूत्रों के पाठनिर्धारण की ओर गवेषक विद्वानों की दृष्टि अधिक देखी जाती है। प्रो. दयाकृष्ण (जयपुर) ने इस प्रसंग में शोध-पत्रिका में अपना सारगर्भ तथा विचारोत्तेजक निबन्ध प्रकाशित किया है। इस पंक्ति के लेखक ने भी न्यायतत्त्वालोक के परिशिष्ट में अपना विचार प्रस्तुत किया है।
न्यायसूत्र का काल
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न्यायसूत्र के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। महामहोपाध्याय हरप्रसादशास्त्री इसका काल खृष्टीय द्वितीय शतक मानते हैं। सूत्रों में शून्यवाद का खण्डन पाकर डा. याकोबी महाशय न्यायसूत्रों का रचनाकाल खृष्टीय तृतीय शताब्दी मानते हैं। महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने भारतीय न्यायशास्त्र के इतिहास में कहा है कि लक्षणसूत्रों का निर्माण मिथिला के निवासी महर्षि गौतम ने खृष्टपूर्व षष्ठ शतक में किया है और परीक्षासूत्रों की रचना खृष्टीय द्वितीय शतक में प्रभासतीर्थ के निवासी महर्षि अक्षपाद ने की है। फलत: उपलब्ध न्यायसूत्र दो भिन्न समयों में भिन्न ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। इनकी दो प्रमुख युक्तियाँ यहाँ देखी जाती हैं - बौद्ध दर्शन के शून्यवाद का खण्डन तथा कौटिल्य के द्वारा आन्वीक्षिकी विद्या में न्याय का अपरिग्रह एवं सांख्य, योग और लोकायत का परिग्रह। किन्तु यहाँ विचार अपेक्षित है। न्यायसूत्र में जिस शून्यवाद का खण्डन किया है, वह बौद्ध आचार्य नागार्जुन के प्रतिपादित शून्यवाद से सर्वथा भिन्न है।
तत्त्वज्ञान
न्यायसूत्र के अनुसार दु:ख से अत्यन्त विमोक्ष को ‘अपवर्ग’ कहा गया है [1] मुक्तावस्था में आत्मा अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित और अखिल गुणों से रहित होता है। मुक्तात्मा में सुख का भी अभाव रहता है अत: उस अवस्था में 'आनन्द' की भी प्राप्ति नहीं होती है। उद्योतकर के मत में नि:श्रेयस के दो भेद हैं- अपर नि:श्रेयस तथा परनि:श्रेयस। तत्त्वज्ञान ही इन दोनों का कारण है। जीवन मुक्ति को अपरनि:श्रेयस और विदेहमुक्ति को परनि:श्रेयस कहते हैं। भारतीय दर्शन-साहित्य को न्याय दर्शन की सबसे अमूल्य देन शास्त्रीय विवेचनात्मक पद्धति है। प्रमाण की विस्तृत व्याख्या तथा विवेचना कर न्याय ने जिन तत्त्वों को खोज निकाला है, उनका उपयोग अन्य दर्शन ने भी कुछ परिवर्तनों के साथ किया है। हेत्वाभासों का सूक्ष्म विवरण देकर न्याय दर्शन ने अनुमान को दोषमुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है। न्याय दर्शन की तर्कपद्धति श्लाघनीय है।
ईश्वरीसिद्धि
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न्यायसूत्रकार के समक्ष ईश्वर विवेच्य विषय नहीं था, अपितु उपास्य के रूप में वह प्रसिद्ध था। ईश्वर के अस्तित्व में किसी को सन्देह नहीं था अत सूत्रकार ने इस पर अपना मन्तव्य प्रस्तुत नहीं किया है। अन्यथा ऋषि की दृष्टि से इसका ओझल होना असंभव है। प्रावादुकों के मत के प्रसंग में जो ईश्वर के विषय में तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं, वे तो निराकरणीय मतों के मध्य विद्यमान है। अत: उनका महत्त्व अधिक नहीं माना जा सकता है। उसका आशय तो कुछ भिन्न ही प्रतीत होता है। वार्त्तिक एवं तात्पर्य टीका में यहाँ मतभेद है। एक केवल ईश्वर कारणतावाद को पूर्वपक्ष के रूप में लेता है तो ईश्वर में अभिन्न निमित्त उपादान कारणतावाद को पूर्वपक्ष रूप में स्वीकार करता है। यह मतभेद प्रमाणित करता है कि सम्प्रदाय में ईश्वरवाद प्रचलित नहीं था। किन्तु पूर्वपक्षी के रूप में बौद्ध, मीमांसक एवं अन्य दार्शनिकों के खड़ा होने पर आचार्य उदयन ने उनके मुखविधान हेतु एक विशाल प्रकरण ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया, व्याख्यामुखेन इसका उपपादन तो किया ही। वही प्रकरण ग्रन्थ है न्यायकुसुमांजलि, जिसकी व्याख्या एवं उपव्याख्याएँ इस वर्तमान शताब्दी में भी लिखी जा रही हैं। सबसे पहले ईश्वर के विषय में भाष्यकार के समक्ष बौद्ध आदि की ओर से समस्या आयी होगी। अत: इन्होंने इसका समाधान किया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग: (न्यायसूत्र 1/1/22)।