कालिदास के चरित्र-चित्रण

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कालिदास के सभी पात्र जीवंत हैं। उन्होंने दिव्य तथा अदिव्य दोनों प्रकार के पात्रों का चित्रण किया है।

पुरुष चरित्र

मेघदूत के यक्ष को धीरललित नायक की कोटि में रखा जा सकता है। वह युवा है और उसे अपनी पत्नी से प्रगाढ़ प्रेम है। देवयोनिज होने के कारण सर्वत्र विचरण सामर्थ्य से युक्त है, अतएव उसका भौगोलिक ज्ञान यथार्थ है। वह संगीत एवं चित्रकला का प्रेमी है। रघुवंश में चाहे दिलीप हों अथवा रघु, गुरु के आज्ञापालक एवं धर्मपरायण है। महाराज दिलीप सर्वगुणसम्पन्न आदर्श राजा हैं। रामचन्द्र का चित्रण कवि ने बड़ी सावधानी से किया है। उनके अन्दर दिलीप, रघु और अज के गुणों का समंवय है।

नारी चरित्र

कालिदास रमणी रूप के चित्रण में ही समर्थ नहीं है, अपितु नारी के स्वाभिमान तथा उदात्त रूप के प्रदर्शन में भी कृतकार्य हैं। रघुवंश के चतुर्दश सर्ग[1] श्लोक में चित्रित, राजाराम के द्वारा परित्यक्ता जानकी का चित्र तथा उनका राम को भेजा गया सन्देश अत्यंत भावपूर्ण, गम्भीर तथा मर्मस्पर्शी है। राम के लिए 'राजा' शब्द का प्रयोग विशुद्ध तथा पवित्र चरित्र धर्मपत्नी के परित्याग के अनौचित्य का मार्मिक अभिव्यञ्जक है-

वाच्यस्त्वया मद्वचनात् स राजा वह्मौ विशुद्धामपि यत् समक्षम्।
मां लोकवादश्रवणादहासी: श्रुतस्य किं तत् सदृशं कुलस्य॥[2]

  • सीता की चारित्रिक उदात्तता का परिचय इसी घटना से स्पष्टत: मिलता है कि इतनी विषम परिस्थिति में पड़ने पर भी वह राम के लिए एक भी अपशब्द का प्रयोग नहीं करती, प्रत्युक्त अपने ही भाग्य को कोसती है। तथा बारम्बार अपनी ही निन्दा करती है-

न चावदद्धर्तुरवर्णमार्या निराकरिष्णोर्वृजिनाद्टतेस्पि।
आत्मानमेव स्थिरदु:खभाजं पुन: पुनर्दुष्कृतिनं निनिन्द॥[3]

*सीता पविव्रत धर्म की अप्रतिम मूर्ति हैं जो राम के द्वारा अकारण परित्याग किये जाने पर भी अगले जन्म में भी उन्हीं को पति के रूप में पाने की कामना करती हैं-

साहं तप: सूर्यनिविष्टदृष्टिरुर्ध्वं प्रसूतेश्चरितं यतिष्ये। भूयो यथा में जननांतरेस्पि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोग:॥[4]

  • सीता की सहिष्णुता का वर्णन करते हुए कालिदास ने कहा है-

सीतां हित्वा दशमुखरिपुर्नोपयेमे यदन्यां
तस्या एव प्रतिकृतसखो यत्क्रतूनाजहार।
वृत्तांतेन श्रवणविषयप्रापिणा तेन भर्तु:
सा दुर्वारं कथमपि परित्यागदु:ख विषेहे॥[5]

  • राजा राम ने सीता की स्वर्ण निर्मित प्रतिमूर्ति बनवाकर समस्त यज्ञ कार्य सम्पन्न किया, इस बात को जानकर सीता ने पति कृत परित्याग के असह्य दु:ख को भी सहन कर लिया।
  • रामचन्द्र का चरित्र कालिदास ने कोमल तूलिका से चित्रित किया है। रघुवंश के एक तिहाई भाग[6] में राम के उदात्त चरित्र का वर्णन किया गया है।
  • महाकवि ने राम को हरि या विष्णु का ही पर्यायवाची माना है।

रत्नाकरं वीक्ष्म मिथ: स जायां रामाभिधानों हरिरित्युवाच[7]

  • उपर्युक्त श्लोक के 'रामाभिधानो हरिरित्युवाच' इस अंश से स्पष्ट है कि 'हरि' और 'राम' में कोई अंतर नहीं है। वे दोनों एक ही हैं। कालिदास की दृष्टि में देवों का आर्तिनाश ही रामावतार का मुख्य प्रयोजन है।
  • राजा दशरथ द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ की सूचना पाकर राक्षस राज रावण से उत्पीड़ित देवगण की स्तुति से प्रसन्न विष्णु ने उन्हें आश्वस्त किया-

सोशं दाशरथिर्भूत्वा रणभूमेर्बलिक्षमम्।
करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैस्तच्छिर: कमलोच्चयम्॥[8]

'मैं दशरथपुत्र राम के रूप में अवतार लेकर राक्षसराज रावण का वध करूँगा'।

  • राम प्रजारक्षक राजा हैं। लोकाराधन के लिए तथा अपने कुल को निष्कलंक रखने के लिए उनके द्वारा अपनी प्राणोपमा धर्मपत्नी सीता का निर्वासन कालिदास की आदर्श पात्र-सृष्टि का सुन्दर दृष्टांत है। सीता की निन्दा सुनकर राम के ह्रदय-विदरण की समता आग में तपे हुए अयोघन द्वारा आहत लोहे के साथ देकर महाकवि ने राम के ह्रदय की कठोरता तथा कोमलता दोनों की मार्मिक अभिव्यक्ति एक साथ की है-

कलत्रनिन्दागुरुणा किलैवमभ्याहतं कीर्तिविपर्ययेण। अयोघनेनाय ड्वाभितप्तं वैदेहिबर्न्धोंर्ह्रदयं विदद्रे॥[9]

  • सीतापरित्याग के समय राम की मानसिक व्यथा कितनी मार्मिक है-

राजर्षिवंशस्य रविप्रसूतेरुपस्थित: पश्चत कीदृशोस्यम्।
मत्त: सदाचारशचे: कलङ्क: पयोदवातादिव दर्पणस्य॥[10]

  • राम का स्वाभिमानी ह्रदय कहीं व्यक्त होता है[11] तो कहीं उनकी मानवता राजभाव के ऊपर झलकती है। लक्ष्मण के लौट कर सीता सन्देश पर राम की आँखों में आँसू छलकने लगते हैं, यह राजभाव के ऊपर मानवता की विजय है-

बभूव राम: सहसा सवाष्पस्तुषारवर्षीय सहस्य चन्द्र:।
कौलीनभीतेन गृहान्निरस्ता न तेन वैदेहसुता मनस्त:॥[12]

  • राम ने लोकनिन्दा के भय से भले ही सीता को राजभवन से निकाल दिया था, परंतु मन से नहीं निकाला था। सीता के प्रति राम के अनन्य अनुराग का यह उत्कृष्ट उदाहरण है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 61।67, चतुर्दश सर्ग
  2. रघुवंश महाकाव्य, 14.21
  3. रघुवंश महाकाव्य, 14.57
  4. रघुवंश महाकाव्य, 14.66
  5. रघुवंश महाकाव्य, 14.87
  6. 10 से 15 सर्ग तक
  7. रघुवंश महाकाव्य 13.1
  8. रघुवंश महाकाव्य 10.44
  9. रघुवंश महाकाव्य 14.33
  10. रघुवंश महाकाव्य 14.37
  11. रघुवंश महाकाव्य, 14.41
  12. रघुवंश महाकाव्य, 14.84

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