रघु: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
 
Line 10: Line 10:
*'मैं ब्राह्मण हूँ। 'शिल' या 'कण' मेरी विहित वृत्ति है। गुरु दक्षिणा की चौदह कोटि मुद्राओं से अधिक एक का भी स्पर्श मेरे लिये लोभ तथा पाप है। ब्रह्मचारी कौत्स का कहना भी उचित ही था। आज के युग में, जब मनुष्य दूसरों के स्वत्व का हरण करने को नित्य सोत्साह उद्यत है, यह त्यागमय विवाद कैसे समझ सकेगा वह। ब्रह्मचारी चौदह कोटि मुद्रा ले गये। शेष ब्राह्मणों को दान हो गयीं।
*'मैं ब्राह्मण हूँ। 'शिल' या 'कण' मेरी विहित वृत्ति है। गुरु दक्षिणा की चौदह कोटि मुद्राओं से अधिक एक का भी स्पर्श मेरे लिये लोभ तथा पाप है। ब्रह्मचारी कौत्स का कहना भी उचित ही था। आज के युग में, जब मनुष्य दूसरों के स्वत्व का हरण करने को नित्य सोत्साह उद्यत है, यह त्यागमय विवाद कैसे समझ सकेगा वह। ब्रह्मचारी चौदह कोटि मुद्रा ले गये। शेष ब्राह्मणों को दान हो गयीं।
*रघु अपने कुल में सर्वश्रेष्ठ गिने जाते हैं। इन्हीं की महत्ता के कारण इक्ष्वाकु वंश का नाम '[[इक्ष्वाकु|रघु वंश]]' हो गया। रघु के पुत्र [[अज]], अज के पुत्र [[दशरथ]] और दशरथ के पुत्र [[राम]] [[अयोध्या]] के नरेश हुए। रघु के वंशज होने के कारण ही राम को राघव, रघुवर, रघुनाथ आदि भी कहा जाता है।
*रघु अपने कुल में सर्वश्रेष्ठ गिने जाते हैं। इन्हीं की महत्ता के कारण इक्ष्वाकु वंश का नाम '[[इक्ष्वाकु|रघु वंश]]' हो गया। रघु के पुत्र [[अज]], अज के पुत्र [[दशरथ]] और दशरथ के पुत्र [[राम]] [[अयोध्या]] के नरेश हुए। रघु के वंशज होने के कारण ही राम को राघव, रघुवर, रघुनाथ आदि भी कहा जाता है।
*महाकवि [[कालिदास]] ने [[रघुवंश]] में [[पुराण|पुराणों]] की वंशावली को कुछ उलट-पुलट दिया है। पुराणों के अनुसार खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु थे और उनके महाराज रघु। रघु के पुत्र अज और अज के महाराज दशरथ हुए। महाराज रघु परम पराक्रमी, अमित यशस्वी तथा पुत्र के समान प्रजा की रक्षा करने वाले थे। उनके नाम पर ही सूर्यवंशीय क्षत्रियों का कुल रघुवंशी कहलाया। भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री [[राम]] इसी महिमामय कुल में अवतीर्ण हुए।       
*महाकवि [[कालिदास]] ने [[रघुवंश]] में [[पुराण|पुराणों]] की वंशावली को कुछ उलट-पुलट दिया है। पुराणों के अनुसार [[खट्वांग]] के पुत्र दीर्घबाहु थे और उनके महाराज रघु। रघु के पुत्र अज और अज के महाराज दशरथ हुए। महाराज रघु परम पराक्रमी, अमित यशस्वी तथा पुत्र के समान प्रजा की रक्षा करने वाले थे। उनके नाम पर ही सूर्यवंशीय क्षत्रियों का कुल रघुवंशी कहलाया। भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री [[राम]] इसी महिमामय कुल में अवतीर्ण हुए।       


==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==

Latest revision as of 11:20, 9 September 2011

चित्र:Disamb2.jpg रघु एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- रघु (बहुविकल्पी)
  • अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश के एक प्रसिद्ध राजा जो राजा दिलीप के पुत्र थे। मान्यता है कि दिलीप को नंदिनी गाय की सेवा के प्रसाद से ये पुत्र रूप में प्राप्त हुए थे। ये बचपन से ही अत्यन्त प्रतिभाशाली थे। रघु के बाल्यकाल में ही उनके पिता ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा था। इन्द्र ने उस घोड़े को पकड़ लिया, परंतु उसे रघु के हाथों पराजित होना पड़ा।
  • रघु बड़े प्रतापी राजा थे। गद्दी पर बैठने के बाद उन्होंने अपने राज्य में शांति स्थापित की और दिग्विजय करके चारों दिशाओं में राज्य का विस्तार किया। एक बार इन्होंने दिग्विजय करके अपने गुरु वसिष्ठ की आज्ञा से विश्वजित यज्ञ किया और उसमें अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी। इसके बाद ही विश्वामित्र के शिष्य कौत्स ने आकर गुरु दक्षिणा चुकाने के लिए राजा रघु से धन की मांग की। इस पर रघु ने कुबेर पर आक्रमण करके उसे राज्य में सोने की वर्षा करने के लिए बाध्य किया और कौत्स को इच्छानुसार धन दिया।
  • 'आज मैं कृतार्थ हुआ! आप-जैसे तपोनिष्ठ, वेदज्ञ ब्रह्मचारी के स्वागत से मेरा गृह पवित्र हो गया। आपके गुरुदेव श्री वरतन्तु मुनि अपने तेज़ से साक्षात अग्निदेव के समान हैं। उनके आश्रम का जल निर्मल एवं पूर्ण तो है? वर्षा वहाँ ठीक समय पर होती है न? आश्रम के नीवार समय पर पकते हैं तो? आश्रम के, मृग एवं तरू पूर्ण प्रसन्न हैं न? आपका अध्ययन पूर्ण हो गया होगा। अब आपके गृहस्थाश्रम में प्रवेश का समय है। मुझे कृपापूर्वक कोई सेवा सूचित करें। मैं इसमें सौभाग्य मानूँगा।' ब्राह्मणकुमार कौत्स का महाराज रघु ने स्वागत किया था। महाराज के कुशल-प्रश्न शिष्टाचार मात्र नहीं थे। उनका तात्पर्य इन्द्र, वरुण, अग्नि, वायु, वनदेवता, पृथ्वी-सबको वे दण्डधर शासित कर सकते थे। तपोमूर्ति ऋषियों के आश्रम में विघ्न करने का साहस किसी देवता को भी नहीं करना चाहिये।
  • 'आप-जैसे धर्मज्ञ एवं प्रजावत्सल नरेश के राज्य में सर्वज्ञ मंगल सहज स्वाभाविक है। आश्रम में सर्वत्र कुशल है। मैंने गुरुदेव से अध्ययन के अनन्तर गुरु-दक्षिणा माँगने का आग्रह किया। वे मेरी सेवा से ही सन्तुष्ट थे, पर मेरे बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने चौदह कोटि स्वर्ण-मुद्राएँ माँगीं; क्योंकि मैंने उनसे चतुर्दश विद्याओं का अध्ययन किया है। नरेन्द्र! आपका मंगल हो। मैं आपको कष्ट नहीं दूँगा। पक्षी होने पर भी चातक सर्वस्व अर्पितकर सहज शुभ्र बने घनों से याचना नहीं करता। आप अपने त्याग से परमोज्ज्वल हैं। मुझे अनुमति दें।' कौत्स ने देखा था कि महाराज के शरीर पर एक भी आभूषण नहीं है। मिट्टी के पात्रों में उस चक्रवर्ती ने अतिथि को अर्ध्य एवं पाद्य निवेदित किया था। यज्ञान्त में महाराज ने सर्वस्व दान कर दिया था। राजमुकुट और राजदण्ड के अतिरिक्त उनके समीप कुछ नहीं था।
  • 'आप पधारे हैं तो मुझ पर दया करके तीन दिन मेरी अग्निशाला में चतुर्थ अग्नि की भाँति सुपूजित होकर निवास करें!' रघु के यहाँ से सुयोग्य वेदज्ञ ब्राह्मण निराश लौटे, यह कैसे सहा जाय। कौत्स को महाराज की प्रार्थना स्वीकार करनी पड़ी।
  • 'मैं आज रथ में शयन करूँगा। उसे शस्त्रों से सुसज्जित कर दो! कुबेर ने कर नहीं दिया है।' यज्ञ के अवसर पर सम्पूर्ण नरेश कर दे चुके थे। सम्पूर्ण कोष दान हो चुका। अतिथि की याचना पूरी किये बिना भवन में प्रवेश भी अनुचित जान पड़ा। कुबेर तो दूसरे देवताओं के समान स्वर्ग में नहीं रहते। उनकी अलका (निवास) हिमालय पर ही तो है। तब वे भी चक्रवर्ती के एक सामन्त ही हैं। कर देना चाहिये उन्हें। महाराज ने प्रात: अलका पर आक्रमण का निश्चय किया।
  • 'देव! को्षागार में स्वर्ण-वर्षा हो रही है।' ब्राह्म मुहूर्त में महाराज नित्यकर्म से निवृत्त होकर रथ पर बैठे। उन्होंने शंखध्वनि की। इतने में दौड़ते हुए कोषाध्याक्ष ने निवेदन किया। वह कोषागार के प्रात: पूजन को गये थें कुबेर ने इस प्रकार कर दिया।
  • 'यह द्रव्य आपके निमित्त आया है। ब्राह्मण के निमित्त प्राप्त द्रव्य में से मैं या मेरी प्रजा कोई अंश कैसे ले सकती है।' महाराज का आग्रह ठीक ही था।
  • 'मैं ब्राह्मण हूँ। 'शिल' या 'कण' मेरी विहित वृत्ति है। गुरु दक्षिणा की चौदह कोटि मुद्राओं से अधिक एक का भी स्पर्श मेरे लिये लोभ तथा पाप है। ब्रह्मचारी कौत्स का कहना भी उचित ही था। आज के युग में, जब मनुष्य दूसरों के स्वत्व का हरण करने को नित्य सोत्साह उद्यत है, यह त्यागमय विवाद कैसे समझ सकेगा वह। ब्रह्मचारी चौदह कोटि मुद्रा ले गये। शेष ब्राह्मणों को दान हो गयीं।
  • रघु अपने कुल में सर्वश्रेष्ठ गिने जाते हैं। इन्हीं की महत्ता के कारण इक्ष्वाकु वंश का नाम 'रघु वंश' हो गया। रघु के पुत्र अज, अज के पुत्र दशरथ और दशरथ के पुत्र राम अयोध्या के नरेश हुए। रघु के वंशज होने के कारण ही राम को राघव, रघुवर, रघुनाथ आदि भी कहा जाता है।
  • महाकवि कालिदास ने रघुवंश में पुराणों की वंशावली को कुछ उलट-पुलट दिया है। पुराणों के अनुसार खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु थे और उनके महाराज रघु। रघु के पुत्र अज और अज के महाराज दशरथ हुए। महाराज रघु परम पराक्रमी, अमित यशस्वी तथा पुत्र के समान प्रजा की रक्षा करने वाले थे। उनके नाम पर ही सूर्यवंशीय क्षत्रियों का कुल रघुवंशी कहलाया। भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम इसी महिमामय कुल में अवतीर्ण हुए।

संबंधित लेख