जनक: Difference between revisions
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'''जनक''' [[मिथिला]] के राजा और [[निमि]] के पुत्र थे। जनक नन्दिनी [[सीता]] का [[विवाह]] [[अयोध्या]] के [[राजा दशरथ]] के ज्येष्ठ पुत्र [[श्रीराम]] के साथ सम्पन्न हुआ था। जनक का वास्तविक नाम 'सिरध्वज' था। इनके छोटे भाई का नाम '[[कुशध्वज]]' था। तत्कालीन समय में राजा जनक अपने अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान के लिए बहुत ही प्रसिद्ध थे। उनकी विद्वता की हर कोई प्रशंसा करता था। | |||
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जनक के पूर्वज [[निमि]] या विदेह के वंश का कुलनाम मानते हैं। यह [[सूर्यवंश|सूर्यवंशी]] और [[इक्ष्वाकु]] के पुत्र निमि से निकली एक शाखा है। इस विदेह वंश के द्वितीय पुरुष मिथि जनक ने मिथिला नगरी की स्थापना की थी। इसी वंश में निमि के नाम के राजा हुए। निमि ने एक बृहत यज्ञ का आयोजन करके [[वसिष्ठ]] को पौरोहित्य के हेतु आमन्त्रित किया था, किन्तु वसिष्ठ उस समय [[इन्द्र]] के यज्ञ में संलग्न थे। अत: वे आने में असमर्थ रहे। निमि ने [[गौतम]] आदि ऋषियों की सहायता से अपना [[यज्ञ]] आरम्भ करा दिया। जब वसिष्ठ को इस बात ज्ञान हुआ तो उन्होंने निमि को [[शाप]] दे दिया। किन्तु प्रत्युत्तर में निमि ने भी वसिष्ठ को शाप दिया। इसके परिणामस्वरूप दोनों ही जलकर भस्म हो गये। ऋषियों ने एक विशेष उपचार से यज्ञ समाप्ति तक निमि का शरीर सुरक्षित रखा। निमि के कोई सन्तान नहीं थी। अत: ऋषियों ने अरणि से उनके शरीर का मन्थन किया, जिससे इनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। शरीर मन्थन से उत्पन्न होने के कारण जनक को 'मिथि' भी कहा जाता है। मृतदेह से उत्पन्न होने के कारण यही पुत्र जनक, विदेह होने के कारण ‘वैदेह’ और मन्थन से उत्पन्न होने के कारण उसी बालक का नाम ‘मिथिल’ हुआ। इसी आधार पर इन्होंने मिथिलापुरी बसायी। इसी कुल में श्री शीरध्वज जनक के यहाँ आदि शक्ति [[सीता]] ने [[अवतार]] लिया था। | |||
==शिव-धनुष== | ==शिव-धनुष== | ||
*राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। [[शिव]]-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। [[दक्ष]] यज्ञ विनष्ट होने के अवसर पर रुष्टमना शिव ने इसी धनुष को टंकार कर कहा था कि देवताओं ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया, इसलिए वे धनुष से सबका मस्तक काट लेंगे। देवताओं ने बहुत स्तुति की तो भोलानाथ ने प्रसन्न होकर यह धनुष उन्हीं देवताओं को दे दिया। देवताओं ने राजा जनक के पूर्वजों के पास वह धनुष धरोहरस्वरूप रखा था।<ref>बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 66।5-12</ref> | *राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। [[शिव]]-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। [[दक्ष]] यज्ञ विनष्ट होने के अवसर पर रुष्टमना भगवान [[शिव]] ने इसी [[धनुष अस्त्र|धनुष]] को टंकार कर कहा था कि- "देवताओं ने उन्हें [[यज्ञ]] में भाग नहीं दिया, इसलिए वे धनुष से सबका मस्तक काट लेंगे।" देवताओं ने बहुत स्तुति की तो भोलानाथ ने प्रसन्न होकर यह धनुष उन्हीं देवताओं को दे दिया। देवताओं ने राजा जनक के पूर्वजों के पास वह धनुष धरोहरस्वरूप रखा था।<ref>बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 66।5-12</ref> | ||
*एक बार राजा जनक ने एक यज्ञ किया। [[विश्वामित्र]] तथा मुनियों ने [[राम]] और [[लक्ष्मण]] को भी उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि उन दोनों को शिव-धनुष के दर्शन करने का अवसर भी प्राप्त होगा।<ref>बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 31।5-14</ref> | *एक बार राजा जनक ने एक यज्ञ किया। [[विश्वामित्र]] तथा मुनियों ने [[राम]] और [[लक्ष्मण]] को भी उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि उन दोनों को शिव-धनुष के दर्शन करने का अवसर भी प्राप्त होगा।<ref>बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 31।5-14</ref> | ||
==विदेह== | ==विदेह== | ||
एक बार राजा जनक ने अपनी यौगिक क्रियाओं से स्थूल शरीर का त्याग कर दिया। स्वर्ग लोक से एक विमान उनकी [[आत्मा]] को लेने के लिए आया। देव लोक के रास्ते से जनक कालपुरी पहुँचे, जहाँ बहुत से पापी लोग विभिन्न नरकों से प्रताड़ित किये जा रहे थे। उन लोगों ने जब जनक को छूकर जाती हुई हवा में साँस ली तो उन्हें अपनी प्रताड़नाओं का शमन होता हुआ अनुभव हुआ और नरक की अग्नि का ताप शीतलता में बदलने लगा। जब जनक वहाँ से जाने लगे, तब नरक के वासियों ने उनसे रुकने की प्रार्थना की। जनक सोचने लगे- "यदि ये नरकवासी मेरी उपस्थिति से कुछ आराम अनुभव करते हैं तो मैं इसी कालपुरी में रहूँगा, यही मेरा स्वर्ग होगा।" | |||
ऐसा सोचते हुए वे वहीं रूक गये। तब काल विभिन्न प्रकार के पापियों को उनके कर्मानुसार दंड देने के विचार से वहाँ पहुँचे और जनक को वहाँ देखकर उन्होंने पूछा- "आप यहाँ नरक में क्या कर रहे हैं?" जनक ने अपने ठहरने का कारण बताते हुए कहा कि वे वहाँ से तभी प्रस्थान करेंगे, जब काल उन सबको मुक्त कर देगा। काल ने प्रत्येक पापी के विषय में बताया कि उसे क्यों प्रताड़ित किया जा रहा है। जनक ने काल से उनकी प्रताड़ना से मुक्ति की युक्ति पूछी। काल ने कहा- "तुम्हारे कुछ पुण्य इनको दे दिये जायें तो इनकी मुक्ति हो सकती है।" जनक ने अपने पुण्य उनके प्रति दे दिये। उनके मुक्त होने के बाद जनक ने काल से पूछा- "मैंने कौन सा पाप किया था कि मुझे यहाँ आना पड़ा?" काल ने कहा- "हे राजन! संसार में किसी भी व्यक्ति के तुम्हारे जितने पुण्य नहीं हैं, पर एक छोटा-सा पाप तुमने किया था। एक बार एक [[गाय]] को घास खाने से रोकने के कारण तुम्हें यहाँ आना पड़ा। अब आप पाप का फल पा चुके हैं, इसीलिए आप स्वर्ग जा सकते हो।" विदेह (जनक) ने काल को प्रणाम कर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया।<ref>पद्म पुराण, 30-39।</ref> इसी कारण जनक को विदेह कहा जाता है। | |||
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जनक
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अन्य नाम | विदेह, सिरध्वज, मिथि |
वंश-गोत्र | मिथिलावंश, निमि |
कुल | निमि |
पिता | मिथि |
जन्म विवरण | शरीर मन्थन से जनक का जन्म |
समय-काल | रामायण काल |
विवाह | विदेही |
संतान | सीता |
महाजनपद | मिथिला |
संदर्भ ग्रंथ | रामायण |
यशकीर्ति | जनक सभी सुविधाओं में रहकर संन्यासी माने गये। नारद को भी उन्होंने ज्ञान दिया। |
अपकीर्ति | अष्टावक्र का अपमान |
ऐतिहासिक महत्त्व | इतिहासकार जनक को कृषि विशेषज्ञ के रूप में स्वीकार करते हैं और "सीता" का अर्थ हल की फाल से मानते हैं। |
जनक मिथिला के राजा और निमि के पुत्र थे। जनक नन्दिनी सीता का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम के साथ सम्पन्न हुआ था। जनक का वास्तविक नाम 'सिरध्वज' था। इनके छोटे भाई का नाम 'कुशध्वज' था। तत्कालीन समय में राजा जनक अपने अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान के लिए बहुत ही प्रसिद्ध थे। उनकी विद्वता की हर कोई प्रशंसा करता था।
जन्म कथा
जनक के पूर्वज निमि या विदेह के वंश का कुलनाम मानते हैं। यह सूर्यवंशी और इक्ष्वाकु के पुत्र निमि से निकली एक शाखा है। इस विदेह वंश के द्वितीय पुरुष मिथि जनक ने मिथिला नगरी की स्थापना की थी। इसी वंश में निमि के नाम के राजा हुए। निमि ने एक बृहत यज्ञ का आयोजन करके वसिष्ठ को पौरोहित्य के हेतु आमन्त्रित किया था, किन्तु वसिष्ठ उस समय इन्द्र के यज्ञ में संलग्न थे। अत: वे आने में असमर्थ रहे। निमि ने गौतम आदि ऋषियों की सहायता से अपना यज्ञ आरम्भ करा दिया। जब वसिष्ठ को इस बात ज्ञान हुआ तो उन्होंने निमि को शाप दे दिया। किन्तु प्रत्युत्तर में निमि ने भी वसिष्ठ को शाप दिया। इसके परिणामस्वरूप दोनों ही जलकर भस्म हो गये। ऋषियों ने एक विशेष उपचार से यज्ञ समाप्ति तक निमि का शरीर सुरक्षित रखा। निमि के कोई सन्तान नहीं थी। अत: ऋषियों ने अरणि से उनके शरीर का मन्थन किया, जिससे इनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। शरीर मन्थन से उत्पन्न होने के कारण जनक को 'मिथि' भी कहा जाता है। मृतदेह से उत्पन्न होने के कारण यही पुत्र जनक, विदेह होने के कारण ‘वैदेह’ और मन्थन से उत्पन्न होने के कारण उसी बालक का नाम ‘मिथिल’ हुआ। इसी आधार पर इन्होंने मिथिलापुरी बसायी। इसी कुल में श्री शीरध्वज जनक के यहाँ आदि शक्ति सीता ने अवतार लिया था।
शिव-धनुष
- राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। दक्ष यज्ञ विनष्ट होने के अवसर पर रुष्टमना भगवान शिव ने इसी धनुष को टंकार कर कहा था कि- "देवताओं ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया, इसलिए वे धनुष से सबका मस्तक काट लेंगे।" देवताओं ने बहुत स्तुति की तो भोलानाथ ने प्रसन्न होकर यह धनुष उन्हीं देवताओं को दे दिया। देवताओं ने राजा जनक के पूर्वजों के पास वह धनुष धरोहरस्वरूप रखा था।[1]
- एक बार राजा जनक ने एक यज्ञ किया। विश्वामित्र तथा मुनियों ने राम और लक्ष्मण को भी उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि उन दोनों को शिव-धनुष के दर्शन करने का अवसर भी प्राप्त होगा।[2]
विदेह
एक बार राजा जनक ने अपनी यौगिक क्रियाओं से स्थूल शरीर का त्याग कर दिया। स्वर्ग लोक से एक विमान उनकी आत्मा को लेने के लिए आया। देव लोक के रास्ते से जनक कालपुरी पहुँचे, जहाँ बहुत से पापी लोग विभिन्न नरकों से प्रताड़ित किये जा रहे थे। उन लोगों ने जब जनक को छूकर जाती हुई हवा में साँस ली तो उन्हें अपनी प्रताड़नाओं का शमन होता हुआ अनुभव हुआ और नरक की अग्नि का ताप शीतलता में बदलने लगा। जब जनक वहाँ से जाने लगे, तब नरक के वासियों ने उनसे रुकने की प्रार्थना की। जनक सोचने लगे- "यदि ये नरकवासी मेरी उपस्थिति से कुछ आराम अनुभव करते हैं तो मैं इसी कालपुरी में रहूँगा, यही मेरा स्वर्ग होगा।"
ऐसा सोचते हुए वे वहीं रूक गये। तब काल विभिन्न प्रकार के पापियों को उनके कर्मानुसार दंड देने के विचार से वहाँ पहुँचे और जनक को वहाँ देखकर उन्होंने पूछा- "आप यहाँ नरक में क्या कर रहे हैं?" जनक ने अपने ठहरने का कारण बताते हुए कहा कि वे वहाँ से तभी प्रस्थान करेंगे, जब काल उन सबको मुक्त कर देगा। काल ने प्रत्येक पापी के विषय में बताया कि उसे क्यों प्रताड़ित किया जा रहा है। जनक ने काल से उनकी प्रताड़ना से मुक्ति की युक्ति पूछी। काल ने कहा- "तुम्हारे कुछ पुण्य इनको दे दिये जायें तो इनकी मुक्ति हो सकती है।" जनक ने अपने पुण्य उनके प्रति दे दिये। उनके मुक्त होने के बाद जनक ने काल से पूछा- "मैंने कौन सा पाप किया था कि मुझे यहाँ आना पड़ा?" काल ने कहा- "हे राजन! संसार में किसी भी व्यक्ति के तुम्हारे जितने पुण्य नहीं हैं, पर एक छोटा-सा पाप तुमने किया था। एक बार एक गाय को घास खाने से रोकने के कारण तुम्हें यहाँ आना पड़ा। अब आप पाप का फल पा चुके हैं, इसीलिए आप स्वर्ग जा सकते हो।" विदेह (जनक) ने काल को प्रणाम कर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया।[3] इसी कारण जनक को विदेह कहा जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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