अंगद: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
(11 intermediate revisions by 6 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
{{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=अंगद|लेख का नाम=अंगद (बहुविकल्पी)}} | |||
[[चित्र:Sugriva-Angada.jpg|thumb|250px|[[सुग्रीव]] तथा अंगद]] | |||
==वानर | '''अंगद''' [[बालि]] के पुत्र थे। बालि इनसे सर्वाधिक प्रेम करता था। ये परम बुद्धिमान, अपने [[पिता]] के समान बलशाली तथा भगवान [[श्रीराम]] के परम [[भक्त]] थे। अपने छोटे भाई [[सुग्रीव]] की पत्नी और सर्वस्व हरण करने के अपराध में भगवान श्रीराम के हाथों बालि की मृत्यु हुई। मरते समय बालि ने भगवान राम को ईश्वर के रूप में पहचाना और अपने पुत्र अंगद को उनके चरणों में सेवक के रूप में समर्पित कर दिया। प्रभु राम ने बालि की अन्तिम इच्छा का सम्मान करते हुए अंगद को स्वीकार किया। सुग्रीव को [[किष्किन्धा]] का राज्य मिला और अंगद युवराज बनाये गये। | ||
[[सीता]] | {{tocright}} | ||
==वानर सेना का नेतृत्व== | |||
[[सीता]] की खोज में वानरी सेना का नेतृत्व युवराज अंगद ने ही किया। [[सम्पाती]] से सीता के [[लंका]] में होने की बात जानकर अंगद [[समुद्र]] पार जाने के लिये तैयार हो गये, किन्तु दल का नेता होने के कारण [[जामवन्त]] ने इन्हें जाने नहीं दिया और [[हनुमान]] लंका गये। | |||
युवराज अंगद ने रावण को फटकारते हुए कहा- | ====श्रीराम के विश्वासपात्र==== | ||
जब रावण भगवान की निन्दा करने लगा तो युवराज अंगद सह नहीं सके। क्रोध करके इन्होंने मुठ्ठी बाँध कर अपनी दोनों भुजाएँ पृथ्वी पर इतने | भगवान श्रीराम को अंगद के शौर्य और बुद्धिमत्ता पर पूर्ण विश्वास था, इसीलिये उन्होंने [[रावण]] की सभा में युवराज अंगद को अपना दूत बनाकर भेजा और यह कहलवाया कि यदि रावण सीता को सम्मान सहित वापस लौटा दे तो वह युद्ध नहीं करेंगे। [[रावण]] नीतिज्ञ था। उसने भेदनीति से काम लेते हुए अंगद जी से कहा- "बालि मेरा मित्र था। ये [[राम]]-[[लक्ष्मण]] बालि को मारने वाले हैं। यह बड़ी लज्जा की बात है कि तुम अपने पितृघातियों के लिये दूतकर्म कर रहे हो।" युवराज अंगद ने रावण को फटकारते हुए कहा- "मूर्ख रावण! तुम्हारी इन बातों से केवल उनके मन में भेद पैदा हो सकता है, जिनकी [[श्रीराम]] के प्रति [[भक्ति]] नहीं है। [[बालि]] ने जो किया, उसे उसका फल मिला। तुम भी थोड़े दिनों बाद जाकर वहीं [[यमलोक]] में अपने मित्र का समाचार पूछना। | ||
==पाँव का जमाना== | |||
श्रीराम के दूत रूप में महाबली अंगद ने [[रावण]] को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह अपने इरादे से टस से मस नहीं हुआ। लंका से लौटने से पूर्व अपनी ताकत दिखाने के लिए भरे दरबार में अंगद ने अपना पाँव जमीन पर जमाया और रावण को ललकारा कि- "यदि उसके दरबार का कोई भी वीर और बलशाली योद्धा जमीन से मेरा पाँव हिला दे तो हम हार स्वीकार कर लेंगे।" [[मेघनाद]] और [[कुंभकर्ण]] सहित रावण के कई योद्धाओं ने प्रयत्न किए, लेकिन अंगद का पाँव जमीन से कोई नहीं हिला पाया। अंत में रावण स्वयं अंगद का पाँव हिलाने के लिए आया और उसके पाँव पकड़े, किंतु अंगद ने पाँव छुड़ा लिए और रावण से कहा कि- "रावण मेरे पाँव को तुमने जिस प्रकार पकड़ा है, यदि ऐसे ही [[श्रीराम]] के चरण पकड़ते तो तुम्हारा कल्याण हो जाता।" | |||
====मुष्ठी प्रहार==== | |||
जब रावण भगवान राम की निन्दा करने लगा तो युवराज अंगद सह नहीं सके। क्रोध करके इन्होंने मुठ्ठी बाँध कर अपनी दोनों भुजाएँ [[पृथ्वी]] पर इतने ज़ोर से मारी कि भूमि हिल गयी। रावण गिरते-गिरते बचा। उसका मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़ा। उनमें से चार मुकुट अंगद ने उठा लिये और श्रीराम के शिविर की ओर फेंक दिये। [[लंका]] युद्ध में भी अंगद का शौर्य अद्वितीय रहा। लाखों [[राक्षस]] इनके हाथों यमलोक सिधारे। | |||
==लंका-विजय के बाद== | ==लंका-विजय के बाद== | ||
लंका-विजय के बाद श्री राम [[अयोध्या]] पधारे। उनका विधिवत [[अभिषेक]] सम्पन्न हुआ। सभी कपि नायकों को जब विदा करके भगवान श्री राम अंगद के पास आये, तब अंगद के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। वे भगवान से बोले- 'नाथ! मेरे पिता ने मरते समय मुझे आप के चरणों में डाला था अब आप मेरा त्याग न करें। मुझे अपने चरणों में ही पड़ा रहने दें। यह कहकर अंगद भगवान के चरणों में गिर पड़े। प्रभु श्री राम ने इन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। उन्होंने अपने निजी वस्त्र तथा आभूषण अंगद को पहनाये और स्वयं इन्हें पहुँचाने चले। अंगद मन मारकर किष्किन्धा लौटे और भगवान के स्मरण में अपना समय बिताने लगे। | लंका-विजय के बाद श्री राम [[अयोध्या]] पधारे। उनका विधिवत [[अभिषेक]] सम्पन्न हुआ। सभी कपि नायकों को जब विदा करके भगवान श्री राम अंगद के पास आये, तब अंगद के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। वे भगवान से बोले- 'नाथ! मेरे पिता ने मरते समय मुझे आप के चरणों में डाला था अब आप मेरा त्याग न करें। मुझे अपने चरणों में ही पड़ा रहने दें। यह कहकर अंगद भगवान के चरणों में गिर पड़े। प्रभु श्री राम ने इन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। उन्होंने अपने निजी वस्त्र तथा आभूषण अंगद को पहनाये और स्वयं इन्हें पहुँचाने चले। अंगद मन मारकर किष्किन्धा लौटे और भगवान के स्मरण में अपना समय बिताने लगे। | ||
[[Category:पौराणिक कोश]] | रामायण के बाद के राम संबंधी साहित्य में भी अंगद का उल्लेख सर्वत्र मिलता है। [[तुलसीदास]] ने ‘रामचरितमानस’ में रावण की सभा में अंगद के पैर टेकने का बड़ा रोचक वर्णन किया है। जिसके आधार पर ‘अंगद का पांव’ मुहावरा ही चल पड़ा। [[केशवदास]] ने ‘रामचंद्रिका’ में अंगद की कूटनीति को चित्रित किया है। | ||
[[Category:रामायण]] [[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]] | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | |||
==संबंधित लेख== | |||
{{रामायण}}{{हनुमान2}}{{हनुमान}}{{पौराणिक चरित्र}} | |||
[[Category:पौराणिक चरित्र]][[Category:पौराणिक कोश]] [[Category:रामायण]][[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 10:41, 29 July 2016
चित्र:Disamb2.jpg अंगद | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- अंगद (बहुविकल्पी) |
[[चित्र:Sugriva-Angada.jpg|thumb|250px|सुग्रीव तथा अंगद]] अंगद बालि के पुत्र थे। बालि इनसे सर्वाधिक प्रेम करता था। ये परम बुद्धिमान, अपने पिता के समान बलशाली तथा भगवान श्रीराम के परम भक्त थे। अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी और सर्वस्व हरण करने के अपराध में भगवान श्रीराम के हाथों बालि की मृत्यु हुई। मरते समय बालि ने भगवान राम को ईश्वर के रूप में पहचाना और अपने पुत्र अंगद को उनके चरणों में सेवक के रूप में समर्पित कर दिया। प्रभु राम ने बालि की अन्तिम इच्छा का सम्मान करते हुए अंगद को स्वीकार किया। सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य मिला और अंगद युवराज बनाये गये।
वानर सेना का नेतृत्व
सीता की खोज में वानरी सेना का नेतृत्व युवराज अंगद ने ही किया। सम्पाती से सीता के लंका में होने की बात जानकर अंगद समुद्र पार जाने के लिये तैयार हो गये, किन्तु दल का नेता होने के कारण जामवन्त ने इन्हें जाने नहीं दिया और हनुमान लंका गये।
श्रीराम के विश्वासपात्र
भगवान श्रीराम को अंगद के शौर्य और बुद्धिमत्ता पर पूर्ण विश्वास था, इसीलिये उन्होंने रावण की सभा में युवराज अंगद को अपना दूत बनाकर भेजा और यह कहलवाया कि यदि रावण सीता को सम्मान सहित वापस लौटा दे तो वह युद्ध नहीं करेंगे। रावण नीतिज्ञ था। उसने भेदनीति से काम लेते हुए अंगद जी से कहा- "बालि मेरा मित्र था। ये राम-लक्ष्मण बालि को मारने वाले हैं। यह बड़ी लज्जा की बात है कि तुम अपने पितृघातियों के लिये दूतकर्म कर रहे हो।" युवराज अंगद ने रावण को फटकारते हुए कहा- "मूर्ख रावण! तुम्हारी इन बातों से केवल उनके मन में भेद पैदा हो सकता है, जिनकी श्रीराम के प्रति भक्ति नहीं है। बालि ने जो किया, उसे उसका फल मिला। तुम भी थोड़े दिनों बाद जाकर वहीं यमलोक में अपने मित्र का समाचार पूछना।
पाँव का जमाना
श्रीराम के दूत रूप में महाबली अंगद ने रावण को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह अपने इरादे से टस से मस नहीं हुआ। लंका से लौटने से पूर्व अपनी ताकत दिखाने के लिए भरे दरबार में अंगद ने अपना पाँव जमीन पर जमाया और रावण को ललकारा कि- "यदि उसके दरबार का कोई भी वीर और बलशाली योद्धा जमीन से मेरा पाँव हिला दे तो हम हार स्वीकार कर लेंगे।" मेघनाद और कुंभकर्ण सहित रावण के कई योद्धाओं ने प्रयत्न किए, लेकिन अंगद का पाँव जमीन से कोई नहीं हिला पाया। अंत में रावण स्वयं अंगद का पाँव हिलाने के लिए आया और उसके पाँव पकड़े, किंतु अंगद ने पाँव छुड़ा लिए और रावण से कहा कि- "रावण मेरे पाँव को तुमने जिस प्रकार पकड़ा है, यदि ऐसे ही श्रीराम के चरण पकड़ते तो तुम्हारा कल्याण हो जाता।"
मुष्ठी प्रहार
जब रावण भगवान राम की निन्दा करने लगा तो युवराज अंगद सह नहीं सके। क्रोध करके इन्होंने मुठ्ठी बाँध कर अपनी दोनों भुजाएँ पृथ्वी पर इतने ज़ोर से मारी कि भूमि हिल गयी। रावण गिरते-गिरते बचा। उसका मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़ा। उनमें से चार मुकुट अंगद ने उठा लिये और श्रीराम के शिविर की ओर फेंक दिये। लंका युद्ध में भी अंगद का शौर्य अद्वितीय रहा। लाखों राक्षस इनके हाथों यमलोक सिधारे।
लंका-विजय के बाद
लंका-विजय के बाद श्री राम अयोध्या पधारे। उनका विधिवत अभिषेक सम्पन्न हुआ। सभी कपि नायकों को जब विदा करके भगवान श्री राम अंगद के पास आये, तब अंगद के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। वे भगवान से बोले- 'नाथ! मेरे पिता ने मरते समय मुझे आप के चरणों में डाला था अब आप मेरा त्याग न करें। मुझे अपने चरणों में ही पड़ा रहने दें। यह कहकर अंगद भगवान के चरणों में गिर पड़े। प्रभु श्री राम ने इन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। उन्होंने अपने निजी वस्त्र तथा आभूषण अंगद को पहनाये और स्वयं इन्हें पहुँचाने चले। अंगद मन मारकर किष्किन्धा लौटे और भगवान के स्मरण में अपना समय बिताने लगे।
रामायण के बाद के राम संबंधी साहित्य में भी अंगद का उल्लेख सर्वत्र मिलता है। तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में रावण की सभा में अंगद के पैर टेकने का बड़ा रोचक वर्णन किया है। जिसके आधार पर ‘अंगद का पांव’ मुहावरा ही चल पड़ा। केशवदास ने ‘रामचंद्रिका’ में अंगद की कूटनीति को चित्रित किया है।
|
|
|
|
|