श्रवण कुमार: Difference between revisions

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'''श्रवण कुमार''' एक पौराणिक चरित्र है। ऐसा माना जाता है कि श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थे। श्रवण कुमार अत्यंत श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करते थे। एक बार उनके माता-पिता की इच्छा तीर्थयात्रा करने की हुई। श्रवण कुमार ने [[कांवर]] बनाई और उसमें दोनों को बैठाकर कंधे पर उठाए हुए यात्रा करने लगे। एक दिन वे [[अयोध्या]] के समीप वन में पहुंचे। वहां रात्रि के समय माता-पिता को प्यास लगी। श्रवण कुमार पानी के लिए अपना तुंबा लेकर [[सरयू नदी|सरयू]] तट पर गए। उसी समय महाराज [[दशरथ]] भी वहां आखेट के लिए आए हुए थे। श्रवण कुमार ने जब पानी में अपना तुंबा डुबोया, दशरथ ने समझा कोई हिरन जल पी रहा है। उन्होंने शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण श्रवण कुमार को लगा। दशरथ को दुखी देख मरते हुए श्रवण कुमार ने कहा- मुझे अपनी मृत्यु का दुख नहीं, किंतु माता-पिता के लिए बहुत दुख है। आप उन्हें जाकर मेरी मृत्यु का समाचार सुना दें और जल पिलाकर उनकी प्यास शांत करें। दशरथ ने देखा कि श्रवण दिव्य रूप धारण कर विमान में बैठ स्वर्ग को जा रहे हैं। [[पुत्र]] का अग्नि संस्कार कर माता-पिता ने भी उसी चिता में अग्नि समाधि ली और उत्तम लोक को प्राप्त हुए। कहा जाता है कि राजा दशरथ ने बूढ़े माँ-बाप से उनके बेटे को छीना था। इसीलिए राजा दशरथ को भी पुत्र वियोग सहना पड़ा [[रामचंद्र]] जी चौदह साल के लिए वनवास को गए। राजा दशरथ यह वियोग नहीं सह पाए। इसीलिए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
'''श्रवण कुमार''' एक पौराणिक चरित्र है। ऐसा माना जाता है कि श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थे। श्रवण कुमार अत्यंत श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करते थे। एक बार उनके माता-पिता की इच्छा तीर्थयात्रा करने की हुई। श्रवण कुमार ने [[कांवर]] बनाई और उसमें दोनों को बैठाकर कंधे पर उठाए हुए यात्रा करने लगे। एक दिन वे [[अयोध्या]] के समीप वन में पहुंचे। वहां रात्रि के समय माता-पिता को प्यास लगी। श्रवण कुमार पानी के लिए अपना तुंबा लेकर [[सरयू नदी|सरयू]] तट पर गए। उसी समय महाराज [[दशरथ]] भी वहां आखेट के लिए आए हुए थे। श्रवण कुमार ने जब पानी में अपना तुंबा डुबोया, दशरथ ने समझा कोई हिरन जल पी रहा है। उन्होंने शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण श्रवण कुमार को लगा। दशरथ को दुखी देख मरते हुए श्रवण कुमार ने कहा- मुझे अपनी मृत्यु का दुख नहीं, किंतु माता-पिता के लिए बहुत दुख है। आप उन्हें जाकर मेरी मृत्यु का समाचार सुना दें और जल पिलाकर उनकी प्यास शांत करें। दशरथ ने देखा कि श्रवण दिव्य रूप धारण कर विमान में बैठ स्वर्ग को जा रहे हैं। [[पुत्र]] का अग्नि संस्कार कर माता-पिता ने भी उसी चिता में अग्नि समाधि ली और उत्तम लोक को प्राप्त हुए। कहा जाता है कि राजा दशरथ ने बूढ़े माँ-बाप से उनके बेटे को छीना था। इसीलिए राजा दशरथ को भी पुत्र वियोग सहना पड़ा [[रामचंद्र]] जी चौदह साल के लिए वनवास को गए। राजा दशरथ यह वियोग नहीं सह पाए। इसीलिए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
==उल्लिखित संदर्भ==
* सरवन ([[संस्कृत]]: श्रवण) अंधक मुनि के पुत्र हैं। कहते हैं यह अपने अंधे माता पिता को एक बहँगी में बिठाकर तीर्थ यात्रा कराया करते थे। [[रामायण]] के [[अयोध्या काण्ड वा. रा.|अयोध्याकांड]] में इनकी कथा का उल्लेख है। श्रवण अपने प्यासे माता-पिता के पीने के लिए [[जल]] किसी जलाशय से लेने गये थे और [[अयोध्या]] के राजा [[दशरथ]] भी वहाँ शिकार खेलने गये थे। दशरथ ने समझा ने कोई [[हाथी]] जल पी रहा है और इसी भ्रम में उन्होंने शब्दभेदी बाण चला दिया जिससे श्रवण कुमार स्वर्ग सिधारे। पुत्र शोकाकुल अंधक मुनि ने शाप दिया "जा राजा तू भी हमारी ही तरह पुत्र वियोग में तड़प कर प्राण त्याग करेगा।"  फलत: [[श्रीराम]] के वनगमन के पश्चात दशरथ 'हा राम, हा राम' कहते मरे थे। 'श्रवणकुमार' नाटक प्रसिद्ध है जिसे [[महात्मा गाँधी]] ने भी देखा था और उन्हें इससे माता-पिता की भक्ति की शिक्षा भी मिली थी।<ref>[[रामचरितमानस|रामचरितमानस अयोध्याकांड]]</ref>वाल्मीकि रामायण में केवल 'तापसकुमार' मिलता है अंधक मुनि का नाम नहीं है।<ref>पुस्तक- पौराणिक कोश, लेखक-राणा प्रसाद शर्मा, पृष्ठ संख्या- 513, प्रकाशन- ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी</ref>   
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Revision as of 13:09, 30 January 2014

श्रवण कुमार एक पौराणिक चरित्र है। ऐसा माना जाता है कि श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थे। श्रवण कुमार अत्यंत श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करते थे। एक बार उनके माता-पिता की इच्छा तीर्थयात्रा करने की हुई। श्रवण कुमार ने कांवर बनाई और उसमें दोनों को बैठाकर कंधे पर उठाए हुए यात्रा करने लगे। एक दिन वे अयोध्या के समीप वन में पहुंचे। वहां रात्रि के समय माता-पिता को प्यास लगी। श्रवण कुमार पानी के लिए अपना तुंबा लेकर सरयू तट पर गए। उसी समय महाराज दशरथ भी वहां आखेट के लिए आए हुए थे। श्रवण कुमार ने जब पानी में अपना तुंबा डुबोया, दशरथ ने समझा कोई हिरन जल पी रहा है। उन्होंने शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण श्रवण कुमार को लगा। दशरथ को दुखी देख मरते हुए श्रवण कुमार ने कहा- मुझे अपनी मृत्यु का दुख नहीं, किंतु माता-पिता के लिए बहुत दुख है। आप उन्हें जाकर मेरी मृत्यु का समाचार सुना दें और जल पिलाकर उनकी प्यास शांत करें। दशरथ ने देखा कि श्रवण दिव्य रूप धारण कर विमान में बैठ स्वर्ग को जा रहे हैं। पुत्र का अग्नि संस्कार कर माता-पिता ने भी उसी चिता में अग्नि समाधि ली और उत्तम लोक को प्राप्त हुए। कहा जाता है कि राजा दशरथ ने बूढ़े माँ-बाप से उनके बेटे को छीना था। इसीलिए राजा दशरथ को भी पुत्र वियोग सहना पड़ा रामचंद्र जी चौदह साल के लिए वनवास को गए। राजा दशरथ यह वियोग नहीं सह पाए। इसीलिए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

उल्लिखित संदर्भ

  • सरवन (संस्कृत: श्रवण) अंधक मुनि के पुत्र हैं। कहते हैं यह अपने अंधे माता पिता को एक बहँगी में बिठाकर तीर्थ यात्रा कराया करते थे। रामायण के अयोध्याकांड में इनकी कथा का उल्लेख है। श्रवण अपने प्यासे माता-पिता के पीने के लिए जल किसी जलाशय से लेने गये थे और अयोध्या के राजा दशरथ भी वहाँ शिकार खेलने गये थे। दशरथ ने समझा ने कोई हाथी जल पी रहा है और इसी भ्रम में उन्होंने शब्दभेदी बाण चला दिया जिससे श्रवण कुमार स्वर्ग सिधारे। पुत्र शोकाकुल अंधक मुनि ने शाप दिया "जा राजा तू भी हमारी ही तरह पुत्र वियोग में तड़प कर प्राण त्याग करेगा।" फलत: श्रीराम के वनगमन के पश्चात दशरथ 'हा राम, हा राम' कहते मरे थे। 'श्रवणकुमार' नाटक प्रसिद्ध है जिसे महात्मा गाँधी ने भी देखा था और उन्हें इससे माता-पिता की भक्ति की शिक्षा भी मिली थी।[1]वाल्मीकि रामायण में केवल 'तापसकुमार' मिलता है अंधक मुनि का नाम नहीं है।[2]

श्रवण कुमार की कथा

महाराज दशरथ ने कहा, "कौशल्ये! यह मेरे विवाह से पूर्व की घटना है। एक दिन सन्ध्या के समय अकस्मात मैं धनुष बाण ले रथ पर सवार हो शिकार के लिये निकल पड़ा। जब मैं सरयू के तट के साथ-साथ रथ में जा रहा था तो मुझे ऐसा शब्द सुनाई पड़ा मानो वन्य हाथी गरज रहा हो। उस हाथी को मारने के लिये मैंने तीक्ष्ण शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण के लक्ष्य पर लगते ही किसी जल में गिरते हुए मनुष्य के मुख से ये शब्द निकले - 'आह, मैं मरा! मुझ निरपराध को किसने मारा? हे पिता! हे माता! अब मेरी मृत्यु के पश्चात् तुम लोगों की भी मृत्यु, जल के बिना प्यासे ही तड़प-तड़प कर, हो जायेगी। न जाने किस पापी ने बाण मार कर मेरी और मेरे माता-पिता की हत्या कर डाली।'
"इससे मुझे ज्ञात हुआ कि हाथी की गरज सुनना मेरा भ्रम था, वास्तव में वह शब्द जल में डूबते हुये घड़े का था।
"उन वचनों को सुन कर मेरे हाथ काँपने लगे और मेरे हाथों से धनुष भूमि पर गिर पड़ा। दौड़ता हुआ मैं वहाँ पर पहुँचा जहाँ पर वह मनुष्य था। मैंने देखा कि एक वनवासी युवक रक्तरंजित पड़ा है और पास ही एक औंधा घड़ा जल में पड़ा है। मुझे देखकर क्रुद्ध स्वर में वह बोला - 'राजन! मेरा क्या अपराध था जिसके लिये आपने मेरा वध करके मुझे दण्ड दिया है? क्या मेरा अपराध यही है कि मैं अपने प्यासे वृद्ध माता-पिता के लिये जल लेने आया था? यदि आपके हृदय में किंचित मात्र भी दया है तो मेरे प्यासे माता-पिता को जल पिला दो जो निकट ही मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु पहले इस बाण को मेरे कलेजे से निकालो जिसकी पीड़ा से मैं तड़प रहा हूँ। यद्यपि मैं वनवासी हूँ किन्तु फिर भी ब्राह्मण नहीं हूँ। मेरे पिता वैश्य और मेरी माता शूद्र है। इसलिये मेरी मृत्यु से तुम्हें ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगेगा।'
"मेरे द्वारा उसके हृदय से बाण खींचते ही उसने प्राण त्याग दिये। अपने इस कृत्य से मेरा हृदय पश्चाताप से भर उठा। घड़े में जल भर कर मैं उसके माता पिता के पास पहुँचा। मैंने देखा, वे दोनों अत्यन्त दुर्बल और नेत्रहीन थे। उनकी दशा देख कर मेरा हृदय और भी विदीर्ण हो गया। मेरी आहट पाते ही वे बोले - 'बेटा श्रवण! इतनी देर कहाँ लगाई? पहले अपनी माता को पानी पिला दो क्योंकि वह प्यास से अत्यंत व्याकुल हो रही है।'
"श्रवण के पिता के वचनों को सुन कर मैंने डरते-डरते कहा - 'हे मुने! मैं अयोध्या का राजा दशरथ हूं। मैंने, अंधकार के कारण, हाथी के भ्रम में तुम्हारे निरपराध पुत्र की हत्या कर दी है। अज्ञानवश किये गये अपने इस अपराध से मैं अत्यंत व्यथित हूँ। आप मुझे दण्ड दीजिये।'
"पुत्र की मृत्यु का समाचार सुन कर दोनों विलाप करते हुये कहने लगे - 'मन तो करता है कि मैं अभी शाप देकर तुम्हें भस्म कर दूँ और तुम्हारे सिर के सात टुकड़े कर दूँ। किन्तु तुमने स्वयं आकर अपना अपराध स्वीकार किया है, अतः मैं ऐसा नहीं करूँगा। अब तुम हमें हमारे श्रवण के पास ले चलो।' श्रवण के पास पहुँचने पर वे उसके मृत शरीर को हाथ से टटोलते हुये हृदय-विदारक विलाप करने लगे। अपने पुत्र को उन्होंने जलांजलि दिया और उसके पश्चात् वे मुझसे बोले - 'हे राजन्! जिस प्रकार पुत्र वियोग में हमारी मृत्यु हो रही है, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग में घोर कष्ट उठा कर होगी। शाप देने के पश्चात् उन्होंने अपने पुत्र की चिता बनाई और पुत्र के साथ वे दोनों स्वयं भी चिता में बैठ जल कर भस्म हो गये।'
"कौशल्ये! मेरे उस पाप कर्म का दण्ड आज मुझे प्राप्त हो रहा है।"[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस अयोध्याकांड
  2. पुस्तक- पौराणिक कोश, लेखक-राणा प्रसाद शर्मा, पृष्ठ संख्या- 513, प्रकाशन- ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी
  3. श्रवणकुमार की कथा - अयोध्याकाण्ड (19) (हिंदी) संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण। अभिगमन तिथि: 30 जनवरी, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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