कबीर का व्यक्तित्व: Difference between revisions
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हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, [[तुलसीदास]]। परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था। यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे। मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। | हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, [[तुलसीदास]]। परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था। यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे। मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। | ||
==आकर्षक वक्ता== | |||
कबीर की वाणियों में सबकुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है। उसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य–असाधारण जीवन रस भर दिया है। कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को 'कवि' न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? परन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि यह कविरूप घलुए में मिली हुई वस्तु है। कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कही थीं। उनकी छंदोयोजना, उचित–वैचित्र्य और [[अलंकार]] विधान पूर्ण–रूप से स्वाभाविक और अयत्नसाधित हैं। काव्यगत रूढ़ियों के न तो वे जानकार थे और न ही क़ायल। अपने अनन्य–साधारण व्यक्तित्व के कारण ही वे सहृदय को आकृष्ट करते हैं। उनमें एक और बड़ा भारी गुण है, जो उन्हें अन्यान्य संतों से विशेष बना देता है। | कबीर की वाणियों में सबकुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है। उसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य–असाधारण जीवन रस भर दिया है। कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को 'कवि' न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? परन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि यह कविरूप घलुए में मिली हुई वस्तु है। कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कही थीं। उनकी छंदोयोजना, उचित–वैचित्र्य और [[अलंकार]] विधान पूर्ण–रूप से स्वाभाविक और अयत्नसाधित हैं। काव्यगत रूढ़ियों के न तो वे जानकार थे और न ही क़ायल। अपने अनन्य–साधारण व्यक्तित्व के कारण ही वे सहृदय को आकृष्ट करते हैं। उनमें एक और बड़ा भारी गुण है, जो उन्हें अन्यान्य संतों से विशेष बना देता है। | ||
==सादगी और सहजभाव== | |||
यद्यपि कबीरदास एक ऐसे विराट और आनंदमय लोक की बात करते हैं जो साधारण मनुष्यों की पहुँच के बहुत ऊपर है और वे अपने को उस देश का निवासी बताते हैं जहाँ पर बारह महीने बसंत रहता है, निरन्तर अमृत की झड़ी लगी रहती है। फिर भी जैसा की एवेलिन अंडरहिल ने कहा है, वे उस आत्मविस्मृतिकारी परम उल्लासमय साक्षात्कार के समय भी दैनदिन–व्यवहार की दुनिया के साथ धरती पर जमे रहते हैं; उनके महिला–समन्वित और आवेगमय विचार, बराबर धीर और सजीव बुद्ध तथा सहज भाव द्वारा नियंत्रित होते रहते हैं, जो सच्चे मरमी कवियों में ही मिलते हैं। उनकी सर्वाधिक लक्ष्य होने वाली विशेषताएँ हैं— | यद्यपि कबीरदास एक ऐसे विराट और आनंदमय लोक की बात करते हैं जो साधारण मनुष्यों की पहुँच के बहुत ऊपर है और वे अपने को उस देश का निवासी बताते हैं जहाँ पर बारह महीने बसंत रहता है, निरन्तर अमृत की झड़ी लगी रहती है। फिर भी जैसा की एवेलिन अंडरहिल ने कहा है, वे उस आत्मविस्मृतिकारी परम उल्लासमय साक्षात्कार के समय भी दैनदिन–व्यवहार की दुनिया के साथ धरती पर जमे रहते हैं; उनके महिला–समन्वित और आवेगमय विचार, बराबर धीर और सजीव बुद्ध तथा सहज भाव द्वारा नियंत्रित होते रहते हैं, जो सच्चे मरमी कवियों में ही मिलते हैं। उनकी सर्वाधिक लक्ष्य होने वाली विशेषताएँ हैं— | ||
*सादगी और सहजभाव पर निरन्तर ज़ोर देते रहना, | *सादगी और सहजभाव पर निरन्तर ज़ोर देते रहना, | ||
*बाह्य धर्माचारों की निर्मम आलोचना, और | *बाह्य धर्माचारों की निर्मम आलोचना, और | ||
*सब प्रकार के विरागभाव और हेतु प्रकृतिगत अनुसंधित्सा के द्वारा सहज ही ग़लत दिखने वाली बातों को दुर्बोध्य और | *सब प्रकार के विरागभाव और हेतु प्रकृतिगत अनुसंधित्सा के द्वारा सहज ही ग़लत दिखने वाली बातों को दुर्बोध्य और महान् बना देने की चेष्टा के प्रति वैर–भाव। | ||
इसीलिए वे साधारण मनुष्य के लिए दुर्बोध्य नहीं हो जाते और अपने असाधारण भावों को ग्राह्य बनाने में सदा सफल दिखाई देते हैं। कबीरदास के इस गुण ने सैकड़ों वर्ष से उन्हें साधारण जनता का नेता और साथी बना दिया है। वे केवल श्रद्धा और भक्ति के पात्र ही नहीं, प्रेम और विश्वास के आस्पद भी बन गए हैं। सच पूछा जाए तो जनता कबीरदास पर श्रद्धा करने की अपेक्षा प्रेम अधिक करती है। इसीलिए उनके संत–रूप के साथ ही उनका कवि–रूप भी बराबर चलता रहता है। वे केवल नेता और गुरु ही नहीं हैं, साथी और मित्र भी हैं। | इसीलिए वे साधारण मनुष्य के लिए दुर्बोध्य नहीं हो जाते और अपने असाधारण भावों को ग्राह्य बनाने में सदा सफल दिखाई देते हैं। कबीरदास के इस गुण ने सैकड़ों वर्ष से उन्हें साधारण जनता का नेता और साथी बना दिया है। वे केवल श्रद्धा और भक्ति के पात्र ही नहीं, प्रेम और विश्वास के आस्पद भी बन गए हैं। सच पूछा जाए तो जनता कबीरदास पर श्रद्धा करने की अपेक्षा प्रेम अधिक करती है। इसीलिए उनके संत–रूप के साथ ही उनका कवि–रूप भी बराबर चलता रहता है। वे केवल नेता और गुरु ही नहीं हैं, साथी और मित्र भी हैं। | ||
==महान समाज सुधारक== | |||
कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे (अगर उपयोग किया जाए तो) समाज–सुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसलिए उनको समाज–सुधारक समझना ग़लती है। वस्तुतः वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे। समष्टि–वृत्ति उनके चित्त का स्वाभाविक धर्म नहीं था। वे व्यष्टिवादी थे। सर्व–धर्म समन्सय के लिए जिस मज़बूत आधार की ज़रूरत होती है वह वस्तु कबीर के पदों में सर्वत्र पाई जाती है, वह बात है भगवान के प्रति अहैतुक प्रेम और मनुष्यमात्र को उसके निर्विशिष्ट रूप में समान समझना। परन्तु आजकल सर्व–धर्म समन्वय से जिस प्रकार का भाव लिया जाता है, वह कबीर में एकदम नहीं था। सभी धर्मों के बाह्य आचारों और अन्तर संस्कारों में कुछ न कुछ विशेष देखना और सब आचारों, संस्कारों के प्रति सम्मान की दृष्टि उत्पन्न करना ही यह भाव है। कबीर इनके कठोर विरोधी थे। उन्हें अर्थहीन आचार पसन्द नहीं थे, चाहे वे बड़े से बड़े आचार्य या पैगम्बर के ही प्रवर्त्तित हों या उच्च से उच्च समझी जाने वाली धर्म पुस्तक से उपदिष्ट हों। बाह्याचार की निरर्थक और संस्कारों की विचारहीन ग़ुलामी कबीर को पसन्द नहीं थी। वे इनसे मुक्त मनुष्यता को ही प्रेमभक्ति का पात्र मानते थे। धर्मगत विशेषताओं के प्रति सहनशीलता और संभ्रम का भाव भी उनके पदों में नहीं मिलता। परन्तु वे मनुष्यमात्र को समान मर्यादा का अधिकारी मानते थे। जातिगत, कुलगत, आचारगत श्रेष्ठता का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं था। सम्प्रदाय–प्रतिष्ठा के भी वे विरोधी जान पड़ते हैं। परन्तु फिर भी विरोधाभास यह है कि उन्हें हज़ारों की संख्या में लोग सम्प्रदाय विशेष के प्रवर्त्तक मानने में ही गौरव अनुभव करते हैं। | कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे (अगर उपयोग किया जाए तो) समाज–सुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसलिए उनको समाज–सुधारक समझना ग़लती है। वस्तुतः वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे। समष्टि–वृत्ति उनके चित्त का स्वाभाविक धर्म नहीं था। वे व्यष्टिवादी थे। सर्व–धर्म समन्सय के लिए जिस मज़बूत आधार की ज़रूरत होती है वह वस्तु कबीर के पदों में सर्वत्र पाई जाती है, वह बात है भगवान के प्रति अहैतुक प्रेम और मनुष्यमात्र को उसके निर्विशिष्ट रूप में समान समझना। परन्तु आजकल सर्व–धर्म समन्वय से जिस प्रकार का भाव लिया जाता है, वह कबीर में एकदम नहीं था। सभी धर्मों के बाह्य आचारों और अन्तर संस्कारों में कुछ न कुछ विशेष देखना और सब आचारों, संस्कारों के प्रति सम्मान की दृष्टि उत्पन्न करना ही यह भाव है। कबीर इनके कठोर विरोधी थे। उन्हें अर्थहीन आचार पसन्द नहीं थे, चाहे वे बड़े से बड़े आचार्य या पैगम्बर के ही प्रवर्त्तित हों या उच्च से उच्च समझी जाने वाली धर्म पुस्तक से उपदिष्ट हों। बाह्याचार की निरर्थक और संस्कारों की विचारहीन ग़ुलामी कबीर को पसन्द नहीं थी। वे इनसे मुक्त मनुष्यता को ही प्रेमभक्ति का पात्र मानते थे। धर्मगत विशेषताओं के प्रति सहनशीलता और संभ्रम का भाव भी उनके पदों में नहीं मिलता। परन्तु वे मनुष्यमात्र को समान मर्यादा का अधिकारी मानते थे। जातिगत, कुलगत, आचारगत श्रेष्ठता का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं था। सम्प्रदाय–प्रतिष्ठा के भी वे विरोधी जान पड़ते हैं। परन्तु फिर भी विरोधाभास यह है कि उन्हें हज़ारों की संख्या में लोग सम्प्रदाय विशेष के प्रवर्त्तक मानने में ही गौरव अनुभव करते हैं। | ||
==धर्मगुरु== | |||
कबीर धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परन्तु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है। काव्य–रूप में उसे आस्वादन करने की तो प्रथा ही चल पड़ी है। समाज–सुधारक के रूप में, सर्व–धर्मसमन्वयकारी के रूप में, हिन्दू–मुस्लिम–ऐक्य–विधायक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है। यों तो 'हरि अनंत हरिकथा अनंता, विविध भाँति गावहिं श्रुति–संता' के अनुसार कबीर कथित हरि की कथा का विविध रूप में उपयोग होना स्वाभाविक ही है, पर कभी–कभी उत्साहपरायण विद्वान् ग़लती से कबीर को इन्हीं रूपों में से किसी एक का प्रतिनिधि समझकर ऐसी–ऐसी बातें करने लगते हैं जो कि असंगत कही जा सकती हैं। | |||
कबीर धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परन्तु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है। काव्य–रूप में उसे आस्वादन करने की तो प्रथा ही चल पड़ी है। समाज–सुधारक के रूप में, सर्व–धर्मसमन्वयकारी के रूप में, हिन्दू–मुस्लिम–ऐक्य–विधायक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है। यों तो 'हरि अनंत हरिकथा अनंता, विविध भाँति गावहिं श्रुति–संता' के अनुसार कबीर कथित हरि की कथा का विविध रूप में उपयोग होना स्वाभाविक ही है, पर कभी–कभी उत्साहपरायण | |||
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Latest revision as of 12:33, 15 September 2017
कबीर का व्यक्तित्व
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पूरा नाम | संत कबीरदास |
अन्य नाम | कबीरा |
जन्म | सन 1398 (लगभग) |
जन्म भूमि | लहरतारा ताल, काशी |
मृत्यु | सन 1518 (लगभग) |
मृत्यु स्थान | मगहर, उत्तर प्रदेश |
पालक माता-पिता | नीरु और नीमा |
पति/पत्नी | लोई |
संतान | कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री) |
कर्म भूमि | काशी, बनारस |
कर्म-क्षेत्र | समाज सुधारक कवि |
मुख्य रचनाएँ | साखी, सबद और रमैनी |
विषय | सामाजिक |
भाषा | अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी |
शिक्षा | निरक्षर |
नागरिकता | भारतीय |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, तुलसीदास। परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था। यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे। मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है।
आकर्षक वक्ता
कबीर की वाणियों में सबकुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है। उसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य–असाधारण जीवन रस भर दिया है। कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को 'कवि' न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? परन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि यह कविरूप घलुए में मिली हुई वस्तु है। कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कही थीं। उनकी छंदोयोजना, उचित–वैचित्र्य और अलंकार विधान पूर्ण–रूप से स्वाभाविक और अयत्नसाधित हैं। काव्यगत रूढ़ियों के न तो वे जानकार थे और न ही क़ायल। अपने अनन्य–साधारण व्यक्तित्व के कारण ही वे सहृदय को आकृष्ट करते हैं। उनमें एक और बड़ा भारी गुण है, जो उन्हें अन्यान्य संतों से विशेष बना देता है।
सादगी और सहजभाव
यद्यपि कबीरदास एक ऐसे विराट और आनंदमय लोक की बात करते हैं जो साधारण मनुष्यों की पहुँच के बहुत ऊपर है और वे अपने को उस देश का निवासी बताते हैं जहाँ पर बारह महीने बसंत रहता है, निरन्तर अमृत की झड़ी लगी रहती है। फिर भी जैसा की एवेलिन अंडरहिल ने कहा है, वे उस आत्मविस्मृतिकारी परम उल्लासमय साक्षात्कार के समय भी दैनदिन–व्यवहार की दुनिया के साथ धरती पर जमे रहते हैं; उनके महिला–समन्वित और आवेगमय विचार, बराबर धीर और सजीव बुद्ध तथा सहज भाव द्वारा नियंत्रित होते रहते हैं, जो सच्चे मरमी कवियों में ही मिलते हैं। उनकी सर्वाधिक लक्ष्य होने वाली विशेषताएँ हैं—
- सादगी और सहजभाव पर निरन्तर ज़ोर देते रहना,
- बाह्य धर्माचारों की निर्मम आलोचना, और
- सब प्रकार के विरागभाव और हेतु प्रकृतिगत अनुसंधित्सा के द्वारा सहज ही ग़लत दिखने वाली बातों को दुर्बोध्य और महान् बना देने की चेष्टा के प्रति वैर–भाव।
इसीलिए वे साधारण मनुष्य के लिए दुर्बोध्य नहीं हो जाते और अपने असाधारण भावों को ग्राह्य बनाने में सदा सफल दिखाई देते हैं। कबीरदास के इस गुण ने सैकड़ों वर्ष से उन्हें साधारण जनता का नेता और साथी बना दिया है। वे केवल श्रद्धा और भक्ति के पात्र ही नहीं, प्रेम और विश्वास के आस्पद भी बन गए हैं। सच पूछा जाए तो जनता कबीरदास पर श्रद्धा करने की अपेक्षा प्रेम अधिक करती है। इसीलिए उनके संत–रूप के साथ ही उनका कवि–रूप भी बराबर चलता रहता है। वे केवल नेता और गुरु ही नहीं हैं, साथी और मित्र भी हैं।
महान समाज सुधारक
कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे (अगर उपयोग किया जाए तो) समाज–सुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसलिए उनको समाज–सुधारक समझना ग़लती है। वस्तुतः वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे। समष्टि–वृत्ति उनके चित्त का स्वाभाविक धर्म नहीं था। वे व्यष्टिवादी थे। सर्व–धर्म समन्सय के लिए जिस मज़बूत आधार की ज़रूरत होती है वह वस्तु कबीर के पदों में सर्वत्र पाई जाती है, वह बात है भगवान के प्रति अहैतुक प्रेम और मनुष्यमात्र को उसके निर्विशिष्ट रूप में समान समझना। परन्तु आजकल सर्व–धर्म समन्वय से जिस प्रकार का भाव लिया जाता है, वह कबीर में एकदम नहीं था। सभी धर्मों के बाह्य आचारों और अन्तर संस्कारों में कुछ न कुछ विशेष देखना और सब आचारों, संस्कारों के प्रति सम्मान की दृष्टि उत्पन्न करना ही यह भाव है। कबीर इनके कठोर विरोधी थे। उन्हें अर्थहीन आचार पसन्द नहीं थे, चाहे वे बड़े से बड़े आचार्य या पैगम्बर के ही प्रवर्त्तित हों या उच्च से उच्च समझी जाने वाली धर्म पुस्तक से उपदिष्ट हों। बाह्याचार की निरर्थक और संस्कारों की विचारहीन ग़ुलामी कबीर को पसन्द नहीं थी। वे इनसे मुक्त मनुष्यता को ही प्रेमभक्ति का पात्र मानते थे। धर्मगत विशेषताओं के प्रति सहनशीलता और संभ्रम का भाव भी उनके पदों में नहीं मिलता। परन्तु वे मनुष्यमात्र को समान मर्यादा का अधिकारी मानते थे। जातिगत, कुलगत, आचारगत श्रेष्ठता का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं था। सम्प्रदाय–प्रतिष्ठा के भी वे विरोधी जान पड़ते हैं। परन्तु फिर भी विरोधाभास यह है कि उन्हें हज़ारों की संख्या में लोग सम्प्रदाय विशेष के प्रवर्त्तक मानने में ही गौरव अनुभव करते हैं।
धर्मगुरु
कबीर धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परन्तु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है। काव्य–रूप में उसे आस्वादन करने की तो प्रथा ही चल पड़ी है। समाज–सुधारक के रूप में, सर्व–धर्मसमन्वयकारी के रूप में, हिन्दू–मुस्लिम–ऐक्य–विधायक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है। यों तो 'हरि अनंत हरिकथा अनंता, विविध भाँति गावहिं श्रुति–संता' के अनुसार कबीर कथित हरि की कथा का विविध रूप में उपयोग होना स्वाभाविक ही है, पर कभी–कभी उत्साहपरायण विद्वान् ग़लती से कबीर को इन्हीं रूपों में से किसी एक का प्रतिनिधि समझकर ऐसी–ऐसी बातें करने लगते हैं जो कि असंगत कही जा सकती हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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