ग़ालिब-आग़ामीर मुलाक़ात: Difference between revisions
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Revision as of 09:55, 24 February 2017
thumb|ग़ालिब|250px ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि तथा महान शायर थे। जब मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ लखनऊ पहुँचे तो उन दिनों ग़ाज़ीउद्दीन हैदर अवध के बादशाह थे। वह ऐशो-इशरत में डूबे हुए इन्सान थे। यद्यपि उन्हें भी शेरो-शायरी से कुछ-न-कुछ दिलचस्पी थी। शासन का काम मुख्यत: नायब सल्तनत मोतमुद्दौला सय्यद मुहम्मद ख़ाँ देखते थे, जो लखनऊ के इतिहास में ‘आग़ा मीर’ के नाम से मशहूर हैं। अब तक आग़ा मीर की ड्योढ़ी मुहल्ला लखनऊ में ज्यों का त्यों क़ायम है। उस समय आग़ा मीर में ही शासन की सब शक्ति केन्द्रित थी। वह सफ़ेद स्याहा, जो चाहते थे करते थे। यह आदमी शुरू में एक 'ख़ानसामाँ' (रसोइया) के रूप में नौकर हुआ था, किन्तु शीघ्र ही नवाब और रेज़ीडेंट को ऐसा ख़ुश कर लिया कि वे इसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहते थे। उन्हीं की मदद से वह इस पद पर पहुँच पाया था। बिना उसकी सहायता के बादशाह तक पहुँच न हो सकती थी। ग़ालिब के कुछ हितेषियों ने आग़ामीर तक ख़बर पहुँचाई कि ग़ालिब लखनऊ में मौजूद हैं। आग़ामीर ने कहलाया कि उन्हें मिर्ज़ा की मुलाक़ात से ख़ुशी होगी। मिलने की बात तय हुई, परन्तु मिर्ज़ा ने यह इच्छा प्रकट की कि मेरे पहुँचने पर आग़ामीर खड़े होकर मेरा स्वागत करें और मुझे नक़द-नज़र पेश करने से बरी रखा जाए। आग़ामीर ने इन शर्तों को स्वीकार नहीं किया और मुलाक़ात नहीं हो सकी। ग़ालिब लखनऊ में लगभग पाँच महीने रहे और वहाँ से 27 जून, 1827 शुक्रवार को कलकत्ता के लिए रवाना हुए। अभी सफ़र में ही थे कि ग़ाज़ीउद्दीन हैदर का देहान्त हो गया और उनकी जगह नसीरउद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। बहरहाल आग़ामीर से भेंट न होने के कारण जो फ़ारसी 'क़सीदा' (पद्यात्मक प्रशंसा) ग़ालिब ने दिल्ली से लखनऊ आने तथा अपनी मुसीबतों का ज़िक्र करते हुए लिखा था, वह अवध के बादशाह के सामने पेश न हो सका और नसीरउद्दीन हैदर के गद्दी पर बैठने के सात-आठ वर्ष बाद यह क़सीदा नायब सल्तनत रोशनउद्दौला एवं मुंशी मुहम्मद हसन के माध्यम से दरबार तक पहुँचा और वहाँ पर पढ़ा गया। वहाँ से शायर को पाँच हज़ार रुपये इनाम देने का हुक्म हुआ, पर इसमें से एक फूटी कोड़ी भी ग़ालिब को न मिली। ‘नासिख़’ के कथनानुसार तीन हज़ार रोशनउद्दौला ने और दो हज़ार मुहम्मद हसन ने उड़ा लिए।
अन्य स्थानों की यात्रा
लखनऊ से कलकत्ता (कोलकाता) जाते हुए यह कानपुर, बाँदा, बनारस, पटना और मुर्शिदाबाद में भी ठहरे। लखनऊ से 3 दिन चलकर कानपुर पहुँचे। वहाँ से बाँदा गए। बाँदा में मौलवी मुहम्मदअली सदर अमीन ने इनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। इन्हें हर तरह का आराम दिया और कलकत्ता के प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली आदमियों के नाम पत्र भी दिए। बाँदा में ही इन्होंने वह ग़ज़ल लिखी थी, जिसका निम्नलिखित शेर मशहूर है-
thumb|left|ग़ालिब हवेली का आंगन|250px
यात्रा में कठिनाई भी आई होगी, निराशा भी हुई होगी। यात्राकाल की ग़ज़लों में इसकी भी ध्वनि है-
बाँदा से मोड़ा गए, मोड़ा से चिल्लातारा। फिर वहाँ से नाव द्वारा इलाहाबाद पहुँचे। जान पड़ता है कि इलाहाबाद में कोई अप्रीतिकर साहित्यिक संघर्ष हुआ। पर उसका कहीं कोई विवरण नहीं मिलता। उनके एक फ़ारसी क़सीदे से सिर्फ़ इतना मालूम होता है कि वहाँ कुछ न कुछ हुआ ज़रूर था-
नफ़स बलर्ज़: ज़िवादे नहीबे कलकत्ता,
निगाहे ख़ैर: ज़हंगामए इलाहाबाद।
इलाहाबाद में कुछ ज़्यादा ठहरना चाहते थे पर अवसर न मिला और यह बनारस के लिए रवाना हुए। बनारस पहुँचते-पहुँचते अस्वस्थ हो गए। पर बनारस के जादू ने जैसे ‘हज़ी’ को मुग्ध कर लिया था, वैसे ही उसके चित्ताकर्षक दृश्यों ने इन्हें भी अनुगत बना लिया। बनारस इन्हें इतना भाया कि शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) पर भी उसे तर्जीह दी-
जहाँ आबाद गर नबूद अलम नेस्त।
जहानाबाद बादाजाए कमनेस्त।
आख़िर में कहते हैं कि हे प्रभु! बनारस को बुरी नज़र से बचाना। यह नन्दित स्वर्ग है, यह भरा-पूरा स्वर्ग है-
तआलिल्ला बनारस चश्मे बद्दूर।
बहिश्ते ख़ुर्रमो फ़िरदौस मामूर।
बनारस इनको इतना अच्छा लगा कि ज़िन्दगी भर उसे नहीं भूल पाये। 40 साल बाद भी एक पत्र में लिखते हैं कि, ‘अगर मैं जवानी में वहाँ जाता तो, वहीं पर बस जाता।’ बनारस की गंगा नदी एवं प्रभात ने इन्हें मोह लिया था। इनका बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन उन्होंने किया है। वहाँ की उपासना, पूजा, घंटाध्वनि, मूर्तियों (मानवी और दैवी दोनों) सबके प्रति उनमें आकर्षण उत्पन्न हो गया था। काशी के बारे में कहते हैं कि-
इबादतख़ानए नाक़ूसियाँ अस्त।
हमाना काबए हिन्दोस्ताँ अस्त।
(यह शंखवादकों का उपासना स्थल है। निश्चय ही यह हिन्दुस्तान का काबा है।)
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