अश्वत्थामा: Difference between revisions

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अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। इनकी माता का नाम कृपा था जो शरद्वान की लड़की थी। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। एक बार रात में ये पाण्डवों के शिविर में गये और सोते में अपने पिता के हनन करने वाले धृष्टद्युम्न और शिखंडी तथा पाण्डवों के पाँचों लड़कों को मार डाला। पुत्र वियोग के कारण द्रौपदी करुण विलाप करने लगी। इस पर क्षुब्ध हो अश्वत्थामा को अर्जुन ने चुनौती दी। अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ऐशिकास्त्र से आक्रमण किया। अर्जुन ने प्रत्याक्रमण के लिए ब्रह्माशिरास्त्र उठाया, तब ये भागे 'अश्वत्थामा भय कर भग्यो'। व्यास, नारद, युधिष्ठिर आदि ने अर्जुन को अस्त्र-प्रयोग करने से रोका। द्रौपदी ने इनकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया। अत: अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दिया।


महाभारत के युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। उन्होंने भीम-पुत्र घटोत्कच को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। महाभारत युद्ध में धोखे से किये गये द्रोणाचार्य के वध के विषय में जानकर अश्वत्थामा का ख़ून खौल उठा। पूर्वकाल में द्रोण ने नारायण को प्रसन्न करके नारायणास्त्र की प्राप्ति की थी। फिर अपने बेटे अश्वत्थामा को नारायणास्त्र प्रदान करके उन्होंने किसी पर सहसा उसका आघात करने को मना किया। अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को उसी अस्त्र से मारने का निश्चय किया। धृष्टद्युम्न पर जब उन्होंने नारायणास्त्र का प्रयोग किया तब कृष्ण ने अपनी ओर के सब सैनिकों को रथ से उतर-कर हथियार डालने के लिए कहा क्योंकि यही एकमात्र उसके निराकरण का उपाय था। भीम ने कृष्ण की बात नहीं मानी तो सबको छोड़कर नारायणास्त्र उसी के मस्तक पर प्रहार करने लगा। कृष्ण ने उसे बलात रथ से उतारकर नारायणास्त्र के प्रभाव को शांत किया। अश्वत्थामा ने आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया किंतु श्रीकृष्ण तथा अर्जुन पर उसका प्रभाव नहीं हुआ, शेष समस्त सेना व्याकुल और घायल हो गयी। अश्वत्थामा बड़े असमंजस में पड़ गये, तभी व्यास ने प्रकट होकर उन्हें बताया कि श्रीकृष्ण साक्षात विष्णु हैं, जिन्होंने आराधना से शिव को प्रसन्न कर रखा है। उन्हीं के तप से महामुनि नर (अर्जुन) प्रकट हुए। अत: अर्जुन और कृष्ण साक्षात नरनारायण हैं। अश्वत्थामा ने मन ही मन शिव, नर और नारायण को नमस्कार किया और सेना सहित शिविर की ओर प्रस्थान किया। कर्ण के सेनापतित्व में युद्ध करते हुए अश्वत्थामा ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक धृष्टद्युम्न को नहीं मार डालेंगे, अपना कवच नहीं उतारेंगे।

ब्रह्मास्त्र का प्रयोग

अठारह दिन तक युद्ध चलता रहा। अश्वत्थामा को जब दुर्योधन के अधर्म-पूर्वक किये गये वध के विषय में पता चला तो वे क्रोध से अंधे हो गये। उन्होंने शिविर में सोते हुए समस्त पांचालों को मार डाला। द्रौपदी को समाचार मिला तो उसने आमरण अनशन कर लिया और कहा कि वह अनशन तभी तोड़ेगी, जब कि अश्वत्थामा के मस्तक पर सदैव बनी रहने वाली मणि उसे प्राप्त होगी। कौरव-पांडवों के युद्ध में अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था। शिव-प्रदत्त पाशुपत अस्त्र से अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र का निवारण किया। [1] पांडवों को जड़-मूल से नष्ट करने के लिए अश्वत्थामा ने गर्भवती उत्तरा पर भी वार किया था। अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा, प्रत्युत्तर में अर्जुन ने भी छोड़ा। अश्वत्थामा ने पांडवों के नाश के लिए छोड़ा था और अर्जुन ने उसके ब्रह्मास्त्र को नष्ट करने के लिए। नारद तथा व्यास के कहने से अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र का उपसंहार कर दिया किंतु अश्वत्थामा ने वापस लेने की सामर्थ्य की न्यूनता बताते हुए पांडव परिवार के गर्भों को नष्ट करने के लिए छोड़ा। कृष्ण ने कहा- 'उत्तरा को परीक्षित नामक बालक के जन्म का वर प्राप्त है। उसका पुत्र होगा ही। यदि तेरे शस्त्र-प्रयोग के कारण मृत हुआ तो भी मैं उसे जीवनदान करूंगा। वह भूमि का सम्राट होगा और तू? नीच अश्वत्थामा! तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ तीन हज़ार वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा। तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी। तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा।' व्यास ने श्रीकृष्ण के वचनों का अनुमोदन किया। अश्वत्थामा ने कहा कि वह मनुष्यों में केवल व्यास मुनि के साथ रहना चाहता है। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी जो कि उसे दैत्य, दानव, अस्त्र शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। वही मणि द्रौपदी ने मांगी थी। व्यास तथा नारद के कहने से उसने वह मणि द्रौपदी के लिए दे दी। [2]

द्रौपदी का रूदन

अश्वत्थामा ने द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों को मार डाला। अत: अर्जुन ने क्रुद्ध होकर रोती हुई द्रौपदी से कहा कि वह अश्वत्थामा का सर काटकर उसे अर्पित करेगा। तदनंतर अर्जुन कृष्ण को सारथी बनाकर अश्वत्थामा से युद्ध करने गये। गुरुपुत्र होने पर भी उसे केवल ब्रह्मास्त्र छोड़ना आता था, वापस लेना नहीं आता था, तथापि अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। अर्जुन ने उसे ब्रह्मास्त्र से ही काटा, फिर सृष्टि को बचाने के लिए दोनों को लौटा लिया तथा अश्वत्थामा को रस्सी में बांधकर द्रौपदी के पास ले गया। द्रौपदी ने दयार्द्र होकर उसे छोड़ने को कहा किंतु कृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने उसके सिर से मणि निकालकर द्रौपदी को दी, इस प्रकार उसकी शपथ किसी सीमा तक निभ गयी और उसे छोड़ दिया। कृष्ण ने कहा- 'पतित ब्राह्मण भी मारने योग्य नहीं होता, पर आततायी छोड़ा नहीं जाना चाहिए।' इस प्रकार इस उक्ति का पालन हुआ।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शिव पुराण, 7।52
  2. महाभारत, द्रोणपर्व, 156, 190 से 201 तक, कर्णपर्व, अध्याय, 57, सौप्तिक पर्व 1-16, श्लोक 8-9
  3. श्रीमद् भागवत, प्रथम स्कंध, अध्याय 7

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