गांधारी: Difference between revisions

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Revision as of 09:29, 28 December 2010

  • गान्धारी गान्धार देश के सुबल नामक राजा की कन्या थी। इसीलिए इसका नाम गान्धारी पड़ा।
  • गान्धारी धृतराष्ट्र की पत्नी और दुर्योधन आदि की माता थीं।
  • शिव के वरदान से गांधारी के 100 पुत्र हुए, जो कौरव कहलाये।
  • गान्धारी पतिव्रता के रूप में आदर्श थीं।
  • पति के अन्धा होने के कारण विवाहोपरांत ही गान्धारी ने आँखों पर पट्टी बाँध ली थीं तथा उसे आजन्म बाँधे रहीं।
  • महाभारत के अनन्तर गान्धारी अपने पति के साथ वन में गयीं। वहाँ दावाग्नि में वे भस्म हो गयीं।

पतिव्रता

संसार की पतिव्रता देवियों में गान्धारी का विशेष स्थान है। जब इनका विवाह नेत्रहीन धृतराष्ट्र से हुआ, तभी से इन्होंने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। इन्होंने सोचा कि जब हमारे पति नेत्रहीन हैं, तब मुझे संसार को देखने का अधिकार नहीं है। पति के लिये इन्द्रियसुख के त्याग का ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। इन्होंने ससुराल में आते ही अपने श्रेष्ठ आचरण से पति एवं उनके परिवार को मुग्ध कर दिया।

देवी गान्धारी पतिव्रता होने के साथ अत्यन्त निर्भीक और न्यायप्रिय महिला थीं। इनके पुत्रों ने जब भरी सभा में द्रौपदी के साथ अत्याचार किया, तब इन्होंने दु:खी होकर उसका खुला विरोध किया। जब इनके पति महाराज धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बातों में आकर पाण्डवों को दुबारा द्यूत के लिये आमन्त्रित किया, तब इन्होंने जुए का विरोध करते हुए अपने पतिदेव से कहा- 'स्वामी!' दुर्योधन जन्म लेते ही गीदड़ की तरह से रोया था। उसी समय परम ज्ञानी विदुर जी ने उसका त्याग कर देने की सलाह दी थी। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुल-कलंक कुरूवंश का नाश करके ही छोड़ेगा। आप अपने दोषों से सबको विपत्ति में मत डालिये। इन ढीठ मूर्खों की हाँ में हाँ मिलाकर इस वंश के नाश का कारण मत बनिये। कुलकलंक दुर्योधन को त्यागना ही श्रेयस्कर है। मैंने मोहवश उस समय विदुर की बात नहीं मानी, उसी का यह फल है। राज्यलक्ष्मी क्रूर के हाथ में पड़कर उसी का सत्यानाश कर देती हैं। बिना विचारे काम करना आप के लिये बड़ा दु:खदायी सिद्ध होगा।' गान्धारी की इस सलाह में धर्म, नीति और निष्पक्षता का अनुपम समन्वय है।

जब भगवान श्रीकृष्ण सन्धिदूत बनकर हस्तिनापुर गये और दुर्योधन ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा बिना युद्ध के सूई के अग्रभर भी जमीन देना स्वीकार नहीं किया। इसके बाद गांधारी ने उसको समझाते हुए कहा-'बेटा! मेरी बात ध्यान से सुनो। भगवान श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा विदुरजी ने जो बातें तुमसे कही हैं, उन्हें स्वीकार करने में ही तुम्हारा हित है। जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्ग में मूर्ख सारथि को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को वश में न रखा जाय तो मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। इन्द्रियाँ जिस के वश में हैं, उसके पास राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक सुरक्षित रहती हैं। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता। तुम श्रीकृष्ण की शरण लो। पाण्डवों का न्यायोचित भाग तुम उन्हें दे दो और उनसे सन्धि कर लो। इसी में दोनों पक्षों का हित है। युद्ध करने में कल्याण नहीं है।' दुष्ट दुर्योधन ने गांधारी के इस उत्तम उपदेश पर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण कल्याण नहीं है।' जिसके कारण महाभारत के युद्ध में कौरवपक्ष का संहार हुआ।

देवी गान्धारी ने कुरुक्षेत्र की भूमि में जाकर वहाँ महाभारत के महायुद्ध का विनाशकारी परिणाम देखा। उनके सौ पुत्रों में से एक भी पुत्र शेष नहीं बचा। पाण्डव तो किसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से गान्धारी के क्रोध से बच गये, किंतु भावीवश भगवान श्रीकृष्ण को उनके शाप को शिरोधार्य करना पड़ा और यदुवशं का परस्पर कलह के कारण महाविनाश हुआ। महाराज युधिष्ठिर के राज्यभिषेक के बाद देवी गान्धारी कुछ समय तक पाण्डवों के साथ रहीं औ अन्त में अपने पति के साथ तपस्या करने के लिये वन में चली गयीं। उन्होंने अपने पति के साथ अपने शरीर को दावाग्नि में भस्म कर डाला। गान्धारी ने इस लोक में पतिसेवा करके परलोक में भी पति का सान्निध्य प्राप्त किया। वे अपने नश्वर देह को छोड़कर अपने पति के साथ ही कुबेर के लोक में गयीं। पतिव्रता नारियों के लिये गान्धारी का चरित्र अनुपम शिक्षा का विषय है।

महाभारत से

गांधार राज सुबल की पुत्री का नाम गांधारी था। उसने शिव को प्रसन्न करके सौ पुत्र पाने का वरदान प्राप्त किया था। भीष्म की प्रेरणा से धृतराष्ट्र का विवाह उसके साथ किया गया। गांधारी ने जब सुना कि उसका भावी पति अंधा है तो उसने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली जिससे कि पतिव्रत धर्म का पालन कर पाये। महर्षि व्यास अत्यंत थके हुए तथा भूखे थे। गांधारी ने उनका सत्कार किया। प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को अपने पति के अनुरूप सौ पुत्र प्राप्त करने का वरदान दिया। गर्भाधान के उपरांत दो वर्ष बीत गये। कुंती ने एक पुत्र प्राप्त भी कर लिया किंतु गांधारी ने संतान को जन्म नहीं दिया अत: क्रोध और ईर्ष्या के वशीभूत उसने अपने उदर पर प्रहार किया जिससे लोहे के समान कठोर मांसपिंड निकला। व्यास जी के प्रकट होने पर गांधारी ने उन्हें सब कुछ कह सुनाया। व्यास ने गुप्त स्थान पर घी से भरे हुए एक सौ एक मटके रखवा दिये। मांस-पिंड को शीतल जल से धोने पर उसके एक सौ एक खंड हो गये। प्रत्येक खंड एक-एक मटके में दो वर्ष के लिए रख दिया गया। उसके बाद ढक्कन खोलने पर प्रत्येक मटके से एक-एक बालक प्रकट हुआं अंतिम मटके से एक कन्या हुई जिसका नाम दु:शला रखा गया तथा उसका विवाह जयद्रथ से हुआ।


पहला मटका खोलने पर जो बालक प्रकट हुआ उसका नाम दुर्योधन हुआ। उसने जन्म लेते ही गदहे की तरह बोलना प्रारंभ किया तथा प्रकृति में अपशकुन प्रकट हुए। पंडितों ने कहा कि इस बालक का परित्याग कर देने से कौरव-वंश की रक्षा हो सकती है अन्यथा अनर्थ होगा, किंतु मोह वश गांधारी तथा धृतराष्ट्र ने उसका परित्याग नहीं किया। उसी दिन कुंती के घर में भीम ने जन्म लिया। धृतराष्ट्र की एक वैश्य जाति की सेविका थी जिससे धृतराष्ट्र को युयुत्सुकरण नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।


महाभारत में विजय प्राप्त करने के उपरांत पांडव पुत्रविहीना गांधारी के सम्मुख जाने का साहस नहीं कर पा रहे थे। वह उन्हें देखते ही कोई शाप न दे दें, इस बात का भी भय था। अत: उन लोगों ने श्रीकृष्ण को तैयार करके उनके पास भेजा। कृष्ण गांधारी के क्रोध का शमन कर आये। तदुपरांत पांडव धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर गांधारी के दर्शन करने गये। गांधारी उन्हें शाप देने के लिए उद्यत हुईं किंतु महर्षि व्यास ने उनकी मन:स्थिति जानकर उन्हें समझाया कि कौरवों के प्रतिदिन प्रणाम करने पर वह आशीष देती थीं कि जहां धर्म वहीं जय है फिर धर्म के जीतने पर उन्हें इस प्रकार क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। गांधारी ने कहा कि भीम ने दुर्योधन के साथ अधर्म युद्ध किया था। उसने नाभि के नीचे गदा से प्रहार किया जो कि नियम-विरुद्ध था, अत: उस संदर्भ में वह उन्हें कैसे क्षमा कर दे? भीम ने अपने इस अपराध के लिए क्षमा-याचना की, साथ ही याद दिलाया कि उसने भी द्यूत क्रीड़ा, चीर हरण आदि में अधर्म का प्रयोग किया था। गांधारी ने पुन: कहा- 'तुमने दु:शासन का रक्तपान किया।' भीम ने कहा- 'सूर्य पुत्र यम जानते हैं कि रक्त मेरे दांत के अंदर नहीं गया, मेरे हाथ रक्तरंजित थे। वह कर्म केवल त्रास उत्पन्न करने के लिए किया था। द्रौपदी के केश खींचे जाने पर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा की थी।' गांधारी ने कहा- 'तुम मेरे किसी भी एक कम अपराधी पुत्र को जीवित छोड़ देते तो हम दोनों के बुढ़ापे का सहारा रहता।' गांधारी ने युधिष्ठिर को पुकारा, वह कौरवों का वध करने का अपराध स्वीकारते हुए गांधारी के चरण-स्पर्श करने लगे। गांधारी ने आंख पर बंधी पट्टी से ही उनके पैर की कोर देखी और उनके नाख़ून काले पड़ गये। यह देखकर अर्जुन भयभीत होकर कृष्ण के पीछे छिप गया। उसके छिपने की चेष्टा जानकर गांधारी का क्रोध ठंडा पड़ गया। तदुपरांत कुंती के दर्शन किये। कुंती पांडवों के क्षत-विक्षत शरीरों पर हाथ फेरती और देखती ही रह गयी। द्रौपदी अभिमन्यु इत्यादि वीरगति को प्राप्त हुए अपने बेटों को याद कर रोती रही। उन सबके बिना राज्य भला किस काम का। गांधारी ने दोनों को धीरज बंधाया। जो होना था, हो गया। उसके लिए शोक करने से क्या लाभ? तदनंतर वेदव्यास जी के वरदान से गांधारी को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई जिससे वह कौरवों का संपूर्ण विनाश-स्थल देखने में समर्थ हो गयीं। गांधारी युद्ध-क्षेत्र में पड़े कौरव-पांडव बंधुओं, सैनिकों के शव तथा उनसे चिपटकर रोती उनकी पत्नियों और माताओं का विलाप देख-देखकर श्रीकृष्ण को संबोधित कर रोने लगीं। उन दु:खिताओं में उत्तरा भी थी, कौरवों की पत्नियां भी थीं, दु:शला भी थी, जो अपने पति जयद्रथ का सिर खोजने के लिए इधर-उधर भटक रही थी। भूरिश्रवा की पत्नियां विलाप कर रही थीं। शल्य, भगदत्त, भीष्म, द्रोण को देख गांधारी सिसकती रहीं, विलाप करती रहीं।


द्रुपद की रानियां और पुत्र वधुएं उसकी जलती चिता की परिक्रमा ले रही थीं। रोते-रोते गांधारी अचानक क्रुद्ध हो उठीं। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा-'मेरे पतिव्रत में बल है तो शाप देती हूं कि यादव वंशी समस्त लोग परस्पर लड़कर मर जायेंगे। तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा, तुम अकेले जंगल में अशोभनीय मृत्यु प्राप्त करोगे क्योंकि कौरव-पांडवों का युद्ध रोक लेने में एकमात्र तुम ही समर्थ थे और तुमने उन्हें रोका नहीं। तुम्हारे देखते-देखते कुरु वंश का नाश हो गया।' श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा,'जो कुछ आप कह रही हैं, यथार्थ है- यह सब तो पूर्व निश्चित है, ऐसा ही होगा।' [1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 109, 114 115, स्त्रीपर्व 21-25, शल्यपर्व 63

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