शकुंतला: Difference between revisions
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Revision as of 13:28, 6 May 2011
- मेनका की पुत्री का नाम शकुन्तला था।
- देवी शकुन्तला के धर्मपिता के रूप में महर्षि कण्व की अत्यन्त प्रसिद्धि है।
- महाकवि कालिदास ने अपने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में महर्षि के तपोवन, उनके आश्रम-प्रदेश तथा उनका जो धर्माचारपरायण उज्ज्वल एवं उदात्त चरित प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। उनके मुख से एक भारतीय कथा के लिये विवाह के समय जो शिक्षा निकली है, वह उत्तम गृहिणी का आदर्श बन गयी। [1] वेद में ये बातें तो वर्णित नहीं हैं, पर इनके उत्तम ज्ञान, तपस्या, मन्त्रज्ञान, अध्यात्मशक्ति आदि का आभास प्राप्त होता है।
- महाभारत के अनुसार दुष्यंत एक बार शिकार खेलते हुए कण्व ॠषि के आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ मेनका अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न विश्वामित्र की अति सुंदरी कन्या शकुन्तला पर मुग्ध हो गए। दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया, और उसे वहीं छोड़कर अपनी राजधानी लौट गया।
- शकुंतला का लालन-पालन कण्व ऋषि ने किया था, क्योंकि मेनका उसे वन में छोड़ गयी थी। कण्व बाहर गये हुए थे। लौटने पर उनको सब समाचार विदित हुए।
- शकुंतला ने पुत्र को जन्म दिया। कण्व ने उनको नगर पहुँचाने की व्यवस्था कीं पहले तो दुष्यंत ने उसे ग्रहण नहीं किया, किन्तु बाद में आकाशवाणी होने पर उसे अपनी भूल का पता चला और शकुन्तला को पतिगृह में स्थान मिला।
- पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। मान्यता है कि इसी के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। इसका एक नाम 'सर्वदमन' भी था क्योंकि इसने बचपन में ही बड़े-बड़े राक्षसों, दानवों और सिंहों का दमन किया था। और अन्य समस्त वन्य तथा पर्वतीय पशुओं को भी सहज ही परास्त कर अपने अधीन कर लेते थे। अपने जीवन काल में उन्होंने यमुना, सरस्वती तथा गंगा के तटों पर क्रमश: सौ, तीन सौ तथा चार सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रवृत्ति से दानशील तथा वीर थे। राज्यपद मिलने पर भरत ने अपने राज्य का विस्तार किया। प्रतिष्ठान के स्थान पर हस्तिनापुर को राजधानी बनाया। भरत का विवाह विदर्भराज की तीन कन्याओं से हुआ था। जिनसे उन्हें नौ पुत्रों की प्राप्ति हुई। भरत ने कहा-'ये पुत्र मेरे अनुरूप नहीं है।' अत: भरत के शाप से डरकर उन तीनों ने अपने-अपने पुत्र का हनन कर दिया।
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टीका टिप्पणी
- ↑ महर्षि कण्व शकुन्तला की विदाई के समय कहते हैं— शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीज ने पत्युर्विप्रकृताऽपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:। भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामा: कुलस्याधय:॥ (अभिज्ञानशाकुन्तलम् 4।18)
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