उत्तरा: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replacement - "{{महाभारत2}}" to "")
Line 84: Line 84:
<references/>
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}{{महाभारत युद्ध}}{{महाभारत2}}{{पौराणिक चरित्र}}  
{{महाभारत}}{{महाभारत युद्ध}}{{पौराणिक चरित्र}}  
[[Category:पौराणिक चरित्र]][[Category:पौराणिक कोश]][[Category:महाभारत]][[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]]
[[Category:पौराणिक चरित्र]][[Category:पौराणिक कोश]][[Category:महाभारत]][[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 07:53, 31 May 2016

चित्र:Seealso.gifउत्तरा का उल्लेख इन लेखों में भी है: विराट, परीक्षित, अभिमन्यु, अर्जुन एवं अश्वत्थामा
संक्षिप्त परिचय
उत्तरा
पिता विराट
माता सुदेष्णा
समय-काल महाभारत काल
परिजन विराट, सुदेष्णा और उत्तर
विवाह अभिमन्यु
संतान परीक्षित
विद्या पारंगत नृत्य तथा संगीत
महाजनपद विराट नगर
अन्य जानकारी द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र प्रहार से उत्तरा ने मृत शिशु को जन्म दिया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक को पुर्नजीवन दिया। यही बालक आगे चलकर राजा परीक्षित नाम से प्रसिद्ध हुआ।

उत्तरा विराट नगर, जो कि महाभारत काल का एक प्रसिद्ध जनपद था, के राजा विराट और उनकी रानी सुदेष्णा की कन्या थी। उसका विवाह पाण्डव अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था। जब पाण्डव अज्ञातवास कर रहे थे, उस समय अर्जुन बृहन्नला नाम ग्रहण करके विराट के महल में रह रहे थे। बृहन्नला ने उत्तरा को नृत्य, संगीत आदि की शिक्षा दी थी। जब कौरवों ने राजा विराट की समस्त गायें हस्तगत कर लीं, उस समय अर्जुन ने कौरवों से युद्ध करके अर्पूव पराक्रम दिखाया था। अर्जुन की उस वीरता से प्रभावित होकर राजा विराट ने अपनी कन्या उत्तरा का विवाह अर्जुन से करने का प्रस्ताव रखा, किन्तु अर्जुन ने यह कहकर कि उत्तरा उनकी शिष्या होने के कारण उनकी पुत्री के समान है, उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। किंतु अर्जुन ने अपने पुत्र अभिमन्यु से उत्तरा विवाह स्वीकार कर लिया।

परिचय

उत्तरा मत्स्य-महीप विराट और रानी सुदेष्णा की पुत्री थी। इसके भाई का नाम उत्तर था। कौरवों द्वारा द्यूत क्रीड़ा में हरा दिये जाने के बाद पाण्डवों ने बारह वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार किया। इसी दौरान अर्जुन ने बृहन्नला नाम रखकर स्वयं को नृत्य, गीत और संगीत आदि का कुशल हिजड़ा बतलाया। वह राजा विराट के रनिवास में राजकुमारी उत्तरा को नाचना-गाना आदि सिखाने के लिए रख लिये गये। रनिवास में भर्ती करने से पहले विराट की आज्ञा पाकर स्त्रियों ने हर तरह से परीक्षा करके उन्हें हिजड़ा ही पाया। वहाँ अर्जुन राजकुमारी उत्तरा को नाचने-गाने की शिक्षा बड़े अच्छे ढंग से देने लगे। उनके व्यवहार से राजकुमारी उन पर संतुष्ट रहती थी।

विवाह

जब महाराज विराट ने यह सुना कि उनके पुत्र उत्तर ने समस्त कौरव पक्ष के योद्धाओं को पराजित करके अपनी गायों को लौटा लिया है, तब वे आनन्दातिरेक में अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगे। इस पर 'कंक' (युधिष्ठिर) ने कहा- "जिसकी सारथि बृहन्नला (अर्जुन) हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है"। महाराज विराट को यह असह्य हो गया कि राज्यसभा में पासा बिछाने के लिये नियुक्त, ब्राह्मण कंक उनके पुत्र के बदले नपुंसक बृहन्नला की प्रशंसा कर रहा है। उन्होंने पासा खींचकर कंक को दे मारा, जिससे कंक की नासिका से रक्त निकलने लगा। सैरन्ध्री बनी हुई द्रौपदी दौड़ी आई और सामने कटोरी रखकर कंक की नासिका से निकलते हुए रक्त को भूमि पर गिरने से बचाया। जब राजा विराट को तीसरे दिन पता लगा कि उन्होंने कंक के वेश में अपने यहाँ निवास कर रहे महाराज युधिष्ठिर का ही अपमान किया है, तब उन्हें अपने-आप पर अत्यन्त खेद हुआ। उन्होंने अनजान में हुए अपराधों के परिमार्जन और पाण्डवों से स्थायी मैत्री-स्थापना के उद्देश्य से अपनी पुत्री उत्तरा और अर्जुन के विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर अर्जुन ने कहा- 'राजन्! मैंने कुमारी उत्तरा को बृहन्नला के रूप में वर्ष भर नृत्य और संगीत की शिक्षा दी है। यदि मैं राजकुमारी को पत्नी रूप में स्वीकार करता हूँ तो लोग मुझ पर और आपकी पुत्री के चरित्र पर संदेह करेंगे और गुरु-शिष्य की परम्परा का अपमान होगा। राजकुमारी मेरे लिये पुत्री के समान है। इसलिये अपने पुत्र अभिमन्यु की पत्नी के रूप में मैं उत्तरा को स्वीकार करता हूँ। भगवान श्रीकृष्ण के भानजे को जामाता के रूप में स्वीकार करना आपके लिये भी गौरव की बात होगी।' सभी ने अर्जुन की धर्मनिष्ठा की प्रशंसा की और उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से सम्पन्न हो गया।

  • इस समय राजकुमारियों को अन्य शिक्षा के साथ-साथ नाचने-गाने की भी आवश्यक शिक्षा दी जाती थी। इस शिक्षा से वे अपना मनोरंजन तो कर सकती थीं, साथ ही पारिवारिक मनोविनोद के भी उपयोग में आती थीं। धनी हो चाहे निर्धन, प्रभावशाली हो अथवा साधारण श्रेणी का, समाज का भय सबको रहता था। यह भय न होता तो सम्भवतः उत्तरा का विवाह पाण्डवों के वंश में न होकर किसी अन्य परिवार में होता। वास्तव में उस समय पाण्डव लोग संकट सह रहे थे। न तो उनके पास धन-दौलत थी और न ही राज-पाट। उनसे रिश्तेदारी करने में मत्स्य-नरेश का लोकलाज से बचने के अतिरिक्त और कौन-सा हित था? हाँ, पाण्डवों को अवश्य लाभ हुआ। उन्हें एक प्रबल सहायक मिला और बहुत-सी सम्पत्ति भी प्राप्त हुई।

अभिमन्यु का वध

जिस समय गुरु द्रोणाचार्य ने महाभारत युद्ध में चक्रव्यूह की रचना की, तब अभिमन्यु चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जाने से पूर्व अपनी पत्नी उत्तरा से विदा लेने गया था। उस समय उत्तरा ने अभिमन्यु से प्रार्थना की-

'हे उत्तरा के धन रहो
तुम उत्तरा के पास ही।'[1]

चक्रव्यूह में प्रवेश

युद्ध में पांडवों की सेना अभिमन्यु के पीछे-पीछे चली और जहाँ से व्यूह तोड़कर अभिमन्यु अंदर घुसा था, वहीं से व्यूह के अंदर प्रवेश करने लगी। यह देख सिंधु देश का पराक्रमी राजा जयद्रथ, जो धृतराष्ट्र का दामाद था, अपनी सेना को लेकर पांडव-सेना पर टूट पड़ा। जयद्रथ के इस साहसपूर्ण काम और सूझ को देखकर कौरव सेना में उत्साह की लहर दौड़ गई। कौरव सेना के सभी वीर उसी जगह इकट्ठे होने लगे, जहाँ जयद्रथ पांडव-सेना का रास्ता रोके हुए खड़ा था। शीघ्र ही टूटे मोरचों की दरारें भर गई। जयद्रथ के रथ पर चांदी का शूकर-ध्वज फहरा रहा था। उसे देख कौरव-सेना की शक्ति बहुत बढ़ गई और उसमें नया उत्साह भर गया। व्यूह को भेदकर अभिमन्यु ने जहाँ से रास्ता बनाया था, वहाँ इतने सैनिक आकर इकट्ठे हो गये कि व्यूह फिर पहले जैसा ही मज़बूत हो गया।

जयद्रथ की वीरता

व्यूह के द्वार पर एक तरफ युधिष्ठिर, भीमसेन और दूसरी ओर जयद्रथ युद्ध छिड़ गया। युधिष्ठिर ने जो भाला फेंककर मारा तो जयद्रथ का धनुष कटकर गिर गया। पलक झपकते ही जयद्रथ ने दूसरा धनुष उठा लिया और दस बाण युधिष्ठिर पर छोड़े। भीमसेन ने बाणों की बौछार से जयद्रथ का धनुष काट दिया। रथ की ध्वजा और छतरी को तोड़-फोड़ दिया और रणभूमि में गिरा दिया। उस पर भी सिंधुराज नहीं घबराया। उसने फिर एक दूसरा धनुष ले लिया और बाणों से भीमसेन का धनुष काट डाला। पलभर में ही भीमसेन के रथ के घोड़े ढेर हो गये। भीमसेन को लाचार हो रथ से उतरकर सात्यकि के रथ पर चढ़ना पड़ा। जयद्रथ ने जिस कुशलता और बहादुरी से ठीक समय पर व्यूह की टूटी क़िलेबंदी को फिर से पूरा करके मज़बूत बना दिया, उससे पाडंव बाहर ही रह गये। अभिमन्यु व्यूह के अंदर अकेला रह गया। पर अकेले अभिमन्यु ने व्यूह के अंदर ही कौरवों की उस विशाल सेना को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। जो भी उसके सामने आता, ख़त्म हो जाता था।

अभिमन्यु की वारगति

दुर्योधन का पुत्र लक्ष्मण अभी बालक था, किंतु उसमें वीरता की आभा फूट रही थी। उसको भय छू तक नहीं पाया था। अभिमन्यु की बाण वर्षा से व्याकुल होकर जब सभी योद्धा पीछे हटने लगे तो वीर लक्ष्मण अकेला जाकर अभिमन्यु से भिड़ पड़ा। बालक की इस निर्भयता को देख भागती हुई कौरव सेना फिर से इकट्ठी हो गई और लक्ष्मण का साथ देकर लड़ने लगी। सबने एक साथ ही अभिमन्यु पर बाण वर्षा कर दी, किंतु वह अभिमन्यु पर इस प्रकार लगी जैसे पर्वत पर मेह बरसता हो। दुर्योधन पुत्र अपने अदभुत पराक्रम का परिचय देता हुआ वीरता से युद्ध करता रहा। अंत में अभिमन्यु ने उस पर एक भाला चलाया। केंचुली से निकले साँप की तरह चमकता हुआ वह भाला वीर लक्ष्मण के बड़े ज़ोर से जा लगा। सुंदर नासिका और सुंदर भौंहो वाला, चमकीले घुंघराले केश और जगमाते कुण्डलों से विभूषित वह वीर बालक भाले की चोट से तत्काल मृत होकर गिर पड़ा। यह देख कौरव-सेना में हाहाकार कर उठी। "पापी अभिमन्यु का क्षण वध करो।" दुर्योधन ने चिल्लाकर कहा और द्रोण, अश्वत्थामा, वृहदबल, कृतवर्मा आदि छह महारथियों ने अभिमन्यु को चारों ओर से घेर लिया। द्रोण ने कर्ण के पास आकर कहा- "इसका कवच भेदा नहीं जा सकता। ठीक से निशाना बाँधकर इसके रथ के घोड़ों की रास काट डालो और पीछे की ओर से इस पर अस्त्र चलाओ।" व्यूह के अंतिम चरण में कौरव पक्ष के सभी महारथी युद्ध के मानदंडों को भुलाकर वीर बालक अभिमन्यु पर टूट पड़े, जिस कारण उसने वीरगति प्राप्त की।

परीक्षित का जन्म

महाभारत के संग्राम में अर्जुन संसप्तकों से युद्ध करने के लिये दूर चले गये थे और द्रोणाचार्य ने इसी स्थिति का लाभ उठाने के लिए उनकी अनुपस्थिति में चक्रव्यूह का निर्माण किया था। भगवान शंकर के वरदान से जयद्रथ ने सभी पाण्डवों को चक्रव्यूह में प्रवेश करने से रोक दिया। अकेले अभिमुन्यु ही व्यूह में प्रवेश कर पाये। महावीर अभिमन्यु ने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया था। उन्होंने कौरव-पक्ष के प्रमुख महारथियों को बार-बार हराया। अन्त में सभी महारथियों ने एक साथ मिलकर अन्यायपूर्वक अभिमन्यु का वध कर दिया। उत्तरा उस समय गर्भवती थीं। भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वासन देकर पति के साथ सती होने से रोक दिया। जब अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों को मार डाला तथा शिविर में आग लगाकर भाग गया, तब अर्जुन ने उसको पकड़ कर द्रौपदी के सम्मुख उपस्थित किया। वध्य होने के बाद भी द्रौपदी ने उसे मुक्त करा दिया, किंतु उस नराधम ने कृतज्ञ होने के बदले पाण्डवों का वंश ही निर्मूल करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग उत्तरा के गर्भ पर किया। उत्तरा की करुण पुकार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने सूक्षमरूप से उनके गर्भ में प्रवेश करके पाण्डवों के एक मात्र वंशधर की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की, किंतु जन्म के समय बालक मृत पैदा हुआ।

यह समाचार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने सूतिकागृह में प्रवेश किया। उत्तरा पगली की भाँति मृत बालक को गोद में उठाकर कहने लगी- "बेटा! त्रिभुवन के स्वामी तुम्हारे सामने खड़े हैं। तू धर्मात्मा तथा शीलवान पिता का पुत्र है। यह अशिष्टता अच्छी नहीं। इन सर्वेश्वर को प्रणाम कर सोचा था कि तुझे गोद में लेकर इन सर्वाधार के चरणों में मस्तक रखूँगी, किंतु सारी आशाएँ नष्ट हो गयीं।" भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने तत्काल जल छिड़क कर बालक को जीवनदान दिया। सहसा बालक का श्वास चलने लगा। चारों ओर आनन्द की लहन दौड़ गयी। पाण्डवों का यही वंशधर परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवद्भक्ति और विश्वास की अनुपम प्रतीक सती उत्तरा धन्य हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी

  1. जयद्रथ वध: मैथिलीशरण गुप्त, तृतीय सर्ग

संबंधित लेख