अत्रि: Difference between revisions
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अत्रि ब्रह्मा के पुत्र कहे जाते हैं। इनका इनका जन्म भगवान ब्रह्मा की आँखों से हुआ था। ये वैवस्वत मन्वन्तर के महर्षियों में से एक थे।[1] कर्दम तथा देवहूतीति की पुत्री अनुसूया अत्रि को व्याही गई थी। इनसे दत्तात्रेय, दुर्वासा और सोम नाम के तीन पुत्र हुए थे।
परिचय
अत्रि ब्रह्मा के पुत्र थे, जो उनके नेत्रों से उत्पन्न हुए थे। ये सोम के पिता थे, जो इनके नेत्र से आविर्भूत हुए थे। इन्होंने कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था। इन दोनों के पुत्र दत्तात्रेय थे। सम्पूर्ण ऋग्वेद दस मण्डलों में प्रविभक्त है। प्रत्येक मण्डल के मन्त्रों के ऋषि अलग-अलग हैं। उनमें से ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि हैं। इसीलिये यह मण्डल 'आत्रेय मण्डल' कहलाता है। इस मण्डल में 87 सूक्त हैं। जिनमें महर्षि अत्रि द्वारा विशेष रूप से अग्नि, इन्द्र, मरूत, विश्वेदेव तथा सविता आदि देवों की महनीय स्तुतियाँ ग्रथित हैं। इन्द्र तथा अग्निदेवता के महनीय कर्मों का वर्णन है।
पौराणिक व्याख्याएँ
महर्षि अत्रि के विषय में कई तथ्य पुराणों आदि में मिलते हैं-
- अत्रि ने अलर्क, प्रह्लाद आदि को अन्वीक्षकी की शिक्षा दी थी।
- भीष्म जब शर-शैय्या पर पड़े थे, उस समय ये उनसे मिलने गये थे।
- परीक्षित जब प्रायोपवेश का अभ्यास कर रहे थे, तो ये उन्हें देखने गये थे।
- पुत्रोत्पत्ति के लिए इन्होंने ऋक्ष पर्वत पर पत्नी के साथ तप किया था। इन्होंने त्रिमूर्तियों की प्रार्थना की थी, जिनसे त्रिदेवों के अशं रूप में दत्त (विष्णु) दुर्वासा (शिव) और सोम (ब्रह्मा) उत्पन्न हुए थे।
- इन्होंने दो बार पृथु को घोड़े चुराकर भागते हुए इन्द्र को दिखाया था तथा हत्या करने को कहा था।
- अत्रि वैवस्वत युग के मुनि थे। मन्त्रकार के रूप में इन्होंने उत्तानपाद को अपने पुत्र के रूप में ग्रहण किया था।
- इनके ब्रह्मावादिनी नाम की कन्या थी। परशुराम जब ध्यानावस्थित रूप में थे, उस समय ये उनके पास गये थे।
- इन्होंने श्राद्ध द्वारा पितरों की अराधना की थी और सोम को राजक्ष्मा रोग से मुक्त किया था।
- ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना के लिए नियुक्त किये जाने पर इन्होंने 'अनुत्तम' तक किया था, जबकि शिव इनसे मिले थे।
- सोम के राजसूय यज्ञ में इन्होंने होता का कार्य किया था। त्रिपुर के विनाश के लिए इन्होंने शिव की आराधना की थी।
- बनवास के समय राम अत्रि के आश्रम भी गये थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवतपुराण 3.12.21-23; मत्स्यपुराण 3.6; 9.27
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