इंशा अल्ला ख़ाँ: Difference between revisions

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==मृत्यु==
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इंशा अल्ला ख़ाँ के जीवन के अन्तिम वर्ष कठिनाइयों में व्यतीत हुए। सन 1817 ई. में इनकी मृत्यु हो गई।  
इंशा अल्ला ख़ाँ के जीवन के अन्तिम वर्ष कठिनाइयों में व्यतीत हुए। सन् 1817 ई. में इनकी मृत्यु हो गई।  


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Revision as of 14:02, 6 March 2012

इंशा अल्ला ख़ाँ का हिन्दी खड़ी बोली गद्य के उन्नायकों में विशिष्ट स्थान है। इंशा बड़े ही ख़ुशमिजाज, हाजिर जवाब और व्युत्पन्न व्यक्ति थे।

जीवन परिचय

इंशा अल्ला ख़ाँ के पिता मीर माशा अल्ला ख़ाँ कश्मीर से दिल्ली आकर बस गये थे और शाही हकीम के रूप में कार्य करते थे। मुग़ल सम्राट की स्थिति चिन्त्य होने पर ये मुर्शिदाबाद के नवाब के यहाँ चले गये। यहीं इंशा का जन्म हुआ। बंगाल की स्थिति बिगड़ने पर इंशा को दिल्ली में शाहआलम द्वितीय के आश्रय में जाना पड़ा। शाहआलम नाम के ही शाह थे। वे इंशा की शायरी की कद्र करते थे किन्तु उनको सर्वोच्च पुरस्कार से सन्तुष्ट नहीं कर पाये थे। अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी न होते देख इंशा लखनऊ चले आये और शाहज़ादा मिर्ज़ा सुलेमान की सेवा में नियुक्त हो गये। धीरे-धीरे इनका परिचय वज़ीर कफ़जुल्ला हुसैन ख़ाँ से हो गया। इन्हीं की सहायता से ये नवाब सहायद अली ख़ाँ के दरबार में पहुँचे। पहले तो नवाब से इनकी ख़ूब पटी किन्तु बाद में इनके एक अभद्र मज़ाक पर नवाब साहब बिगड़ गये और इन्हें दरबार से अलग होना पड़ा।

कृतियाँ

इंशा अल्ला ख़ाँ उर्दू- फ़ारसी के बहुत बड़े शायर थे। इन्होंने अनेक कृतियाँ उर्दू और फ़ारसी में प्रस्तुत की हैं। जो निम्न हैं-

  • 'उर्दू गज़लों का दीवाना'
  • 'दीवान रेख्ती'
  • 'कसायद उर्दू-फ़ारसी'
  • 'दीवाने फ़ारसी'
  • 'मसनवी शिकारनामा'

रानी केतकी की कहानी

हिन्दी खड़ी बोली गद्य में इनकी सर्वप्रसिद्ध रचना 'रानी केतकी की कहानी' या 'उदयभान चरित' है। इस कहानी का महत्त्व, भाषा, शैली और वर्ण्य वस्तु सभी दृष्टियों से है। स्वयं लेखक के अनुसार इसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट नहीं है। लेखक ने इसकी मुअल्तापना के साथ ही ब्रजभाषा, अवधी और संस्कृत के तत्सम शब्दों को भी अलग रखना चाहा है। यह कहानी शुद्ध सांसारिक प्रेम को आधार बनाकर मनोरंजन के लिए लिखी गयी है।

गद्य शैली

इंशा की गद्य शैली बड़ी ही चटपटी, मनोरंजक और हास्यपूर्ण है।

भाषा

इंशा की भाषा मुहावरेदार और चलती हुई है। ठेठ घरेलू शब्दों के प्रयोग के कारण वह बड़ी प्यारी लगती है। इंशा में सानुप्रास विराम देने की प्रवृत्ति अधिक है। इन्होंने पुरानी उर्दू के अनुकरण पर कृदन्तों और विशेषणों में भी बहुवचन सूचक चिह्न लगाये हैं। उदाहरण के लिए 'कुंजनियाँ', 'रामजनियाँ', 'डोमिनियाँ' के साथ वे 'धूमे-मचातियाँ', 'अँगड़ातियाँ' और जम्हातियाँ' का प्रयोग करना आवश्यक समझते हैं। इस प्रकार के प्रयोग आज अशोभन लगते हैं।

बाबू श्यामसुन्दर दास ने प्रारम्भिक गद्य लेखकों में इंशा को महत्त्व की दृष्टि से पहला स्थान दिया है। इसमें संदेह नहीं कि इनकी भाषा सबसे अधिक चलती हुई और मुहावरेदार है। किन्तु उनका झुकाव उर्दू की ओर अधिक है। उसमें हम वर्तमान हिन्दी गद्य का पूर्वाभास नहीं पाते। अपनी मनोरंजक वर्णन शैली, चटपटी और लच्छेदार काव्यावली तथा विशुद्ध हिन्दी लेखन के साहसिक प्रयोग के कारण हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास में इंशा अल्ला ख़ाँ सदैव स्मरणीय रहेंगे।

मृत्यु

इंशा अल्ला ख़ाँ के जीवन के अन्तिम वर्ष कठिनाइयों में व्यतीत हुए। सन् 1817 ई. में इनकी मृत्यु हो गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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