आशापूर्णा देवी: Difference between revisions
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वह एक मध्यवर्गीय परिवार से थीं, पर स्कूल-कॉलेज जाने का सुअवसर उन्हें कभी नहीं मिला। उनके परिवेश में उन सभी निषेधों का बोलबाला था, जो उस [[युग]] के [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] को आक्रांत किए हुए थे, लेकिन पढ़ने, गुनने और अपने विचार व्यक्त करने की भरपूर सुविधाएं उन्हें शुरू से मिलती रहीं। उनके [[पिता]] कुशल [[चित्रकार]] थे, मां बांग्ला साहित्य की अनन्य प्रेमी और तीनों भाई कॉलेज के छात्र थे। ज़ाहिर है, उस समय के जाने-माने साहित्यकारों और कला शिल्पियों को निकट से देखने-जानने के अवसर आशापूर्णा को आए दिन मिलते रहे। ऐसे परिवेश में उनके मानस का ही नहीं, कला चेतना और संवेदनशीलता का भी भरपूर विकास हुआ। भले ही पिता के घर और फिर पति के घर भी पर्दे आदि के बंधन बराबर रहे, पर कभी घर के किसी झरोखे से भी यदि बाहर के संसार की झलक मिल गई, तो उनका सजग मन उधर के समूचे घटनाचक्र की कल्पना कर लेता। इस प्रकार देश के स्वतंत्रता संघर्ष, [[असहयोग आंदोलन]], | वह एक मध्यवर्गीय परिवार से थीं, पर स्कूल-कॉलेज जाने का सुअवसर उन्हें कभी नहीं मिला। उनके परिवेश में उन सभी निषेधों का बोलबाला था, जो उस [[युग]] के [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] को आक्रांत किए हुए थे, लेकिन पढ़ने, गुनने और अपने विचार व्यक्त करने की भरपूर सुविधाएं उन्हें शुरू से मिलती रहीं। उनके [[पिता]] कुशल [[चित्रकार]] थे, मां बांग्ला साहित्य की अनन्य प्रेमी और तीनों भाई कॉलेज के छात्र थे। ज़ाहिर है, उस समय के जाने-माने साहित्यकारों और कला शिल्पियों को निकट से देखने-जानने के अवसर आशापूर्णा को आए दिन मिलते रहे। ऐसे परिवेश में उनके मानस का ही नहीं, कला चेतना और संवेदनशीलता का भी भरपूर विकास हुआ। भले ही पिता के घर और फिर पति के घर भी पर्दे आदि के बंधन बराबर रहे, पर कभी घर के किसी झरोखे से भी यदि बाहर के संसार की झलक मिल गई, तो उनका सजग मन उधर के समूचे घटनाचक्र की कल्पना कर लेता। इस प्रकार देश के स्वतंत्रता संघर्ष, [[असहयोग आंदोलन]], राजनीति के क्षेत्र में नारी का पर्दापण और फिर पुरुष वर्ग की बराबरी में दायित्वों का निर्वाह, सब कुछ उनकी चेतना पर अंकित हुआ। | ||
==साहित्यिक परिचय== | ==साहित्यिक परिचय== | ||
अपनी प्रतिभा के कारण उन्हें समकालीन बांग्ला उपन्यासकारों की प्रथम पंक्ति में गौरवपूर्ण स्थान मिला। उनके विपुल कृतित्व का उदाहरण उनकी लगभग 225 कृतियां हैं, जिनमें 100 से अधिक उपन्यास हैं। आशापूर्णा देवी की सफलता का रहस्य बहुत कुछ उनके शिल्प-कौशल में है, जो नितांत स्वाभाविक होने के साथ-साथ अद्भुत रूप से दक्ष है। उनकी यथार्थवादिता, शब्दों की मितव्ययिता, सहज संतुलित मुद्रा और बात ज्यों की त्यों कह देने की क्षमता ने उन्हें और भी विशिष्ट बना दिया। उनकी अवलोकन शक्ति न केवल पैनी और अंतर्गामी थी, बल्कि आसपास के सारे ब्योरों को भी अपने में समेट लाती थीं। मानव के प्रति आशापूर्णा का दृष्टिकोण किसी विचारधारा या पूर्वग्रह से ग्रस्त नहीं था। किसी घृण्य चरित्र का रेखाकंन करते समय उनके मन में कोई कड़वाहट नहीं थी, वह मूलत: मानवप्रेमी थी। उनकी रचनागत सशक्तता का स्रोत परानुभूति और मानवजाति के प्रति हार्दिक संवेदना थी। आशापूर्णा विद्रोहिणी थीं। उनका विद्रोह रूढ़ि, बंधनों, जर्जर पूर्वग्रहों, समाज की अर्थहीन परंपराओं और उन अवमाननाओं से था, जो नारी पर पुरुष वर्ग, स्वयं नारियों और समाज व्यवस्था द्वारा लादी गई थीं। उनकी उपन्यास-त्रयी, प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और बकुलकथा की रचना ही उनके इस सघन विद्रोह भाव को मूर्त और मुखरित करने के लिए हुईं। | अपनी प्रतिभा के कारण उन्हें समकालीन बांग्ला उपन्यासकारों की प्रथम पंक्ति में गौरवपूर्ण स्थान मिला। उनके विपुल कृतित्व का उदाहरण उनकी लगभग 225 कृतियां हैं, जिनमें 100 से अधिक उपन्यास हैं। आशापूर्णा देवी की सफलता का रहस्य बहुत कुछ उनके शिल्प-कौशल में है, जो नितांत स्वाभाविक होने के साथ-साथ अद्भुत रूप से दक्ष है। उनकी यथार्थवादिता, शब्दों की मितव्ययिता, सहज संतुलित मुद्रा और बात ज्यों की त्यों कह देने की क्षमता ने उन्हें और भी विशिष्ट बना दिया। उनकी अवलोकन शक्ति न केवल पैनी और अंतर्गामी थी, बल्कि आसपास के सारे ब्योरों को भी अपने में समेट लाती थीं। मानव के प्रति आशापूर्णा का दृष्टिकोण किसी विचारधारा या पूर्वग्रह से ग्रस्त नहीं था। किसी घृण्य चरित्र का रेखाकंन करते समय उनके मन में कोई कड़वाहट नहीं थी, वह मूलत: मानवप्रेमी थी। उनकी रचनागत सशक्तता का स्रोत परानुभूति और मानवजाति के प्रति हार्दिक संवेदना थी। आशापूर्णा विद्रोहिणी थीं। उनका विद्रोह रूढ़ि, बंधनों, जर्जर पूर्वग्रहों, समाज की अर्थहीन परंपराओं और उन अवमाननाओं से था, जो नारी पर पुरुष वर्ग, स्वयं नारियों और समाज व्यवस्था द्वारा लादी गई थीं। उनकी उपन्यास-त्रयी, प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और बकुलकथा की रचना ही उनके इस सघन विद्रोह भाव को मूर्त और मुखरित करने के लिए हुईं। |
Revision as of 06:43, 14 July 2013
आशापूर्णा देवी
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पूरा नाम | आशापूर्णा देवी |
जन्म | 8 जनवरी, 1909 |
जन्म भूमि | कलकत्ता[1], पश्चिम बंगाल |
मृत्यु | 13 जुलाई, 1995 |
कर्म भूमि | पश्चिम बंगाल |
कर्म-क्षेत्र | साहित्य |
मुख्य रचनाएँ | प्रथम प्रतिश्रुति (1964), आकाश माटी (1975), प्रेम ओ प्रयोजन (1944) आदि |
भाषा | बांग्ला |
पुरस्कार-उपाधि | टैगोर पुरस्कार (1964), लीला पुरस्कार, पद्मश्री (1976) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1976) |
प्रसिद्धि | बांग्ला उपन्यासकार |
नागरिकता | भारतीय |
अद्यतन | 18:59, 23 मार्च 2012 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
आशापूर्णा देवी (जन्म: 8 जनवरी 1909 कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता); मृत्यु: 13 जुलाई 1995) बांग्ला भाषा की प्रख्यात उपन्यासकार हैं जिन्होंने मात्र 13 वर्ष की आयु में लिखना प्रारंभ कर दिया था और तब से ही उनकी लेखनी निरंतर सक्रिय बनी रही।
आरंभिक जीवन
वह एक मध्यवर्गीय परिवार से थीं, पर स्कूल-कॉलेज जाने का सुअवसर उन्हें कभी नहीं मिला। उनके परिवेश में उन सभी निषेधों का बोलबाला था, जो उस युग के बंगाल को आक्रांत किए हुए थे, लेकिन पढ़ने, गुनने और अपने विचार व्यक्त करने की भरपूर सुविधाएं उन्हें शुरू से मिलती रहीं। उनके पिता कुशल चित्रकार थे, मां बांग्ला साहित्य की अनन्य प्रेमी और तीनों भाई कॉलेज के छात्र थे। ज़ाहिर है, उस समय के जाने-माने साहित्यकारों और कला शिल्पियों को निकट से देखने-जानने के अवसर आशापूर्णा को आए दिन मिलते रहे। ऐसे परिवेश में उनके मानस का ही नहीं, कला चेतना और संवेदनशीलता का भी भरपूर विकास हुआ। भले ही पिता के घर और फिर पति के घर भी पर्दे आदि के बंधन बराबर रहे, पर कभी घर के किसी झरोखे से भी यदि बाहर के संसार की झलक मिल गई, तो उनका सजग मन उधर के समूचे घटनाचक्र की कल्पना कर लेता। इस प्रकार देश के स्वतंत्रता संघर्ष, असहयोग आंदोलन, राजनीति के क्षेत्र में नारी का पर्दापण और फिर पुरुष वर्ग की बराबरी में दायित्वों का निर्वाह, सब कुछ उनकी चेतना पर अंकित हुआ।
साहित्यिक परिचय
अपनी प्रतिभा के कारण उन्हें समकालीन बांग्ला उपन्यासकारों की प्रथम पंक्ति में गौरवपूर्ण स्थान मिला। उनके विपुल कृतित्व का उदाहरण उनकी लगभग 225 कृतियां हैं, जिनमें 100 से अधिक उपन्यास हैं। आशापूर्णा देवी की सफलता का रहस्य बहुत कुछ उनके शिल्प-कौशल में है, जो नितांत स्वाभाविक होने के साथ-साथ अद्भुत रूप से दक्ष है। उनकी यथार्थवादिता, शब्दों की मितव्ययिता, सहज संतुलित मुद्रा और बात ज्यों की त्यों कह देने की क्षमता ने उन्हें और भी विशिष्ट बना दिया। उनकी अवलोकन शक्ति न केवल पैनी और अंतर्गामी थी, बल्कि आसपास के सारे ब्योरों को भी अपने में समेट लाती थीं। मानव के प्रति आशापूर्णा का दृष्टिकोण किसी विचारधारा या पूर्वग्रह से ग्रस्त नहीं था। किसी घृण्य चरित्र का रेखाकंन करते समय उनके मन में कोई कड़वाहट नहीं थी, वह मूलत: मानवप्रेमी थी। उनकी रचनागत सशक्तता का स्रोत परानुभूति और मानवजाति के प्रति हार्दिक संवेदना थी। आशापूर्णा विद्रोहिणी थीं। उनका विद्रोह रूढ़ि, बंधनों, जर्जर पूर्वग्रहों, समाज की अर्थहीन परंपराओं और उन अवमाननाओं से था, जो नारी पर पुरुष वर्ग, स्वयं नारियों और समाज व्यवस्था द्वारा लादी गई थीं। उनकी उपन्यास-त्रयी, प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और बकुलकथा की रचना ही उनके इस सघन विद्रोह भाव को मूर्त और मुखरित करने के लिए हुईं।
- शैली
आशापूर्णा के लेखन की विशिष्टता उनकी एक अपनी ही शैली है। कथा का विकास, चरित्रों का रेखाकंन, पात्रों के मनोभावों से अवगत कराना, सबमें वह यथार्थवादिता को बनाए रखते हुए अपनी आशामयी दृष्टि को अभिव्यक्ति देती हैं। इसके पीछे उनकी शैली विद्यमान रहती है।
प्रमुख कृतियाँ
- उपन्यास-
- प्रेम ओ प्रयोजन (1944)
- अग्नि-परिक्षा (1952)
- छाड़पत्र (1959)
- प्रथम प्रतिश्रुति (1964)
- सुवर्णलता (1966)
- मायादर्पण (1966)
- बकुल कथा (1974)
- उत्तरपुरूष (1976)
- जुगांतर यवनिका पारे (1978)
- कहानी-
- जल और आगुन (1940)
- आर एक दिन (1955)
- सोनाली संध्या (1962)
- आकाश माटी (1975)
- एक आकाश अनेक तारा (1977)
सम्मान और पुरस्कार
आशापूर्णा देवी को टैगोर पुरस्कार (1964), लीला पुरस्कार, पद्मश्री (1976) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1976) से सम्मानित किया गया।
निधन
प्रख्यात उपन्यासकार आशापूर्णा देवी का निधन 13 जुलाई, 1995 को हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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