देवराज नन्दकिशोर: Difference between revisions
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देवराज नन्दकिशोर मूलत: चिंतक हैं और उनकी साहित्य-चिंता भी उनकी व्यापक संस्कृति-चिंता के अंतर्गत उपलक्ष्य रूप में ही है। आलोचना में उनका आग्रह सांस्कृतिक आभिजात्य के अपने विशिष्ट आग्रह और दृष्टिकोण से ही साहित्य को देखने-परखने का है। वे मानववादी परम्परा के विचारक हैं और कृति की बजाय कृतित्व के लिए आवश्यक वातावरण और प्रेरणाओं को स्पष्ट करने में सहज उत्साह का अनुभव करते हैं। 'क्लासिक्स' के प्रति उनका उत्साह संक्रामक है और उनके [[निबन्ध]] उनके विस्तृत अध्ययन तथा सुरुचिसम्पन्नता के कारण हमेशा पठनीय होते हैं। 'हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति: एक निवेदन', 'भारतीय दर्शन और विश्व-दर्शन', 'हमारी सांस्कृतिक समस्या' 'आदिकाव्य' जैसे निबन्धों की उपयोगिता आज भी कम नहीं हुई है।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2|लेखक=|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन=डॉ. धीरेन्द्र वर्मा (प्रधान सम्पादक)|पृष्ठ संख्या=263|url=}}</ref> | देवराज नन्दकिशोर मूलत: चिंतक हैं और उनकी साहित्य-चिंता भी उनकी व्यापक संस्कृति-चिंता के अंतर्गत उपलक्ष्य रूप में ही है। आलोचना में उनका आग्रह सांस्कृतिक आभिजात्य के अपने विशिष्ट आग्रह और दृष्टिकोण से ही साहित्य को देखने-परखने का है। वे मानववादी परम्परा के विचारक हैं और कृति की बजाय कृतित्व के लिए आवश्यक वातावरण और प्रेरणाओं को स्पष्ट करने में सहज उत्साह का अनुभव करते हैं। 'क्लासिक्स' के प्रति उनका उत्साह संक्रामक है और उनके [[निबन्ध]] उनके विस्तृत अध्ययन तथा सुरुचिसम्पन्नता के कारण हमेशा पठनीय होते हैं। 'हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति: एक निवेदन', 'भारतीय दर्शन और विश्व-दर्शन', 'हमारी सांस्कृतिक समस्या' 'आदिकाव्य' जैसे निबन्धों की उपयोगिता आज भी कम नहीं हुई है।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2|लेखक=|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन=डॉ. धीरेन्द्र वर्मा (प्रधान सम्पादक)|पृष्ठ संख्या=263|url=}}</ref> | ||
==व्यापक दृष्टिकोण== | ==व्यापक दृष्टिकोण== | ||
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====डायरी शिल्प==== | ====डायरी शिल्प==== | ||
[[उपन्यास]] में देवराज नन्दकिशोर की स्थिति आलोचना की अपेक्षा बेहतर है। यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि 'अजय की डायरी' हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट उपन्यासों में है, किंतु फिर भी यहाँ लेखक का आत्मदान अधिक ठोस है। देवराज के व्यक्तित्व का उनके सांस्कृतिक अर्जन का, चिंतनशील [[मस्तिष्क]] का अधिक साफ और प्रत्यक्ष उपयोग इस उपन्यास में हुआ है। डायरी शिल्प का ऐसा समर्थ उपयोग शायद ही कहीं और मिले। उनका विशिष्ट जीवनानुभव और व्यक्तित्व जो अपेषित तीव्रता और निष्कवचता और सूक्ष्म शब्द-संवेदना के अभाव में [[कविता]] नहीं बन पाता और उच्चकोटि आलोचक कर्म के लिए अपेक्षित एकाग्रता और निस्संगता नहीं जुटा पाता, वह इस आत्मकथात्मक डायरी-शिल्प की सुविधा वाले उपन्यास में अपना सहज-स्वाभिक उन्मोचन यथा संभब पा लेता प्रतीत होता है। | [[उपन्यास]] में देवराज नन्दकिशोर की स्थिति आलोचना की अपेक्षा बेहतर है। यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि 'अजय की डायरी' हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट उपन्यासों में है, किंतु फिर भी यहाँ लेखक का आत्मदान अधिक ठोस है। देवराज के व्यक्तित्व का उनके सांस्कृतिक अर्जन का, चिंतनशील [[मस्तिष्क]] का अधिक साफ और प्रत्यक्ष उपयोग इस उपन्यास में हुआ है। डायरी शिल्प का ऐसा समर्थ उपयोग शायद ही कहीं और मिले। उनका विशिष्ट जीवनानुभव और व्यक्तित्व जो अपेषित तीव्रता और निष्कवचता और सूक्ष्म शब्द-संवेदना के अभाव में [[कविता]] नहीं बन पाता और उच्चकोटि आलोचक कर्म के लिए अपेक्षित एकाग्रता और निस्संगता नहीं जुटा पाता, वह इस आत्मकथात्मक डायरी-शिल्प की सुविधा वाले उपन्यास में अपना सहज-स्वाभिक उन्मोचन यथा संभब पा लेता प्रतीत होता है। |
Revision as of 14:11, 30 June 2017
देवराज नन्दकिशोर
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पूरा नाम | देवराज नन्दकिशोर |
जन्म | 1917 |
जन्म भूमि | रामपुर, उत्तर प्रदेश |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | आलोचक तथा उपन्यासकार]] |
मुख्य रचनाएँ | 'पथ की खोज', 'छायावाद का पतन', 'सहित्य और संस्कृति', 'अजय की डायरी', 'संस्कृति का दार्शनिक विवेचन', 'प्रतिक्रियाएँ' आदि। |
भाषा | हिन्दी |
प्रसिद्धि | आलोचक |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | देवराज नन्दकिशोर मूलत: चिंतक हैं और उनकी साहित्य-चिंता भी उनकी व्यापक संस्कृति-चिंता के अंतर्गत उपलक्ष्य रूप में ही है। वे मानववादी परम्परा के विचारक हैं। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
देवराज नन्दकिशोर (अंग्रेज़ी: Devraj Nandkishore ; जन्म- 1917, रामपुर, उत्तर प्रदेश) की गणना हिन्दी के प्रतिष्ठित आलोचकों में होती है। वे मूलत: चिंतक हैं और उनकी साहित्य-चिंता भी उनकी व्यापक संस्कृति-चिंता के अंतर्गत उपलक्ष्य रूप में ही है। आलोचना में उनका आग्रह सांस्कृतिक आभिजात्य के अपने विशिष्ट आग्रह और दृष्टिकोण से ही साहित्य को देखने-परखने का है। वे मानववादी परम्परा के विचारक हैं और कृति की बजाय कृतित्व के लिए आवश्यक वातावरण और प्रेरणाओं को स्पष्ट करने में सहज उत्साह अनुभव करते हैं।
जन्म
देवराज नन्दकिशोर का जन्म 1917 ई. में रामपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। बहुत समय तक आप 'लखनऊ विश्वविद्यालय' के दर्शन विभाग में प्राध्यापक रहे। फिर 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' में 'उच्चानुशीलन दर्शन केन्द्र' के निदेशक रहे।
चिंतक
देवराज नन्दकिशोर मूलत: चिंतक हैं और उनकी साहित्य-चिंता भी उनकी व्यापक संस्कृति-चिंता के अंतर्गत उपलक्ष्य रूप में ही है। आलोचना में उनका आग्रह सांस्कृतिक आभिजात्य के अपने विशिष्ट आग्रह और दृष्टिकोण से ही साहित्य को देखने-परखने का है। वे मानववादी परम्परा के विचारक हैं और कृति की बजाय कृतित्व के लिए आवश्यक वातावरण और प्रेरणाओं को स्पष्ट करने में सहज उत्साह का अनुभव करते हैं। 'क्लासिक्स' के प्रति उनका उत्साह संक्रामक है और उनके निबन्ध उनके विस्तृत अध्ययन तथा सुरुचिसम्पन्नता के कारण हमेशा पठनीय होते हैं। 'हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति: एक निवेदन', 'भारतीय दर्शन और विश्व-दर्शन', 'हमारी सांस्कृतिक समस्या' 'आदिकाव्य' जैसे निबन्धों की उपयोगिता आज भी कम नहीं हुई है।[1]
व्यापक दृष्टिकोण
यह तो नहीं कहा जा सकता कि देवराज पुराने कवियों- वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास आदि का आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन करने में सफल हो गए हैं, क्योंकि उसके लिए शायद दूसरी क्षमताएँ भी गंभीर और एकाग्र अध्यवसाय के अलावा अपेक्षित थीं। किंतु इस अत्यावश्यक उद्यम के प्रति हिन्दी आलोचकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए तथा अपने छिटपुट प्रयत्नों द्वारा इस दिशा में समुचित उत्तेजन देने के लिए हिन्दी जगत् उनका ऋणी रहेगा। उनका 'रामचरितमानस: एक मूल्यांकन' शीर्षक निबन्ध इस दृष्टि से काफ़ी रोचक है। यों भी देवराज ने काफ़ी संतुलित ढंग से समाजवादी और व्यक्तिवादी विचार पद्धतियों को ग्रहण किया है। उनमें कट्टर सिद्धांतवादिता नहीं है; व्यापक दृष्टिकोण है।
डायरी शिल्प
उपन्यास में देवराज नन्दकिशोर की स्थिति आलोचना की अपेक्षा बेहतर है। यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि 'अजय की डायरी' हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट उपन्यासों में है, किंतु फिर भी यहाँ लेखक का आत्मदान अधिक ठोस है। देवराज के व्यक्तित्व का उनके सांस्कृतिक अर्जन का, चिंतनशील मस्तिष्क का अधिक साफ और प्रत्यक्ष उपयोग इस उपन्यास में हुआ है। डायरी शिल्प का ऐसा समर्थ उपयोग शायद ही कहीं और मिले। उनका विशिष्ट जीवनानुभव और व्यक्तित्व जो अपेषित तीव्रता और निष्कवचता और सूक्ष्म शब्द-संवेदना के अभाव में कविता नहीं बन पाता और उच्चकोटि आलोचक कर्म के लिए अपेक्षित एकाग्रता और निस्संगता नहीं जुटा पाता, वह इस आत्मकथात्मक डायरी-शिल्प की सुविधा वाले उपन्यास में अपना सहज-स्वाभिक उन्मोचन यथा संभब पा लेता प्रतीत होता है।
व्यक्तित्व
विद्वत्ता की गहराई और व्यक्तित्व की जटिल समृद्धि कविता और आलोचना दोनों को फल सकती है और फलती ही है। पर शायद इन दोनों ही क्षेत्रों में कमाल करने के लिए एक प्रकार की चरमता भी चाहिए: आसक्ति और अनासक्ति दोनों की चरमता, जोकि संस्कृति या किसी भी कवच को फाड़ देने वाली चीज है। देवराज के व्यक्तित्व में यह चरमता नहीं है। इसलिए उनकी आलोचना और कविता दोनों ही एक सामान्य दक्षता के धरातल से ऊपर कभी नहीं उठ पाती। परिष्कार अवश्य है और खरी जिज्ञासु-वृत्ति भी, जो उनके लेखों को पठनीय बनती है। हिन्दी लेखन और हिन्दी आलोचना का स्तर कैसे ऊँचा उठाया जाय, यह चिंता और तद्विषयक उत्साह इन लेखों में लगातार अनुभव किया जा सकता है।[1]
रचनाएँ
देवराज नन्दकिशोर की मुख्य रचनाएँ निम्नलिखित हैं[1]-
- 'पथ की खोज' (उपन्यास, 1951)
- 'साहित्य-चिंता'
- 'आधुनिक समीक्षा' (1954)
- 'छायावाद का पतन' (1948)
- 'सहित्य और संस्कृति' (1958)
- 'अजय की डायरी' (उपन्यास, 1960)
- 'संस्कृति का दार्शनिक विवेचन' (1966)
- 'इतिहास पुरुष' (कविता संग्रह, 1965)
- 'प्रतिक्रियाएँ' (1966)
- 'मैं वे और आप' (उपन्यास, 1969)
'आलोचना सम्बन्धी मेरी मान्यताएँ' में देवराज का कथन है कि "आलोचक में यह क्षमता अपेक्षित नहीं है कि वह साहित्यकार की भाँति जीवन की जटिलताओं को स्वयं देख सके, किंतु उसमें इतनी योग्यता अवश्य होनी चाहिए कि वह लेखक की दृष्टि या सूझ की दाद दे सके। वस्तुत: लेखक और समीक्षक में मुख्य अंतर यह होता है कि जहाँ द्वितीय में चेतना अधिक स्पष्ट और मूर्त्त होती है।" आलोचना कर्म के विषय में देवराज की यह धारणा छिछली और भ्रामक है। लॉरेंस तक स्वीकार करता है कि- "लेखक की ही तरह आलोचक में भी जटिलता और जीवंतता का संयोग अनिवार्य है।" देवराज के निबन्धों में कई अंतर्विरोधी बातें एक साथ दिखाई देती हैं, जो प्रतिपादन की शास्त्रीय स्वच्छता और सदाशय चिंतनशीलता से हल नहीं हो जातीं।
उपन्यासों की केन्द्रीय चिंता
देवराज नन्दकिशोर की सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'संस्कृति का दार्शनिक विवेचन' है। भारतीय भाषाओं में कदिचित यह अपने ढंग की अकेली पुस्तक है। देवराज नन्दकिशोर के उपन्यासों की केन्द्रीय चिंता यह है कि क्या सांस्कृतिक अभिरुचि या बौद्धिकता स्त्री-पुरुष के बीच के सम्बन्ध को पूरी सार्थकता देने के लिए पर्याप्त है। 'अजय की डायरी' में यह चिंता अधिक गहरे विन्यस्त है; उसमें नायक का अंतर्द्वन्द्व भी अधिक गहरा और अनेक जीवन-सन्दर्भों के चिंतन की जटिलता से युक्त है। लेखक की बौद्धिक संस्कृति का ही नहीं, उसकी संवेदना और अनुभवशीलता की भी क्षमताओं और सीमाओं का भी सही-सही अन्दाज इस पुस्तक से लगाया जा सकता है। चरित्र की पकड़ यहाँ आकर अधिक मजबूत हुई है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
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