प्रताप नारायण सिंह

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प्रताप नारायण सिंह (उपनाम- 'ददुआ साहब') अयोध्या के महाराज थे। इन्होंने सन 1894 ई. (1951 वि.) में ‘रसकुसुमाकर’ नामक ग्रंथ लिखा, जो 'इण्डियन प्रेस', इलाहाबाद से मुद्रित हुआ था। इसमें रस के अंगों की सुंदर विवेचना और उदाहरण मिलते हैं।[1]

'रसकुसुमाकर'

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

प्रताप नारायण सिंह द्वारा रचित 'रसकुसुमाकर' ग्रंथ पन्द्रह कुसुमों में लिखा गया है। प्रथम कुसुम में परिचय है, द्वितीय में स्थायी भावों का निरूपण है। इसी प्रकार तृतीय में संचारी भाव, चतुर्थ में अनुमान और पंचम में घरों का लालित्यपूर्ण वर्णन हुआ है। शेष अन्य कुसुमों में, सखा, सखी, दूती, ऋतुवर्णन और परकीया आदि नायिकाओं का उल्लेख हुआ है। इस ग्रंथ की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि रीति काल के उत्तम शृंगारिक कवियों से उदाहरण चुनने में ददुआ साहब ने बड़ी सहृदयता प्रदर्शित की है। ग्रंथ में स्थल-स्थल पर देव, बिहारी, पद्माकर, बेनी, द्विजदेव, लीलाधर, कमलापति, लछिराम और संकु आदि के टकसाली छन्द आसानी से मिल जायेंगे।

‘रसकुसुमाकर’ में लक्षण गद्य में दिये गए हैं और विषयों का सुंदर तथा व्यवस्थित विवेचन उपस्थित किया गया है। इस ग्रंथ में आये उदाहरण बड़े सुंदर हैं। उदाहरण के रूप में देव, पद्माकर, बेनी, द्विजदेव, लीलाधर, कमलापति, संभु आदि कवियों के सुंदर छन्द दिये गए हैं। उदाहरणों के चुनाव में ददुआ जी (महाराजा साहब) की सहृदयता और रसिकता प्रकट होती है। इस ग्रंथ के अंतर्गत अनेक भावों,संचारियों और अनुभावों के चित्र भी दिये गए हैं, जो बड़े सुंदर और अर्थ के द्योतक हैं। शृंगार रस का विवेचन विशेषरोचकता और पूर्णताके साथ हुआ है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 प्रतापनारायण सिंह (हिन्दी) गूगलबुक्स। अभिगमन तिथि: 11 जून, 2015।

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