रवीन्द्रनाथ त्यागी

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रवीन्द्रनाथ त्यागी
पूरा नाम रवीन्द्रनाथ त्यागी
जन्म 9 मई, 1930
जन्म भूमि कस्बा नहटौर, ज़िला बिजनौर, उत्तर प्रदेश
अभिभावक माता- चमेली देवी

पिता- पंडित मुरारीदत्त शर्मा

कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र लेखक
शिक्षा एम.ए. अर्थशास्त्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
पुरस्कार-उपाधि राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान, 1998
प्रसिद्धि व्यंग्यकार और लेखक
नागरिकता भार्तीय
अन्य जानकारी रवीन्द्रनाथ त्यागी जी का मानना था कि समाज की कुरीतियों का भंडाफोड़ केवल और केवल व्यंग्य द्वारा ही हो सकता है और उसमें हास्य भी समाविष्ट हो जाए तो व्यंग्य का रंग और तेज हो जाता है।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

रवीन्द्रनाथ त्यागी (अंग्रेज़ी: Ravindranath Tyagi, जन्म- 9 मई, 1930) प्रसिद्ध भारतीय व्यंग्यकार और लेखक थे। बहुत कम ही लोग जानते हैं कि त्यागी जी जितने अच्छे व्यंग्यकार थे, उतने ही बड़े कवि भी थे। एक आलोचक की मानें तो उनके साहित्यिक जीवन की सबसे बड़ी बात यही थी कि उनके व्यंग्यकार की लोकप्रियता ने एक बार उनके कवि की गरदन दबोची, तो फिर जीवन भर नहीं छोड़ी। हिन्दी में व्यंग्य आज एक प्रतिष्ठित विधा है तो इसका श्रेय उसको इस रूप में गढ़ने में हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल और शरद जोशी के साथ रवीन्द्रनाथ त्यागी द्वारा किये गये अप्रतिम सृजन को जाता है। रवीन्द्रनाथ त्यागी को वर्ष 1998 में प्रतिष्ठित 'राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान' से नवाजा गया था।

परिचय

रवीन्द्रनाथ त्यागी का जन्म 9 मई, 1930 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के नहटौर कस्बे में माता चमेली देवी के गर्भ से हुआ और वे अपना समूचा बाल्यकाल घोर अभावों के बीच गुजारने को अभिशप्त रहे। इसके लिए पिता पंडित मुरारीदत्त शर्मा की अकर्मण्यता को उन्होंने कभी माफ नहीं किया। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो अभावों के दौर में जिंदगी उनके साथ प्रायः हमेशा जंग खाए मजाक की तरह पेश आती रही। फिर भी उन्होंने अपनी मेधा को कुंठित नहीं होने दिया और अत्यंत दारुण परिस्थितियों के बीच इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में एम.ए. की परीक्षा सर्वोच्च स्थान पाकर उत्तीर्ण की। इसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ।[1]

इससे पहले की परीक्षाओं में भी उन्होंने एकमात्र अपने दृढ़ मनोबल के सहारे प्रथम श्रेणी और विशेष योग्यताएं पायी थीं। 1955 में उनका इंडियन डिफेंस एकाउंट्स सर्विस में अफसर के रूप में चयन हुआ और आर्थिक स्थितियां अनुकूल हुईं तो भी 36 साल की सेवावधि में उनके स्वाभिमानी व्यंग्यकार को यही लगता रहा कि यह नौकरी उसे निगलती जा रही है। नौकरी कितनी भी सुभीते की हो, वह किसी सर्जक को निर्बाध सर्जना कहां करने देती है। प्रतिभा और आत्मसम्मान की यह दुश्मन उसमें बाधा बनकर तो खड़ी ही होती है। लेकिन इस बाधा के बावजूद 4 सितंबर, 2004 को देहरादून में साहित्य-संसार को अलविदा कहने से पहले रवीन्द्रनाथ त्यागी उसको इतना कुछ दे चुके थे कि पूरे संतोष के साथ महाप्रयाण कर सकते थे।

लेखन कार्य

महाप्रयाण से पहले तक रवीन्द्रनाथ त्यागी अपने कृतित्व में 34 हास्य व्यंग्य संग्रह जोड़ चुके थे, जिनमें से कई का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया था। उनका पहला संग्रह ‘खुली धूप में नाव पर’ 1963 में तो आखिरी ‘बसंत से पतझड़ तक’ उनके निधन के बाद 2005 में छपा। 1980 में ‘अपूर्ण कथा’ नाम से उनका एक उपन्यास भी आया था जबकि इससे पहले 1978 में उन्होंने ‘उर्दू हिन्दी हास्य व्यंग्य’ नाम से एक बड़ा ही प्रतिष्ठापूर्ण और दीर्घकालिक महत्व का संकलन संपादित किया था।

आज बहुत कम ही लोग जानते हैं कि त्यागी जी जितने अच्छे व्यंग्यकार उतने ही बड़े कवि भी थे। एक आलोचक की मानें तो उनके साहित्यिक जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यही थी कि उनके व्यंग्यकार की लोकप्रियता ने एक बार उनके कवि की गरदन दबोची तो फिर यावत्जीवन छोड़ी ही नहीं। यह तब था जब उनके कविता संग्रह ‘सलीब से नाव तक’ के बारे में वरिष्ठ कवि हरिवंशराय बच्चन का मानना था कि उसे कम से कम दो बार ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार' दिया जाना चाहिए, क्योंकि अज्ञेय को ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर एक बार दिया जा चुका है।[1]

अपने कवि के बारे में खुद त्यागी जी की काव्य पंक्ति है- "जिसने देखा नहीं मेरा कवि, उसने देखी नहीं मेरी सच्ची छवि", जबकि रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी सहृदयता और स्वतंत्रता को त्यागी जी के कवि के सबसे बड़े गुणों में गिनते थे।

फांसी पर टंग गया आकाश

रवीन्द्रनाथ त्यागी के कवि की चिंताओं की बात करें तो उनकी एक छवि उनकी ‘फांसी पर टंग गया आकाश’ शीर्षक इस कविता में भी देखी जा सकती है-

फांसी पर टंग गया आकाश
समुद्र अपने ही भंवर में डूब गया

खाइयों में से निकलकर सहसा
वे सब मारने लगे उन्हें
जिन्हें वे जानते तक नहीं थे

पहले मरा संगीत
फिर मरे, प्रेम, यौवन और रूप
दक्षिण दिशा को घोड़ा फेंकता राजकुमार
और इसके बाद मर गए वे,
सब के सब खुद भी

तोपों के कब्रिस्तान में
दफ्न हो गया बारूद का बूढ़ा जादूगर
वे सबके सब किसलिए मरे थे
इसका पता उन्हें कभी नहीं लगा।

सपना रहा 'ज्ञानपीठ'

रवीन्द्रनाथ त्यागी के निकट दूसरी बड़ी ट्रेजेडी यह थी कि उनके रहते उन्हें तेरह अन्य पुरस्कार व अलंकरण तो मिले, जिनमें से कई खासे प्रतिष्ठित माने जाते हैं, लेकिन ‘ज्ञानपीठ’ उनके लिए सपना ही बना रहा। बाद में इस और कई अन्य कारणों से वे खासे अवसादग्रस्त रहने लगे थे। एक बार तो उन्होंने लिखा भी कि अपनी लंबी साहित्य-साधना से यश छोड़कर उन्हें कुछ नहीं मिला। उन्हीं के शब्दों में, ‘पेंशन न होती तो घर में चूल्हा तक न जल पाता क्योंकि बेईमान प्रकाशक रायल्टी तो नहीं ही देते, ऊपर से उपदेश देते हुए कहते हैं कि व्यंग्य और कविता छोड़िए, अपराध, सेक्स, जासूसी, अनैतिक प्रेम वगैरह पर लिखिए जबकि पुरस्कारों के साथ अनेक विसंगतियां जोड़ दी गयी हैं।’ लेकिन उनका बड़प्पन देखिये कि दुख और शोक दोनों से ‘पानीपत की चौथी लड़ाई’ लड़ते हुए भी उन्होंने उन्हें हमेशा अपनी ‘निजी संपत्ति’ ही समझा और अपने व्यंग्यकार के साथ कभी भी उनका साझा नहीं किया, इसलिए उनका व्यंग्यकार शुरू से अंत तक एक जैसा उत्फुल्ल नजर आता है।[1]

कुशल व्यंग्यकार

कहानीकार राधाकृष्ण की मानें तो उनके हास्य व्यंग्यों में लाठी से बांसुरी बजाने की कला दिखती है लेकिन आलोचक पुष्पपाल सिंह इससे असहमति जताते हुए कहते हैं कि वास्तव में त्यागी जी लाठी से बांसुरी नहीं बजाते, बांसुरी से चाबुक सटकारने का काम लेते हैं। जो भी हो, रवीन्द्रनाथ त्यागी के व्यंग्य का कैनवास बहुत बड़ा है और उनकी अध्ययनशीलता तो अपना सानी ही नहीं रखती। इसीलिए वे डायरी, पत्र, यात्रा वृत्तांत, मिनी कथा, लघुकथा, शिकारकथा, संस्मरण, आत्मकथ्य, उपन्यास, समीक्षा और शोध आदि गद्य की अनेक विधाओं को समृद्ध कर पाये।

कई विधाओं में उनकी जैसी कुशलता से हास्य व्यंग्य की बहुरंगी व बहुआयामी छटा बिखेरना न उनके समय में कोई आसान काम न था और न आज है। उनका मानना था कि समाज की कुरीतियों का भंडाफोड़ केवल और केवल व्यंग्य द्वारा ही हो सकता है और उसमें हास्य भी समाविष्ट हो जाए तो व्यंग्य का रंग और तेज हो जाता है। आज की तारीख में उनके व्यंग्यों से गुजरते हुए यह देखकर अच्छा लगता है कि अपनी सरकारी नौकरी की बंदिशों की ज्यादा परवाह न करते हुए रवीन्द्रनाथ त्यागी ने अपनी रचनाओं में दफ्तरी गलाजत पर खूब खुलकर और निडर भाव से, उसके भीतरी प्रकोष्ठों तक जाकर आक्रमण किया।

नौकरी की बंदिश

यह और बात है कि समाज के साथ सरकार की व्यवस्था की अव्यवस्थाओं को भी भरपूर निशाने पर लेने के बावजूद उनके भीतर यह असंतोष बना रहता था कि नौकरी के कारण उनपर थोप दिए गए सरकारी अनुशासन के चलते वे ऐसी बहुत-सी गलाजतों को व्यंग्य के क्षेत्र में नहीं ला पाए, जिन्हें प्रशासक होने के नाते वे गहराई से जानते थे। हमारे यहां शायद इसीलिए असंतोष को श्रीवृद्धि का मूल कहा गया है- 'असंतोषः श्रियो मूलम्!' इस रूप में यह असंतोष भी रवीन्द्रनाथ त्यागी को बड़ा ही बनाता है।

‘अच्छी हिन्दी’ शीर्षक व्यंग्य में उन्होंने अपने एक ऐसे असंतोष का जिक्र भी किया है, जिससे उनका रक्त खौलने लगता था। उन्होंने लिखा है[1]-

"मैं हिन्दी का लेखक हूं। लेखक की सबसे बड़ी पूंजी उसकी भाषा होती है। नितांत गरीबी की स्थिति में भी उर्दू के महान कवि मीर तकी मीर ने एक सेठ जी से, जिनकी गाड़ी में वे बिना टिकट यात्रा कर रहे थे, सिर्फ इस कारण बातचीत करने से इनकार कर दिया था कि उन्हें वैसा करने से अपनी जबान खराब हो जाने का खतरा था। मगर दुख की बात यह है कि ऐसा लगता है जैसे कि सारी सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने इस बात का निश्चय कर लिया है कि मेरी भाषा खराब हो जाए। इन प्रयत्नों को देखकर मेरा रक्त खौलने लगता है और समझ में नहीं आता कि क्या करूं। क्या मुद्रण और क्या अनुवाद और क्या उच्चारण और क्या व्याकरण-हिंदी जो है वह सारे क्षेत्रों में वीरगति प्राप्त करती जा रही है।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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