हरिशंकर परसाई: Difference between revisions

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हरिशंकर परसाई की [[भाषा]] में व्यंग्य की प्रधानता है। उनकी भाषा सामान्य और सरंचना के कारण विशेष क्षमता रखती है। उनके एक-एक शब्द में व्यंग्य के तीखेपन को स्पष्ट देखा जा सकता है। लोकप्रचलित [[हिंदी]] के साथ-साथ [[उर्दू]], [[अंग्रेज़ी]] शब्दों का भी उन्होंने खुलकर प्रयोग किया है। परसाईजी की अलग-अलग रचनाओं में ही नहीं, किसी एक रचना में भी भाषा, भाव और भंगिया के प्रसंगानुकूल विभिन्न रूप और अनेक स्तर देखे जा सकते हैं। प्रसंग बदलते ही उनकी भाषा-शैली में जिस सहजता से वांछित परिवर्तन आते-जाते हैं, और उससे एक निश्चित व्यंग्य उद्देश्य की भी पूर्ति होती है, उनकी यह कला, चकित कर देने वाली है। परसाईजी की एक रचना की यह पंक्तियाँ कि- 'आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा'- 'राजा रंक फकीर' में सूफियाना अंदाज है, तो वहीं दूसरी ओर ठेठ सड़क–छाप दवाफरोश की यह बाकी अदा भी दर्शनीय है- "निंदा में [[विटामिन]] और [[प्रोटीन]] होते हैं। निंदा ख़ून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशिया पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है।"
हरिशंकर परसाई की [[भाषा]] में व्यंग्य की प्रधानता है। उनकी भाषा सामान्य और सरंचना के कारण विशेष क्षमता रखती है। उनके एक-एक शब्द में व्यंग्य के तीखेपन को स्पष्ट देखा जा सकता है। लोकप्रचलित [[हिंदी]] के साथ-साथ [[उर्दू]], [[अंग्रेज़ी]] शब्दों का भी उन्होंने खुलकर प्रयोग किया है। परसाईजी की अलग-अलग रचनाओं में ही नहीं, किसी एक रचना में भी भाषा, भाव और भंगिया के प्रसंगानुकूल विभिन्न रूप और अनेक स्तर देखे जा सकते हैं। प्रसंग बदलते ही उनकी भाषा-शैली में जिस सहजता से वांछित परिवर्तन आते-जाते हैं, और उससे एक निश्चित व्यंग्य उद्देश्य की भी पूर्ति होती है, उनकी यह कला, चकित कर देने वाली है। परसाईजी की एक रचना की यह पंक्तियाँ कि- 'आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा'- 'राजा रंक फकीर' में सूफियाना अंदाज है, तो वहीं दूसरी ओर ठेठ सड़क–छाप दवाफरोश की यह बाकी अदा भी दर्शनीय है- "निंदा में [[विटामिन]] और [[प्रोटीन]] होते हैं। निंदा ख़ून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशिया पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है।"


संतों का प्रसंग आने पर हरिशंकर परसाई का शब्द वाक्य-संयोजन और शैली, सभी कुछ एकदम बदल जाता है, जैसे- "संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। मो सम कौन कुटिल खल कामी- यह संत की विनय और आत्मस्वीकृति नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काइंयां होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।" एक अन्य रचना में वे "पैसे में बड़ा विटामिन होता है" लिखकर ताकत की जगह 'विटामिन' शब्द से वांछित प्रभाव पैदा कर देते हैं, जैसे बुढ़ापे में बालों की सफेदी के लिए 'सिर पर कासं फूल उठा' या कमजोरी के लिए 'टाईफाइड ने सारी बादाम उतार दी।' जब वे लिखते हैं कि 'उनकी बहू आई और बिना कुछ कहे, दही-बड़े डालकर झम्म से लौट गई' तो इस 'झम्म से' लौट जाने से ही झम्म-झम्म पायल बजाती हुई नई-नवेली बहू द्वारा तेजी से थाली में दही-बड़े डालकर लौटने की समूची क्रिया साकार हो जाती है। एक सजीव और गतिशील बिंब मूर्त्त हो जाता है। जब वे लिखते हैं कि- 'मौसी टर्राई' या 'अश्रुपात होने लगा' तो मौसी सचमुच टर्राती हुई सुन पड़ती है और आंसुओं की झड़ी लगी नजर आती है। 'टर्राई' जैसे देशज और 'अश्रुपात' जैसे तत्सम शब्दों के बिना रचना में न तो यह प्रभाव ही उत्पन्न किया जा सकता था और न ही इच्छित व्यंग्य।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=6431|title=हरिशंकर परसाई की संकलित रचनाएँ|accessmonthday=10 अगस्त|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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====सम्मान और पुरस्कार====
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*[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]] - 'विकलांग श्रद्धा का दौर' के लिए
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*शरद जोशी सम्मान
*शरद जोशी सम्मान
==निधन==
==निधन==
अपनी हास्य व्यंग्य रचनाओं से सभी के मन को भा लेने वाले हरिशंकर परसाई का निधन [[10 अगस्त]], [[1995]] को [[जबलपुर]], [[मध्य प्रदेश]] में हुआ। परसाई जी मुख्यतः व्यंग लेखक थे, किंतु उनका व्यंग केवल मनोरंजन के लिए नहीं है। उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठकों का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों की ओर आकृष्ट किया था, जो हमारे जीवन को दूभर बना रही हैं। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर अपनी व्यंग रचनाओं के माध्यम से करारे प्रहार किए हैं। उनका हिन्दी व्यंग साहित्य अनूठा है। परसाईजी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप में परिभाषित करते थे। उनकी मान्यता थी कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता। हरिशंकर परसाई ने [[हिन्दी साहित्य]] में व्यंग विधा को एक नई पहचान दी और उसे एक अलग रूप प्रदान किया, जिसके लिए हिन्दी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा।
अपनी हास्य व्यंग्य रचनाओं से सभी के मन को भा लेने वाले हरिशंकर परसाई का निधन [[10 अगस्त]], [[1995]] को [[जबलपुर]], [[मध्य प्रदेश]] में हुआ। परसाई जी मुख्यतः व्यंग लेखक थे, किंतु उनका व्यंग केवल मनोरंजन के लिए नहीं है। उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठकों का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमज़ोरियों और विसंगतियों की ओर आकृष्ट किया था, जो हमारे जीवन को दूभर बना रही हैं। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर अपनी व्यंग रचनाओं के माध्यम से करारे प्रहार किए हैं। उनका हिन्दी व्यंग साहित्य अनूठा है। परसाईजी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप में परिभाषित करते थे। उनकी मान्यता थी कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता। हरिशंकर परसाई ने [[हिन्दी साहित्य]] में व्यंग विधा को एक नई पहचान दी और उसे एक अलग रूप प्रदान किया, जिसके लिए हिन्दी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा।


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Revision as of 14:01, 13 November 2014

हरिशंकर परसाई
पूरा नाम हरिशंकर परसाई
जन्म 22 अगस्त, 1922
जन्म भूमि जमानी गाँव, होशंगाबाद ज़िला, मध्य प्रदेश
मृत्यु 10 अगस्त, 1995
मृत्यु स्थान जबलपुर, मध्य प्रदेश
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र लेखक और व्यंग्यकार
मुख्य रचनाएँ 'तब की बात और थी', 'बेईमानी की परत', 'भोलाराम का जीव', 'विकलांग श्रद्धा का दौरा', 'ज्वाला और जल' आदि।
विषय सामाजिक
भाषा हिंदी
विद्यालय 'नागपुर विश्वविद्यालय'
शिक्षा एम.ए. (हिंदी)
पुरस्कार-उपाधि 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'शिक्षा सम्मान', 'शरद जोशी सम्मान'
प्रसिद्धि व्यंग्यकार व रचनाकार
नागरिकता भारतीय
विधाएँ निबंध, कहानी, उपन्यास, संस्मरण
अन्य जानकारी हरिशंकर परसाई 'कार्ल मार्क्स' से अधिक प्रभावित थे। उनकी प्रमुख रचनाओं में "सदाचार का ताबीज" प्रसिद्ध रचनाओं में से एक थी, जिसमें रिश्वत लेने-देने के मनोविज्ञान को उन्होंने प्रमुखता के साथ उकेरा है।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

हरिशंकर परसाई (अंग्रेज़ी: Harishankar Parsai, जन्म- 22 अगस्त, 1922, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश; मृत्यु- 10 अगस्त, 1995, जबलपुर) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार थे। ये हिंदी के पहले रचनाकार थे, जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को हरिशंकर परसाई ने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा-शैली में एक ख़ास प्रकार का अपनापन नज़र आता है।

जीवन परिचय

हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1922 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले में 'जमानी' नामक गाँव में हुआ था। गाँव से प्राम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे नागपुर चले आये थे। 'नागपुर विश्वविद्यालय' से उन्होंने एम. ए. हिंदी की परीक्षा पास की। कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया। इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र लेखन प्रारंभ कर दिया। उन्होंने जबलपुर से साहित्यिक पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन भी किया, परन्तु घाटा होने के कारण इसे बंद करना पड़ा। हरिशंकर परसाई जी ने खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। उनकी भाषा-शैली में ख़ास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है।

कार्यक्षेत्र

मात्र अठारह वर्ष की उम्र में हरिशंकर परसाई ने 'जंगल विभाग' में नौकरी की। वे खण्डवा में छ: माह तक बतौर अध्यापक भी नियुक्त हुए थे। उन्होंन ए दो वर्ष (19411943 में) जबलपुर में 'स्पेस ट्रेनिंग कॉलिज' में शिक्षण कार्य का अध्ययन किया। 1943 से हरिशंकर जी वहीं 'मॉडल हाई स्कूल' में अध्यापक हो गये। किंतु वर्ष 1952 में हरिशंकर परसाई को यह सरकारी नौकरी छोड़ी। उन्होंने वर्ष 1953 से 1957 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। 1957 में उन्होंने नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत की।

पूछिये परसाई से

हरिशंकर परसाई जबलपुर-रायपुर से निकलने वाले अख़बार 'देशबंधु' में पाठकों द्वारा पूछे जाने वाले उनके अनेकों प्रश्नों के उत्तर देते थे। अख़बार में इस स्तम्भ का नाम था- "पूछिये परसाई से"। पहले इस स्तम्भ में हल्के इश्किया और फ़िल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों की ओर भी प्रवृत्त किया। कुछ समय बाद ही इसका दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अख़बार का बड़ी बेचैनी से इंतज़ार करते थे।[1]

साहित्यिक परिचय

हरिशंकर परसाई जी की पहली रचना "स्वर्ग से नरक जहाँ तक" है, जो कि मई 1948 में प्रहरी में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ पहली बार जमकर लिखा था। धार्मिक खोखला पाखंड उनके लेखन का पहला प्रिय विषय था। वैसे हरिशंकर परसाई कार्लमार्क्स से अधिक प्रभावित थे। परसाई जी की प्रमुख रचनाओं में "सदाचार का ताबीज" प्रसिद्ध रचनाओं में से एक थी जिसमें रिश्वत लेने देने के मनोविज्ञान को उन्होंने प्रमुखता के साथ उकेरा है।

रचनाएँ

निबंध संग्रह
  • तब की बात और थी
  • भूत के पाँव पीछे
  • बेईमानी की परत
  • पगडण्डियों का जमाना
  • शिकायत मुझे भी है
  • सदाचार का ताबीज
  • और अंत मे
  • प्रेमचन्द के फटे जूते
  • माटी कहे कुम्हार से
  • काग भगोड़ा
कहानी संग्रह
  • हँसते हैं रोते हैं
  • जैसे उनके दिन फिरे
  • भोलाराम का जीव
  • दो नाकवाले लोग
उपन्यास
  • रानी नागफनी की कहानी
  • तट की खोज
  • ज्वाला और जल
व्यंग्य संग्रह
  • वैष्णव की फिसलन
  • ठिठुरता हुआ गणतंत्र
  • विकलांग श्रद्धा का दौरा
संस्मरण
  • तिरछी रेखाएँ

साहित्यिक विशेषताएँ

पाखंड, बेईमानी आदि पर परसाई जी ने अपने व्यंग्यों से गहरी चोट की है। वे बोलचाल की सामन्य भाषा का प्रयोग करते हैं और चुटीला व्यंग्य करने में परसाई जी बेजोड़ हैं।

भाषा शैली

हरिशंकर परसाई की भाषा में व्यंग्य की प्रधानता है। उनकी भाषा सामान्य और सरंचना के कारण विशेष क्षमता रखती है। उनके एक-एक शब्द में व्यंग्य के तीखेपन को स्पष्ट देखा जा सकता है। लोकप्रचलित हिंदी के साथ-साथ उर्दू, अंग्रेज़ी शब्दों का भी उन्होंने खुलकर प्रयोग किया है। परसाईजी की अलग-अलग रचनाओं में ही नहीं, किसी एक रचना में भी भाषा, भाव और भंगिया के प्रसंगानुकूल विभिन्न रूप और अनेक स्तर देखे जा सकते हैं। प्रसंग बदलते ही उनकी भाषा-शैली में जिस सहजता से वांछित परिवर्तन आते-जाते हैं, और उससे एक निश्चित व्यंग्य उद्देश्य की भी पूर्ति होती है, उनकी यह कला, चकित कर देने वाली है। परसाईजी की एक रचना की यह पंक्तियाँ कि- 'आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा'- 'राजा रंक फकीर' में सूफियाना अंदाज है, तो वहीं दूसरी ओर ठेठ सड़क–छाप दवाफरोश की यह बाकी अदा भी दर्शनीय है- "निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा ख़ून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशिया पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है।"

संतों का प्रसंग आने पर हरिशंकर परसाई का शब्द वाक्य-संयोजन और शैली, सभी कुछ एकदम बदल जाता है, जैसे- "संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। मो सम कौन कुटिल खल कामी- यह संत की विनय और आत्मस्वीकृति नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काइंयां होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।" एक अन्य रचना में वे "पैसे में बड़ा विटामिन होता है" लिखकर ताकत की जगह 'विटामिन' शब्द से वांछित प्रभाव पैदा कर देते हैं, जैसे बुढ़ापे में बालों की सफेदी के लिए 'सिर पर कासं फूल उठा' या कमज़ोरी के लिए 'टाईफाइड ने सारी बादाम उतार दी।' जब वे लिखते हैं कि 'उनकी बहू आई और बिना कुछ कहे, दही-बड़े डालकर झम्म से लौट गई' तो इस 'झम्म से' लौट जाने से ही झम्म-झम्म पायल बजाती हुई नई-नवेली बहू द्वारा तेजी से थाली में दही-बड़े डालकर लौटने की समूची क्रिया साकार हो जाती है। एक सजीव और गतिशील बिंब मूर्त्त हो जाता है। जब वे लिखते हैं कि- 'मौसी टर्राई' या 'अश्रुपात होने लगा' तो मौसी सचमुच टर्राती हुई सुन पड़ती है और आंसुओं की झड़ी लगी नजर आती है। 'टर्राई' जैसे देशज और 'अश्रुपात' जैसे तत्सम शब्दों के बिना रचना में न तो यह प्रभाव ही उत्पन्न किया जा सकता था और न ही इच्छित व्यंग्य।[2]

सम्मान और पुरस्कार

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार - 'विकलांग श्रद्धा का दौर' के लिए
  • शिक्षा सम्मान - मध्य प्रदेश शासन द्वारा
  • डी.लिट् की मानद उपाधि - 'जबलपुर विश्वविद्यालय' द्वारा
  • शरद जोशी सम्मान

निधन

अपनी हास्य व्यंग्य रचनाओं से सभी के मन को भा लेने वाले हरिशंकर परसाई का निधन 10 अगस्त, 1995 को जबलपुर, मध्य प्रदेश में हुआ। परसाई जी मुख्यतः व्यंग लेखक थे, किंतु उनका व्यंग केवल मनोरंजन के लिए नहीं है। उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठकों का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमज़ोरियों और विसंगतियों की ओर आकृष्ट किया था, जो हमारे जीवन को दूभर बना रही हैं। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर अपनी व्यंग रचनाओं के माध्यम से करारे प्रहार किए हैं। उनका हिन्दी व्यंग साहित्य अनूठा है। परसाईजी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म के रूप में परिभाषित करते थे। उनकी मान्यता थी कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता। हरिशंकर परसाई ने हिन्दी साहित्य में व्यंग विधा को एक नई पहचान दी और उसे एक अलग रूप प्रदान किया, जिसके लिए हिन्दी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हरिशंकर परसाई, परिचय (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 अगस्त, 2013।
  2. हरिशंकर परसाई की संकलित रचनाएँ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 अगस्त, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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